सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 2 भाग 17

 आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उद्घाटन

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। २३।।

हे अर्जुनइस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काट सकते हैं और इसको आग नहीं जला सकती है तथा इसको जल नहीं गीला कर सकता है और वायु नहीं सुखा सकता है।

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।। २४।।

क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य हैयह आत्मा अदाह्यअक्लेद्य और अशोष्य है तथा यह आत्मा निःसंदेह नित्यसर्वव्यापकअचलस्थिर रहने वाला और सनातन है।

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।। २५।।

और यह आत्मा अव्यक्त अर्थात इंद्रियों का अविषय और यह आत्मा अचिंत्य अर्थात मन का अविषय और यह आत्मा विकाररहित अर्थात न बदलने वाला कहा जाता है। इससे हे अर्जुनइस आत्मा को ऐसा जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात तुझे शोक करना उचित नहीं है।





आत्मान जन्म लेता हैन मरता हैन उसका प्रारंभ हैन उसका अंत है--जब हम ऐसा कहते हैंतो थोड़ी-सी भूल हो जाती है। इसे दूसरे ढंग से कहना ज्यादा सत्य के करीब होगा: जिसका जन्म नहीं होताजिसकी मृत्यु नहीं होतीजिसका कोई प्रारंभ नहीं हैजिसका कोई अंत नहीं हैऐसे अस्तित्व को ही हम आत्मा कहते हैं।

निश्चित हीअस्तित्व प्रारंभ और अंत से मुक्त होना चाहिए। जो है,  उसका कोई प्रारंभ नहीं हो सकता। प्रारंभ का अर्थ यह होगा कि वह शून्य से उतरेना-कुछ से उतरे। और प्रारंभ होने के लिए भी प्रारंभ के पहले कुछ तैयारी चाहिए । प्रारंभ आकस्मिक नहीं हो सकता। सब प्रारंभ पूर्व की तैयारी सेपूर्व के कारण से  बंधे होते हैं।

एक बच्चे का जन्म होता हैहो सकता हैक्योंकि मां-बाप के दो शरीर उसके जन्म की तैयारी करते हैं। सब प्रारंभ  अपने से भी पहले किसी चीज को स्वीकार करते हैं। इसलिए कोई प्रारंभ मौलिक रूप से प्रारंभ नहीं होता। किसी चीज का प्रारंभ हो सकता हैलेकिन शुद्ध प्रारंभ नहीं होता। ठीक वैसे हीकिसी चीज का अंत हो सकता हैलेकिन अस्तित्व का अंत नहीं होता। क्योंकि कोई भी चीज समाप्त होतो उसके भीतर जो होना थाजो अस्तित्व थावह शेष रह जाता है।

तो जब हम कहते हैंआत्मा का कोई जन्म नहींकोई मृत्यु नहींतो समझ लेना चाहिए। दूसरी तरफ से समझ लेना उचित है कि जिसका कोई जन्म नहींजिसकी कोई मृत्यु नहींउसी का नाम हम आत्मा कह रहे हैं। आत्मा का अर्थ है--अस्तित्व

लेकिन हमारी भ्रांति वहां से शुरू होती हैआत्मा को हम समझ लेते हैं मैं। मेरा तो प्रारंभ है और मेरा अंत भी है। लेकिन जिसमें मैं जन्मता हूं और जिसमें मैं समाप्त हो जाता हूंउस अस्तित्व का कोई अंत नहीं है।

आकाश में बादल बनते हैं और बिखर जाते हैं। जिस आकाश में उनका बनना और बिखरना होता हैउस आकाश का कोई प्रारंभ और कोई अंत नहीं है। आत्मा को आकाश समझें--इनर स्पेसभीतरी आकाश। और आकाश में भीतर और बाहर का भेद नहीं किया जा सकता। बाहर के आकाश को परमात्मा कहते हैंभीतर के आकाश को आत्मा। इस आत्मा को व्यक्ति न समझेंइंडिविजुअल न समझें। व्यक्ति का तो प्रारंभ होगाऔर व्यक्ति का अंत होगा। इस आंतरिक आकाश को अव्यक्ति समझें। इस आंतरिक आकाश को सीमित न समझें। सीमा का तो प्रारंभ होगा और अंत होगा।

इसलिए कृष्ण कह रहे हैं कि न उसे आग जला सकती है।
आग उसे क्यों नहीं जला सकतीपानी उसे क्यों नहीं डुबा सकताअगर आत्मा कोई भी वस्तु हैतो आग जरूर जला सकती है। यह आग न जला सकेहम कोई और आग खोज लेंगे। कोई एटामिक भट्ठी बना लेंगेवह जला सकेगी। अगर आत्मा कोई वस्तु हैतो पानी क्यों नहीं डुबा सकताथोड़ा पानी न डुबा सकेगातो बड़े  महासागर में डुबा देंगे।

