सोमवार, 19 सितंबर 2022

परमानन्द

 अति सम्पत्ति के कारण जुआखोरी का व्यसन आ जाता है। अति सम्पत्ति से माँस मदिरा का व्यसन पैदा हो जाता है। सम्पत्तिवान लोग सादा भोजन नहीं करते। वे वासना - विकार बढ़ाने वाले तामसी अन्न का सेवन करते हैं। तदुपरांत अति सम्पत्ति में स्त्री-भोग का व्यसन होता है। मदिरा पान कर स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हैं।  

यह गंगा तट बहुत पवित्र है। ये विलासी लोग गंगा-तट पर आकर इस तीर्थ को भ्रष्ट कर रहे हैं। विलासी लोगों के आने से तीर्थ-देवों को भी कष्ट होता है। कितने ही लोग गंगा तट या यमुना तट पर बैठकर अपने घर की बातें करते हैं। यदि घर की बात ही करनी थी तो उसे छोड़ा ही क्यों? तुम किसी यात्रा में जाओ, भगवान् के लिए घर छोड़ो, भगवान् में यह विश्वास करो कि वह तुम्हारा घर सम्हालेगा, तुम्हारे बच्चों को सम्हालेगा। घर में रहकर गंगाजी और यमुनाजी का स्मरण करना पुण्य है किन्तु गंगा के किनारे बैठकर घर का स्मरण करना पाप है।  मनुष्य को कितना सुन्दर शरीर मिला है, प्रभु ने बिना टूटे फूटे यह शरीर दिया है। इसका दुरुपयोग वह भोग-विलास में करता है। इस जीव को यह पता नहीं है कि इस शरीर पर किसका अधिकार है? माता यह समझती है कि पुत्र हमारा है। मैंने इसे पेट में दस मास रखा है। वर्ना यह पैदा ही नहीं होता। इस प्रकार माता अपने पुत्र के शरीर पर अपना अधिकार जताती है। बाप यह समझता है कि पुत्र मेरा है। मेरे बिना पुत्र पैदा ही नहीं होता। इस प्रकार पुत्र- शरीर पर मेरा अधिकार है। पत्नी यह कहती है कि जब तक विवाह नहीं हुआ था, तब तक आप दोनों का अधिकार था। मैं अपने माँ-बाप को छोड़कर यहाँ आई हूँ। इस शरीर पर अब आपका कोई अधिकार नहीं। अब इस पर मेरा अधिकार है। अग्नि देव इन सबसे पहले कहते हैं कि पिता, माता और पत्नी इस शरीर पर अपना-अपना अधिकार जताते हैं, किन्तु प्राण निकल जाने के बाद कोई इसे घर में रखने को तैयार नहीं होता ? ये लोग उसे जल्दी से जल्दी श्मशान में ले जाते हैं। वे मुझे मेरा भोजन देने के लिए वह शरीर मेरे पास ले आते हैं। यह शरीर मेरा भोजन है। इस पर मेरा अधिकार है। प्रभु ने यह फैसला किया कि इस शरीर पर न तो पत्नी का, न पिता का, न माता और न अग्नि का अधिकार है। इस पर भगवान् का अधिकार है। यह जीव अनेक योनियों में भटकते-भटकते थक जाता है। इसलिए प्रभु को इस पर दया आती है और वह इसे मनुष्य योनि प्रदान करते हैं, जिससे यह परमात्मा का काम करे और उसकी शरण में जाए। भगवान् ने मानव-शरीर भगवान् की भक्ति करने के लिए दिया है। फिर भी कोई मनुष्य भक्ति नहीं करता। मनुष्य को सुन्दर शरीर मिला है, घर में सब सुविधाएँ मिली हैं। फिर भी वह भोग-विलास में फँस गया है, अपने को भूल गया है। 

भगवान् यदि तुमको खूब सम्पत्ति दें तो सुख मत भोगना, नित्य कुछ दुःख सहन करके भी भक्ति करना, तप करना ।

कन्हैया ओखली के साथ बँधा पड़ा है। कन्हैया मेरा पुत्र है। नन्दबाबा ने इस प्रकार अपना वात्सल्य भाव दिखाया। उनको ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरा बालक घबड़ा गया है। ये गोप गोपियाँ बातें कर रहे हैं। कोई लाला को छुड़ाता नहीं। अनेक देवताओं की मनौती मानने पर बुढापे में यह बालक मिला है। इसकी माता को जरा भी इसकी चिन्ता नहीं है।

नन्दबाबा यह दृश्य न देख सके। आँखें गीली हो गईं। वे दौड़कर उस स्थान पर आ गये। लाला ने देखा कि नन्दबाबा दौड़ते हुए आ रहे हैं। इसलिये वे मुझे छुड़ा देंगे। लाला ने दोनों हाथ जोड़ कर ऊँचा किया और कहा, 

"बाबा, मुझे मेरी माता ने बाँधा है।"

 नन्दबाबा ने कहा कि बेटा, मैं तुझे छुड़ा देता हूँ। नन्दबाबा लाला को छुड़ा देते हैं और उसे अपनी छाती से चिपका लेते हैं। पिता-पुत्र एकाकार हो जाते हैं। लाला बाबा को प्यार करता है और कहता है कि बाबा, मेरी माता मुझे बाँधती है और मारती है। नन्दबाबा ने कहा कि तेरी माता ने तुझे बाँधा, किन्तु मैंने तुझे छुड़ाया है। लाला ने कहा, 

“हाँ आपने छुड़ाया है।" 

नन्दबाबा ने पूछा, 

"तू किसका लड़का है?

  कृष्ण ने कहा कि मैं अपनी माता का बालक हूँ। नन्दबाबा की बड़ी इच्छा है कि लाला कभी यह कहे कि बाबा, मैं आपका बालक हूँ आपका पुत्र हूँ, लेकिन उनकी इच्छा परिपूर्ण न हुई। वे बालकृष्णलाल को लेकर घर में आए और यशोदाजी को उलाहना दिया कि क्या तेरी बुद्धि खराब हो गई है? तू ने मेरे लाला को क्यों बाँधा ? यशोदा माता ने कहा, 'सब मुझे ही उलाहना देते हैं गोपियाँ मुझे उलाहना देती हैं, किन्तु इसे चोरी करने की आदत पड़ गई है। नन्दबाबा ने कहा कि ,

"यह अभी बालक है। बाल्यावस्था में सब ऐसा ही करते हैं। बड़ा होने पर भला ऐसा क्यों करेगा? तूने लाला को बाँधकर अच्छा नहीं किया।,"

 यशोदा माता व्याकुल हो उठीं और कहा कि मैंने प्रेम से बाँधा है। वह लाला को प्रेम से बुलाती हैं, 

"बेटा, तू मेरे पास आ ।"

 लाला ने माता के पास जाने से इनकार करते हुए कहा कि

 "मैं तो बाबा का पुत्र हूँ।"

 लाला को खुश करने के लिए नन्दबाबा ने कहा, 

"लाला, तू रो मत। तुझे तेरी माँ ने बाँधा था। तो मैं उसे खम्भे से बाँध दूँगा और सोटी से मारूँगा।"

 लेकिन यह सुनकर भी कन्हैया खुश नहीं हुआ। लाला ने कहा,

 "बाबा, मेरी माता भले मुझे मारे, किन्तु उसे न बाँधिए और न मारिए। वह मेरी माता है" 

यशोदा माता इसे सुनती है और कहती है कि बालक का यह कैसा प्रेम है। मुझे सब रोकते थे, किन्तु मैंने इसे बाँधा। मेरी बुद्धि ही बिगड़ गई थी, मैं बहुत निष्ठुर बन गई। यह कैसे प्रेम कर रहा है और मेरे बाँधे जाने की बात पसन्द नहीं करता । मैं इसकी योग्य माता नहीं हूँ। मैं निष्ठुर हूँ, यह प्रेम की मूर्ति है, सबके साथ प्रेम करता है । यह सोचकर यशोदा माता रोने लगती हैं और कहती हैं कि कन्हैया मेरी गोद में कब आएगा ? वह मुझसे रूठ गया है, वह मेरे पास नहीं आएगा। माता का हृदय विकल हो उठा है।


