मंगलवार, 20 सितंबर 2022

रास लीला 1

 आज की भोजन व्यवस्था कमलाकार हो रही है। यह बालकों का शुद्ध प्रेम है। उनकी इच्छा है कि मुझे आज श्रीकृष्ण से सटकर ही बैठना है। जो श्रीकृष्ण से दूर बैठता है उसे आनन्द नहीं मिल पाता, श्रीकृष्ण को स्पर्श कर बैठने वाले को ही आनन्द प्राप्त होता है।  चार प्रकार की रासलीलाओं का वर्णन है। एक रास लीला में श्रीकृष्ण वृद्ध गोपियों के साथ रमण करते हैं। दूसरी रासलीला गायों के साथ होती है, तीसरी रासलीला ग्वालमित्रों के साथ होती है और चौथी रासलीला युवती गोपियों के साथ होती है। 

रासलीला का क्या तात्पर्य है इसे समझो। उपनिषद् में "रसो वै सः " कहकर परमात्मा का वर्णन किया गया है। अर्थात् परमात्मा रसस्वरूप है, रसमय है। अति मधुर रस ही परमात्मा है। रसमय मनुष्य ही परमात्मा को प्राप्त करता है। रसमय परमात्मा के साथ एक होना ही रास कहलाता है। गोकुल में वृद्ध गोपियाँ थीं। वे बालकृष्णलाल का दर्शन करती हैं। दर्शन में आनन्द तो आता है किन्तु उनके मन में यह भाव जगता है कि यदि हमें श्रीकृष्ण के दर्शन में इतना अधिक आनन्द आता है तो जब यशोदा माता लाला को अपनी गोद में लेकर छाती से चिपकाती होंगी तो उन्हें कितना आनन्द आता होगा। किन्तु हमें लाला से मिलना है, मुझे उसके साथ एकाकार होना है। ये वृद्ध गोपियाँ श्रीकृष्ण के दर्शन करते-करते अपने मन द्वारा श्रीकृष्ण से मिलती हैं। वे मन से तो श्रीकृष्ण से मिल रही हैं, अब भी उनकी भावना प्रत्यक्ष मिलन की है। 

गोकुल में जो गायें थीं, उन्हें भी लाला से मिलने की इच्छा थी।  इन गायों से लाला किस प्रकार मिले? यह बड़ा भारी प्रश्न है। गायों के मन में ऐसा भाव जगता है कि जिस प्रकार बछड़ा गाय का दूध पीता है, उसी प्रकार कृष्ण मेरा दूध पिएँ तो मैं उससे मिलूँ। गाय जब बछड़े को दूध पिलाती है तब गाय और बछड़ा दोनों एकमय हो जाते हैं। उनका अद्वैत ऐसा हो जाता है। कि उसे कोई तीसरा नहीं समझ सकता। इसका अनुभव गाय और बछड़े ही कर सकते हैं। इन गायों को कन्हैया के साथ एकाकार होना है, लाला से मिलना है। 

 ग्वालों की ऐसी भावना है कि मुझे श्रीकृष्ण को स्पर्श करके ही बैठना है कोई श्रीकृष्ण से दूर बैठने को तैयार नहीं है। अब श्रीकृष्ण तो ठहरे एक और बालक हैं अनेक। फिर वे एक ही समय सबसे किस प्रकार मिलें।

आज की भोजन-बैठक कमल जैसी है। कमल के मध्य में गाभा (पुष्प दण्ड) होता है। श्रीकृष्ण मध्य में हैं। छोटी-छोटी पंखुरियाँ गाभे के पास होती है। बड़ी पंखुरी गाभा से दूर दिखाई देती हैं। दूर दिखाई देने पर भी प्रत्येक पंखुरी का संयोग गाभा के साथ होता ही है। कमल एक हजार पंखुरियों का होता है। उसमें एक भी पंखुरी ऐसी नहीं होती जिसका सम्बन्ध गाभा से न हो। छोटे बालक श्रीकृष्ण के पास हैं और बड़े बालक थोड़े दूर हैं।  तुम्हारे बड़े हो जाने पर कन्हैया तुम्हें दूर रखेगा। 

