इस प्रकार स्वर्ण-लंका मे अपना महाराज्य स्थापित करके तथा सम्पूर्ण दक्षिणवर्ती द्वीपसमूहों को अधिकृत करके अब उसका ध्यान भारतवर्ष की ओर गया । लंका भारत ही के चरणों मे थी।
उन दिनों तक भारत के उत्तराखण्ड मे ही आर्यों के सूर्य मण्डल और चन्द्रमण्डल नामक दो राजसमूह थे। दोनो मण्डलों को मिलाकर आर्यावर्त कहा जाता था । उन दिनों आर्यों मे यह नियम प्रचलित था कि सामाजिक श्रृंखला भंग करनेवालो को समाज - बहिष्कृत कर दिया जाता था । दण्डनीय जनो को जाति बहिष्कार के अतिरिक्त प्रायश्चित्त, जेल और जुर्माने के दण्ड भी दिए जाते थे । प्रायः ही ये बहिष्कृत जन दक्षिणारण्य मे निष्काषित कर दिए जाते थे । धीरे-धीरे इन बहिष्कृतजनों की दक्षिण और वहां के द्वीपपुंजों मे दस्यु, महिष, कपि, नाग, पौण्ड्र, द्रविड़, काम्बोज, पारद, खस, पल्लव, चीन, किरात, झल्ल, मल्ल, दरद, शक आदि जातियां सगठित हो गई थीं । प्रारम्भ मे केवल ब्रात्य ही जाति-च्युत किए जाते थे । पर पीछे यह निष्कासन उग्र होता गया । सगर ने अपने पिता के शत्रु शक, यवन, काम्बोज, चौल,केरल, आदि कुटुम्बो को जीतकर उनका समूल नाश करना चाहा पर वशिष्ट के कहने से उन्हें वेद- वहिष्कृत करके दक्षिण के अरण्यों मे निकाल दिया । इसी प्रकार नहुषपुत्र ययाति ने नाराज होकर अपने पुत्र तुर्वसु को सपरिवार जातिभ्रष्ट करके म्लेछो की दक्षिण दिशा में खदेड़ दिया था । विश्वामित्र ने भी अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने पर अपने पचास कुटुम्बो को दक्षिणारण्य में निष्कासन दिया था, जिनके वशधर दक्षिण मे आकर आन्ध्र, पुण्ड्र, शवर, पुलिन्द आदि जातियों में परिवर्तित हो गए थे ।
इस काल मे लोभी, धोखेबाज, ठग, व्यापारी वणिक को परिणक कहते थे । इसका अर्थ 'परमलोभी' है। ऐसे लोभी परिणकों को भी आर्यलोग बहिष्कृत करके दक्षिण में निष्कासित करते थे । दक्षिण मे आकर भी ये लोग पण्यकर्म करने लगे- माल खरीदने बेचने का व्यापार करने लगे। आगे चलकर इनकी एक जाति 'पाण्य' ही बन गई, और जिस प्रदेश मे ये बसे वह प्रदेश भी 'पाण्यन्य' के नाम से विख्यात हुआ ।
ऐसे ही निष्कासित चोरों की एक शाखा दक्षिण में आकर 'चोल' जाति और प्रान्त मे परिगत हो गई। पणियों ने सागवान के जहाज बनाकर समुद्र के द्वीपपु जो मे दूर-दूर तक जाकर व्यापार विनिमय आरम्भ कर दिया। उनमे से बहुत से परिणक मध्यसागर के किनारे बस्तियां वसा कर बस गए। आगे समुद्र के उस पार जाकर इन्हीं 'परिणयो' और 'चोलों' ने उन देशो को आबाद किया, जिन्हें आज हम 'फिनीशिया' और 'चाल्डिया' कह कर पुकारते है । इस समय कोल और द्रविड़ो से लेकर लंका, मैडागास्टर, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया तक जितनी 'इथिओपिक' उप जातियां हैं, वे सब इन्हीं बहिष्कृत आर्यों की परंपरा में है, तथा उन सबका एक ही वंश और संस्कृति है । इनमे बहुत सी तो भारत में दक्षिण में बस गई थीं, और बहुत सी अन्य द्वीपसमूहों तक फैल गई थीं, जिनके उत्तराधिकारी आज समस्त एशिया, अफ्रीका, अमेरिका और योरोप के देशो मे मिलते हैं । रावण के शरीर में शुद्ध आर्य और दैत्य वंश का रक्त था । उसका पिता पौलस्त्य विश्रवा आर्य ऋषि था, और माता दैत्य राजपुत्री थी । उसका पालन-पोषण आर्य विश्रवा के आश्रम मे