मंगलवार, 20 सितंबर 2022

जीव ईश्वर का मिलन

 परिपूर्ण आनन्दमय श्रीकृष्ण को कोई सुख भोगने की इच्छा ही नहीं होती। प्रभु ने यह लीला गोपियों को परमानन्द देने के लिए की है और योगमाया का आश्रय लिया है। भगवान् ने आज क्रीड़ा करने की इच्छा की है, बाँसुरी बजाई है, गोपियों को बुलाया है। बाँसुरी की ध्वनि गोपियों के कान में पड़ती है। गोपियाँ परमात्मा से मिलने की तीव्र भावना लेकर दौड़ पड़ती हैं। उस समय गोपियाँ जो काम कर रही थीं, उसे छोड़कर दौड़ पड़ती हैं?

बाँसुरी की आवाज सुनाई दी। उसने सोचा कि भगवान् मुझे बुला रहे हैं। वह जल्दी में काजल लगाने के बदले कुमकुम लगाकर उधर दौड़ी। यदि गोपी में स्त्रीत्व होता, तो वह ऐसा कदापि नहीं करती। हम दर्पण में मुँह देखकर सब ठीक कर बाहर निकलते हैं।  गोपियों में स्त्री-भाव नहीं है। रासलीला में किसी स्त्री को प्रवेश नहीं मिला है। उसमें तो शुद्ध जीव ही जा सकता है, जिसके वासना का पर्दा दूर हो गया हो, जिसमें लौकिक नाम-रूप की पूर्ण विस्मृति हो ।

भगवान् गोपियों से कहते हैं कि तुम बहुत भाग्यशाली हो । महाभागा हो, बहुत भाग्यशाली वह है, जिसे भगवान् से मिलने की तीव्र इच्छा हो।  भाग्यशाली वह होता है, जो परमात्मा से मिलने के लिए आतुर हो । भगवान् कहते हैं, 

"तुम बड़ी भाग्यशाली हो। तुम इस समय क्यों आईं ? सुन्दर रात्रि है। इसमें तुम वृन्दावन की शोभा देखो। इसके बाद अपने घर जाओ, अपने पति के पास जाओ।" 

 श्रीकृष्ण किसी को सुख नहीं देते। वे आनन्द देते हैं। यह संसार सुख-दुःख से भरा हुआ है। जो सुख देता है, वही दुःख का कारण बनता है। यहाँ न सुख है, न दुःख है। श्रीकृष्ण आनन्दमय हैं। सभी को आनन्द देते हैं। उन्होंने गोपियों से कहा कि तुम्हें सुख तुम्हारे पति देंगे। तुम उनके पास जाओ। गोपियाँ कहती हैं कि जिसे सुख की इच्छा है, वह पति या पत्नी के पास जाएगा। जिसे सुख की इच्छा नहीं है, वह परमात्मा के पास आता है। हमें कोई सुख नहीं चाहिए। श्रीकृष्ण गोपीयों को स्त्री - धर्म समझाते हैं और घर जाने की आज्ञा देते हैं।

कृष्ण ने गोपीयों से कहा है कि,

 "पति रोगी हो, दरिद्री हो तो भी उसमें परमात्मा की भावना रखकर सेवा करने से स्त्री का यह लोक सुधरता है और परलोक भी सुधरता है। रात्रि काल में तुम क्यों बाहर आती हो? तुम्हारा पति तुम्हारी प्रतीक्षा करता होगा। पति में परमात्मा की भावना रखो।"

 श्रीकृष्ण ने गोपियों को घर जाने की आज्ञा दी है। 

 पुरुष को जल्दी मुक्ति नहीं मिलती; किन्तु स्त्री को भगवान् जल्दी मिल जाते हैं। स्त्री को भगवान् के लिए इधर-उधर भटकने की जरूरत नहीं है। उसका हृदय कोमल होता है। यदि स्त्री घर के एक-एक जीव में ईश्वर का भाव रखकर उसकी सेवा करे और भगवान् का स्मरण करें, तो उसे अनायास ही मुक्ति मिल जाती है। क्यों कि उसका हृदय अत्यन्त कोमल होता है। पुरुष अपने व्यवसाय में जो पाप करता है, उसका पूरा फल उसे अकेले ही भोगना पड़ता है। यदि वह पैसे से कोई दान पुण्य करे, तो उसमें स्त्री का भी आधा भाग होता है। जो स्त्री अपने पति में परमात्मा का भाव रखकर उसकी सेवा करती है, उसे ही पुण्य मिलता है।