 यदि छोटे होगे, मन से बालक की तरह छोटे रहोगे, तो श्रीकृष्ण तुम्हें पास बैठाएँगे।  प्रभु ने अनेक बालकों को एक साथ अपने मिलने का अनुभव कराया है कि तुम से सटकर बैठा हूँ। श्रीकृष्ण ने रासलीला में प्रत्येक गोपी को यह अनुभव कराया है कि मैं तेरे पास हूँ।

बालकों का प्रेम शुद्ध हैं। ये बच्चे अपने-अपने घर से जो कुछ लाते उसमें जो अच्छी से अच्छी वस्तु होती उसे लाला के लिए अलग रख देते, जो मध्यम वस्तु होती उसे मित्रों को देते और जो साधारण वस्तु होती उसे अपने आप खाते। अच्छी वस्तु दूसरे को देना ही भक्ति है। जो अच्छी वस्तु अपने लिए रखी जाए, वह आसक्ति है बालकों की ऐसी भावना है कि लाला के मुँह में मुझे कौर (कवल) देना है। यदि मैं श्रीकृष्ण से दूर बैठूं तो मुँह में कौर किस प्रकार दे सकूँगा? बालक प्रेम से लाला को भोजन कराते हुए कहते हैं,

 'लाला मेरी माँ ने तेरे लिये जलेबी बनाई है। उसने मुझसे यह कहा है कि तू इसे लाला के हाथ में मत देना। उसके मुँह में ही खिला देना । लाला मैं इसे तेरे मुँह में ही दूँगा।' 

कन्हैया भोजन में भी बालकों को बोध देता है और कहता है कि तू मुझ अकेले को ही जलेबी देता है, मेरे मित्रों को नहीं देता। मेरे गुरु ने मुझे यह विशेष रूप से सिखाया है जो अकेला खाता है, वह दूसरे जन्म में बिल्ली हो जाता है। इसलिए किसी दिन अकेले नहीं खाना चाहिए। कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जो वस्तु अधिक हो तो देने की उदारता दिखाते हैं,  किन्तु थोड़ी होने पर उसे छिपा रखते हैं। यदि अंगूर खाते हों और उस समय अपने किसी साथी को आते हुए देखते हैं, जिनके साथ दो बच्चे हैं तो तुरन्त ही अपनी पत्नी से कहते हैं इसे अन्दर रख दो, वे आते हैं। इसलिए जय श्रीकृष्ण-जय श्रीकृष्ण किया जाता है। वह पूछता है कि क्या कर रहे हो? तो जवाब मिलता है कि-

'कुछ नहीं खाली बैठे हैं।'

 मित्र ने देखा था इसका सीढ़ी चढ़ते समय मुँह कुछ हिल रहा था, यह कुछ खाता होगा; लेकिन यह बात बदल गया। जगत् में कोई मूर्ख नहीं है, जो दूसरे को मूर्ख समझता है वही मूर्ख होता है। सभी यह समझते हैं कि जीव ईश्वर का अंश है। यदि तुम खाने बैठे हो और उसी समय तुम्हारे घर कोई आ जाए, तो ऐसा मानना कि इस अन्न में इसका भी भाग है। वह अपना भाग लेने आया है। अर्थात् वह खाने नहीं आया है। आज उसका भाग नहीं दोगे तो एक दिन ब्याज के साथ उसे देना पड़ेगा। दूसरे को देने से कुछ घटता नहीं है बल्कि बढ़ता है। जिसका मन बड़ा है, उसके घर में कमी नहीं होती। मन बड़ा रखो। कोई चीज थोड़ी हो, तो थोड़े में से भी थोड़ा भाग दूसरे को दो ।