उसी के तत्वावधान में हुआ । उसकी शिक्षा-दीक्षा भी उसके पिता ने अपने अनुरूप ही दी थी। उस समय वेद का जो स्वरूप था, उसे उसने अपने बाल्यकाल में अपने पिता से पढ़ लिया था । उस काल तक वेद ही आर्यों का एकमात्र साहित्य और कर्म वचन था जो केवल मौखिक था - लेखबद्ध न था । रावण के मातृपक्ष मे दैत्य-संस्कृति थी । दैत्य और असुर, देवो तथा आर्यो के भाई बन्द ही थे। परन्तु रहन सहन, विचार-व्यवहार मे दोनो मे बहुत अंतर था। विशेषकर बहिष्कृत जातियां आर्यो से द्वेष और घृणा करती थीं । बहिष्कार का सबसे कटु रूप ऋषियो-पुरोहितों द्वारा संसर - क्रिया से उन्हें वचित रखना, तथा यज्ञो से बहिष्कृत समझना था । यद्यपि अभी यज्ञो का भी वह विराट् रूप न बना था जो आगे बना । फिर भी यह एक ऐसी अपमानजनक बात थी जिसने इन जातियो मे आर्यों के विरुद्ध दैत्यों और असुरो से भी अधिक - जो आर्यो के दायाद बान्धव थे - विद्वेष और विरोध की ज्वाला सुगला दी थी ।
रावण के मन मे तीन तत्व काम कर रहे थे । उसका पिता शुद्ध आर्य और विद्वान वैदिक ऋषि था, उसकी माता शुद्ध दैत्य वंश की थी, उसके बन्धुबान्धव बहिष्कृत आर्यवंशी थे । उन्हें क्रियाकर्म तथा यज्ञ च्युत कर दिया गया था। अब उसने भारत और भारतीय आर्यों को दलित करने, उनपर आधिपत्य स्थापित करने, और सब आर्य-अनार्य जातियो के समूचे नृवश को एक ही रक्ष संस्कृति के आधीन समान भाव से दीक्षित करने का विचार किया । तत्कालीन परम्पराओ के अनुसार उसने नृवंश के सब धार्मिक और राजनीतिक नेतृत्व अपने हाथ मे लेने का संकल्प दृढ़ किया ।
देवों और आर्यों का संगठन उस काल मे अत्युत्तम था । उन्होने लोकपालों, दिग्पालो की स्थापना की थी, जो देवभूमि और आर्य देश के प्रान्त भाग की रक्षा करते थे । देवो की प्रवर जातियों में तब मरुत, दसु और आदित्य ही प्रमुख थे । चोटी के पुरुषो में इन्द्र, यम, रुद्र, वरुण, कुबेर आदि थे । यम, वरुण, कुबेर और इन्द्र चार वंशपरा से लोकपाल थे ।
रावण ने देवो और आर्यों के इस संगठन को जड़-मूल उखाड़ फेकने की योजना बनाई। उसने सांस्कृतिक और राजनैतिक दोनो ही प्रकार के विप्लवो का सूत्रपात किया । उसका मेधावी मस्तिष्क और साहसिक शरीर ही यथेष्ट था, तिस पर उसके साथी सहयोगी, सुमाली, मयप्रवरण, प्रहस्त, महोदर, मारीचि, महापार्श्व, महादष्ट्र, यज्ञकोप, खर, दूपण, त्रिशरा, अतिकाय, अकम्पन आदि महारथी सुभट और विचक्षण मन्त्री थे । कुम्भकर्ण-सा भाई और मेघनाद-सा पुत्र था। रावण की सामरिक शक्ति अव चरम सीमा तक पहुंच गई थी। खूब सलाह- सूत करके और आगापीछा विचार कर उसने रामेश्वर के निकट मंदराचल की समुद्रमन्न पर्वत श्रृंखला के सहारे दक्षिण भारत से संबन्ध स्थापित किया। इस समय दक्षिण भारत मे दो प्रधान दल थे – एक वे जो बहिष्कृत आर्य थे, दूसरे वे - जो विदेशो से आकर भारत समुद्र उपकूलो पर आ बसे थे। ये दल आर्य-अनार्य के नाम से पुकारे जाते थे । रावण ने दोनो को अपने साथ मिला लिया ।
सबसे प्रथम उसने यम, कुबेर, वरुण और इन्द्र के चारो देवलोको के लोकपालो को और फिर आर्यावर्त को जय करने का संकल्प किया। अब वह खूब चाक-चौबन्द होकर सुअवसर और घात लगने की ताक मे बैठ गया।
आचार्य चतुरसेन शास्त्री
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