भगवान् गोपियों से कहते हैं,

 "स्त्री का इधर-उधर भटकना ठीक नहीं है। फिर तुम सब क्यों इधर-उधर भटक रही हो?"

श्रीकृष्ण गोपियों को स्त्री - धर्म समझाते हैं और गोपियाँ उसका उत्तर आत्मधर्म से देती हैं। वे भगवान् से कहती हैं कि,

" जो स्त्री होगी, वह स्त्री - धर्म का पालन करेगी। जो स्त्री न हो, उसे स्त्री-धर्म का पालन करने की क्या आवश्यकता है? मेरा मन रिक्त है। मैंने सबका त्याग कर दिया है और स्त्रीत्व का भी त्याग कर दिया है। गोपियों में स्त्रीत्व नहीं है।"

 श्रीकृष्ण के बिना सब कुछ दुःख रूप है ऐसा समझकर जो बुद्धि पूर्वक त्याग किया जाये वह सच्चा त्याग है।  गोपियाँ सब बातें समझकर त्याग करती हैं।  श्रीकृष्ण के बिना सब कुछ दुःख रूप ही है। ऐसा मानकर उन्होंने सर्वस्व का त्याग किया है और कृष्ण के चरणों का सहारा लिया है। 

"हे नाथ! आप निष्ठुर मत बनिए।"

गोपियों ने कहा-,

 प्रभु ने कहा कि

" मैं निष्ठुर नहीं हूँ। मैं तुम्हारा प्रेम जानता हूँ, किन्तु मुझे धर्म बहुत प्रिय है। तुम अपना धर्म छोड़ रही हो। अपने पति की सेवा करना तुम्हारा धर्म है। "

एक गोपी ने कहा कि ,

"महाराज, आपने मुझे अपना धर्म समझाया। अब यह समझाइये कि धर्म का फल क्या होता है ? अथवा धर्म करने से क्या होता है? "

श्रीकृष्ण उन्हें समझाते हैं कि,

 "प्रभु ने जिसका जो धर्म निश्चित किया है उसे फल की अपेक्षा छोड़कर पालन करके अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, इससे उसका पाप नष्ट हो जाता है। धर्म का फल है पाप का विनाश करना।"

 यह सुनकर गोपियों ने पूछा कि ,

"पाप का विनाश होने के बाद क्या होता है? यदि धर्म का फल पाप का विनाश है तो पाप के नाश का फल क्या है?" 

प्रभु ने कहा कि, 

"जिसके पाप का विनाश होता है, उसका मन शुद्ध हो जाता है। अर्थात् पापनाश का फल है मन की शुद्धि।"

 गोपियों ने कहा कि, 

"अब यह बताइए  कि मन की शुद्धि का क्या फल होता है?"

 भगवान् ने कहा कि,

 "जिसका मन शुद्ध होता है उसे परमात्मा मिलता है।" 

गोपियों ने कहा कि,

 'हमारा मन शुद्ध है। इसीलिए तो हमें आप मिले। यदि धर्म का फल पापनाश है, पापनाश का फल मन-शुद्धि है, मन-शुद्धि का फल परमात्मा की प्राप्ति है तो परमात्मा के मिलने के बाद धर्म पालने की क्या आवश्यकता है? फल हाथ में आने के बाद कोई वृक्ष को नहीं पकड़ने जाता । परमात्मा फल-स्वरूप मिलता है। साधन की अपेक्षा साध्य के हाथ में आ जाने पर साध्य छोड़कर साधन कौन पकड़ने जाए? आज तक हमने धर्म का बहुत पालन किया और हमारा मन शुद्ध हो जाने पर आप मिले हैं। मन की शुद्धि के बिना परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन का लाभ मिल ही नहीं सकता। अब आपको छोड़कर हमें धर्म पालने की जरूरत नहीं रहती। आपने हमें धर्म का जो उपदेश दिया है उसका हमने ठीक तरह पालन किया। हमारा मन शुद्ध हो गया है। इसीलिए आपके दर्शन हुए हैं। आपको छोड़ हम धर्म पालने के लिए कहाँ जाएँ? हमने आपके चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण किया है। नाथ! हम पर कृपा कीजिए ।"