कन्हैया उस बालक को समझता हैं, 

'सभी को जलेबी दो।' 

वह बालक सभी को जलेबी देने के बाद लाला के मुँह में जलेबी डालता है। कन्हैया उसे खाता है, उसकी प्रशंसा करता है और कहता है कि तेरी माँ ने जलेबी बहुत अच्छी बनाई है। ऐसी जलेबी मेरी माँ को बनानी नहीं आती।

तात्पर्य यह है कि जिसका खाओ उसका बखान करो। जिसने मेहनत की है, जिसने पैसा लगाया है उसकी ऐसी इच्छा होती है कि लोग मुझे अच्छा कहें, मेरा बखान करें और मैं उसे सुनूँ। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि मेरा बखान मुझे पसन्द नहीं आता । किन्तु प्रायः वे गलत कहते हैं। अपना बखान सभी को पसन्द आता है। क्योंकि बखान सुनने के बाद क्या नया उत्साह आता है, थकावट उतर जाती है। दूसरा एक बालक आया और उसने कहा कन्हैया मैं तो बरफी लाया हूँ। मैंने सभी को दे दी है। तू ही अकेला बाकी है। उसने लाला के मुँह में बरफी डाल दी। इस प्रकार श्रीकृष्ण ग्वालबाल मित्रों के साथ प्रेम से भोजन करते हैं। तुम इसका दर्शन मन से करो और ऐसी भावना करो कि मैं इस समय वृन्दावन में हूँ, श्रीकृष्ण के ग्वालबाल मित्रों के साथ मण्डल में हूँ। मैं कृष्ण के लिए अच्छी सामग्री ले गया हूँ। मैं लाला को खिला रहा हूँ। उस समय तुमको समाधि लग जाएगी। यह मन संसार की लीला का चिन्तन करने से बिगड़ गया है। यह यदि श्रीकृष्ण लाला का चिन्तन करे, तो धीरे-धीरे सुधर सकता है। कन्हैया बर्फी खाता है और बखान करता है कि यह बहुत अच्छी है।

श्रीकृष्ण के बाल मण्डल में एक ब्राह्मण का बालक भी है। वह शांडिल्य ऋषि का पुत्र है। उसका नाम मधुमंगल है। उस बालक की उम्र चार-पाँच वर्ष की है। नंदबाबा ने शांडिल्य ऋषि से कहा है कि यज्ञोपवीत करने के बाद आपका बालक हमारे घर में नहीं खाएगा। अभी उसको जनेऊ नहीं दिया गया है। इसलिए रोज सुबह-शाम हमारे यहाँ भोजन करने के लिए भेजना। वह पुरोहित महाराज का लड़का था इसलिए यशोदा माता उसका बहुत आदर करती हैं उसे लाला के साथ ही भोजन करने के लिए बैठाती हैं। यशोदा मैया यदि लाला के लिए कुछ बनातीं तो बनाने के बाद सबसे पहले पुरोहित महाराज के लड़के को देतीं। इसके बाद लाला को देतीं। यशोदा माता की ऐसी भावना है कि पुरोहित महाराज के आशीर्वाद से बालक का जन्म हुआ है। कन्हैया उसका यजमान है। इसलिए वह रोज लाला के घर भोजन करने आता है।

