रविवार, 3 जुलाई 2022

रम्भा से रमण

प्रिय के आगमन का समाचार सुनते ही विरहिणी चित्रांगदा का मन- कमल खिल उठा वह सब कुछ भूलकर जैसी बैठी थी वैसी ही द्वार की ओर भाग ली। वह द्वार पर पहुँची, तब रावण, गन्धर्वराज के साथ प्रवेश कर ही रहा था। वह लोक-लज्जा सब विस्मृत कर वल्लरी की भाँति प्रियतम से लिपट गयी। कुछ काल मान-मनौवल और उपालम्भों का दौर चला, और फिर सब आनन्दमय हो गया।

गन्धर्वराज को सुमाली का संदेश प्राप्त हो गया था। वे प्रयाण हेतु तत्पर थे।

विरह के बाद मिलन में ज्वार अधिक होता है; फिर गन्धर्वलोक में उन्मुक्त विलास में किसी भाँति की मर्यादा की बाधा ही नहीं थी। सैन्य के आगमन की प्रतीक्षा करते रावण के दिन एक बार पुनः चित्रांगदा के मंदिर सान्निध्य में रमण करते व्यतीत होने लगे।

सुमाली और प्रहस्त, गन्धर्वलोक के रमणीय वातावरण का आनन्द ले रहे थे, साथ ही गन्धर्वराज के साथ रणनीति पर भी मन्थन कर रहे थे। फिर एक दिन लंका के सैन्य का आगमल हो गया।

कुछ दिन बाद ही मधु का आगमन भी हो गया। रावण ने सुमाली और गन्धर्वराज को समस्त सैन्य का नेतृत्व सौंपा और स्वयं एकाकी कैलाश की ओर जाने का मन बनाया। वह इन्द्र पर आक्रमण से पूर्व एक बार शिव का आशीर्वाद लेने का इच्छुक था। सैन्य के कूच करते ही रावण भी चित्रांगदा से विदा लेने पहुँच गया। “पुनः जा रहे हैं? आपको अपनी चित्रांगदा पर तनिक भी तरस नहीं आता?"

“प्रियतमा, तुम्हें तो ज्ञात था रावण का उद्देश्य, फिर ऐसा उपालंभ भला क्यों?” 

“इन बातों से विरहाग्नि शीतल तो नहीं हो जाती!"

“सत्य है चित्रांगदे ! किन्तु महत् उद्देश्य के लिये अपने क्षणिक सुख का त्याग तो करना ही पड़ता हैं। "

 “समझती हूँ; किन्तु इस मन को किस भाँति समझाऊँ? यह तो कोई तर्क नहीं समझता "

“समझ जायेगा, तुम प्रसन्न वदन विदा दो रावण को, अन्यथा वह अपने लक्ष्य पर चित्त केन्द्रित नहीं कर पायेगा "

 “किन्तु शीघ्र वापस लौटने का वचन देना होगा।"

"दिया!”

“याद रखियेगा, आपका पुत्र भी प्रतीक्षा करेगा आपकी !" चित्रांगदा ने तिर्यक मुस्कान के साथ इठलाते हुए कहा "

 “क्या?”

 रावण के स्वर में कौतूहल भी था और प्रसन्नता भी ।

“हाँ! मैं गर्भवती हैं।"


रावण ने उत्साह से उसे पुनः बाँहों में भर लिया और अपने जलते अधर उसके मंदिर अधरों पर रख दिये।

******

शिव, रावण की मानो प्रतीक्षा ही कर रहे थे। प्रभु के लिये क्या अज्ञात रह सकता है- रावण ने मन ही मन सोचा शिव ने उसे खुले मन से आशीर्वाद दिया। पार्वती यद्यपि देवेन्द्र के प्रति सहज स्नेह के चलते प्रसन्न नहीं थीं, किन्तु उन्होंने भी आशीर्वाद दिया फिर शिव ने बताया कि वे दीर्घ समाधि में जाने वाले थे, बस उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। शिव की  समाधि में विघ्न डालना उचित नहीं था, अतः रावण ने अमरावती की ओर प्रस्थान किया|

 *****


कैलाश क्षेत्र का सुरम्य वातावरण रावण के मन-मस्तिष्क पर सदैव अद्भुत प्रभाव डालता रहा था। आज वह अकेला था। सुवासित सोमरस का पात्र उसके हाथ में था, जिसे वह धीरे-धीरे चुसकता जा रहा था। प्रकृति की मोहकता ने उसे अपने सम्मोहन में जकड़ लिया और उसका मन - विहग आनन्दलोक में उड़ान भरने लगा। जैसे-जैसे वह आगे अलका के निकट पहुँचता जाता था, वातावरण की सम्मोहकता बढ़ती ही जाती थी। उसने अलका के परकोटे से थोड़ी ही दूर एक विशाल उपवन में पुष्पक को उतार लिया । आकाश में बिखरी चाँदनी, सर्वत्र व्याप्त रातरानी की मादक सुगंध और अलका से आती गीत-संगीत की उन्मत्त स्वर-लहरियाँ, उसे जैसे अपने साथ उड़ाये लिए जा रही थीं। किलोल करती यक्षिणियों, किन्नरियों, अप्सराओं की आनन्दातिरेक से परिपूर्ण फुसफुसाहटें, जैसे रावण की चेतना पर उन्मादी प्रभाव डाल रहीं थीं। बीच-बीच में यत्र-तत्र विचरते आपस में खोये गंधर्व-युगल जैसे एक-दूसरे में समा जाने को व्याकुल हो रहे थे। रावण को लगा, जैसे उसका स्वयं पर से नियंत्रण छूटा जा रहा हैं। उसे चित्रांगदा के साथ उन्मुक्त रमण के पल याद आने लगे। वह विचलित होता जा रहा था। चलते-चलते कहे गये चित्रांगदा के शब्द और उसके बाद उसका उन्मादी चुम्बन - आलिंगन.....


यह उसे क्या होता जा रहा हैं? उसने सोचा। क्या यह सोमरस का प्रभाव हैं? उसने पात्र एक ओर रख दिया और पुष्पक से बाहर निकल आया। उसने सिर को झटक कर सामान्य होने का प्रयास किया, किन्तु व्यर्थ। उसकी चेतना को मानो अनंग ने अपने पुष्पशर से अवश कर दिया था। वह निरुद्देश्य भटकने लगा । वह जिधर जा रहा था उधर ही .... यहाँ तो उन्मुक्त रमण का साम्राज्य था। क्या उसे रमण का अधिकार नहीं है? कैसा हतभाग्य है वह। दैव उसे प्रियतमा का सान्निध्य देता है, फिर छीन लेता है। उसे अचानक वेदवती की याद आ गयी। उसके साथ बिताये गये पल याद आ गये। आह ! वह मधुर रमण... और दैव ने बलात उससे वेदवती को छीन लिया। फिर उसे मन्दोदरी याद आ गयी। उससे भी तो कितने काल से वह ठीक से बात तक नहीं कर पाया है! जब भी मिलता है कोई न कोई व्याधि उसके रस को निचोड़ लेती है और उसके पास मन्दोदरी के लिये रस बचता ही नहीं। उसे फिर चित्रांगदा याद आ गयी। उसका उन्मत समर्पण याद आ गया। दैव को उससे कौन सा वैर है?

“यहाँ एकान्त में यह कौन एकाकी विचरण कर रहा है?"

 एक अत्यंत मधुर मादक सा स्वर सुनकर उसे लगा जैसे वेदवती ने उसे पुकारा हो। वह चौंक पड़ा। घूमकर देखा तो एक अनिंद्य सुन्दरी, सुवासित पुष्पाभूषणों से जैसे सृष्टि को मदोन्मत्त करती हुई चली आ रही थी। उसके झीने वस्त्रों से झाँकती उसके मादक यौवन की अंगड़ाई जैसे धवल चाँदनी को भी सम्मोहित किये ले रही थी । नहीं, यह मेरी वेदवती नहीं हैं।

 “सुन्दरी कौन हो तुम?"

 उसने पूछा।


“मैं रम्भा हूँ। "

"कौन ? अप्सरा रम्भा?"

“हाँ वही; आप कौन हैं, और इस वातावरण में एकाकी कहाँ विचर रहे हैं?"

 "मैं रावण हूँ, लंकेश्वर रावण !”

 “ओह! प्रणाम स्वीकार करें पौलस्त्य!”

 रम्भा ने हाथ जोड़कर उसे प्रणाम किया।

“रम्भे! तुमने प्रश्न किया कि मैं एकाकी कहाँ घूम रहा हूँ, तो क्यों नहीं तुम ही मेरी सहचरी बन जातीं। रावण को तुम्हारे इस रूप के व्याध ने अपने जाल में बुरी प्रकार जकड़ लिया है।

 " “लंकेश! काश रम्भा आपकी मनोकामना पूर्ण कर सकती!" रावण की आशाओं पर तुषारापात करते हुए रम्भा ने विनम्रता से उत्तर दिया

 “क्यों सुन्दरी, क्या असमर्थता है? किसका भय हैं?”

 रावण का स्वर थोड़ा सा तीव्र हो गया। 

“भय रम्भा को किसका होगा, किन्तु लंकेश ! आज यह संभव नहीं है कि रम्भा आपके साथ रमण का सौभाग्य प्राप्त करे।”

“तुम लंकेश को न कह रही हो; क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि आज लंकेश त्रिलोक की सबसे बड़ी शक्ति है; लंकेश की इच्छा की अवमानना करने का साहस आज किसी को नहीं है। " 

"ज्ञात है, किन्तु रम्भा लंकेश की इच्छा की अवमानना कहाँ कर रही हैं? रम्भा तो उनसे विनय कर रही है कि आज उसे क्षमा करें, रम्भा आज वचनबद्ध है।"


“नहीं!” वातावरण का प्रभाव, मद्य का प्रभाव, वेदवती - मन्दोदरी - चित्रांगदा से रमण की स्मृतियों का प्रभाव... सबने मिलकर रावण की वासना को जाग्रत कर दिया था। उसे अपना आकाशचारी आत्मगौरव विस्मृत हो गया था। उसका विवेक तो जैसे प्रसुप्त पड़ा था। रम्भा के न कहने से वह उत्तेजित हो उठा - 

“रावण के समक्ष न कहना संभव नहीं है; कुछ ही काल में तुम्हारा देवराज भी रावण के चरणों में होगा "

 “मैं स्वीकार करती हूँ आपकी श्रेष्ठता, किन्तु आपके साथ रमण, मर्यादा का उल्लंघन होगा, अतः मुझे जाने दें। "

"मर्यादा का उल्लंघन !"

 रावण ने अट्टहास किया-

 “अप्सरा की भी कोई मर्यादा होती है रम्भे ? अप्सराओं का तो अस्तित्व ही उन्मुक्त भोग के लिये है... आज तक समर्थ देव ही अप्सराओं के साथ रमण करते रहे हैं, आज लंकेश्वर रावण, रम्भा के साथ रमण करेगा। क्या रम्भा, लंकेश्वर रावण के आदेश की अवहेलना करने का दुस्साहस कर सकती है? इतनी सामर्थ्य है उसकी ?”

“नहीं-नहीं, लंकेश्वर ! रम्भा की इतनी सामर्थ्य नहीं है, रम्भा तो मात्र अपनी मर्यादा से बँधी है।”

“पुनः वही मर्यादा! रावण को ठगना चाहती हो तुम? क्या सभी देव, मनचाही अप्सरा के साथ रमण नहीं करते? क्या रम्भा कभी किसी देव को न भी कह देती हैं?" 

“यह सच है कि रम्भा ने सभी देवों के साथ रमण किया है, वह कभी किसी देव को न नहीं कहती, किन्तु देव कभी भी उसे मर्यादा का उल्लंघन करने को बाध्य नहीं करते, वे इसका सदैव ध्यान रखते हैं।"

“किस मर्यादा की दुहाई दे रही हो तुम? अभी तो तुमने स्वयं स्वीकार किया कि तुम सभी देवों के साथ रमण करती हो; मात्र देव ही क्यों, अप्सरायें तो देवों से इतर भी सामर्थ्यवान पुरुषों के निमंत्रण की कभी अवहेलना नहीं करतीं, फिर रावण तो रावण हैं; त्रिलोक में सर्वाधिक सामर्थ्यवान पुरुष ... उसके निमंत्रण की अवहेलना कैसे कर सकती हो तुमा "

