वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। २२।।
और यदि तू कहे कि मैं तो शरीरों के वियोग का शोक करता हूं, तो यह भी उचित नहीं है; क्योंकि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर, दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।
वस्त्रों की भांति, जीर्ण हो गए वस्त्रों की भांति शरीर को छोड़ती है आत्मा, नए शरीरों को ग्रहण करती है। लेकिन वस्त्रों की भांति! हमने कभी अपने शरीर को वस्त्र की भांति अनुभव किया? ऐसा जिसे हमने ओढ़ा हो? ऐसा जिसे हमने पहना हो? ऐसा जो हमारे बाहर हो? ऐसा जिसके हम भीतर हों? कभी हमने वस्त्र की तरह शरीर को अनुभव किया?
नहीं, हमने तो अपने को शरीर की तरह ही अनुभव किया है। जब भूख लगती है, तो ऐसा नहीं लगता कि भूख लगी है--ऐसा मुझे पता चल रहा है। ऐसा लगता है, मुझे भूख लगी। जब सिर में दर्द होता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सिर में दर्द हो रहा है--ऐसा मुझे पता चल रहा है। नहीं, ऐसा लगता है, मेरे सिर में दर्द हो रहा है, मुझे दर्द हो रहा है। तादात्म्य, आइडेंटिटी गहरी है। ऐसा नहीं लगता कि मैं और शरीर ऐसा कुछ दो हैं। ऐसा लगता है, शरीर ही मैं हूं।
कभी आंख बंद करके यह देखा, शरीर की उम्र पचास वर्ष हुई, मेरी कितनी उम्र है? कभी आंख बंद करके दो क्षण सोचा, शरीर की उम्र पचास साल हुई, मेरी कितनी उम्र है? कभी आंख बंद करके चिंतन किया कि शरीर का तो ऐसा चेहरा है, मेरा कैसा चेहरा है? कभी सिर में दर्द हो रहा हो तो आंख बंद करके खोज-बीन की कि यह दर्द मुझे हो रहा है या मुझसे कहीं दूर हो रहा है?
शरीर को भीतर से जानना पड़े । हम अपने शरीर को बाहर से जानते हैं। जैसे कोई आदमी अपने घर को बाहर से जानता हो। हमने कभी शरीर को भीतर से फील नहीं किया है; बाहर से ही जानते हैं। यह हाथ हम देखते हैं, तो यह हम बाहर से ही देखते हैं। वैसे ही जैसे आप मेरे हाथ को देख रहे हैं बाहर से, ऐसे ही मैं भी अपने हाथ को बाहर से जानता हूं। हम सिर्फ बाहर से ही परिचित हैं अपने शरीर से। हम अपने शरीर को भी भीतर से नहीं जानते। फर्क है दोनों बातों में। घर के बाहर से खड़े होकर देखें तो बाहर की दीवार दिखाई पड़ती है, घर के भीतर से खड़े होकर देखें तो घर का इंटीरियर, भीतर की दीवार दिखाई पड़ती है।
इस शरीर को जब तक बाहर से देखेंगे, तब तक जीर्ण वस्त्रों की तरह, वस्त्रों की तरह यह शरीर दिखाई नहीं पड़ सकता है। इसे भीतर से देखें, इसे आंख बंद करके भीतर से एहसास करें कि शरीर भीतर से कैसा है? इनर लाइनिंग कैसी है? कोट के भीतर की सिलाई कैसी है? बाहर से तो ठीक है, भीतर से कैसी है? इसकी भीतर की रेखाओं को पकड़ने की कोशिश करें। और जैसे-जैसे साफ होने लगेगा, वैसे-वैसे लगेगा कि जैसे एक दीया जल रहा है और उसके चारों तरफ एक कांच है। अब तक कांच से ही हमने देखा था, तो कांच ही मालूम पड़ता था कि ज्योति है। जब भीतर से देखा तो पता चला कि ज्योति अलग है, कांच तो केवल बाहरी आवरण है।
और एक बार एक क्षण को भी यह एहसास हो जाए कि ज्योति अलग है और शरीर बाहरी आवरण है, तो फिर सब मृत्यु वस्त्रों का बदलना है, फिर सब जन्म नए वस्त्रों का ग्रहण है, फिर सब मृत्यु पुराने वस्त्रों का छोड़ना है। तब जीर्ण वस्त्रों की तरह यह शरीर छोड़ा जाता है, नए वस्त्रों की तरह लिया जाता है। और आत्मा अपनी अनंत यात्रा पर अनंत वस्त्रों को ग्रहण करती और छोड़ती है। तब जन्म और मृत्यु, जन्म और मृत्यु नहीं हैं, केवल वस्त्रों का परिवर्तन है। तब सुख और दुख का कारण नहीं है।
लेकिन यह जो कृष्ण कहते हैं, यह गीता से समझ में न आएगा; यह अपने भीतर समझना पड़ेगा। धर्म के लिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही प्रयोगशाला बन जाना पड़ता है। यह कृष्ण जो कह रहे हैं, इसको पढ़कर मत समझना कि आप समझ लेंगे। मैं जो समझा रहा हूं, उसे समझकर समझ लेंगे, इस भ्रांति में मत पड़ जाना। इससे तो ज्यादा से ज्यादा चुनौती मिल सकती है। लौटकर घर प्रयोग करने लग जाना। लौटकर भी क्यों, यहां से चलते वक्त ही रास्ते पर जरा देखना कि यह जो चल रहा है शरीर, इसके भीतर कोई अचल भी है? और चलते-चलते भी भीतर अचल का अनुभव होना शुरू हो जाएगा। यह जो श्वास चल रही है, यही मैं हूं या श्वासों को भी देखने वाला पीछे कोई है? तब श्वास भी दिखाई पड़ने लगेगी कि यह रही। और जिसको दिखाई पड़ रही है, वह श्वास नहीं हो सकता, क्योंकि श्वास को श्वास दिखाई नहीं पड़ सकती।
तब विचारों को जरा भीतर देखने लगना, कि ये जो विचार चल रहे हैं मस्तिष्क में, यही मैं हूं? तब पता चलेगा कि जिसको विचार दिखाई पड़ रहे हैं, वह विचार कैसे हो सकता है! कोई एक विचार दूसरे विचार को देखने में समर्थ नहीं है। किसी एक विचार ने दूसरे विचार को कभी देखा नहीं है। जो देख रहा है साक्षी, वह अलग है। और जब शरीर, विचार, श्वास, चलना, खाना, भूख-प्यास, सुख-दुख अलग मालूम पड़ने लगें, तब पता चलेगा कि कृष्ण जो कह रहे हैं कि जीर्ण वस्त्रों की तरह यह शरीर छोड़ा जाता है, नए वस्त्रों की तरह लिया जाता है, उसका क्या अर्थ है। और अगर यह दिखाई पड़ जाए, तो फिर कैसा दुख, कैसा सुख? मरने में फिर मृत्यु नहीं, जन्म में फिर जन्म नहीं। जो था वह है, सिर्फ वस्त्र बदले जा रहे हैं।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल