सोमवार, 19 सितंबर 2022

लक्ष्मी जी से भेंट

 बलिराजा पाताल में गये। तन, मन धन से सेवा स्मरण करते हुए जो तन्मय बनता है, भगवान् उसके घर पहरा देते हैं। इन्द्रियाँ शरीर रूपी घर के दरवाजे जैसी हैं। आँख में श्रीकृष्ण, कान में श्रीकृष्ण, मुख में श्रीकृष्ण मन में श्रीकृष्ण प्रत्येक इन्द्रिय में प्रभु को पधराइये। आप जिस  इन्द्रिय से प्रभु भक्ति नहीं करेंगे, उस इन्द्रिय से जाने-अनजाने पाप होता रहेगा।

वक्ता जब कथा करता है, तब श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए बोलता है। श्रोता जब कथा सुनते हैं तब भगवान् में दृष्टि रखकर, भगवान् में कान रखकर भगवान् में मन रखकर कथा श्रवण करते हैं। कथा में कई लोग कान से भक्ति करते हैं, पर आँख से नहीं करते। चारों ओर देखते हैं। आँखे भक्ति नहीं करेंगी तो चंचल होंगी, पाप करेंगी। प्रत्येक इन्द्रिय से भक्ति करने की आदत डालिये।

तन, मन और धन से जो सेवा-स्मरण करते हैं, तन्मय बनते हैं, उनकी एक-एक इन्द्रिय के द्वार पर भगवान् विराजमान रहते हैं जहाँ परमात्मा विराजमान हैं, वहाँ काम नहीं आता है। मानव जिस इन्द्रिय से भक्ति नहीं करता है, उस इन्द्रिय से काम भीतर प्रविष्ट हो जाता है और उस इन्द्रिय द्वारा पाप होता है। काम बहुत बलवान् है। काम जीव को ठगता है, मारता है, इससे उसे मार कहते हैं।

बलि महाराज एक-एक द्वार में प्रभु चतुर्भुज नारायण के दर्शन करते हैं। जहाँ वे दृष्टि डालते हैं, वहाँ भगवान् का स्वरूप देखते हैं। कान श्रीकृष्ण कथा सुनते हैं। मन में परमात्मा का स्वरूप स्थिर हुआ है। एक-एक इन्द्रिय के द्वार में प्रभु विराजमान हैं, बलिराजा को स्वर्ग से भी अधिक पाताल में आनंद आ रहा है। सब प्रसन्न हैं, देवों को स्वर्ग का राज्य मिला, इससे प्रसन्न हैं। पर एक माता महालक्ष्मीजी वहाँ नाराज हैं। बैकुण्ठ में माताजी अकेली विराजमान हैं। माता की प्रसन्नता नहीं हैं। उनका मन नहीं लग रहा है। एक दिन उन्होंने नारदजी से पूछा- नारद! तुम कुछ जानते हो । भगवान् कहाँ विराजमान हैं? नारदजी ने हाथ जोड़कर कर कहा- बलिराजा के घर दान लेने गये थे और बंधन में आ गये हैं। मैंने ऐसा सुना है कि बलिराजा के द्वार पर हाथ में लकड़ी लेकर सिपाही के समान खड़े रहते हैं और पहरा देते हैं। लक्ष्मीजी ने पूछा घर कब पधारेंगे? नारदजी ने कहा- बलिराजा जब अनुमति देंगे, तब ही प्रभु पधारेंगे। परमात्मा बलि राजा के अधीन हुए हैं।

माता महालक्ष्मीजी ने लीला की। ब्राह्मण पत्नी का रूप उन्होंने धारण किया। बहुत सादा श्रृंगार किया और बलिराजा के दरबार में आयीं। जहाँ नारायण विराजमान रहते हैं, वहाँ बिना निमंत्रण लक्ष्मीजी पधारती हैं।

आजकल बहुत से लोग धन के पीछे पागल हैं। लक्ष्मीजी महान् पतिव्रता हैं। अकेली किसी के घर नहीं जाती हैं और जाती भी हैं तो उल्लू पर बैठकर जाती हैं और रुलाती हैं। जिसके घर पर लक्ष्मीजी, नारायण के साथ पधारती हैं, उसे बहुत शांति देती हैं। माताजी से कहिये-माता! आप अकेली नहीं पर नारायण के साथ पधारिये। जो नारायण को पाते हैं, लक्ष्मीजी उनके घर गरुड़ पर बैठकर बिना निमंत्रण के पधारती हैं। लक्ष्मीजी जिसके घर गरुड़ पर बैठकर जाती हैं, उसे बहुत शांति मिलती है।

बलि महाराज लक्ष्मीजी को नहीं पहिचान सके परन्तु बलिराजा ने बहुत विनय से पूछा आप कौन हैं? क्यों आयी हैं? लक्ष्मीजी ने कहा-मैं ब्राह्मण की पत्नी हूँ। मेरे माता-पिता नहीं हैं, भाई भी नहीं है। पीहर में जाने की इच्छा होती है, तब कहाँ जाऊँ? मैंने सुना है कि बलि राजा की कोई बहिन नहीं है। मैं तुम्हारी धर्म की बहिन होने के लिए आयी हूँ। तुम मेरे धर्म के भाई जाओ न ! माताजी ने श्रृंगार नहीं किया था, पर उनका तेज कहाँ छिप सकता था? बलि राजा ने सोचा-ये लक्ष्मी जैसी दीख रही हैं। ये कौन होंगी? बलि राजा ने लक्ष्मीजी को प्रणाम किया और 'कहा—आज से मैं आपका छोटा भाई हुआ। आप मेरी बड़ी बहिन हैं। यह तुम्हारा पीहर हुआ। इस घर में जो कुछ है, तुम्हारा है। जरा भी संकोच न रखियेगा।