जब वे यह कह रहे हैं कि आत्मा को न जलाया जा सकता हैन डुबाया जा सकता है पानी मेंन नष्ट किया जा सकता हैतो वे यह कह रहे हैं कि आत्मा कोई वस्तु नहीं है;  वस्तु उसमें नहीं है। आत्मा सिर्फ अस्तित्व का नाम है।  वस्तुओं का अस्तित्व होता हैआत्मा स्वयं अस्तित्व है। इसलिए आग न जला सकेगीक्योंकि आग भी अस्तित्व है। पानी न डुबा सकेगाक्योंकि पानी भी अस्तित्व है।

इसे ऐसा समझें कि आग भी आत्मा का एक रूप हैपानी भी आत्मा का एक रूप हैतलवार भी आत्मा का एक रूप हैइसलिए आत्मा से आत्मा को जलाया न जा सकेगा। आग उसको जला सकती हैजो उससे भिन्न है। आत्मा किसी से भी भिन्न नहीं। आत्मा अस्तित्व से अभिन्न हैअस्तित्व ही है।

अगर हम आत्मा शब्द को अलग कर दें और अस्तित्व शब्द को विचार करेंतो कठिनाई बहुत कम हो जाएगी। क्योंकि आत्मा से हमें लगता हैमैं। हम आत्मा और ईगो कोअहंकार को पर्यायवाची मानकर चलते हैं। इससे बहुत जटिलता पैदा हो जाती है। आत्मा अस्तित्व का नाम है। उस अस्तित्व में उठी हुई एक लहर का नाम मैं है। वह लहर उठेगीगिरेगीबनेगीबिखरेगीउस मैं को जलाया भी जा सकता हैडुबाया भी जा सकता है। ऐसी आग खोजी जा सकती हैजो मैं को जलाए। ऐसा पानी खोजा जा सकता हैजो मैं को डुबाए। ऐसी तलवार खोजी जा सकती हैजो मैं को काटे। इसलिए मैं को छोड़ दें। आत्मा से मैं का कोई भी लेना-देना नहीं हैदूर का भी कोई वास्ता नहीं है।

मैं को छोड़कर जो पीछे आपके शेष रह जाता हैवह आत्मा है। लेकिन मैं को छोड़कर हमने अपने भीतर कभी कुछ नहीं देखा है। जब भी कुछ देखा हैमैं मौजूद हूं। जब भी कुछ सोचा हैमैं मौजूद हूं। मैं हर जगह मौजूद हूं भीतर। इतने घने रूप से हम मैं के आस-पास जीते हैं कि मैं के पीछे जो खड़ा है सागरवह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता।

और हम कृष्ण की बात सुनकर प्रफुल्लित भी होते हैं। जब सुनाई पड़ता है कि आत्मा को जलाया नहीं जा सकतातो हमारी रीढ़ सीधी हो जाती है। हम सोचते हैंमुझे जलाया नहीं जा सकता। जब हम सुनते हैंआत्मा मरेगी नहींतो हम भीतर आश्वस्त हो जाते हैं कि मैं मरूंगा नहीं। इसीलिए तो बूढ़ा होने लगता है आदमीतो गीता ज्यादा पढ़ने लगता है। मृत्यु पास आने लगती हैतो कृष्ण की बात समझने का मन होने लगता है। मृत्यु कंपाने लगती है मन कोतो मन समझना चाहता हैमानना चाहता है कि कोई तो मेरे भीतर होजो मरेगा नहींताकि मैं मृत्यु को झुठला सकूं।

इसलिए मंदिर मेंमस्जिद मेंगुरुद्वारे में जवान दिखाई नहीं पड़ते। क्योंकि अभी मौत जरा दूर मालूम पड़ती है। अभी इतना भय नहींअभी पैर कंपते नहीं। वृद्ध दिखाई पड़ने लगते हैं। सारी दुनिया में धर्म के आस-पास बूढ़े आदमियों के इकट्ठे होने का एक ही कारण है कि जब मैं मरने के करीब पहुंचता हैतो मैं जानना चाहता है कि कोई आश्वासनकोई सहाराकोई भरोसाकोई प्रामिस--कि नहींमौत को भी झुठला सकेंगेबच जाएंगे मौत के पार भी। कोई कह दे कि मरोगे नहीं--कोई अथारिटीकोई प्रमाण-वचनकोई शास्त्र!

