सोमवार, 4 जुलाई 2022

नारद जनक का सीता के लिए चिंतन

 जनक ने जैसे ही घर में प्रवेश किया, उर्मिला आकर उनकी बाँहों में झूल गयी - 

“आज आप कुछ शीघ्र आ गये पिता!”

 “अरे-अरे ! गिरा देगी क्या?”

 जनक हँसते हुए बोलें। उसके इस प्रकार झूल जाने से वे कुछ लड़खड़ा गये थे । 

“अब तू बड़ी हो गयी है।”

“वाह! यह भी कोई बात हुई; कभी कहते हैं छोटी हैं, कभी कहते हैं बड़ी हो गयी । ” 

उर्मिला ने लड़ियाते हुए कहा और हँसने लगी ।

“अत्यंत ढीठ हो गयी है तू!"

“पिता के साथ ढिठाई नहीं करूँगी तो किसके साथ करूंगी?” उर्मिला उसी भाँति बोली। अब तक ये लोग कक्ष में आ गये थे। उर्मिला, पिता को हाथ पकड़कर पर्यंक पर बिठाती हुई बोली- “अच्छा आप विश्राम कीजिये, मैं अभी आपके लिये मधु-दुग्ध लेकर आती हूँ।”

पिता को बैठाकर उर्मिला दूध लेने के लिये कक्ष से बाहर की ओर बढ़ने की सोच ही रही थी, तभी सीता का स्वर उभरा

 “तू रहने दे, मैं लेकर आ रही हूँ। "

सीता का स्वर सुनकर उर्मिला पिता के पास ही पर्यक पर बैठ गयी। कुछ ही देर में सीता, दुग्ध-पात्र लिये कक्ष में प्रविष्ट हुई। उससे दूध का पात्र लेते हुए जनक बोले

“पुत्री हो तो ऐसी!”

 फिर वे उर्मिला की ओर घूमते हुए बोले

“क्या कह रही थी तू... आज आप शीघ्र आ गये... तुझे अच्छा नहीं लगा हो तो वापस चला जाऊँ!”

 कहते-कहते वे हँस पड़े ।

 “क्या पिता, मेरा उपहास कर रहे हैं!”

 “अच्छा तुम्हारी माता कहाँ हैं? उनके दर्शन नहीं हुए अभी ।" जनक ने विषय परिवर्तन करते हुए कहा।

“भोजन का प्रबन्ध कर रही हैं।"

“अरे! स्वयं ?”

“इसमें आश्चर्य क्या है, वे तो बहुधा करती हैं।”

 “तो जाकर अपनी माता से कह दे कि कुछ ही काल में देवर्षि आ रहे होंगे, स्वल्पाहार मैं उनके साथ ही करूँगा।"

उर्मिला, माता तक सूचना पहुँचाने चली गयी ।

“पिता! एक प्रश्न हैं?"

“पूछ ना” 

जनक ने पर्यंक पर पालथी मारकर बैठते हुए कहा। अपना उत्तरीय उन्होंने सिकोड़कर गले में डाल लिया।

“मिथिला में इधर कुछ दस्युकर्म की घटनायें सुनने में आ रही हैं ।” “सत्य कह रही है तू, आज सभा में भी यह प्रश्न उठा था; मैंने रक्षकों को और अधिक सजग रहने की चेतावनी भी दे दी है।"

"कितना सजग रहेंगे वे ? मिथिला के पास रक्षकदल है ही कितना?"

“शान्तिप्रिय मिथिला को कभी अधिक रक्षकदल की आवश्यकता ही नहीं पड़ी; यहाँ पूर्व में कभी इस प्रकार की घटनाएँ नहीं हुई। " “इसीलिये तो मिथिला के रक्षकदल में आलस्य घर कर गया है, इसे चैतन्य करने की आवश्यकता हैं। "

“प्रमुख, प्रयास तो कर रहे हैं इस हेतु । ”

 "वे कुछ नहीं कर पायेंगे पिता "

 सीता ने दो टूक कहा।

“क्या कह रही हैं तू? प्रमुख पर सीधे-सीधे अक्षमता का आरोप लगा रही है?” 