कोई भी जीव जब परमात्मा के लिए रोने लगता है, तब प्रभु को दया आ जाती है। लाला ने देखा कि मेरी माता मेरे लिए रो रही है। उसी समय लाला ने नन्दबाबा से कहा,

 "बाबा, मुझे तो भूख लगी है। आपके पास तो कुछ है नहीं। मैं आपका लड़का नहीं हूँ, बल्कि अपनी माता  का लड़का हूँ। "


यह कहकर कन्हैया बाबा को छोड़ दौड़ता-दौड़ता अपनी माता के पास पहुँच जाता है, उनकी गोद में बैठ जाता है और उनसे कहता है कि माता, मैं आ गया। उस समय माता ने अपनी आँखें खोलकर देखा तो कन्हैया उनकी गोद में था। माता ने उसे छाती से लगा लिया और कहा कि मेरा रोना इससे सहा नहीं गया, मेरी आँखों में आँसू आना इसे सहन नहीं होता है। यह मुझसे बहुत प्रेम करता है। माता लाला को प्यार करने लगी। रस्सी से बाँधे जाने के कारण लाला का नाम दामोदर पड़ गया।

ग्वाल-बालों ने आज अपने-अपने घरों में पानी भी नहीं पिया। क्योंकि उनका कन्हैया बाँधा गया है। लाला ने कहा कि मैंने अपने मित्रों से कहा था कि अपनी माता का बन्धन छूट जाने पर वह सबको अपनी ओर से खाने की दावत देगा। माता! मुझे मित्रों को खाने के लिए दावत देनी है? यशोदा माता ने कहा, "बेटा, घर में सभी चीजें तैयार हैं। तुम सब एक साथ खाने बैठ जाओ ।"

 लाला ने कहा कि मुझे आज परोसना है। मुझे परोसने में बड़ा मजा आता है; खाने में मजा नहीं आता। जब मैं अपने मित्रों को खिलाता हूँ, तब मुझे और भी मजा आ जाता है। खाने वाले की अपेक्षा प्रेम से परोसने वाले को हजार गुना सुख मिलता है। खाने वाले में भगवान के दर्शन करो, प्रेम से परोस कुछ लोग परोसते समय दौड़ते-दौड़ते चलते हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए। जो खिलाकर तृप्त होता है, वह सच्चा वैष्णव है।

यशोदा माता समझाती हैं, 

"बेटा! तू अभी छोटा है। तुझे परोसना नहीं आएगा।"

 बालकृष्णलाल ने कहा कि मुझे परोसना बड़ा अच्छा आता है। आज मुझे परोसने दो। मेरे मित्र भूखे हैं। यह कहकर बालकृष्णलाल परासेने लगे। सभी उनकी जय-जय करते हैं और प्रेम से भोजन करते हैं। वे यह भी कहते हैं कि आज बहुत खाया, बहुत खाया। अब मेरे पेट में जगह नहीं है। कन्हैया कहता है कि मेरे गुरु ने मुझे ऐसा मंत्र सिखाया है कि उसे बोलने पर पेट के अन्दर भी दिखाई देता है। मैं उसके प्रभाव से देख रहा हूँ कि अभी तुम्हारे पेट में दो मालपुए की जगह है। इस प्रकार वे प्रेम से मालपुआ परोसते हैं, बारंबार मित्रों से विनोद करते हैं। इससे बालक प्रसन्न हो जाते हैं। कन्हैया एक-एक का हाथ पकड़ता है, उसे उठाता है और जल देता है। एक मित्र कहता है, 

"मेरा पेट बहुत भर गया है; मुझसे तो उठा ही नहीं जाता। लाला तूने मुझे बहुत परोस दिया था। अब तो यदि कोई बिछौना बिछा दे, तो यहीं सो जाऊँ। इस समय मुझे नींद आ रही है। "..

 कन्हैया मजाक में जबाब देता है,

 "मित्र, प्रसाद तो मेरा था, किन्तु पेट तो तेरा था। तू ने इतना अधिक क्यों खा लिया?"

 मित्रों ने कहा कि लाला, जब परोसने लगा तो अपने आप ही अधिक खाया गया। इस प्रकार सब विनोद करते हैं और परमानन्द प्राप्त करते हैं।

श्री डोंगरेजी महाराज 

हरिओम सिगंल






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