प्रभु ने गोपियों से कहा कि,

 "सखियो ! क्या तुम मुझे मानती हो?"

 सखियों ने कहा, 

'हाँ हम आपको मानती हैं। ' 

भगवान् ने कहा,

 'तो मेरी आज्ञा है कि तुम यहाँ से अपने घर जाओ। तुम्हारे पति के शरीर में भी मैं ही निवास करता हूँ। क्या मैं यहाँ जो खड़ा हूँ, उतना ही हूँ? मैं सबका आधार हूँ। तुम अपने पति के शरीर में विराजने वाले परमात्मा से मिलो।'

यह सुनकर गोपी ने बहुत सुन्दर जबाब दिया,

 "पति के शरीर में परमात्मा है और पत्नी के शरीर में जो परमात्मा है, वह माया से ढँका हुआ है। पति-पत्नी में विद्यमान परमात्मा वासना के स्पर्श से दूषित है। आप वासना रहित शुद्ध परमात्मा हैं, पूर्ण निष्काम हैं। मैं वासना का पर्दा फेंककर यहाँ आयी हूँ, पूर्ण निर्वसन होकर आई हूँ। जहाँ वासना का स्पर्श है, वहाँ हमें परमात्मा से नहीं मिलना है। जो वासना-रहित है, शुद्ध है। उस परमात्मा से मैं मिलने आई हूँ।"

 प्रभु ने यह बात सुनी। वे मन में विचार करते हैं कि मुझे किसी ने भी ऐसा उत्तर नहीं दिया। फिर कहा कि,

 "तुम्हारी बात सुनकर मुझे बहुत आनन्द होता है, किन्तु मेरी इच्छा है कि तुम अपने घर जाओ। तुम अपने पति में ऐसी भावना रखो कि वह माया-रहित परमात्मा है। लोग पत्थर की मूर्ति पूजते हैं। मूर्ति पत्थर की होती है, किन्तु लोग भावना रखते हैं कि यह भगवान् की है।  यदि कोई मूर्ति में ईश्वर की भावना रखकर पूजा करे, तो वह पूजा भगवान् को मिलती है। इससे पूजा सफल होती है और पूजा करने वाले का कल्याण होता है। पति चाहे जैसा है, किन्तु वह चेतन है, पत्थर की मूर्ति जड़ है। जड़ में परमात्मा की भावना रखकर, जड़ में चेतन की भावना रखकर जो पूजा की जाती है, वह सफल होती है। फिर तुम चेतन पति में परमात्मा की भावना क्यों नहीं करतीं?"

 तब एक गोपी ने उत्तर दिया, 

"पति में परमात्मा की भावना रखी जाए तो वह भावना वियोग में फलित होती है। वह भावना संयोग में नहीं होती। प्रत्यक्ष परमात्मा के दर्शन के बाद कोई पत्थर की मूर्ति की पूजा नहीं करता। जिसे दर्शन नहीं हुआ है, वह ऐसी भावना रखता है कि यही भगवान् है।जब तक आपके दर्शन नहीं हुए थे तब तक हम सब में आपकी ही भावना करते थे। अब आपके दर्शन हो जाने पर आपको छोड़कर हम भावना सिद्ध करने के लिए कहाँ जाएँ?"

