बुधवार, 6 जुलाई 2022

कैकेयी का स्त्री - हठ

 सुन्दरी रानी कैकेयी ने यही किया । मलिन वस्त्र पहिन, बाल बिखेर, निराभरण हो, जाकर कोप भवन में भूमि पर लेट गई ।

राजा दशरथ प्रसन्न थे। क्षरण-क्षरण पर वे आदेश दे रहे थे । वशिष्ठ, वामदेव, विश्वामित्र आदि ऋषि अभिषेक-सामग्री जुटा रहे थे। राज-प्रासाद की पौर पर दुन्दुभी बज रही थी । रनवास में अन्न-वस्त्र धन रत्न दान किया जा रहा था। अभ्यागतों, अतिथियों तथा ऋषियों से राजद्वार पटा पड़ा था । सुमन्त्र सब का यथोचित सत्कार कर रहे थे। इसी समय राजा को संदेश मिला कि देवी कैकेयी कोप भवन में चली गई हैं।

देवी कैकेयी का राज महालय अति भव्य था । उसमें सभी प्रकार के सुख-साधन उपस्थित थे, वह भवन स्वर्ग के समान प्रकाशवान् था । सब ऋतुओं के अनुकूल सभी भांति की सुख-सामग्री उस विलास कक्ष में थी। परन्तु राजा ने आकर देखा, महल सूना पड़ा है। पुष्पाधार भूमि पर लुढ़क रहे हैं। गन्ध-द्रव्य धूप दानों में नहीं जल रहे हैं, मंगल-कलश इधर-उधर लुढ़क रहे हैं । वस्त्रसज्जा सब अस्तव्यस्त छितराई पड़ी है । वह स्वर्गीय भवन नरक-तुल्य हो रहा है। दासियों ने भयभीत मुद्रा से संकेत द्वारा राजा को बताया कि देवी कोप भवन में पड़ी है ।

राजा ने वहां जा कोप भवन में पड़ी रानी को देखा और दुखी होकर कहा – 

“प्रिये, किसने तेरा अहित किया, तुझे क्या , दुःख है ? क्या मैं तेरा कुछ प्रिय कर तुझे प्रसन्न कर सकता हूं ? तूने यह अपनी ऐसी दुर्दशा क्यों कर रखी है ? कह—मैं तुझे प्रसन्न करने के लिए क्या करूं ?" 

इतना कह राजा उंगलियों से उसके केशपाश सम्भालने लगा ।

फिर उसने कहा—“तू तो मेरी सर्वस्व है । मैं तुझे ऐसे दीन वेश में इस प्रकार भूमि पर लोटते नहीं देख सकता हूँ । मैने तो सदा तेरा हित किया - सदा तेरी प्रसन्नता का ध्यान रखा। अब भी तेरे लिए मै सब कुछ करने को तैयार हूं । तू कुछ कह । "

तब रानी कैकेयी ने कहा – 

“देव, मुझे किसी ने न क्रोधित किया है, न अपमानित । मैं आपसे केवल अपना प्राप्तव्य मांगना चाहती हूं। मेरे हृदय में कुछ मनोरथ है, संकल्प है । मेरी कुछ अभिलाषा है, मैं चाहती हूं कि वह पूर्ण हो । पर मैं इस प्रकार नहीं कह सकती। मैं चाहती हूँ, आप वचन दें - प्रतिज्ञा करें । मै तभी अपने मनोरथ कहूं । "

रानी के ये वचन सुन, राजा ने हँस कर उसके बाल सहलाते हुए कहा - 

"तू तो जानती ही है कि तू मुझे कितनी प्रिय है। राम के बाद कोई मेरा प्रिय हो सकता है तो वह तू ही है, अतः मैं राम की शपथ खाकर कहता हूं कि तू अपना मनोरथ कह, मै उसे अवश्य पूर्ण करूंगा। मेरी इस प्रतिज्ञा के साक्षी सूर्य, चन्द्र, देव, ऋषि, पितृगण हैं । रघुवंशी कभी अपनी प्रतिज्ञा से नहीं टलते हैं, सो तू जान ।"

कैकेयी राजा के ये वचन सुन कर बोली - 

"आप प्रतापी इक्ष्वाकु वंश के शिरोमणि नरपति हैं, और आपका वचन भंग है । ऐसा ही आपने कहा है, तो मैं आपको स्मरण दिलाती हूँ कि आपने मेरे साथ यह शर्त करके विवाह किया था कि मेरा ही पुत्र आपकी गद्दी का उत्तराधिकारी होगा। इसके अतिरिक्त देवासुर संग्राम में आपने जो मुझे वचन दिए थे, वे भी आपके पास धरोहर हैं । अतः अब इस प्रकार आप अपने वचन से उऋण हो जाएँ कि मेरा पुत्र भरत राजा हो और राम आज ही वन जायँ, और वहां चौदह वर्ष बनवासियों का जीवन व्यतीत करें ।" 