“रम्भा आज वचनबद्ध है; आज की रात्रि वह किसी के लिये पत्नीवत है। यही अप्सराओं की मर्यादा हैं। वे निर्धारित अवधि के लिये किसी की पत्नी होती हैं। उस काल में वे किसी अन्य के साथ रमण नहीं करतीं। आज वह आपके भ्रातृज नलकूबर ; कुबेर का पुत्रद्ध के साथ वचनबद्ध हैं, आज वह उसकी पत्नी हैं। इस मर्यादा से आज वह आपकी पुत्रवधू है, आज उसके साथ रमण की अभिलाषा आप के लिये अशोभनीय हैं। रम्भा पर अनुग्रह कीजिये, इस अभिलाषा को त्याग दीजिये, अन्यथा रम्भा की मर्यादा टूटने के साथ-साथ आपकी उज्ज्वल कीर्ति भी कलंकित हो जायेगी ।”

“अब तुम रावण के धर्य की परीक्षा ले रही हो ! उसे बलप्रयोग के लिये बाध्य कर रही हो।"

 कहते हुए रावण ने रम्भा का हाथ पकड़कर उसे अपने कठोर आलिंगन में बाँध लिया। रम्भा प्रतिरोध करती रही किन्तु रावण मदोन्मत्त सा बोलता रहा

 “रावण की पुत्रवधू! ... रावण के साथ छल करने का प्रयास करती है। रावण की सर्वोच्च सत्ता की अवमानना का प्रयास करती हैं। रावण आज तुझे बतायेगा कि वह क्या हैं... उसकी सत्ता क्या है!!”

“नहीं ऽऽ!”

 की एक दीर्घ चीत्कार दूर-दूर तक तैर गई। उसने कठिनता से कहने का प्रयास किया-

 “रम्भा सत्य कह रही है, आज की रात वह आपके भातृज नलकूबर...."

 रम्भा का वाक्य पूरा नहीं हो पाया। रावण ने अपने ओठों से उसके अधर पीस दिये।

*****

“रम्भे! रम्भे!”

 का स्वर सुनकर रावण चैतन्य हुआ। उसने अलसायी आँखों से देखा, रम्भा कुछ दूर पर घुटनों में सिर दिये बैठी थी। उसने वस्त्र पहन लिये थे, किन्तु वे अब भी अस्त-व्यस्त थे।

बाल बिखरे हुए थे, चेहरा घुटनों में छुपा हुआ था। 

“रम्भे! रम्भे!”

 वही स्वर पुनः सुनाई पड़ा। रावण उठ बैठा। फिर उसने एक निगाह रम्भा पर डाली । वह वैसी ही जड़वत बैठी हुई थी। रावण ने खड़े होकर अपने वस्त्र ठीक किये, फिर पुनः बैठ गया और स्वर की ओर काल कर दिये। कुछ ही पलों में आकृति स्पष्ट होने लगी। आकृति पास आई तो उसके चेहरे पर पहचान के चिन्ह उभरे, फिर उसने पास आकर उसके चरणों में प्रणाम किया और बोली

“आह पितृव्य ! अरे आप यहाँ ?”

रावण की दृष्टि में अभी भी पहचान के भाव नहीं उभरे थे। वह अपने मस्तिष्क पर जोर दे रहा था

“कौन?”

 उसने धीरे से पूछा ।

तभी जैसे वह समझ गया हो - 

“क्या नलकूबर?"

“हाँ पितृव्य! आप यहाँ कैसे बैठे हैं? क्या पुनः अलका पर आक्रमण का कोई कुचक्र रच रहे हैं? और... और यह कौन है?”