परमात्मा ने कहा,

 "मेरी आज्ञा है कि तुम अपने घर जाओ।"

 गोपियों ने कहा कि,

" हम आपकी आज्ञा मानकर घर तो जाएँ, किन्तु हमारा मन जो आपके पास है, उसे वापस दीजिए।"

 परमात्मा ने कहा,

 "तुम्हारा मन तो मुझ में मिल गया है। परमात्मा में मन मिलने के बाद उसे परमात्मा भी अलग नहीं कर सकता। जो मन भगवान् को अर्पण किया जाता है, वह उसमें मिल जाता है। उसे भगवान् भी अलग नहीं कर सकता ।"

 एक गोपी बोली,

 "जहाँ मन मिलता है वहीं आत्मा स्थिर हो जाती है। हे नाथ, ऐसा मत कीजिए।"

प्रभु ने कहा,

 "सखियो, तुम्हारे वचन बड़े सुन्दर हैं। तुम्हारी इच्छा क्या है?"

 गोपी कहती हैं, 

"मुझे अधरामृत दीजिए। मैं अधरामृत लेने आई हूँ।"

अधरामृत का अर्थ भागवत में एक-दो स्थानों पर ऐसा किया गया है-  जहाँ जगत् नहीं है, जहाँ मैं नहीं हूँ, जहाँ केवल परमात्मा ही विराज रहा है। उस परमात्मा के साथ मैं एकाकार हो जाऊँ। परमात्मा के साथ एकाकार होने का अर्थ जगत् की विस्मृति है। मुझे ऐसा ही अधरामृत दीजिए।

 गोपी अधरामृत माँगती है। मुझे ऐसा ज्ञानामृत दीजिए।

 पृथ्वी ही धरा है- संसार के विलासी जीव तो धरामृत का भोग करते हैं, जो अमृत पीने पर मृत्यु होती है। ऐसा ज्ञानामृत दो कि मैं एक क्षण भी श्रीकृष्ण से दूर न होऊँ, ऐसा अधरामृत दो कि आपका नित्य संयोग प्राप्त हो। यानी जहाँ जगत् नहीं, जहाँ केवल परमात्मा है। गोपी अब श्रीकृष्ण से अलग रह ही नहीं सकती। उसे अब श्रीकृष्ण का वियोग असह्य है। रासलीला में गोपी श्रीकृष्ण का रूप ग्रहण संयोग प्राप्त हो। यानी जहाँ जगत् नहीं, जहाँ केवल परमात्मा है। गोपी अब श्रीकृष्ण से अलग रह ही नहीं सकती। उसे अब श्रीकृष्ण का वियोग असह्य है। रासलीला में गोपी श्रीकृष्ण का रूप ग्रहण करती है। वह कहती है, 

"मुझे ऐसा अधरामृत दीजिए। उसे ही पीने मैं यहाँ आई हूँ।"

 श्रीकृष्ण ने कहा, 

"तुम्हें तो अधरामृत लेने की इच्छा है, किन्तु यदि मेरी इच्छा अधरामृत देने की न हो तो? मुझे अधरामृत नहीं देना है। तुम यहाँ से अपने घर जाओ।"

 गोपियों ने कहा, 

"आप घर जाओ,  घर जाओ, किससे कहते हैं। हम आपको अपने लिए नहीं मना रही हैं। हम जानती हैं कि आप बड़े ही संकोची हैं। यदि हम सब घर चली जाएँ, तो आप यहाँ रहकर क्या करेंगे? भगवान् की शोभा भक्तों से है। आप भी हमसे मिलने के लिए आतुर हैं। ईश्वर की इच्छा होती है कि जीव मेरा अंश है, वह मुझसे मिले। हे नाथ, हम पर कृपा करो। हमारे मन में श्रीकृष्ण को छोड़ दूसरा कोई नहीं है। हम यहाँ से घर जाकर आपके वियोग में प्राण त्यागकर आपसे ही मिलने वाली हैं। अन्तिम उपाय तो हमारे हाथ में है। अर्थात् हम अपने प्राण छोड़कर आपसे मिलने ही वाली हैं, किन्तु उसका कलंक आपको न लगने पाए। आपकी अपकीर्ति न हो, इसीलिए हम आपको मना रही हैं। "

