शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

जनक दुलारी सीताजी

जनक कोई पुस्तक खोले अध्ययन-मनन में मग्न थे। वे वास्तव में विद्या- व्यसनी थी। आर्यावर्त में एकमात्र मिथिला का ही साम्राज्य था, जहाँ शूद्रों और स्त्रियों के अध्ययन पर कोई प्रतिबंध नहीं था। यह अलग बात है कि जनक के प्रोत्साहन के बाद भी अत्यल्प मात्रा में ही ये लोग गुरुकुल जाने में रुचि लेते थे। तभी उनकी दोनों पुत्रियों के आगमन के कलरव ने उनका ध्यान भंग किया। पुत्रियाँ अभी हाल ही में अपना गुरुकुल का अध्ययन पूर्ण कर मिथिला वापस आ गयी थीं। उनके आगमन के साथ ही बहुत दिनों तक नीरव रहे राजप्रासाद में पुन: कोलाहल की भी वापसी हुई थी।

जनक का निवास, राजा का निवास था मात्र इसीलिये उसे राजप्रासाद कहा जा सकता था, अन्यथा वह भी मिथिला के सामान्य निवासियों के भवनों के समान ही था। जनक राजर्षि थे, उनके निवास में भोग विलास का कोई उपक्रम नहीं था। दास-दासी भी बहुत अधिक नहीं थे। बड़ी पुत्री सीता की वयस चौदह वर्ष के लगभग हो गयी थी। सर्वांग सुंदरी- दूध में जैसे हल्की सी केसर मिश्रित कर दी गयी हो। ऐसा रंग, खूब ऊँचा कद, नितम्बों से भी नीचे आती वेणी, मीन भी लजा जाये ऐसे विशाल- चंचल नयन, गुलाब की पंखुड़ियों जैसे अधरों पर सदैव विलास करती स्मित... विधाता ने जैसे पूरे मन से गढ़ा था उसे। वह जितनी सुन्दर थी उतनी ही विदुषी भी थी, और उतनी ही संस्कारवान भी । योद्धा भी वह बुरी कदापि न थी। ये समस्त गुण छोटी पुत्री उर्मिला में भी थे, किन्तु सीता कुछ विशेष ही थी ।

“पिता! अथर्ववेद को कुछ लोग वेद क्यों नहीं स्वीकारते?” 
सीता, प्रश्न कर रही थी । 
“पुत्री, यह तो वे लोग ही सही बता सकते हैं, मैं कैसे बता दूँ उनकी ओर से?” जनक ने मंद स्मित के साथ कहा।

“आप मुझसे उपहास कर रहे हैं?”

“अरे ! इतना दुस्साहस कैसे कर सकता है जनक ? यदि सीता कहीं रूठ गयीं, तो जनक तो कहीं का नहीं रह जायेगा, क्यों उर्मिला!"

“हाँ सीता ही तो आपकी सगी है, उर्मिला तो कहीं पड़ी मिल गयी थी । ” 
उर्मिला ने मुँह बनाते हुए कहा। सीता वास्तव में सभी की विशेष दुलारी थी, किन्तु इससे उर्मिला को कोई शिकायत नहीं थी । उसे भी तो अपनी दीदी, विश्व में सबसे अच्छी लगती थी; वह थी ही इतनी अच्छी । कम दुलारी उर्मिला भी नहीं थी, और सीता के तो उसमें प्राण बसते थे ।

“ बताइये न!”
 सीता ने जनक से लड़ियाते हुई बोली। उसने उर्मिला की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया था। ध्यान देने की कोई आवश्यकता भी तो नहीं थी। वह क्या जानती नहीं थी कि उर्मिला को उससे कितना स्नेह हैं।

“पुत्री! कोई विशेष कारण नहीं है; कुछ पुरातनपंथी विचारधारा के लोग होते हैं, जो किसी नवीन को स्वीकार नहीं करना चाहते, बस वे ही अथर्व को वेद नहीं स्वीकार करते |”
“आप करते हैं?" 
“हाँ, मैं तो करता हूँ!”
“अच्छा, तो आप क्यों करते हैं?”
“बड़ा विकट प्रश्न है यह तो ।” जनक अपनी हँसी को रोकने का प्रयास करते हुए बोले । 
 “हँसिये मत ! उत्तर दीजिये सीधे से।”

इस बीच पीछे से आकर उर्मिला ने उनके गले में हाथ पिरो दिये थे और उनके सिर पर अपनी ठोढ़ी टिकाये दोनों के वार्तालाप का आनंद ले रही थी ।

"वेद क्या हैं?”
 जनक ने थोड़ा गंभीर होते हुए प्रतिप्रश्न किया, फिर स्वयं ही उत्तर भी दिया।
 "वेद, ज्ञान का कोष हैं; तो अब अथर्व वेद भी तो ज्ञान का कोष हैं, आयुर्वेद का जनक है अथर्ववेद, अतीन्द्रिय शक्तियों का ज्ञान देता हैं अथर्ववेद, प्रकृति के कुछ अनसुलझे रहस्यों को समझने का प्रयास करता है अथर्ववेद; और भी बहुत कुछ है उसमें, तो फिर उसे भला वेद क्यों न स्वीकार किया जाए ?"