 नलकूबर की दृष्टि सिर झुकाये बैठी रम्भा पर पड़ चुकी थी, किन्तु उसका चेहरा घुटनों में छिपा होने से और उसकी उजड़ी उजड़ी सी अवस्था के चलते वह उसे पहचान नहीं पाया था। रम्भा ने अभी भी सिर नहीं उठाया था।

“अब उसकी कोई आवश्यकता नहीं हैं।" 

रावण ने किंचित दंभ से कहा- 

“रावण अब सीधे तुम्हारे देवराज पर आक्रमण हेतु प्रस्तुत हैं; अब वह त्रिलोकेश्वर होगा।" 

फिर उसने औपचारिक प्रश्न किया

“किन्तु तुम इस समय, अर्धरात्रि को यहाँ ? तुम्हें तो इस समय अपने प्रासाद में विलास-लीला में निमग्न होना चाहिये!”

 उसके स्वर में उपहास था।

“आह!” 

नलकूबर की दृष्टि अब भी रम्भा पर ही थी। शायद वह पहचान रहा था। - 

“नलकूबर यहाँ नहीं होता इस समय तो और कहाँ होता ?”

फिर उसने रम्भा को पुकारा

 “रम्भे! रम्भे! ... क्या यह तुम्हीं हो? शीश उठाओ तो तनिक "

“हाँ, यह रम्भा ही हैं, आज की निशा की तुम्हारी पत्नी ।"

 झटके से सिर उठाते हुए रम्भा ने आवेश में कहा। उसका चेहरा आँसुओं से गीला था। काजल ने पूरे चेहरे को काला कर दिया था-

 “आज तुम्हारे पितृव्य ने बलात्... रम्भा ने बार-बार चेताया इन्हें बार-बार रोका, किन्तु इन्हे तो अपनी शक्ति का दंभ था, इन्हांने..."

“यह क्या किया आपने पितृव्य? अप्सराओं की मर्यादा के अनुसार आज रम्भा मेरी पत्नी थी, इस नाते वह आपकी पुत्रवधू हुई... और... और आपने ..."

रावण का मस्तिष्क इस समय पूर्ण चैतन्यावस्था में था। नलकूबर की बात सुनते ही उसे लगा कि जैसे उसपर वज्राघात हुआ हो। उसे भान हो रहा था कि उसने क्या अनर्थ कर डाला है। निस्संदेह नलकूबर से उसके संबंध मित्रता के नहीं थे, किन्तु था तो वह उसके भाई का पुत्र ही; इस रक्त संबंध की उपेक्षा कैसे की जा सकती थी! हाँ ! कुछ ऐसा ही तो कह रही थी रम्भा ! अब उसे स्मरण हो रहा था। उसे स्वयं पर क्रोध आ रहा था।

“पितृव्य! आपने अपने नाम के साथ आज यह कैसा अपवाद जोड़ लिया? युगों तक जब-जब आपका नाम लिया जायेगा, लोग आपका यह कुकृत्य भी याद करेंगे ... आपको धिक्कारेंगे ..."

 नलकूबर, क्रोध और हताशा में जो भी मुँह में आ रहा था कहता जा रहा था। किन्तु रावण इससे आगे नहीं सुन सका। उसकी इच्छा हो रही थी कि अभी धरती फट जाये और वह उसमें समा जाये। वह नलकूबर और रम्भा के सामने दृष्टि उठाने का साहस नहीं कर पा रहा था।


“आह प्रभु शिव! आपका कैलाश क्षेत्र रावण के प्रति इतना निर्दय क्यों हो जाता हैं। रावण तो यहाँ मात्र इसलिये आया था कि वह आपके दर्शन करना चाहता था । "

 रावण होठों में ही बड़बड़ा रहा था। उसकी चेतना से अब नलकूबर और रम्भा दोनों ही मिट गये थे । उसे न उनके स्वर सुनाई दे रहे थे, न उनकी आकृतियां दिखाई दे रही थीं। उसकी आँखें बंद थीं। फिर वह पद्मासन में बैठ गया। कुछ ही देर में वह पूर्ण समाधि की अवस्था में था। उस अवस्था में उसके मस्तिष्क में एक ही स्वर गूँज रहा था 

'आज के बाद रावण अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी भी स्त्री पर वासनामय दृष्टि नहीं डालेगा; रावण सदैव एकनिष्ठ रहेगा|' आत्मसम्मोहन विधि से उसने आज यह अटूट प्रण ले लिया था।

सुलभ अग्निहोत्री 



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