"मुझे मरण से थोड़ी भी भीति नहीं लगती। मृत्यु से वही घबराता है; जिसके मन में वासना होती है। जिसके मन में वासना नहीं होती, उसे मृत्यु से कोई भय नहीं लगता । मृत्यु तो मिलन कराने वाली होती है, वह परमात्मा के साथ ऐक्य कराती है।"

 गोपियों को मरने का न तो कोई दुःख है, न भीति है। प्रभु ने यह सुना और उनकी हार हो गई।

भगवान् विचार करते हैं, 

इन गोपियों में कितनी आतुरता है? मैं इनसे मिलूँ और मिलन क्रम में जिसकी अन्तिम बारी हो, वह कदाचित् अपने प्राण छोड़ दे तो?इसीलिए श्रीकृष्ण ने जितनी गोपियाँ थीं उतने स्वरूप धारण कर यह अनुभव कराया कि मैं तेरे साथ ही हूँ। हजारों वर्षों से भगवान् से बिछुड़ा हुआ यह जीव प्रभु के पास आया है और भगवान् उसे भुजाओं में भरकर आलिंगन देते हैं। गोपी और श्रीकृष्ण का यह मिलन जीव ईश्वर का मिलन है। इस समय अंशी और अंश एक हो गए हैं। गोपी के हाथ में भगवान् आ गए हैं। वे इस बात से मगन हैं कि मुझे परमात्मा मिले हैं। इससे उन्हें अत्यन्त आनन्द हुआ। आज भगवान् को भी आनन्द हो रहा है कि मुझसे बिछुड़ा हुआ अंश आज मुझसे मिला है। रास में संगीत, साहित्य और नृत्य तीनों का समन्वय हुआ है। गोपियाँ आनन्दातिरेक में नाच रही थीं। उन्हें देखकर श्रीकृष्ण ने भी ताल का अनुसरण करते हुए नाचना शुरू कर दिया।

 यह लीला खुले मैदान में हुई है। यह दरवाजा बन्द करके नहीं की गई। श्रीकृष्ण ने वृन्दावन में खुले मैदान में यह लीला की है। प्रत्येक गोपी के साथ श्रीकृष्ण का एक स्वरूप है। मध्य में राधा-माधव हैं। उस समय ब्रह्मादिक देव इस लीला के दर्शन करने आए। ब्रह्माजी ने विचार किया कि यह लीला शुद्ध तो है; किन्तु मेरे विचार से कुछ लोक- विरुद्ध है। 

 वास्तव में इस मिलन में कोई विकार नहीं हैं, कोई वासना नहीं है। यह बिल्कुल निष्काम है, शुद्ध है। फिर भी लोक-विरुद्ध है इस प्रकार स्त्रियों के साथ नाचना-कूदना अधर्म है। इससे ब्रह्माजी को थोड़ी शंका हुई। श्रीकृष्ण तो ब्रह्माजी के मन में विराजमान हैं, अन्तर्यामी हैं। श्रीकृष्ण को ज्ञात हुआ कि ब्रह्माजी की भावना कुछ बिगड़ी है। मैंने उसे धर्म का मर्म समझाया है; किन्तु आज वह मुझे समझा रहा है। प्रभु ने अब ऐसी लीला की कि गोपी को छाती से लगा कर आलिंगन किया और  उसे आत्मस्वरूप दान किया। अब साड़ी पहनने वाली कोई गोपी नहीं रह गई। सभी पीताम्बर धारी कृष्ण बन गईं। अब श्रीकृष्ण के साथ श्रीकृष्ण की क्रीड़ा हो रही है। शुद्ध जीव अब ब्रह्म रूप बन जाता है। ब्रह्म का ब्रह्म के साथ विलास करने का नाम रास है।

यदि सजातीय सजातीय से मिले तो धर्म- मर्यादा का भंग नहीं होता। विजातीय का सजातीय से मिलना यह भले ही धर्म-भंग हो । यह तो आत्मा का अंश परमात्मा को मिला। यह लोक विरुद्ध नहीं हो सकता न तो धर्म-विरुद्ध है। यह तो स्वयं धर्म का फल है। ब्रह्माजी को दर्शन हुआ कि साड़ी पहनने वाली कोई गोपी है ही नहीं। सभी पीताम्बर धारी श्रीकृष्ण हैं! तब उन्हें विश्वास हुआ कि यह मिलन लोक-विरुद्ध नहीं है, यह अति शुद्ध  है । 

