शनिवार, 27 अगस्त 2022

मृत्यु

मृत्यु के संबंध में पहली बात आपसे यह कहना चाहूंगा कि मृत्यु से अधिक असत्य और कुछ भी नहीं है। लेकिन मृत्यु ही सत्य मालूम होती है। न केवल सत्य मालूम होती है, बल्कि जीवन का केंद्रीय सत्य भी वही मालूम होती है। और ऐसा प्रतीत होता है कि सारा जीवन मृत्यु से घिरा हुआ है। और चाहे हम भूल जाते हों, भुला देते हों, लेकिन फिर भी मृत्यु चारों तरफ निकट ही खड़ी रहती है। अपनी छाया से भी ज्यादा अपने पास मृत्यु है।

जीवन का जो रूप हमने दिया है, वह भी मृत्यु के भय के कारण ही दिया है। मृत्यु के भय ने समाज बनाया है, राष्ट्र बनाए हैं, परिवार बनाए हैं, मित्र इकट्ठे किये हैं। मृत्यु के भय ने धन इकट्ठे करने की दौड़ दी है, मृत्यु के भय ने पदों की आकांक्षा दी है, और सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि मृत्यु के भय ने ही हमारे भगवान और हमारे मंदिर भी खड़े कर दिए हैं। मृत्यु से भयभीत घुटने टेक कर प्रार्थना करते हुए लोग हैं। मृत्यु से भयभीत आकाश की तरफ, परमात्मा की तरफ हाथ जोड़े हुए लोग हैं। और मृत्यु से ज्यादा असत्य कुछ भी नहीं है। इसीलिए मृत्यु को सत्य मानकर हमने जो भी जीवन की व्यवस्था की है, वह सब भी असत्य हो गई है।

लेकिन मृत्यु का असत्य हमें कैसे पता चले? यह हम कैसे जान पाएं कि मृत्यु नहीं है? और जब तक हम यह न जान पाएं, तब तक हमारा भय भी विलीन नहीं होगा। और जब तक हम यह न जान पाएं कि मृत्यु असत्य है, तब तक जीवन हमारा सत्य नहीं हो सकता है। जब तक मृत्यु का भय है, तब तक जीवन सत्य नहीं हो सकता है। और जब तक मृत्यु से हम डरे हुए कांप रहे हैं, तब तक जीवन को जीने की क्षमता भी हम नहीं जुटा सकते।

जीवन को केवल वही जी सकता है, जिसके सामने से मृत्यु की छाया विदा और विलीन हो गई है। कंपता हुआ मन कैसे जीएगा? डरा हुआ मन कैसे जीएगा? और मौत जब प्रतिपल आती हुई मालूम पड़ती हो तो हम कैसे जीएं? हम कैसे जी सकते हैं?

और हम कितना ही भुलाए रखें मृत्यु को, वह भूली नहीं रहती। मरघट हम गांव के बाहर बनाएं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, वह दिखाई पड़ ही जाता है। रोज कोई न कोई मरता है, रोज कहीं न कहीं मृत्यु घटित होती है और हमारे जीवन की सारी की सारी नींव हिल जाती है। और प्रत्येक बार जब भी मृत्यु घटती हुई दिखाई पडती है, तभी हम जानते हैं कि मैं भी मरूंगा। जब हम किसी की मृत्यु पर रोते है, तब हम सिर्फ उसकी मृत्यु पर ही नहीं रोते, अपनी मृत्यु की खबर पर भी रोते हैं। और जब हम दुखी और पीड़ित होते हैं दूसरे की मृत्यु देखकर, तब हम दूसरे की मृत्यु को देखकर ही दुखी और पीड़ित नहीं होते, उसमें हमारे मरने की संभावना भी प्रकट हो गई होती है।

हर मृत्यु हमारी मृत्यु भी है। और ऐसे जब तक हम घिरे रहें, तब तक हम कैसे जी सकेंगे? तब तक जीना असंभव है। तब तक हमें जीवन का पता भी नहीं चल सकता, न उसके आनंद का, न उसके सौंदर्य का, न उसके रस का। तब तक जीवन का जो परम सत्य है—परमात्मा, उसके मंदिर के द्वार पर भी हम नहीं पहुंच सकते।

मृत्यु के भय ने एक तरह के मंदिर निर्मित किए हैं, वे परमात्मा के मंदिर नहीं हैं। और मृत्यु के भय से एक तरह की प्रार्थनाएं निर्मित हुई हैं, वे भी परमात्मा की प्रार्थनाएं नहीं हैं। परमात्मा के मंदिर पर तो वह पहुंचता है, जो जीवन के आनंद से परिपूरित हो जाता है। और परमात्मा की सीढ़ियां जीवन के सौंदर्य और जीवन के रस से भरी हुई हैं। और परमात्मा के द्वार की घंटियां सिर्फ उनके लिए बजती हैं, जो सब तरह के भय से मुक्त होकर अभय हो जाते हैं।
तब तो बडी कठिनाई मालूम पड़ती है। हम मृत्यु से भरे हुए जीना चाहते हैं। ऐसा कभी भी नहीं हो सकता है। दो में से एक ही बात सत्य हो सकती है। ध्यान रहे, यदि जीवन सत्य है, तो मृत्यु सत्य नहीं हो सकती, और अगर मृत्यु सत्य है, तो जीवन सिर्फ एक सपना होगा—एक झूठ। वह सत्य नहीं हो सकता है। ये दोनों बातें एक साथ होनी असंभव हैं।