सीता के मुख से ऐसी दो टूक बात सुनकर जनक अवाक रह गये थे। 

“मैं प्रमुख पर आरोप नहीं लगा रही पिता, वे अत्यंत योग्य पुरुष हैं, किन्तु आपने उन्हें जो कार्यभार सौंपा है, वह उनकी प्रवृत्ति के विपरीत है, यही कारण है कि मुझे लगता है कि वे सफल नहीं हो पायेंगे। इन दस्युओं का सिर उठाते ही दमन कर देना आवश्यक है, अन्यथा इनका साहस बढ़ता जायेगा, इन्हें देखकर अन्य व्यक्ति भी इस प्रकार के कर्म में प्रवृत्त हो सकते हैं।” 

“क्या कहना चाहती हैं तू, खुलकर कहा "

 जनक ने राजकीय व्यवस्था के विषय में पुत्री के इस प्रकार हस्तक्षेप पर डाँटकर उसे चुप नहीं कराया |

“देखिये पिता ! मिथिला में प्रायः प्रत्येक पद पर आपके समान सतोगुणी व्यक्ति आसीन हैं, करुणा और दया उनका स्थाई गुण हैं, वे सबको अपने समान ही साधु प्रकृति का समझकर व्यवहार करते हैं। सुरक्षा, चाहे वह आन्तरिक हो अथवा वाह्य, उसके लिये सतोगुण नहीं, रजोगुण की आवश्यकता होती है, क्षात्रदर्प की आवश्यकता होती है। दस्यु, दमन की भाषा समझते हैं, स्नेह की नहीं। उनके साथ उसी भाषा में वार्ता करना उचित हैं, जिसे वे समझते हैं।”

“पुत्री ! यह मिथिला की नीति नहीं है; मिथिला की सम्पूर्ण व्यवस्था शांति, सद्भाव और सहयोग पर आधारित है। मिथिला चाहता है कि व्यक्ति स्वेच्छा से सदाचारी बने, भय से नहीं... और तू जानती ही है, कि अभी तक मिथिला की यह नीति सफल रही हैं, भविष्य में भी होगी... ये जो भटके हुए कुछ व्यक्ति हैं, ये भी हमारे प्रयासों से दस्युकर्म त्यागकर अवश्य ही अपनी भूल पर पश्चाताप करेंगे।”

“मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता पिता; सहजवृत्ति प्रत्येक व्यक्ति को आकर्षित करती है। यदि सहजता से अधिक उपार्जन हो रहा है, तो व्यक्ति कदापि परिश्रम नहीं करना चाहता। संतोष आपका गुण है, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति का तो नहीं हो सकता। अधिकांश व्यक्ति सदैव अपने प्राप्ति से असंतुष्ट रहते हैं, उन्हें अपने श्रम के बदले अधिक की आकांक्षा रहती है। "

“यह तो अनुचित है पुत्री; इस भावना को प्रश्रय कदापि नहीं दिया जा सकता।” 

“निस्संदेह अनुचित है, किन्तु यही सामान्य व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति होती है, इसे भय के द्वारा ..... ""

 तभी नारायण-नारायण की ध्वनि सुनकर वार्ता का क्रम भंग हो गया । नारद का पदार्पण हो गया था। उनके पीछे-पीछे उर्मिला आ रही थी। जनक और सीता दोनों ने उठकर देवर्षि का अभिवादन किया, और उन्हें आसन प्रदान किया।

“उर्मिला! माता को सूचना कर दी ?"

“जी, अभी करके आती हूँ।”

“देवर्षि! आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था मैं, देवराज सानन्द तो हैं?"

“देवराज सानन्द कैसे हो सकते हैं!”

“क्यों भला?”

“जिसे किसी भी पल रावण के आक्रमण का भय हो, वह आनन्द से कैसे हो सकता है?”

 “सत्य हैं देवर्षि!"

“देवेन्द्र की बात छोड़िये विदेहराज, उनके साथ तो यह सदैव ही लगा रहता है, और रहेगा; उनकी चिंता में हम कब तक घुलेंगे? आप अपनी बताइये ! प्रतीत होता है अभी कुछ गम्भीर वार्ता चल रही थी पुत्री के साथ ?”

