अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।। २६।।
और यदि तू इसको सदा जन्मने और सदा मरने वाला माने, तो भी हे अर्जुन, इस प्रकार शोक करना योग्य नहीं है।
कृष्ण का यह वचन बहुत अदभुत है। यह कृष्ण अपनी तरफ से नहीं बोलते, यह अर्जुन की मजबूरी देखकर कहते हैं। कृष्ण कहते हैं, लेकिन तुम कैसे समझ पाओगे कि आत्मा अमर है? तुम कैसे जान पाओगे इस क्षण में कि आत्मा अमर है? छोड़ो, तुम यही मान लो, जैसा कि तुम्हें मानना सुगम होगा कि आत्मा मर जाती है, सब समाप्त हो जाता है। लेकिन महाबाहो! कृष्ण कहते हैं अर्जुन से, अगर ऐसा ही तुम मानते हो, तब भी मृत्यु के लिए सोच करना व्यर्थ हो जाता है। जो मिट ही जाता है, उसको मिटाने में इतनी चिंता क्या है? जो मिट ही जाएगा--तुम नहीं मिटाओगे तो भी मिट जाएगा--उसको मिटाने में इतने परेशान क्यों हो? और जो मिट ही जाता है, उसमें हिंसा कैसी?
एक यंत्र को तोड़ते वक्त तो हम नहीं कहते कि हिंसा हो गई। एक घड़ी को फोड़ दें पत्थर पर पटककर, तब तो नहीं कहते कि हिंसा हो गई, तब तो हम नहीं कहते कि बड़ा पाप हो गया! क्यों? क्योंकि कुछ भी तो नहीं था घड़ी में, जो न मिटने वाला हो।
तो कृष्ण कहते हैं, जो मिट ही जाने वाले यंत्र की भांति हैं, जिनमें कोई अजर, अमर तत्व ही नहीं है, तो मिटा दो इन यंत्रों को, हर्ज क्या है? फिर चिंतित क्यों होते हो? और कल तुम भी मिट जाओगे, तो किस पर लगेगा पाप? कौन होगा भागीदार पाप का? कौन भोगेगा? कौन किसी यात्रा पर तुम जा रहे हो, जहां कि इनको मारने का जिम्मा और रिस्पांसिबिलिटी तुम्हारी होने को है? तुम भी नहीं बचोगे। ये भी मर जाएंगे, तुम भी मर जाओगे; धूल धूल में गिर जाएगी। तो चिंता क्या करते हो?
लेकिन ध्यान रहे, यह कृष्ण अपनी तरफ से नहीं बोलते। कृष्ण इतनी बात कहकर अर्जुन की आंखों में देखते होंगे, कुछ परिणाम नहीं होता है। परिणाम आसान भी नहीं है। आपकी आंखों में देखूं, तो जानता हूं कि नहीं होता है।
आत्मा अमर है, सुनने से नहीं होता है कुछ। देखा होगा कृष्ण ने कि वह अर्जुन वैसा ही निढाल बैठा है। ये बातें उसके सिर पर से गुजर जाती हैं। सुनता है कि आत्मा अमर है, लेकिन उसकी चिंता में कोई अंतर नहीं पड़ता। तो कृष्ण यह वचन मजबूरी में अर्जुन की तरफ से बोलते हैं। वे कहते हैं, छोड़ो, मुझे छोड़ो। मैं जो कहता हूं, उसे जाने दो। फिर ऐसा ही मान लो, तुम जो कहते हो, वही ठीक है। लेकिन ध्यान रहे, वे कहते हैं, ऐसा ही मान लो। कहते हैं, ऐसा ही स्वीकार कर लेते हैं। तुम जो कहते हो, वही मान लेते हैं कि आत्मा मर जाती है, तो फिर तुम चिंता कैसे कर रहे हो? फिर चिंता का कोई भी कारण नहीं। फिर धूल धूल में गिर जाएगी। मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। पानी पानी में खो जाएगा। आग आग में लीन हो जाएगी। आकाश आकाश में तिरोहित हो जाएगा। फिर चिंता कैसी?
यह अर्जुन के ही तर्क से, अर्जुन की ही ओर से कृष्ण कोशिश करते हैं। यह कृष्ण का वक्तव्य बताता है कि अर्जुन को देखकर कैसी निराशा उन्हें न हुई होगी। यह वक्तव्य बहुत मजबूरी में दिया हुआ वक्तव्य है। यह वक्तव्य खबर देता है कि अर्जुन बैठा सुनता रहा होगा। फिर भी उसकी आंखों में वही प्रश्न रहे होंगे, वही चिंता रही होगी, वही उदासी रही होगी। सुन लिया होगा उसने और कुछ भी नहीं सुना होगा।
कृष्ण को ऐसा ही लगा होगा। नहीं सुन रहा है, नहीं सुन रहा है, नहीं समझ रहा है। बात भी सुनने और समझने से आने वाली कहां है! कसूर भी उसका क्या है!
बात अस्तित्वगत है, बात अनुभूतिगत है। मात्र सुनने से कैसे समझ में आ जाएगी?
नहीं, अभी कृष्ण को और मेहनत लेनी पड़ेगी। और-और आयामों से दरवाजे उसके खटखटाने पड़ेंगे। अभी तक वे जो कह रहे थे, पर्वत के शिखर से कह रहे थे। अब वे अंधेरी गली का तर्क ही अंधेरी गली के लिए उपयोग कर रहे हैं।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल