आचार्या: पितर पुन्नास्तथैंव च यितामहा:। मातुला: श्वशुरा: पौत्रा: श्याला: संबन्धिनतस्था ।।34।।
एतान्न हन्तुमिच्छामि ध्नतोsपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते।।35।।
गुरुजन, ताऊ ,चाचे, लड़के, और वैसे ही दादा, मामा, ससुर, पिते, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं।
इसलिए है मधुसूदन, मुझे मारने पर भी अथवा तीन लोक के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?
निहत्य धार्तराष्टूान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हन्वैतानाततायिन: ।।36।।
हे जनार्दन। धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर भी हमें क्या प्रसन्नता होगी! इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा।
बार—बार, फिर—फिर अर्जुन जो कह रहा है, वह बहुत विचार योग्य है। दो—तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी है। वह कह रहा है कि ये अपने स्वजनों को मारकर ,अगर तीनों लोक का राज्य भी मिलता हो, तो भी मैं लेने को तैयार नहीं हूं इसलिए इस पृथ्वी के राज्य की तो बात ही क्या! देखने में ऐसा लगेगा, बड़े त्याग की बात कह रहा है। ऐसा है नहीं।
अब अर्जुन अपने को समझा रहा है। मन तो उसका होता है कि राज्य मिल जाए, लेकिन वह यह कह रहा है, इन सबको मारकर , अगर तीनों लोक का राज्य भी मिलता हो—हालाकि कहीं कुछ मिल नहीं रहा है; कोई देने वाला नहीं है—तीनों लोक का राज्य भी मिलता हो, तो भी बेकार है। ऐसे बड़े राज्य की बात करके, फिर वह उसका दूसरा निष्कर्ष निकालता है कि तब पृथ्वी के राज्य का तो प्रयोजन ही क्या है! ऐसा बड़ा खयाल मन में पैदा करके कि मैं तीनों लोक का राज्य भी छोड़ सकता हूं तो फिर पृथ्वी का राज्य तो छोड़ ही सकता हूं। लेकिन न उसको पृथ्वी का राज्य छोड़ने की इच्छा है। और अगर कहीं परमात्मा उससे कहें कि देख, तुझे तीनों लोक का राज्य दिए देते हैं, तो वह बड़ी बिगूचन में पड़ जाएगा। वह कह रहा है, अपने को समझा रहा है।
अब यह बड़े मजे की बात है कि बहुत बार जब हम अपने को समझाते होते हैं, तो हमारे खयाल में नहीं होता है कि हम किन—किन तरकीबों से अपने को समझाते हैं। बड़ा मकान देखकर पड़ोसी का हम कहते हैं, क्या रखा है बड़े मकान में! लेकिन जब कोई आदमी कहता है, क्या रखा है बड़े मकान में! तो उस आदमी को बहुत कुछ रखा है, निश्चित ही रखा है। अन्यथा बड़ा मकान दिखता नहीं। वह अपने को समझा रहा है, वह अपने मन को सांत्वना दे रहा है कि कुछ रखा ही नहीं है, इसलिए हम पाने की कोशिश नहीं करते। अगर कुछ होता, तो हम तत्काल पा लेते। लेकिन कुछ है ही नहीं, इसलिए हम पाने की कोई कोशिश नहीं करते।
यह अर्जुन कह रहा है, तीन लोक के राज्य में भी क्या रखा है, इसलिए पृथ्वी के राज्य में तो कुछ भी नहीं रखा है। और इतने छोटे से राज्य की बात के लिए इतने प्रियजनों को मारना.!