इसीलिए आस्तिकजो वृद्धावस्था में आस्तिक होने लगता हैउसके आस्तिक होने का मौलिक कारण सत्य की तलाश नहीं होतीमौलिक कारण भय से बचाव  होता है। और इसलिए दुनिया में जो तथाकथित आस्तिकता हैवह भगवान के आस-पास निर्मित नहींभय के आस-पास निर्मित है। और अगर भगवान भी है उस आस्तिकता कातो वह भय का ही रूप हैउससे भिन्न नहीं है। वह भय के प्रति ही सुरक्षा हैसिक्योरिटी है।

तो जब कृष्ण यह कह रहे हैंतो एक बात बहुत स्पष्ट समझ लेना कि यह आप नहीं जलाए जा सकेंगेइस भ्रांति में मत पड़ना। इसमें तो बहुत कठिनाई नहीं है। घर जाकर जरा आग में हाथ डालकर देख लेनातो कृष्ण एकदम गलत मालूम पड़ेंगे।      गीता एकदम ही गलत बात मालूम पड़ेगी। गीता पढ़कर आग में हाथ डालकर देख लेना कि आप जल सकते हैं कि नहीं! 

गीता पढ़कर पानी में डुबकी लगाकर देख लेनातो पता चल जाएगा कि डूब सकते हैं या नहीं!

लेकिन कृष्ण गलत नहीं हैं। जो डूबता है पानी मेंकृष्ण उसकी बात नहीं कर रहे हैं। जो जल जाता है आग मेंकृष्ण उसकी बात नहीं कर रहे हैं। लेकिन क्या आपको अपने भीतर किसी एक भी ऐसे तत्व का पता हैजो आग में नहीं जलतापानी में नहीं डूबताअगर पता नहीं हैतो कृष्ण को मानने की जल्दी मत करना। खोजनामिल जाएगा वह सूत्रजिसकी वे बात कर रहे हैं।


कृष्ण कह रहे हैं इस सूत्र मेंआत्मा निष्क्रिय हैअक्रिय हैनान-एक्टिव है।

आत्मा अक्रिय हैनिष्क्रिय हैकर्म नहीं करतीतो फिर यह सारी की सारी यात्रायह जन्म और मरणयह शरीर और शरीर का छूटनाऔर नए वस्त्रों का ग्रहण और जीर्ण वस्त्रों का त्यागयह कौन करता हैआत्मा की मौजूदगी के बिना यह नहीं हो सकता हैइतना पक्का है। लेकिन आत्मा की मौजूदगी सक्रिय तत्व की तरह काम नहीं करतीनिष्क्रिय उपस्थिति की तरह काम करती है।

कृष्ण कह रहे हैं कि ऐसा है कि वह जो आत्मा हैवह मरणधर्मा नहीं है। पूछेंक्यों? तो क्यों का कोई सवाल ही नहीं है। ऐसा है। वह जो आत्मा हैवह आत्मा जल नहीं सकतीजन्म नहीं लेतीमरती नहीं। क्यों? कृष्ण कहेंगेऐसा है। अगर तुम पूछो कि कैसे हम जानें उस आत्मा कोतो रास्ता बताया जा सकता है--जो नहीं मरतीजो नहीं जन्मती। लेकिन अगर पूछें कि क्यों नहीं मरतीतो कृष्ण कहते हैंकोई उपाय नहीं है। यहां जाकर सब निरुपाय हो जाता है। यहां जाकर आदमी एकदम असहाय हो जाता है। यहां जाकर बुद्धि एकदम थक जाती और गिर जाती है।

इसलिए कृष्ण जब कहते हैंआत्मा निष्क्रिय हैतो इस बात को ठीक से समझ लेना कि आत्मा के लिए कृत्य करने की अनिवार्यता ही नहीं है। आत्मा के लिए कामना करना ही पर्याप्त कृत्य है। अगर यह खयाल में आ जाएतो ही यह बात खयाल में आ पाएगी कि कृष्ण अर्जुन को समझाए चले जा रहे हैंइस आशा में कि अगर समझ भी पूरी हो जाएतो बात पूरी हो जाती हैकुछ और करने को बचता नहीं है।  
कुछ ऐसा नहीं है कि समझ पूरी हो जाएतो फिर शीर्षासन करना पड़ेआसन करना पड़ेव्यायाम करना पड़ेफिर मंदिर में घंटी बजानी पड़ेफिर पूजा करनी पड़ेफिर प्रार्थना करनी पड़े। अगर समझ पूरी हो जाएतो कुछ करने को बचता नहीं। वह पूरी नहीं होती हैइसलिए सब उपद्रव करना पड़ता है।  जो भी क्रियाकांड हैवह समझ की कमी को पूरा करवा रहा है और कुछ नहीं। उससे पूरी होती भी नहींसिर्फ वहम पैदा होता है कि पूरी हो रही है। अगर समझ पूरी हो जाएतो तत्काल घटना घट जाती है।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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