लेकिन हमने इन दोनों बातों को एक साथ पकड़ रखा है। ऐसा भी लगता है कि हम जीते हैं, और ऐसा भी लगता है कि हम मरेंगे।
कुछ लोग झुठलाने की कोशिश भी करते हैं। कुछ लोग मृत्यु से भय के कारण ही यह मान लेते हैं कि आत्मा अमर है—सिर्फ भय के कारण। जानते नहीं हैं, सिर्फ मान लेते हैं। कुछ लोग रोज सुबह उठकर यह दोहरा रहे हैं—मंदिरों में बैठकर, मस्जिदों में बैठकर—कि आत्मा अमर है, आत्मा कभी नहीं मरती, आत्मा अमर है। और वे इस भ्रम में हैं कि शायद बार—बार दोहराने से आत्मा अमर हो जाएगी। और शायद वे इस खयाल में हैं कि बार—बार दोहराने से मौत को झूठा किया जा सकता है। मौत झूठी नहीं होती है दोहराने से। मौत तो सिर्फ जानने से झूठी हो सकती है।

ध्यान रहे, यह बहुत आश्चर्य की बात है कि हम जिस बात को दोहराते हैं, उससे विपरीत को हम सदा स्वीकार करते हैं। जब एक आदमी कहता है कि मैं अमर हूं, आत्मा अमर है, और इसको दोहराता है, तब वह इस बात का पता देता है कि भीतर वह जानता है कि मैं मरूंगा, मुझे मरना पड़ेगा। अगर वह यह जानता है कि मैं मरूंगा नहीं, तो अब इस बात को दोहराने की कोई भी जरूरत नहीं है। इसे सिर्फ दोहराता वही है, जो डरा हुआ है।

हम सब तो मृत्यु की तरफ पीठ करके भागते रहते हैं, तो मृत्यु को देख कैसे सकेंगे। हम तो सब मृत्यु की तरफ आख बंद कर लेते हैं। बाहर कोई मरता हो, रास्ते पर किसी की लाश निकलती हो, तो मां अपने बेटे को घर के भीतर बंद कर लेती है और कहती है कि बाहर मत जाओ, कोई मर गया है। मरघट इसीलिए गांव के बाहर बनाते हैं ताकि वह बार—बार दिखाई न पड़े। मौत आमने — सामने न आ जाए। अगर किसी से मरने की बात करो तो वह कहेगा, ये बातें मत करिए।

मृत्यु हमारी ही छाया है। और अगर हम उससे भागते रहे तो हम उसके सामने कभी खड़े होकर पहचान न पाएंगे कि वह क्या है।
 वही मृत्यु से डरते हुए हम अनेक जीवन जी लेते हैं, और फिर भी पहचान नहीं पाते और देख नहीं पाते। और हम इतने भयभीत और इतने डरे हुए लोग हैं कि जब मौत सामने आती है, जब वह पूरी छाया हमें घेरती है, तब हम डर के कारण बेहोश हो जाते हैं।
कोई भी आदमी साधारणत: मरते क्षण होश में नहीं रहता। अगर होश में एक बार रह जाए, तो फिर मृत्यु का भय उसके लिए सदा के लिए विलीन हो जाए। अगर वह एक दफा देख ले कि मरना यानी क्या, मरने में होता क्या है, तो फिर दुबारा उसे मृत्यु का भय न रहे, क्योंकि मृत्यु ही न रहे। और ऐसा नहीं है कि वह मृत्यु पर विजय पा ले। विजय तो हम उस पर पाते हैं जो हो। सिर्फ जानने से ही मृत्यु मिट जाती है। विजय पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता है।

लेकिन हम भी बहुत बार मरे हैं। लेकिन जब भी मरे हैं, तब बेहोश हो गए हैं। बेहोशी में ही मरते हैं, फिर बेहोशी में ही नया जन्म हो जाता है। न हम मृत्यु को देख पाते हैं, न जन्म को देख पाते हैं। और इसलिए हम कभी भी नहीं समझ पाते हैं कि जीवन शाश्वत है। मृत्यु और जन्म बीच में आए हुए पड़ाव से ज्यादा नहीं हैं, जहां हम वस्त्र बदल लेते हैं।

हरिओम सिगंल
ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित 




 

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