यह प्रियजनों को मारना उसके लिए सर्वाधिक कष्टपूर्ण मालूम पड़ रहा है, न कि मारना कष्टपूर्ण मालूम पड़ रहा है। प्रियजनों को मारना कष्टपूर्ण मालूम पड़ रहा है।
स्वभावत: सारा परिवार वहां लड़ने को खड़ा है। ऐसे युद्ध के मौके कम आते हैं। यह युद्ध भी विशेष है। और युद्ध की तीक्ष्णता यही है महाभारत की कि एक ही परिवार बंट कर खड़ा है। उस बंटाव में भी सब दुश्मन नहीं हैं। कहना चाहिए कि जो फर्क है—यह थोड़ा सोचने जैसा है—जो फर्क है, वह दुश्मन और मित्र का कम है; जो फर्क है, वह कम मित्र और ज्यादा मित्र का ही है। जो बंटवारा है, वह बंटवारा ऐसा नहीं है कि उस तरफ दुश्मन हैं और इस तरफ मित्र हैं। इतना भी साफ होता कि उस तरफ पराए हैं और इस तरफ अपने हैं, तो बंटाव बहुत आसानी से हो जाता। अर्जुन ठीक से मार पाता।
लेकिन बंटवारा बहुत अजीब है। और वह अजीब बड़ा अर्थपूर्ण है। वह अजीब बंटवारा ऐसा है कि इस तरफ अपने थोड़े जो ज्यादा मित्र थे, वे इकट्ठे हो गए हैं; जो थोड़े कम मित्र थे, वे उस तरफ इकट्ठे हो गए हैं। मित्र वे भी हैं, प्रियजन वे भी हैं, गुरु उस तरफ हैं।
यह मैं कह रहा हूं, महत्वपूर्ण है। और ऐसी सिचुएशन इसलिए महत्वपूर्ण है कि जिंदगी में चीजें वाटर टाइट कंपार्टमेंट में बंटी हुई नहीं होती हैं। जिंदगी में चीजें काले और सफेद में बंटी हुई नहीं होतीं। जिंदगी ग्रे का फैलाव है। उसके एक कोने पर काला होता है, दूसरे कोने पर सफेद होता है, लेकिन जिंदगी के बड़े फैलाव में काला और सफेद मिश्रित होता है। यहां फलां आदमी शत्रु और फलां आदमी मित्र, ऐसा बंटाव नहीं है। फलां आदमी कम मित्र, फलां आदमी ज्यादा मित्र; फलां आदमी कम शत्रु, फलां आदमी ज्यादा शत्रु—ऐसा बंटाव है। यहां जिंदगी में कोई चीज पूरी बंटी हुई नहीं है। यही उलझाव है। यहां सब चीजें कम—ज्यादा में बंटी हैं।
यह अर्जुन की तकलीफ है कि सब अपने ही खड़े हैं। एक ही परिवार है, बीच में से रेखा खींच दी है। उस तरफ अपने हैं, इस तरफ अपने हैं। हर हालत में अपने ही मरेंगे। यह पीड़ा पूरे जीवन की पीड़ा है। और यह स्थिति, यह सिचुएशन पूरे जीवन की स्थिति है। इसलिए अर्जुन के लिए जो प्रश्न है, वह सिर्फ किसी एक युद्ध-स्थल पर पैदा हुआ प्रश्न नहीं है, वह जीवन के समस्त स्थलों पर पैदा हुआ प्रश्न है।
अब वह घबड़ा गया है। उधर द्रोण खड़े हैं, उन्हीं से सीखा है। अब उन्हीं पर तीर खींचना है। उन्हीं से धनुर्विद्या सीखी है। वह उनका सबसे प्रिय शिष्य है। सबसे ज्यादा जीवन में उसके लिए ही द्रोण ने किया है। एकलव्य का अंगूठा काट लाए थे इसी शिष्य के लिए। वही शिष्य आज उन्हीं की हत्या करने को तैयार हो गया है! इसी शिष्य को उन्होंने बडा किया है खून-पसीना देकर, सारी कला इसमें उंडेल दी है। आज इसी के खिलाफ वे धनुष-बाण खींचेंगे। बड़ा अदभुत युद्ध है। यह एक ही परिवार है, जिसमें बड़े तालमेल हैं, बड़े जोड़ हैं, बड़ी निकटताए हैं, बंटकर खड़ा हो गया है।
लेकिन अगर हम जिंदगी को देखें, बहुत गहरे से देखें, तो जिंदगी के सब युद्ध अपनों के ही युद्ध हैं, क्योंकि पृथ्वी एक परिवार से ज्यादा नहीं है।
इस दुविधा से क्या निस्तार है? या तो आंख बंद करे और युद्ध में कूद जाए; या आंख बंद करे और भाग जाए। ये दो ही उपाय दिखाई पड़ते हैं। तो आंख बंद करे और कहे, होगा कोई; जो अपनी तरफ नहीं है, अपना नहीं है। मरना है, मरे। आंख बंद करे, युद्ध में कूद जाए-सीधा है। या आख बंद करे और भाग जाए-सीधा है। लेकिन कृष्ण जो उपाय सुझाते हैं, वह सीधा नहीं है। ये दोनों सूखी रेखाएं हैं। इन दोनों में वह कहीं भी चला जाए, बड़ी सरल है बात। शायद अनंत जन्मों में इन दो में से कहीं न कहीं वह गया होगा। ये सहज विकल्प हैं।
लेकिन कृष्ण एक तीसरा ही विकल्प सुझाते हैं, जिस पर वह कभी नहीं गया है। वह तीसरा विकल्प ही कीमती है। और जिंदगी में जब भी आपको दो विकल्प आएं, तो निर्णय करने के पहले तीसरे के संबंध में सोच लेना। क्योंकि वह तीसरा सदा ही महत्वपूर्ण है, वे दो हमेशा वही हैं, जो आपने बार-बार चुने हैं। कभी इसको, इससे थक गए हैं तो विपरीत को, कभी विपरीत से थक गए तो इसको -उनको आप चुनते रहे हैं। वह तीसरा ही महत्वपूर्ण है, जो खयाल में नहीं आता है। उस तीसरे को ही कृष्ण प्रस्तावित करेंगे।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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