राजा दशरथ कैकेयी के ये वचन सुनते ही मूर्छित होकर धरती पर गिर गए। फिर चेतना आने पर भी धिक्कार - धिक्कार उच्चारण करते हुए फिर मूर्छित हो गए । परन्तु चैतन्य होकर फिर बोले -

 "अरी कुलनाशिनी, तूने यह क्या किया ? तू मेरे मनोरथो को फूलते-फलते देख उसे समूल नष्ट कर रही है। अरी, राम ने तो अपनी माता से भी अधिक सदा तेरी सेवा की है। मैने तेरे वचन पर विश्वास किया, यह मेरा ही दोष है। देख - मै दीन को भांति तेरे चरण पर गिरकर तुझसे भीख मांगता हूँ, कि तू इस भयानक निश्चय को बदल दे ।"

राजा की ऐसी कातरोक्ति सुन कर रानी ने प्रचण्ड क्रोध करके कहा

 - "महाराज, आपको यदि वचन देकर उनका पालन करने में दुख होता है, तो जाने दीजिए । पर अब तुम पृथ्वी पर धर्मात्मा और सत्यवादी नहीं कहलाओगे। अब तुम्ही सोच लो कि कैसे इस लज्जा के भार को सहन करोगे ? अरे, इससे तो तुम्हारा पवित्र रघुकुल ही कलंकित हो जायगा । तुम्हारे ही कुल मे ऐसे बहुत राजा हुए है जिन्होने प्राण देकर भी वचन का पालन किया है। सो राजन्, यदि तुम्हें यश प्रिय नहीं है और तुम अपने वचन से मुकरना ही चाहते हो तो तुम ऐसा ही करो। परन्तु मैं और मेरे पुत्र तुम्हारे दास बन कर नहीं रहेंगे। मैं तो आज ही विषपान कर प्राण दूंगी और मेरा समर्थ भाई तुमसे मेरा भरपूर शुल्क लेगा । मै भरत की शपथ करके कहती हूं कि मैं किसी भांति और दूसरे उपाय से संतुष्ट नहीं हो सकती । सो तुम समझ लो ।”

ऐसे कठोर और निर्मम वचन सुन राजा दशरथ अनेक विधि विलाप करने लगे । उन्होंने कहा 

"दूर देश से जो राजा आए हैं, - वे क्या कहेंगे। अब मैं कैसे उन्हें मुंह दिखा सकता हूँ। अरी कुछ तो सोच, कुल की प्रतिष्ठा और राम की ओर देख राम पर तेरा इतना विराग क्यो है ?"

परन्तु जैसे सूखा काड मोड़ा नहीं जा सकता, उसी प्रकार कैकेयी पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसने कहा

 "महाराज, आप धर्मात्मा और दृढ़प्रतिज्ञ है । सारा संसार आज तक आपको सत्यप्रतिज्ञ समझता है, सो आप उस प्रतिज्ञा को भंग करके कलंकित होना चाहते हैं ।”

यह सुन राजा घायल हाथी की भांति भूमि पर गिर गए। वे अनुनय करके कहने लगे – 

“लोग कहेंगे, स्त्री के कहने से पुत्र को बन भेज दिया | हाय, मै पुत्र-रहित ही क्या बुरा था । अरी रानी, कुछ तो विचार कर, अयोध्या की ओर देख, इस वंश की ओर देख, तू राम ही को राजा होने दे। वशिष्ठ, वामदेव सभी की यही सम्मति है, और प्रजा भी यही चाहती है। भरत भी यही पसंद करेगा, तू हठ न कर ।"

परन्तु रानी ने नहीं माना । महल के बाहर बन्दी- भाट यशोगान कर रहे थे, वाद्य बज रहे थे, गली और सड़कों पर चन्दन, केसर छिड़का जा रहा था। ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं, और भूमि मे पड़े कराहते हुए राजा से रानी कह रही थी - 

"राजन्, तुम्हारा गौरव, यश, प्रतिष्ठा, मान, बड़ाई सब इसी मे है कि सत्य का पालन करो। राम को आज ही बन भेजो और भरत को अभी राज्य दो ।"

आचार्य चतुरसेन शास्त्री



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