""चल तो रही थी देवर्षि! सीता कह रही थी कि दस्युओं का दमन आवश्यक हैं; वे स्नेह की भाषा नहीं समझ सकते, इसके विपरीत मेरा विश्वास है कि ये कुछ भटके हुए व्यक्ति हैं, हम यदि निष्ठा     से प्रयास करें तो ये भी अपनी भूल का अनुभव करेंगे, और उसपर पश्चाताप करेंगे । ” 

“पुत्री! तेरे पिता संत हैं, संत पुरुषार्थ के मार्ग का अनुसरण नहीं करता वह तो प्रेम के मार्ग पर ही चलता है। पुरुषार्थ का मूल तो महत्वाकांक्षा होती है, और संत सर्वप्रथम इस महत्त्वाकांक्षा का ही त्याग करता है।" 

नारद अपने चिर-परिचित हास्य के साथ बोले ।

सीता भी मुस्कुरा दी। देवर्षि ने कितनी सहजता से बात स्पष्ट कर दी थी।

 “किन्तु विदेहराज ! राजा को दण्डधारी कहा गया है; उसकी प्रजा का अहित करने वाले को दण्डित करना उसका बाध्यकारी कर्तव्य है; लोभ और भय के बिना प्रीति नहीं होती। स्वर्ग और नर्क की अवधारणा ही मात्र इसलिये की गयीं, कि व्यक्ति सद्कर्म में प्रवृत्त हो। कोई भी व्यक्ति में अपने मनोनुकूल आचरण करने हेतु स्वतंत्र है, परंतु उसकी यह स्वतंत्रता वहीं तक सीमित है, जब तक उसके आचरण से किसी अन्य व्यक्ति के हित प्रभावित नहीं होते। जो भी व्यक्ति किसी दूसरे का अहित करता है, वह राजा द्वारा दण्डनीय हैं; आप यदि इससे विरत होते हैं, तो आप स्वयं भी दण्ड के भागी होते हैं, क्योंकि आपकी प्रजा के किसी भी व्यक्ति के हितों में अनधिकार हस्तक्षेप करने वाले किसी भी व्यक्ति को नियंत्रित करना आपका प्रथम दायित्व है... दंड के पात्र को दण्डित करना राजा की इच्छा पर निर्भर नहीं हैं, राजा इसके लिये बाध्य हैं; इस प्रकार इस विषय में आपकी पुत्री का परामर्श उचित है, आपको उसका सम्मान करना चाहिये।""

 “देवर्षि! मैं आपके कथन का सम्मान करता हूँ, तथापि मेरा मत हैं कि यदि व्यक्ति को प्रेम के द्वारा सही मार्ग पर लाया जा सके, तो वही सर्वश्रेष्ठ उपाय हैं; दण्ड तो अन्तिम उपाय होना चाहिये।”

“विदेहराज ! राजा के और संत के.... दोनों के कर्तव्य पृथक होते हैं; जब तक आप राजदण्ड के स्वामी हैं, आप उसके अनुसार कर्तव्य करने को बाध्य हैं। सतोगुण तीनों गुणों में सर्वश्रेष्ठ हैं, परंतु राजा का आभूषण रजोगुण ही है, इसीलिये तो वह रजोगुण कहा गया है। जब आप राजदण्ड किसी सक्षम उत्तराधिकारी को सौंप देंगे तब... तब आपके लिये वह उपाय अनुकरणीय होगा, जो अभी आप अपनाना चाह रहे हैं। ”

इसी बीच महारानी सुनयना और उर्मिला ने कक्ष में प्रवेश किया। दो दासियाँ स्वल्पाहार के पात्र लिये उनका अनुसरण कर रही थीं। प्रवेश करने के साथ ही सुनयना ने देवर्षि का अभिवादन किया। दासियाँ, यथास्थान सारे पात्र रखकर और देवर्षि को प्रणाम निवेदन कर चली गयीं। रानी और उर्मिला ने भी आसन ग्रहण किये।

“महारानी ! सानन्द तो हैं?"

“जी देवर्षि! अनुकम्पा हैं आपकी । ”

“महारानी, आपकी कन्यायें अत्यंत विदुषी हैं, सीता तो अन्यतम है। "

 “सौभाग्य है हमारा देवर्षि!”

“अत्यंत भाग्यशाली होगा वह पुरुष, जो सीता का वरण करेगा। "

अपने विवाह की चर्चा आरम्भ होते ही सीता ने अनुमति माँगी - “हम लोग चलें पिताश्री?”

जनक ने हँसते हुए अनुमति में सिर हिला दिया। सीता, उर्मिला का हाथ पकड़कर उसे भी अपने साथ खींच ले गयी |

“कुछ चिंतन किया नहीं आप लोगों ने अभी इस विषय में?” सीता के जाते ही नारद ने प्रश्न किया।

“ मैं तो इन्हें नित्य ही स्मरण दिलाती हूँ, किन्तु ये पता नहीं क्या सोच रहे हैं!”