ब्रह्माजी साष्टांग वन्दन करते हैं और रासबिहारी लाल की जय-जयकार करते हैं। जब ब्रह्माजी वन्दन कर खड़े हुए तब लाला ने विनोद किया अब तो पीताम्बरधारी कृष्ण दिखाई नहीं देते, सब गोपियाँ हैं। श्रीकृष्ण एक बार दर्शन कराते हैं तो सब श्रीकृष्ण ही हैं, उनके सिवाय कोई अन्य नहीं है। अब जो दर्शन कराते हैं, उनमें कोई पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण नहीं है। सभी साड़ी पहनने वाली गोपियाँ ही हैं। यह पूर्ण अद्वैत की कथा है।

श्रीकृष्ण-लीला का रहस्य श्रीकृष्ण कृपा से ही ध्यान में आता है। अब गोपी के साथ श्रीकृष्ण का स्वरूप दिखाई देता है। उस समय नारदजी वहाँ आए। उनकी इच्छा हुई कि यदि मैं अन्दर जाऊँ तो क्या भगवान् मुझे आलिंगन देंगे? मुझे परमात्मा से मिलना है लेकिन इधर तो सखियों का पहरा है। उन्होंने नारदजी से कहा,

 "आप दूर से दर्शन कर सकते हैं। आपको अन्दर प्रवेश नहीं मिल सकता। आप अन्दर नहीं जा सकते।"

 प्रवेश न मिलने पर नारदजी को दुःख हुआ । उनको मन में ऐसा आया कि ब्रह्माजी का पुत्र होकर मैंने बड़ी भूल की। मैं यदि गोपी हुआ होता तो मुझे अन्दर प्रवेश मिलता। अब नारदजी 'श्री राधे-राधे' कहकर रोने लगे। इस पर राधाजी को दया आ गई। श्रीधाम वृन्दावन में यदि कोई जीव रोने लगे, तो श्रीराधाजी वहाँ तुरन्त पहुँच जाती हैं।

आनन्दमय वृन्दावन में कोई रोता नहीं है। वहाँ तो ब्रह्म भी नाचता है। राधाजी नारदजी से  पूछती हैं, 

'नारद, तू क्यों रोता है? तुझे क्या हो गया है?' 

उस समय नारदजी ने हाथ जोड़कर कहा है,

 'मुझे अन्दर आना है किन्तु ये सब मुझे रोकती हैं।'

 राधाजी की आज्ञा मिल गई। नारदजी राधा-कुण्ड में स्नान कर रहे हैं। इससे उनमें अलौकिक गोपी भाव पैदा हो जाता है, और नई नारदी गोपी उत्पन्न हो उठती है। अब नारदजी ने पुरुषत्व के अभिमान का त्याग कर दिया। क्योंकि किसी पुरुष या स्त्री को रास में प्रवेश नहीं मिलता। राधाजी इस नई सखी को श्रीकृष्ण के पास ले जाती हैं। श्रीकृष्ण नारदी सखी का आलिंगन कर रहे हैं। नारदजी ने विचार किया यदि भगवान् मिलता हो, तो साड़ी पहनने से मेरा क्या बिगड़ता है? मैं बहुत भटक चुका।  मैं पुरुष हूँ। यह अहं धारण कर मैं बहुत दुःखी हुआ। गोपियाँ स्त्रीत्व छोड़कर प्रभु से मिलने आती हैं। इसलिए नारदजी ने पुरुषत्व का अभिमान छोड़ दिया। उनमें गोपीभाव जागृत हो उठा। इस प्रकार प्रभु ने गोपियों को परमानन्द दिया है और गोपियाँ कृतार्थ हो उठी हैं। 

श्री डोंगरेजी महाराज  

हरिओम सिगंल 




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...