शनिवार, 27 अगस्त 2022

रामनाम जान्यो नहीं

 रामनाम जान्यो नहीं, भई पूजा में हानि।

कहि रहीम क्यों मानिहैं, जम के किंकर कानि।।

"रामनाम जान्यो नहीं।'

राम से अर्थ मत ले लेना दशरथ-पुत्र राम का, नहीं तो भूल हो जाएगी। राम तो दशरथ-पुत्र राम से बहुत पुराना नाम है। स्वभावतः, नहीं तो दशरथ अपने बेटे को राम नाम कैसे देते? नाम तो पुराना रहा होगा। नाम तो पहले से रहा होगा। और भी राम हो चुके थे, परशुराम हो चुके थे। उनका कुल नाम का मतलब इतना ही है--फरसे वाले राम।

 नारद को एक सुबह बाल्मीकि ने अपनी वीणा पर संगीत छेड़े जंगल से गुजरते देखा। रोका, और कहा कि जो भी हो तुम्हारे पास रख दो! बहुत लोगों को रोका होगा जिंदगी में, वही उसका धंधा था, लेकिन नारद जैसा व्यक्ति उसे पहली बार मिला था। उसी ने उसके जीवन में क्रांति ला दी।

 न तो नारद भागे, न गिड़गिड़ाए, न लड़ने को तैयार हुए। बाल्या ठिठका। यह आदमी नये ढंग का था। कहा कि समझे नहीं क्या? मैं कहता हूं जो भी पास हो, मुझे दे दो।

नारद ने कहा, पास तो मेरे बहुत कुछ है, मगर तुम ले सकोगे? पास तो मेरे राम है, मगर लेने की तुम्हारी तैयारी है? मैं तो खोजता ही फिरता हूं उन दीवानों को जो राम को लेने के लिए तत्पर हों। क्या तुमने मुझे पागल समझा है? किसलिए यह वीणा बजा रहा हूं? और किसलिए यह गीत है? और किसलिए यह दूर जंगलों में भटक रहा हूं? अरे उन्हीं की तलाश है जो लेने को राजी हैं। तू लेने को राजी है?

यह और मुश्किल बात थी। इस धन का नाम तो बाल्या ने सुना ही नहीं था। यह कौन सा धन है राम? न कोई पहचान थी, न कोई परिचय था इस धन से।

पूछा कि यह क्या है? सुना नहीं। ये जेवर कभी देखे नहीं। ये आभूषण परिचित नहीं। तुम किस राम की बात कर रहे हो?

नारद ने कहा, मेरे भीतर अनंत का संगीत उठा है, अनाहत नाद उठा है। मेरे भीतर की हृदयत्तंत्री बज उठी है। और अब एक ही आकांक्षा है, एक ही अभीप्सा है कि कितना बांटूं! कितना बांटूं! कितनों को बांट सकूं! यह अपूर्व धनराशि, जितना बांटो बढ़ती जाती है। तुम मुझे लूट न सकोगे। और बाल्या, मैं तुझे सावधान करता हूं कि मुझे लूटने चला तो खुद लुट जाएगा! यह सौदा बड़ा मंहगा है। तू सोच ले। अगर तू लुटेरा है तो हम भी लुटेरे हैं। और तू क्या खाक लूटेगा! बाहर की कुछ चीजें छीन सकता है, तो ज्यादा मेरे पास कुछ है नहीं। यह वीणा है, यह तेरी रही। मगर यह वीणा तो केवल उपकरण है, यह तो भाषांतर का एक उपाय है। जो मेरे भीतर है, उसे कोई भी छीन नहीं सकता। मृत्यु भी नहीं छीन सकती। तू अपनी तलवार म्यान में वापस रख ले। नाहक तेरा हाथ दुखने लगा होगा। मुझे तुझ पर दया आती है। मगर मैं देने को राजी हूं। मगर यह मामला यूं है कि लेने वाला पहले राजी होना चाहिए।

बाल्या ने पूछा, क्या करना होगा लेने के लिए?