आज कन्हैया मधुमंगल के पीछे पड़ गया और कहा कि तू प्रतिदिन मेरे घर खाने आता है, लेकिन किसी दिन अपने घर मुझे भोजन करने के लिए नहीं बुलाता। आज मुझे तेरे घर भोजन करना है। तू अभी अपने घर जा और तेरी माँ ने जो कुछ बनाया हो, उसे ले आ। यह सुनकर मधुमंगल थोड़ा शरमा गया और सोचने लगा कि मेरी माँ ने कभी लाला को अपने घर नहीं बुलाया। वह दौड़ते-दौड़ते अपने घर गया। उसकी माँ का नाम पूर्णमासी है। उसने माँ से कहा कि लाला को अपने घर क्यों नहीं बुलाती? तूने अपने घर जो खाने की चीज तैयार की हो, उसे लाला को खाने की इच्छा प्रबल हो उठी है। तू उसमें से मुझे थोड़ा दे दे। पूर्णमासी जानती थी कि कन्हैया परमात्मा है। आज परमात्मा को मेरे घर की वस्तु खाने की इच्छा हुई है। परमात्मा तो माँगता है, किन्तु मैं उन्हें क्या दूँ! पूर्णमासी का हृदय पिघल गया है। वह बोली, 

"बेटा, मैं घर में रसोई करती ही नहीं। तेरे पिता महान् तपस्वी भक्त हैं। उन्हें खाने के लिए अधिक फुर्सत ही नहीं मिलती ।। शांडिल्य ऋषि ऐसे तपस्वी ब्राह्मण हैं कि सबेरे चार बजे उठते हैं, यमुनाजी में स्नान कर आसन पर बैठते हैं और रात के सात-आठ बजे तक नित्य कर्म पूरा करते हैं। उन्होंने सत्कर्म के इतने अधिक नियमों का पालन किया था कि एक पूरा हो, तो दूसरा शुरू करें। प्रातः संध्या पूरी होने पर सूर्यनारायण को अर्घ्य देते हैं, वंदन करते हैं। इसके बाद उनकी स्तुति करते हैं। फिर गणपति महाराज की पूजा शंकर-पार्वती की पूजा, लक्ष्मीनारायण की पूजा करते हैं, वेद मन्त्र बोल-बोल कर एक-एक देवता की अभिषेक के साथ पूजा करते-करते बारह बज जाते हैं। बारह के नाम बजने के बाद मध्याह्न की संध्या करते हैं। मध्याह्न की संध्या में गायत्री का जप करते हैं, वेदाध्ययन करते हैं, देव, ऋषि, पितरों का तर्पण करते हैं। महाराज का नियम है कि प्रतिदिन प्रभु के इक्कीस हजार जप नियमपूर्वक करें। ब्राह्मण का अवतार खाने के लिए नहीं, बल्कि सारे दिन भक्ति करने के लिए है।  यह सब करते-करते सायंकाल की संध्याकाल की संध्या का समय हो जाता है। फिर वे सायं-संध्या करते हैं। भला उन्हें खाने की फुर्सत ही कहाँ है? सायं-संध्या के बाद रात को दो-चार केले खाकर सो जाते हैं। कभी-कभी दूध पीकर सो जाते हैं।

