शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

कामोत्तेजना

 यततो हापि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥६०॥


अन्वय :- कौन्तेय! हि प्रमाधीनि इन्द्रियाणि यततः विपश्चितः पुरुषस्य अपि मनः प्रसभं हरन्ति ।


अर्थ : हे कौन्तेय! क्योंकि प्रमथनस्वभाववाली (यानी प्रमथनशील) इन्द्रियाँ यत्न करते हुए विवेकशील पुरुष के भी मन को बलपूर्वक हर लेती हैं।


व्याख्या:- यहाँ भगवान् अर्जुन को 'कौन्तेय' यानी हे कुन्ती पुत्र सम्बोधन देकर यह बताते हैं कि प्रातः स्मरण मात्र से पवित्र कर देने वाली माता कुन्ती के गर्भ से उत्पन्न होने से ही तूने युद्ध के समय स्थितप्रज्ञ जैसे सूक्ष्म प्रश्न किया है। अन्यथा ऐसा प्रश्न कौन कर सकता है ? इससे तुम्हारी माता की विलक्षणता ज्ञात होती है। आत्मसाक्षात्कार के बिना विषयासक्ति नहीं छूटती और विषयासक्ति के न छूटने पर निश्चय करके यत्न करने वाले विवेकशील पुरुष के भी मन को मधे डालने वली बलवती श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना और प्राण ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और वाक, पाणि, पाद, गुदा और उपस्थ ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ बलात्कार से हर लेती (विषयों की ओर खींच लेती हैं। 

मनुस्मृति में लिखा है कि 'बलवानिद्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति (मनु. २।२१५) बलवान् इन्द्रियों का समूह ज्ञानी को भी (विषयों की ओर खींच लेता है ।। २१५।। इस प्रकार इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना आत्मसाक्षात्कार के अधीन है और आत्मदर्शन इन्द्रिय-विजय के अधीन है; अतएव ज्ञाननिष्ठा की प्राप्ति बड़ी कठिन है। यहाँ 'हि' शब्द निश्चयार्थक है। विपश्चित पुरुष के भी मन को इन्द्रियाँ मथ डालती हैं। इस सम्बन्ध में एक आख्यायिका का कथन यहाँ उपयुक्त है। 

श्रीवेदव्यास जी अपने शिष्य जैमिनि ऋषि को भगवान् के इसी श्लोक की व्याख्या समझा रहे थे। इस पर जैमिनि ने कहा कि ज्ञानी के मन को इन्द्रियाँ विचलित नहीं कर सकती हैं। इसलिए यह भगवान् का कहा हुआ 'विपश्चितः' पद नहीं है। श्रीमान् इसे हटा कर दूसरा पद लगा दें। इस पर श्रीव्यास जी जैमिनि को प्रमथन करने वली इन्द्रियों का अनुभव कराने के लिये अपने योगबल से अत्यन्त सुन्दरी स्त्री बनकर अन्य सखियों के साथ उनके सामने क्रीड़ा करने लगे। यद्यपि जैमिनि ऋषि एकान्त वास करने वाले, जंगल में गुफा बनाकर उसमें धूप आदि आने के लिये ऊपरी भाग में झरोखा बनाकर बहुत सावधानी के साथ रहते थे, परन्तु जब उस माघ के महीने में बूंद पड़ने से भीग कर साथ की सभी स्त्रियाँ भाग गईं तो अकेली सुन्दरी कन्या को देखकर जैमिनि को दया आ गई और उसके अनुनय को स्वीकार कर अपनी गुफा में उसे रात्रि निवास करने की उन्होंने आज्ञा प्रदान कर दी। स्वयं बाहर रहकर गुफा में जाती हुई कन्या को उपदेश दिया कि रात्रि में मेरे समान ही रूप बनाकर एक ब्रह्मराक्षस तुम्हारे पास यदि जाय तो अन्दर से बन्द किये द्वार को मत खोलना। वह हमारे सदृश अवाज भी करेगा फिर भी तुम सावधानीपूर्वक रहना अर्धरात्रि जब होने लगी तो जैमिनि ऋषि का मन कन्या के भीगने की स्थिति में देखें हुए अंग-प्रत्यंगों के स्मरण से व्याकुल हो उठा और उसके अत्यन्त पतले वस्त्रों से झलकते कमनीय सौन्दर्य को स्मरण कर कामातुर हो गुफा के द्वार पर जाकर खोलने के लिये आवाज देने लगे ।

 स्वामीजी के दिये हुए उपदेश को सुनकर जब वह किसी प्रकार भी द्वार खोलने को राजी नहीं हुई तो क्षुब्ध मन वाले जैमिनि ऋषि गुफा के ऊपर पहुँच कर झरोखे को पत्थर से तोड़ कर नीचे आने के लिये लटक गये। इतने में श्रीव्यास जी ने ऊपर से उनकी शिखा पकड़ ली और कन्या ने उनका चरण पकड़ लिया। अन्त में लज्जित होने पर श्रीव्यास जी ने शिखा छोड़ दी और कन्या भी तिरोहित हो गई जिससे वे निराधार गुफा में गिर पड़े और उसमें रखी कील के भैंसन से शरीर से रक्त निकलने लगा जिससे लिखी गई पुस्तक का नाम 'रक्त-गीता' पड़ा। इससे सिद्ध हो गया कि यत्न करते हुए ज्ञानी को भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ निश्चय करके भ्रष्ट कर देती हैं ||६०||

श्रीत्रिदण्डी स्वामीजी महाराज प्रेणीत श्रीमद्भगवद्गीता - व्याख्यामृतसरिता से




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