तो नारद ने कहा, यह जो राम है, यह जो शब्द है राम, इसकी गुहार मचानी होगी। यह तेरे हृदय में, तेरी श्वासों में यूं ओत-प्रोत हो जाए कि जागे तो जागे, सोए तो सोए, मगर अहर्निश राम की धारा तेरे भीतर चलती रहे। तेरे हृदय की धड़कन राम का गीत बन जाए। तेरी श्वास-श्वास राम का ही अनुच्चार हो जाए। तू चुप भी रहे तो भी तेरे भीतर नाद बजता ही रहे--अखंड, अहर्निश। तब तू जीवन की परम संपदा को पाएगा। तू क्या फिजूल की बातें इकट्ठी करने में लगा है! यह चार दिन की जिंदगी है। यह कचरा इकट्ठा करके क्या करेगा? और जिस ढंग से तू इकट्ठा कर रहा है, मंहगा सौदा है। बहुत पछताएगा पीछे। मिली थी जिंदगी क्या पाने को और कचरा इकट्ठा करने में गंवा दी!

नारद की वह अपूर्व प्रतिमा, नारद का वह अदभुत रूप, वह अपूर्व क्षण, जंगल का वह सन्नाटा, वीणा पर छिड़ा हुआ मद्धम-मद्धम राम का गीत, नारद की वह आंच--बाल्या अभिभूत हो गया। अक्सर यूं होता है कि जिनको तुम तथाकथित संत कहते हो, वे ज्यादा चालबाज होते हैं, ज्यादा हिसाबी-किताबी होते हैं। बाल्या सीधा-सादा आदमी था।  अक्सर यूं होता है कि सीधे-सादे लोग,  कहीं ज्यादा निर्दोष होते हैं। बात चोट कर गई।

बाल्या को नारद ने प्रभु-स्मरण की कीमिया दी। मगर बेपढ़ा-लिखा आदमी था, इसलिए कहानी बड़ी प्रीतिकर है कि वह भूल गया कि राम-राम राम-राम जपना है, वह मरा-मरा मरा-मरा जपता रहा। यूं तुम जोर-जोर से राम-राम राम-राम राम-राम जपोगे तो वह मरा-मरा मरा-मरा प्रतीत होने लगेगा। एक राम दूसरे पर चढ़ जाएगा। एक राम दूसरे से मिल जाएगा, बीच में जगह न रह जाएगी। तो राम-राम लिखा है कि मरा-मरा लिखा है, तय करना मुश्किल हो जाएगा। बेपढ़ा-लिखा आदमी था। लेकिन कहानी कहती है कि वह मरा-मरा जप कर परम सिद्धावस्था को उपलब्ध हुआ।

यह राम के जीवन के पहले की घटना है। राम पुराना नाम है।

और यह भी प्रीतिकर है स्मरण रखना कि बाल्या जब मरा-मरा जप कर...खयाल रखना, सवाल भाव का है, विधि का नहीं। लोग विधियों को ही बिठाने में मर जाते हैं, भाव की चिंता ही नहीं लेते! लोग संस्कृत कंठस्थ करने में मर जाते हैं। सोचते हैं कि मंत्र जब तक भाषा की दृष्टि से शुद्ध न होगा तब तक कैसे सिद्ध होगा! और यह अपूर्व कथा हमारे पास है कि भाषा की अशुद्धि तो दूर, राम और मरा में क्या लेना-देना है! सच पूछो तो बात ही उलटी हो गई। राम यानी जीवन का परम सूत्र और मरा यानी मृत्यु। राम यानी जीवन! जो जीवन को पा सका मृत्यु को जप कर, किस बात की सूचना है? इस बात की सूचना है कि असली सवाल भाव का है; असली सवाल त्वरा का है; असली सवाल भीतर की आकांक्षा का है, अभीप्सा का है; बाहरी सवाल नहीं है।