पूर्णमासी महान् पतिव्रता है। वह यह सोचकर कि मेरे पतिदेव भोजन नहीं करते, तो मुझे भी भोजन नहीं करना है। इसलिए वह घर में रसोई ही नहीं बनाती। उसके घर में एक लड़का है वह रोज नंदबाबा के घर खाने जाता है फिर रसोई की आवश्यकता किसके लिए ? पूर्णमासी सारे दिन पतिदेव की सेवा में रहती है। पतिदेव फल खाएँ तो रात को वह बाकी बचे दो-चार फल खाकर उनके चरणों में सो जाती है। पति-पत्नी सारे दिन तपश्चर्या करते हैं। उनका घर तपस्वी ब्राह्मण का घर है। उनके घर में कुछ नहीं हैं, किन्तु सन्तोष है जहाँ सन्तोष है वहाँ सब कुछ है। जहाँ सन्तोष नहीं है वहाँ सब कुछ होने पर भी कुछ नहीं है। पूर्णमासी को सन्तोष है, वह कहती है कि मैं बहुत गरीब हूँ, किन्तु मैंने पूर्वजन्म में कुछ पुण्य तप किया था, जिससे मुझे ऐसे पति प्राप्त हुए हैं। उसके पति को पैसे के लिए कोई प्रवृत्ति करने की इच्छा नहीं होती। वे सारे दिन भक्ति करते हैं। वे प्रायः गरीबी ही में रहते हैं। जो सारे दिन भक्ति करता है वह लक्ष्मीजी को पसन्द नहीं होता। लक्ष्मीजी को मन में ऐसा लगता है कि यह व्यक्ति मुझे अपने मालिक के साथ पाँच-सात मिनट भी एकान्त में बोलने नहीं देता। यह यहाँ से चला जाय तो मैं कुछ अपनी निजी बात करूँ। यह तो मेरे पतिदेव का चरण छोड़ता ही नहीं। इसीलिए जो दिन भर भक्ति करता है, वह लक्ष्मीजी को नहीं सुहाता। जो भगवान् को छोड़कर प्रवृत्ति करता है वह लक्ष्मीजी को सुहाता है। पूर्णमासी ने सुना कि लाला को मेरे घर की वस्तु खाने की इच्छा हुई है, यह सुनकर उनका हृदय भर आया । भला यह गरीब ब्राह्मणी लाला को क्या दे? यशोदाजी रोज मुझसे कहती हैं कि मुझे कुछ सेवा बताओ, किन्तु मेरे पतिदेव किसी की सेवा लेते ही नहीं। कल मैं यशोदाजी से कहूँगी कि थोड़ा खोया भेजो में उससे लाला के लिए मिठाई बनाऊँगी और उसे दूंगी। आज तो घर में कुछ भी नहीं है। यह सुनकर बालक बोला, 

"माँ तू मुझे कुछ दे। दूसरे सभी मित्र लाला के लिये मिठाई लाते हैं। मैं ही एक ऐसा हूँ जो खाली हाथ जाता हूँ।"

 यह कहकर बालक रोने लगा। पूर्णमासी ने अपने घर में देखभाल की, किन्तु उसे दूसरा कुछ नहीं मिला। थोड़ी छाछ पड़ी थी। वही हाथ लगी। पूर्णमासी ने विचार किया कि यह गरीब ब्राह्मणी लाला को दूसरा कुछ क्या दे? वह छाछ देते समय आँख में आँसू भरकर बोली, लाला के लिए घर में जो अच्छी से अच्छी वस्तु हो वही देनी चाहिए, किन्तु मेरे घर में कुछ दूसरी वस्तु नहीं है केवल यह छाछ है, किन्तु वह भी खट्टी है। कन्हैया का शरीर बहुत कोमल है। उसे यह खट्टी छाछ पीने पर बहुत तरह की तकलीफ खड़ी होगी। बेचारी गरीब ब्राह्मणी दूसरा कर ही क्या सकती थी। उसने छाछ में थोड़ी चीनी मिला दी और उसे मीठी बनाकर एक छोटी-सी हाँडी में रख दिया। उसने बालक के हाथ में वह हाँडी देते हुए कहा, 

'बेटा, आज मैं लाला के लिए छाछ दे रही हूँ, किन्तु कल मैं उसके लिए मिठाई दूँगी। आज मेरे घर में कुछ नहीं है। लाला से कहना कि यह छाछ देते हुए मेरी माँ रोने लगी थी, मैं छाछ लेकर आया हूँ।'

गरीब ब्राह्मण का बालक प्रेम से वह छाछ लेकर आया है, लेकिन उसे लाला को छाछ देने की हिम्मत नहीं होती। वह जानता है कि कन्हैया परमात्मा है। यदि उसे छाछ दूँ तो मुझे भी जन्म भर छाछ पीनी पड़ेगी। हमें लाला को अच्छी से अच्छी वस्तु देनी चाहिए। यह छाछ लाला को नहीं दी जा सकती। इसे मैं ही पी जाऊँ। कल मेरी माँ मिठाई बनाएगी। वह मिठाई लाकर मैं लाला को दूँगा। यह विचारकर मधुमंगल छाछ पीने लगा। यह देखकर लाला ने कहा,