बलि महाराज के घर साक्षात् लक्ष्मीजी पधारी हैं। जब से लक्ष्मीजी पधारी हैं, सारा सुखी हो गया है। गाँव में कोई दीन-हीन नहीं रहा। कोई रोगी नहीं रहा। किसी ने झगड़ा नहीं। किया। बलि महाराज को आश्चर्य हुआ। सोचने लगे-ये बड़ी बहन जबसे आई हैं, तब से मैं सुखी हुआ। ये यहीं रह जायँ तो अच्छा है। सब सुख में हैं, आनन्द में हैं पर माताजी का मन नहीं लग रहा है। सोचती हैं कि स्वामी हाथ में लकड़ी लेकर सिपाही जैसे खड़े रहते हैं। यह माताजी से सहन नहीं होता। ये बन्धन में हैं। कोई अवसर आ जाय तो मैं इनको बन्धन से छुड़ा लूँ।


सावन की पूर्णिमा का दिन आ गया। लक्ष्मीजी ने बलि राजा से कहा- भाई! आज रक्षाबन्ध न है। मैं तुम्हारे लिये सुन्दर राखी लायी हूँ। बलि राजा बहुत भाग्यवान् हैं। जगन्माता महालक्ष्मी उनके हाथ में राखी बाँधती हैं। बलि राजा को आनन्द हुआ। अब तो मुझे काल का भी भय नहीं है। मैं निर्भय हूँ। बलि राजा ने लक्ष्मीजी के चरणों में बार-बार वंदन करके कहा- बड़ी बहिन ! आप जब से आयी हैं, सारा गाँव सुख में रहता है। आज आपने मेरे हाथ में राखी बाँधी है। मेरा धर्म है कि आपको कुछ देना चाहिये। आपके घर में क्या है, क्या नहीं है, मैं नहीं जानता पर मेरी बहुत इच्छा है कि जो आपके घर न हो वह माँग लीजिये ।

लक्ष्मीजी ने कहा- मेरे घर में सब कुछ है पर एक नहीं। बलि राजा ने कहा- जो नहीं है, वही माँग लीजिये। आज मुझे देना ही है। बहिन जब राखी बाँधती है, तब खाली हाथ नहीं लौटती है। लक्ष्मीजी ने कहा- भाई, तुम्हारे द्वार पर जो पहरा दे रहा है, उसे तुम सदैव के लिये स्वतन्त्र कर दो। बलि राजा ने पूछा- बहिन, मेरे द्वार पर पहरा देने वाले तुम्हारे कुछ लगते हैं क्या?


चतुर्भुज स्वरूप धारण करके लक्ष्मीनारायण साक्षात् प्रकट हुए। लक्ष्मीनारायण के दर्शन करते हुए बलि राजा को अत्यन्त आनन्द हुआ। उन्होंने लक्ष्मीनारायण की पूजा की। बलि के बंधन से छुड़ाकर परमात्मा के साथ लक्ष्मीजी बैकुण्ठ गयी।


क्रियमाणे कर्मणीदं दैवे पित्र्येऽथ मानुषे

पत्रपत्रानुत्तरात् तेषां सुकृतं विदुः॥


परम पवित्र वामन चरित्र की यह कथा वक्ता श्रोता के पापों को जलाने वाली है। पितृ तिथि के दिन वामन - चरित्र की कथा सुनने पर पितरों को सद्गति प्राप्त होती है। तेंतीसवें अध्याय में वामन चरित्र की समाप्ति की गई है। चौबीसवाँ अध्याय अष्टम स्कन्ध    का अन्तिम अध्याय है। इस अध्याय में मत्स्यनारायण की कथा कही है। दक्षिण भारत में कृतमाला नदी के तट पर सत्यव्रत मनु ध्यान कर रहे हैं। मानव सत्कर्म करता है तो लक्ष्मी प्राप्त होती है और लक्ष्मी पति भी आते हैं। एक सत्कर्म पूर्ण हो जाय तब दूसरा सत्कर्म कीजिये। दूसरा पूर्ण हो जाय तो तीसरा शुरू कीजिये। सत्कर्म में सन्तोष न मानिये। उसका निरन्तर लोभ ही रखिये। जो सत्कर्म के साथ स्नेह करता है, सारा दिन सत्कर्म करता है, उसके हाथ में भगवान् आते हैं। सत्यव्रत मनु के हाथ में मत्स्यनारायण पधारे हैं। मनु महाराज को मत्स्य संहिता का उन्होंने उपदेश दिया है। प्रलयकाल में सर्वत्र विनाश हुआ, तब भी मनु का विनाश नहीं हुआ । सत्य के साथ स्नेह करने वाले का विनाश नहीं होता। वह अमर बनता है। उसे काल नहीं मार सकता। संक्षेप में मत्स्यनारायण की कथा सुनाकर अष्टम स्कन्ध परिपूर्ण करते हैं


प्रलयपयसि धातुः सुप्तशक्तेर्मुखेभ्यः

 श्रुतिगणमपनीतं प्रत्युपादत्त हत्वा । 

दितिजमकथयद यो ब्रतानां 

समहमखिलहेतुं जिह्यामीगं गतोऽस्मि ।









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