और बाल्या भील ने ही राम की कथा लिखी। यह भी बात बहुत सोचनीय है कि राम के पहले बाल्या भील ने राम की कथा लिखी। राम बाद में हुए, कथा पहले आई। राम की पूरी कहानी बाल्या भील ने लिखी। जिसके हृदय में परमात्म की प्रतीति हुई हो, उस हृदय से जो भी निकले वह सच हो जाता है। जिस हृदय में राम का साक्षात्कार हुआ हो, उस हृदय से असत्य के निकलने की संभावना ही नहीं रह जाती। इसलिए कथा पहले लिखी और फिर कहानी घटी। घटना पड़ा, मजबूरी थी। बाल्मीकि लिख गए तो वैसा ही होना जरूरी था।

एक बात स्मरण रखना कि रहीम का कोई संबंध दशरथ के बेटे राम से नहीं है, न मेरा कोई संबंध। राम तो केवल एक प्रतीक है। हमारे पास एक पूरा ग्रंथ है, विष्णु-सहस्रनाम, जिसमें भगवान के हजार नाम उल्लेख किए गए हैं। हजार प्रतीक है अनंत का। सभी नाम उसके हैं। इसलिए नाम पर मत अटकना।

यह जो कहा है रहीम ने: "रामनाम जान्यो नहीं, भई पूजा में हानि।'

रामनाम तो तुम सभी जानते हो। रामनाम कौन नहीं जानता? लेकिन इस जानने की बात नहीं है। जानने से मतलब जानना है, मानना नहीं। जानने से अर्थ साक्षात्कार है। जानने से अर्थ प्रतीति है, स्वाद है, अनुभूति है। यूं तो कोई भी राम का नाम जानता है। सारी दुनिया राम का नाम जानती है। हर साल तो राम की कथा देखते हो, राम की कथा सुनते हो, रामलीला देखते हो। लेकिन यह जानना नहीं है। मानना कभी भी जानना नहीं बन पाता। और जिसने मानने से शुरू किया है, वह जानने से वंचित रह जाता है। इसलिए पहला कदम जानने की तरफ है--मानने को छोड़ देना। मानना यानी झूठ। और झूठ से यात्रा शुरू करके कोई कैसे सत्य तक पहुंच सकता है? गलत से चलोगे तो गलत तक ही पहुंचोगे। पहला कदम बहुत जरूरी है, सोच कर उठाना। क्योंकि पहला कदम ही मंजिल की दिशा और मंजिल का अंतिम स्वभाव निर्णय करता है। सच पूछो तो पहला कदम आधी यात्रा है।

"रामनाम जान्यो नहीं।'

इससे यह मत समझ लेना कि तुम्हें तो रामनाम पता है, तो यह रहीम का सूत्र तुम्हारे लिए नहीं। यह तुम्हारे लिए ही है। रहीम खुद तो मुसलमान थे, फिर भी बात बड़ी गहरी कही--रामनाम जान्यो नहीं। और मुसलमान के ओंठों से यह बात और भी गहरी हो जाती है।

साफ है कि रहीम के मन में कोई अंधश्रद्धा नहीं थी हिंदू या मुसलमान होने की। कोई पक्षपात नहीं था। कोई सिद्धांतों की दीवाल नहीं थी। आंखें साफ थीं। चीजों को वैसा ही देख सकते थे, जैसी हैं। दर्पण की तरह निर्मल रहे होंगे।

"रामनाम जान्यो नहीं।'

मानो मत अगर जानना है। मानने को गिरा दो अगर जानना है। पीड़ा होगी गिराने में, क्योंकि सदियों-सदियों से माना है, पूजा है, आराधा है, हृदय के मंदिर में प्रतिष्ठापित किया है। गिराओगे, लगेगा मंदिर खाली हुआ।


हरिओम सिगंल

ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित 




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