 'हे मधुमंगल तेरी माँ ने मेरे लिए छाछ भेजी है, वह मुझे दे।'

 मधुमंगल ने कहा कन्हैया मैं वह छाछ तुझे नहीं दूँगा कल मैं तुझे मिठाई लाकर दूँगा। कन्हैया बोला, 

'तू यह छाछ क्यों नहीं देगा, कल की बात कल देखी जाएगी। मैं तेरी हाँडी खींच लूँगा। मधुमंगल ने देखा कि कन्हैया खड़ा हो गया है। वह दौड़ता हुआ आएगा और हाँडी मुझसे छीन लेगा। मुझे लाला को मिठाई खिलानी है। क्या मैं उसे छाछ दूँ। जब तक कन्हैया आए, तब तक मैं अकेले सारी छाछ पी जाऊँ और हाँडी खाली कर दूँ। ऐसा विचार कर मधुमंगल ने छाछ पीली और हाँडी खाली कर दी। लेकिन अधिक जल्दी के कारण उसके मुँह में से छाछ की एक धारा बाहर निकल पड़ी। वह प्रेम में देह का भान भूल गया था। कन्हैया दौड़ता आया और मधुमंगल का मुँह चाटने लगा। यह प्रेम कथा है। यह जीव जब परमात्मा के साथ प्रेम करते हुए अपना देह भान भूल जाता है, तब परमात्मा भी उसके सामने अपना ईश्वरत्व भूल जाता है। आज श्रीकृष्ण को यह याद नहीं आता कि मैं लक्ष्मी का पति हूँ, वैकुण्ठ का स्वामी हूँ। उसने ग्वालों के साथ ऐसा सच्चा प्रेम किया है कि मधुमंगल उससे शरमा गया। उसने कहा कि 

कन्हैया, तू यह क्या कर रहा है ? 

लाला ने कहा,

 'तेरे घर की जूठी छाछ भी यदि मुझे मिल जाए, तो मेरी बुद्धि सुधर जाए। तेरे पिता महान् तपस्वी ब्राह्मण हैं। उनके पुण्य प्रताप से हमारा ब्रज सुखी हुआ है। चौबीस लाख गायत्री जप का एक -पुरूश्चरण होता है। उस तपस्वी ब्राह्मण ने ऐसे तीन पुरूश्चरण किए हैं। दिन में तीन बार नियमित रूप से संध्या करता है, भगवान् भी उसके घर का माँगकर भोजन करते हैं।'

 लाला ने मधुमंगल के पिता का खूब बखान किया। गरीब ब्राह्मण का बालक अपने पिता का बखान सुनकर खूब खुश हो गया और लाला के कंधे पर हाथ रखकर कहा,

 "कन्हैया, मेरे घर में आज कुछ नहीं था। इसलिए मेरी माँ रोने लगी थी। मेरी माँ ने कहा है कि कल मैं लाला के लिए स्वादिष्ट मिठाई बनाऊँगी। इसलिए मैं कल तेरे लिए मिठाई ले आऊँगा ।"


आकाश में ब्रह्मादि देवता इस लीला का दर्शन करते हैं। ब्रह्माजी के मन में शंका हुई कि यह श्रीकृष्ण तो बालकों का मुँह चाटता है। क्या यह परमात्मा है? क्या जो परमात्मा होगा वह बालकों का मुँह चाटेगा? श्रीकृष्ण की लीला ऐसी विचित्र है कि देवता भी भ्रम में पड़ जाते हैं। यदि आज कल के लोग शंका करें, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। ब्रह्माजी ने ऐसा निश्चय किया कि मुझे श्रीकृष्ण की परीक्षा करनी पड़ेगी कि वे ईश्वर हैं या देव हैं? 

श्री डोंगरेजी महाराज 

हरिओम सिगंल 






कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...