महारानी ने पति को उलाहना सा देते हुए कहा।

 “देवर्षि! मैं भी इस विषय में विन्तन किया करता हूँ, परंतु सीता के अनुरूप वर मिलना भी क्या सहज हैं?" 

“अरे विदेहराज! समस्त आर्यावर्त के राजकुलों में क्या कुमारों का अकाल पड़ गया है, जो आप ऐसा कह रहे हैं?"

“कुमारों का अकाल तो नहीं पड़ गया, किन्तु योग्य कुमारों का निस्संदेह अकाल ही है... दंभ, ईर्ष्या, मिथ्याचार, अनाचार, पौरुष के नाम पर परपीड़न... कौन सा अवगुण नहीं हैं आर्य कुमारों में। आर्य कुमारों में ही क्यों, सभी राजवंशों में यही होता है; शक्ति और सता के साथ ही ..... महाराज ने हताशा में अपनी बात अधूरी छोड़ दी |

“विदेहराज ! इस भूलोक में दो कुमार हैं, जो सीता के योग्य वर हो सकते हैं।” 

“कौन देवर्षि?”

 जनक और सुनयना दोनों ने एक साथ उत्सुकता से प्रश्न किया ।

“प्रथम तो है दशरथ पुत्र राम ... समस्त गुणों से युक्त हैं।”

 “सत्य हैं, मैंने भी ख्याति सुनी है उसके गुणों की, और दूसरा ?”

“दूसरा है रावण पुत्र मेघनाद... किन्तु उससे सीता का विवाह हो नहीं सकता "

“कारण देवर्षि?”

“आर्य संस्कारों में पली कन्या का रक्ष-संस्कृति में निर्वाह अत्यंत कठिन है।"

 “आपका कथन सत्य है। ... तो अब बचा मात्र राम; किन्तु क्या दशरथ इस संबंध के लिये सम्मति देंगे? मुझे तो शंका है देवर्षि!”

“मुझे भी है। इक्ष्वाकुवंश में विवाह की दो ही परम्परायें प्रचलित रही हैं; एक तो शक्ति के द्वारा, दूसरी कुल-गोत्र के द्वारा। राम का चरित्र दशरथ के विपरीत है, वह प्रथम परम्परा का अनुकरण कदापि नहीं करेगा..."

“दूसरी परम्परा का अनुसरण करने पर दशरथ कदापि सम्मति नहीं देंगे।” 

जनक ने नारद का वाक्य पूरा किया।

“निरसंदेह !”

“तब क्या निष्कर्ष निकला?"

"निष्कर्ष भी निकलेगा, हताश क्यों होते हैं विदेहराज? यदि नारद ने यह सम्बन्ध निश्चित कर लिया है तो निष्कर्ष को निकलना ही पड़ेगा।"

 नारद के स्वर में अपूर्व दृढ़ता थी, किन्तु अधरों पर अब भी वही मोहिनी स्मित नृत्य कर रही थी ।

“किस भाँति देवर्षि?”

“आप सीता को वीर्यशुल्का ; जिससे विवाह हेतु पराक्रम की कोई विशेष शर्त निर्धारित हो घोषित कर दीजिये | "

“और उसके लिये पराक्रम क्या निर्धारित किया जाये?”

“आपके पास शिव का वह अद्भुत धनुष धरोहर के रूप में रखा हुआ है, जिससे उन्होंने दक्ष यज्ञ का विध्वंस किया था।""

“उसी धनुष को उठाकर उस पर शरसंधान का शुल्क निर्धारित कर दीजिये।”

 “तब तो मेरी कन्या कुमारी ही रह जायेगी; उस धनुष का संधान भला कौन कर पायेगा ?” 

“नहीं रह जायेगी... शिव के अतिरिक्त चार व्यक्ति हैं, जो उस धनुष पर शरसंधान कर सकते हैं।”

 “कौन-कौन? "

“विश्वामित्र, शुक्राचार्य, रावण और परशुराम।"

“ तो देवर्षि! इनमें से किसे आप मेरी सीता देना चाहते हैं?”

 जनक व्यंग्यपूर्वक बोल पड़े-

 “आप तो राम का उल्लेख कर रहे थे?" 

“राम को यह ज्ञान विश्वामित्र देंगे न !"

"क्या राम यह कर लेगा?"

 जनक को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था।

 “देवहित और लोकहित का कोई भी कार्य राम के लिये असंभव नहीं हैं विदेहराज |""

सुलभ अग्निहोत्री 



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