“तो फिर कुछ लोग उसे वेद क्यों नहीं स्वीकार करना चाहते?”

“बताया तो, वे पुरातनपंथी लोग हैं, वे किसी नवीन को सहजता से स्वीकार नहीं कर सकते; ऐसे लोग तर्क की उपेक्षा कर, मात्र भावना को प्रश्रय दिया करते हैं।” जनक ने सीता के गालों पर
चुटकी लेते हुए कहा

“उई! खेल मत कीजिये, सही से समझाइये, नहीं तो मैं माता से शिकायत कर दूँगी।”

“अरे नहीं, ऐसा मत कर देना, बताता हूँ... बताता हूँ !” जनक ने डरने का अभिनय करते हुए कहा । जनक के अभिनय पर उर्मिला हँस पड़ी। सीता अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से एकटक उनके मुख की ओर देख रही थी।

“देखो, पहले ऋग्वेद की सर्जना हुई, फिर..." 
“सर्जना नहीं हुई पिता, ऋषियों ने मंत्रों के दर्शन किये।” पहली बार उर्मिला ने अपनी सम्मति देने का प्रयास किया। जनक ने बड़े प्रयास से अपनी हँसी रोकी, और अपने गले में पड़ी उर्मिला की हथेलियाँ पकड़कर उसे सामने खींचकर उसकी आँखों में देखते हुए पूछा

“अच्छा, किसने बताया यह ?”

“ऋषिका मैत्रेयी ने, ऋषि याज्ञवल्क्य ने, और भी सब तो यही कहते हैं। ”
 “तुम उनकी बात सही से समझीं नहीं पुत्री ।”

“कैसे नहीं समझी? सबने स्पष्ट यही कहा है। " 
“अरे कैसे समझाऊँ तुझे?” जनक अपनी सुदीर्घ जटाओं पर हाथ फेरते हुये जैसे अपने आप से बोले-
 “अच्छा हाँ?” जैसे उन्हें समझ आ गया हो-
 “देख, तेरी दीदी कभी-कभी कविता करती है ?"

“हाँ, करती हूँ!”
 उर्मिला बोलती, उससे पहले ही सीता ने गर्व से छाती फुलाते हुए कहा ।
 “अच्छा, क्या जब मन हो तब कविता कर सकती है यह?”
 फिर उन्होंने सीता से पूछा-
 “यदि में कहूँ कि चल अभी मुझे कविता लिखकर दिखा, तो लिख देगी?”

“ऐसे कैसे ? कविता तो बड़ी कठिनता से बनती है; यह कोई गणित का प्रश्न तो नहीं है जो बस सूत्र लगाया और हल हो गया।" फिर जैसे कुछ समझ में आया हो-
 “किन्तु नहीं, कभी-कभी तो अकस्मात स्वतः बन जाती है तो कभी कई-कई दिन मनन करते रहो नहीं बनती, सच में मेरे वश में नहीं होता कविता करना; वह जब उसकी अपनी इच्छा होती है तभी बनती है।” 
सीता ने उत्तर दिया।
“यही बात है।” जनक किसी बच्चे की तरह ताली बजाते हुए बोले- “तो सत्य यह है कि कविता तुम नहीं करतीं, वह अपने आप होती है; परंतु कहती यह हो कि मैंने की है।" 
फिर उर्मिला की ओर देखते हुए बोले- “देखा।"

"ऐसा कैसे ? करती तो मैं ही हूँ।" सीता ने प्रतिवाद किया। 
“अरे! अभी तुमने ही तो कहा जब उसकी इच्छा होती है तो बन जाती है, क्या असत्य बोला था तुमने?"
 “नहीं, किन्तु ... “ सीता गड़बड़ा गई, फिर पिता की बाँह झकझोरते हुए बोली-
 “क्या आप भी ! ... मेरे प्रश्न का उत्तर तो दिया नहीं, उल्टे मेरी कविता का उपहास करने लगे; मेरा यश अच्छा नहीं लगता आपको?”

