अर्जुन का पलायन-- अहंकार की ही दूसरी अति
अहो बत महत्पापं कर्तुंव्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।। ४५।।
अहो! शोक है कि हम लोग (बुद्धिमान होकर भी) महान पाप करने को तैयार हुए हैं, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने कुल को मारने के लिए उद्यत हुए हैं।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।। ४६।।
यदि मुझ शस्त्ररहित, न सामना करने वाले को, शस्त्रधारी धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मारें, तो वह मरना भी मेरे लिए अति कल्याणकारक होगा।
संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।। ४७।।
संजय बोले कि रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाला अर्जुन इस प्रकार कहकर बाण सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गया।
अहंकार का स्वर बज रहा है उसमें। वह कह रहा है, मुझे दया आती है। ऐसा कृत्य मैं कैसे कर सकता हूं? कृत्य बुरा है, ऐसा नहीं। ऐसा कृत्य मैं कैसे कर सकता हूं? इतना बुरा मैं कहां हूं! इससे तो उचित होगा, कृष्ण से वह कहता है कि वे सब धृतराष्ट्र के पुत्र मुझे मार डालें। वह ठीक होगा, बजाय इसके कि इतने कुकृत्य को करने को मैं तत्पर होऊं।
अहंकार अपने स्वयं की बलि भी दे सकता है। अहंकार जो आखिरी कृत्य कर सकता है, वह शहीद भी हो सकता है। और अक्सर अहंकारी शहीद होता है, लेकिन शहीद होने से और मजबूत होता है।
अर्जुन कह रहा है कि इससे तो बेहतर है कि मैं मर जाऊं। मैं, अर्जुन, ऐसी स्थिति में कुकृत्य नहीं कर सकूंगा। दया आती है मुझे, यह सब क्या करने को लोग इकट्ठे हुए हैं! आश्चर्य होता है मुझे।
उसकी बात से ऐसा लगता है कि इस युद्ध के बनने में वह बिलकुल साथी-सहयोगी नहीं है। उसने कोई सहयोग नहीं किया है। यह युद्ध जैसे आकस्मिक उसके सामने खड़ा हो गया है। उसे जैसे इसका कुछ पता ही नहीं है। यह जो परिस्थिति बनी है, इसमें वह जैसे भागीदार नहीं है। इस तरह दूर खड़े होकर बात कर रहा है, कि दया आती है मुझे। आंख में आंसू भर गए हैं उसके। नहीं, ऐसा मैं न कर सकूंगा। इससे तो बेहतर है कि मैं ही मर जाऊं, वही श्रेयस्कर है...।
ध्यान रहे, अहंकार अच्छाइयों से भी अपने को भरता है, बुराइयों से भी अपने को भरता है। और अक्सर तो ऐसा होता है कि जब अच्छाइयों से अहंकार को भरने की सुविधा नहीं मिलती, तभी वह बुराइयों से अपने को भरता है।
इसलिए जिन्हें हम सज्जन कहते हैं और जिन्हें हम दुर्जन कहते हैं, उनमें बहुत मौलिक भेद नहीं होता। सज्जन और दुर्जन, एक ही अहंकार की धुरी पर खड़े होते हैं। फर्क इतना ही होता है कि दुर्जन अपने अहंकार को भरने के लिए दूसरों को चोट पहुंचा सकता है। सज्जन अपने अहंकार को भरने के लिए स्वयं को चोट पहुंचा सकता है। चोट पहुंचाने में फर्क नहीं होता।
अर्जुन कह रहा है, इनको मैं मारूं, इससे तो बेहतर है मैं मर जाऊं। दुर्जन--अगर हम मनोविज्ञान की भाषा में बोलें तो-- सैडिस्ट होता है। और सज्जन जब अहंकार को भरता है, तो मैसोचिस्ट होता है। मैसोच एक आदमी हुआ, जो अपने को ही मारता था।
सभी स्वयं को पीड़ा देने वाले लोग जल्दी सज्जन हो सकते हैं। अगर मैं आपको भूखा मारूं, तो दुर्जन हो जाऊंगा। कानून, अदालत मुझे पकड़ेंगे। लेकिन मैं खुद ही अनशन करूं, तो कोई कानून, अदालत मुझे पकड़ेगा नहीं; आप ही मेरा जुलूस निकालेंगे।
लेकिन भूखा मारना आपको अगर बुरा है, तो मुझको भूखा मारना कैसे ठीक हो जाएगा? सिर्फ इसलिए कि यह शरीर मेरे जिम्मे पड़ गया है और वह शरीर आपके जिम्मे पड़ गया है! तो आपके शरीर को अगर कोड़े मारूं और आपको अगर नंगा खड़ा करूं और कांटों पर लिटा दूं, तो अपराध हो जाएगा। और खुद नंगा हो जाऊं और कांटों पर लेट जाऊं, तो तपश्चर्या हो जाएगी! सिर्फ रुख बदलने से, सिर्फ तीर उस तरफ से हटकर इस तरफ आ जाए, तो धर्म हो जाएगा!
अर्जुन कह रहा है, इन्हें मारने की बजाय तो मैं मर जाऊं। वह बात वही कह रहा है; मरने-मारने की ही कह रहा है। उसमें कोई बहुत फर्क नहीं है। हां, तीर का रुख बदल रहा है।
और ध्यान रहे, दूसरे को मारने में कभी इतने अहंकार की तृप्ति नहीं होती, जितना स्वयं को मारने में होती है। क्योंकि दूसरा मरते वक्त भी मुंह पर थूककर मर सकता है। लेकिन खुद आदमी जब अपने को मारता है, तो बिलकुल निहत्था, बिना उत्तर के मरता है। दूसरे को मारना कभी पूरा नहीं होता। दूसरा मरकर भी बच जाता है। उसकी आंखें कहती हैं कि मार डाला भला, लेकिन हार नहीं गया वह! लेकिन खुद को मारते वक्त तो कोई उपाय ही नहीं। हराने का मजा पूरा आ जाता है।
अर्जुन दया की बात करता हो और कृष्ण उससे कहते हैं कि अर्जुन, तेरे योग्य नहीं हैं ऐसी बातें, अपयश फैलेगा--तो वे सिर्फ उसके अहंकार को फुसला रहे हैं।
अब आगे से कृष्ण यहां साइकोएनालिस्ट, मनोविश्लेषक हैं। और अर्जुन सिर्फ पेशेंट है, सिर्फ बीमार है। और उसे सब तरफ से उकसाकर देखना और जगाना जरूरी है। पहली चोट वे उसके अहंकार पर करते हैं।
और स्वभावतः, मनुष्य की गहरी से गहरी और पहली बीमारी अहंकार है। और जहां अहंकार है, वहां दया झूठी है। और जहां अहंकार है, वहां अहिंसा झूठी है। और जहां अहंकार है, वहां शांति झूठी है। और जहां अहंकार है, वहां कल्याण और मंगल और लोकहित की बातें झूठी हैं। क्योंकि जहां अहंकार है, वहां ये सारी की सारी चीजें सिर्फ अहंकार के आभूषण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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