“अरे! रूठती क्यों हैं? तेरे प्रश्न का भी उत्तर दे रहा हूँ, पहले इस उर्मिला को तो उत्तर दे लूँ ” 
जनक उसके सिर को प्यार से सहलाते हुए कहा- 
"देख, जैसे कविता करना तेरे वश में नहीं है, वह अपने आप बनती है; कविता बनाते समय तू लेखनी दाँतों से चबाते हुए शून्य में निहारा करती है, जैसे शून्य में कुछ देख रही हो और फिर लिखने लगती हैं। " 
 “मैं लेखनी चबाती हूँ? फिर उपहास किया आपने?” सीता ने उनका हाथ झटक दिया

“अरे! छोड़ उस बात को, मैंने अपने शब्द वापस ले लिये; किन्तु उस समय लगता तो ऐसा ही है कि तू शून्य में कविता की पंक्तियाँ देखती हैं और फिर उन्हें लिपिबद्ध कर देती है । "
 “हाँ! देखने वाले को प्रतीत तो ऐसा हो सकता है।” सीता कुछ सोचती हुई बोली।

“आई बात समझ में; ऐसे ही ऋषिगण भी शून्य में देखते होंगे और फिर मंत्र लिख देते होंगे, तो समझा यह गया कि वे मंत्र को देख रहे हैं, यही बात है न?”
 उर्मिला कुछ इस प्रकार बोली जैसे कोई बहुत बड़ा रहस्य समझ लिया हो ।
 “कुछ-कुछ यही बात है।" परंतु एक बात और- "जब ऋषियों ने वेद-मंत्रों की सर्जना आरंभ की, तब मनुष्य को लेखनी का ज्ञान ही नहीं था, तो उस समय ऋषियों ने मंत्र लिखे नहीं, बस उनका सृजन किया और कंठस्थ कर लिया, फिर अपने शिष्यों को कंठस्थ करा दिया; ऐसे ही कई पीढ़ियों तक यही क्रम चलता रहा। धीरे-धीरे वेद समृद्ध होते रहे।”

“अर्थात् पीढ़ियों तक वेदों की रचना चलती रही?”

“और क्या ! ऋक् के बाद कुछ ऋषियों ने यजुः पर कार्य आरम्भ कर दिया, उसके बाद कुछ अन्य ऋषियों ने साम् पर कार्य आरम्भ कर दिया। इस प्रकार पहले यह वेदत्रयी हमारे सामने आई। उस समय सब लोग तीन ही वेद जानते थे। फिर कुछ काल बाद कुछ ऋषियों ने अथर्व वेद की सर्जना आरंभ की; एक बात और जान लो जब वेदत्रयी की सर्जना हुई, तब उनके सर्जक ऋषियों ने उन्हें वेद नहीं कहा था, वेद तो उनके महत्त्व को देखते हुए बाद में कहा गया । "
“तो पहले वेदों को क्या कहा ऋषियों ने?” उर्मिला ने प्रश्न किया

“पहले तो ऋषियों ने उन्हें स्मृति कहा, क्योंकि वे स्मृति के माध्यम से सुरक्षित रखे गये थे... इसे इस प्रकार समझो कि यह वह ज्ञान था जिससे ऋषिगण चाहते थे कि आने वाली पीढ़ियाँ भी लाभान्वित होती रहें, इसीलिये उन्होंने इस ज्ञान को अपने शिष्यों की स्मृति में सुरक्षित कर दिया शिष्य इसे अपने शिष्यों की स्मृति में सुरक्षित करते गये। पीढ़ियों तक यही क्रम चलता रहा, फिर जब मनुष्य ने लिखना सीखा, तब वेदों को लिपिबद्ध कर दिया गया। " “सच में पिता ?” सीता ने आश्चर्य से कहा ।
“हाँ सच में! फिर जब अथर्व की रचना हुई तो उस समय वेदपाठी तीन ही वेद जानते थे- ऋक्, यजु: और सामा कुछ उत्साही और नवीन का स्वागत करने वाले ऋषियों ने अथर्व को भी वेद की संज्ञा देना आरंभ कर दिया, किन्तु बहुसंख्य इसके विरोध में ही रहे। धीरे-धीरे अथर्व की भी स्वीकार्यता बढ़ती गयी; फिर भी आज भी अनेक ऋषि और वेदपाठी अथर्व को वेद के रूप में स्वीकार नहीं करते। तुम्हें पता है कि अभी कुछ काल पूर्व तक अथर्व को अन्य वेद शाखाओं के ऋषि अत्यंत हैय दृष्टि से देखते थे। कुछ कट्टर परंपरावादी आज भी ऐसे ही हैं, किन्तु अधिकांश ने अब अथर्व को भी मान्यता दे ही दी हैं। ”

“अर्थात यह और कुछ नहीं, मात्र नवीन और पुरातन का ही द्वन्द्व है ?" 
"हाँ! ... अच्छा जाओ अब माता के पास जाओ, उनका हाथ बटाओ जाकर" 
“... और मुझे अध्ययन करने दो।" खिलखिलाकर हँसते हुए उर्मिला ने जनक का वाक्य पूरा किया। जनक मुस्कुराकर रह गये। बड़ी हो गयीं है अब दोनों, इनके विवाह के विषय में सोचना पड़ेगा।

सुलभ अग्निहोत्री 





 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...