शनिवार, 25 जून 2022

कुमार, गुरुकुल में

 दशरथ के चारों कुमार, यथा समय गुरु वशिष्ठ के गुरुकुल में दीक्षित हो चुके थे। गुरुकुल में उन्हें राजपुत्र होने के कारण कोई विशेष सुविधा उपलब्ध नहीं थी। उन्हें भी शेष सभी विद्यार्थियों  की भाँति ही समस्त कार्य करने पड़ते थे। प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठना, दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर संध्या - वंदन करना, और फिर हल्का सा जलपान लेकर कक्षा में प्रस्तुत होना। अपने सारे व्यक्तिगत कार्य उन्हें स्वयं ही करने होते थे; ऐसे कार्य जो उनकी सामर्थ्य से बाहर थे, उन्हीं में अन्य आश्रमवासियों से सहायता मिलती थी। मृगचर्म का अधोवस्त्र, अलसी के रेशों से बना हुआ उत्तरीय, कमर में मूर्वा बेल के रेशों की मेखला, कंधे पर सन का तीन लड़ी का यज्ञोपवीत, हाथ में कानों तक आता दण्ड... यही गुरुकुल में ब्रह्मचारी के रूप में उनकी वेशभूषा थी। ; मनुस्मृति के अनुसार यही क्षत्रिय बालकों के लिये गुरुकुल की वेशभूषा थी, दण्ड की ऊँचाई भी वर्ण के अनुसार निर्धारित थी। भिक्षाटन से उन्हें छूट थी; यह बाध्यता मात्र ब्राह्मण बटुकों के लिये ही थी ।


क्षत्रियों को उतना समय शस्त्र - प्रशिक्षण में देना होता था। उन्हें मात्र सांकेतिक रूप में आश्रम के भीतर ही पाँच कुटीरों में भिक्षा माँगनी होती थी। कक्षाओं में सर्वप्रथम योग और व्यायाम की कक्षा होती थी। तदुपरांत वेद और अन्य अध्ययन उसके बाद भिक्षाटन और फिर भोजन, और थोड़ा सा विश्राम आपस में अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा और युद्धाभ्यासा सायंकाल फिर थोड़ा सा जलपान ... फिर खेल और मनोरंजन.... तदुपरांत रात्रिकालीन भोजन । भोजन के बाद आश्रम के कुछ आवश्यक कार्य जैसे गौओं, अश्वों की व्यवस्था, आग जलाने के लिये लकड़ियों की व्यवस्था... अपने शस्त्रास्त्रों की देखभाल आदि करने के बाद शयन।


लाड़-प्यार में पले बालकों को कुछ दिन तो यह सारी व्यवस्था खली, किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अपने को उसके अनुसार ढाल लिया। यह जीवन अब उन्हें आनन्ददायी प्रतीत होने लगा था। आश्रम जीवन में यह कभी उल्लेख ही नहीं आता था कि वे महाराज दशरथ के पुत्र हैं - वे भी एक सामान्य वटुक थे, उन्हें भी गुरुदेव की ओर से इस विषय में किसी से भी कोई उल्लेख करने का स्पष्ट निषेध था। इस समय ये सारे शिष्य, युद्धाभ्यास से निवृत्त होकर विश्राम कर रहे थे। चारों ही भाई समवयस्क से थे| लक्ष्मण और शत्रुघ्न तो जुड़वाँ थे, इस कारण उनमें झगड़ा भी अधिक होता था। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ था - शत्रुघ्न, कड़े अभ्यास से थक गया था, वह राम से बोला 

“भइया! गुरुजी बहुत कठोर श्रम करवाते हैं, नहीं?”

“गुरुकुल में श्रम तो करना ही पड़ेगा; श्रम से चोरी करोगे तो तेजस्वी कैसे बनोगे?"

"यह तो है ही कामचोर भइया ।" लक्ष्मण ने आँखें गोल कर उछलते हुए कहा। 

“भइया, देखो यह मुझे कामचोर कह रहा है।” शत्रुघ्न ने राम की बाँह झकझोरते हुए कहा|

“नहीं लक्ष्मण, तुमको ऐसे नहीं कहना चाहिये ।”

 “ है नहीं ये कामचोर ?” लक्ष्मण अपनी बात पर दृढ़ था

 “कोई नहीं थका, बस यही थक गया। " 

“यह छोटा नहीं है?"

“कुछ निमिष ही तो छोटा है, इसे कहीं छोटा कहते हैं? मेरे बराबर ही दूध पीता है । ”

 “हाँ, जब बड़े होने का लाभ लेना होता है तब नहीं कहते, कुछ निमिष ही तो बड़ा हूँ।” शत्रुघ्न ने मुँह बनाते हुए कहा ।

राम उसकी बात सुनकर हँस दिये, किन्तु कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वे लक्ष्मण से ही सम्बोधित रहे

“ यह तुमसे जल्दी थक गया, इसका मतलब यह तुमसे दुर्बल हैं, अपने से दुर्बल हो, उसकी सहायता करते हैं।"

“हुँह, बड़ा आया दुर्बल ।”

राम और भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न से अवस्था में कुछ दिन ही तो बड़े थे, किन्तु इन दोनों के व्यवहार में अपनी आयु से कहीं अधिक प्रौढ़ता परिलक्षित होती थी। छोटे भाई भी उनके बड़प्पन का पूरा सम्मान करते थे, यह संभवतः उनके गंभीर और मर्यादित आचरण का प्रभाव था। भरत, इन चारों भाइयों में सबसे शान्त थे। वे मुस्कुराते हुए अपना कार्य करते थे। वे किसी भी समस्या से, किसी भी परिस्थिति में आमतौर पर अधीर नहीं होते थे, मुस्कुराते हुए ही उसका निदान खोजते थे। वे आज भी मुस्कुराते हुए ही इस पूरे वार्तालाप को सुन रहे थे। अभी तक उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की थी। अचानक, लक्ष्मण उनकी बाँह पकड़कर हिलाते हुए बोले “भरत दादा! यह तो आपका पिट्ठू हैं, आप समझाते क्यों नहीं इसे कि जितना श्रम करेगा उतना ही बलवान बनेगा | "

“तुम नहीं राम दादा के पिट्ठू हो ?” शत्रुघ्न कैसे दब सकता था, उसने भी उतनी  ही फुर्ती से पलटवार किया।




“नहीं, गन्दी बात; कोई किसी का पिट्ठू नहीं है, हम चारों एक हैं; चलो दोनों, कान पकड़कर इस भूल का प्रायश्चित करो।”

 भरत पहली बार कुछ बोले।


लक्ष्मण और शत्रुघ्न ने बिना किसी प्रतिवाद के अपने-अपने कान पकड़ लिये। 

“बोलो अब नहीं कहेंगे ऐसा " दोनों ने कान पकड़े पकड़े ही भरत की बात दोहरा दी।


भरत ने हँसते हुए दोनों को अपनी भुजाओं में समेट लिया। राम ने भी दूसरी ओर से उन्हें भुजाओं में बाँध लिया, फिर चारों समवेत बोल पड़े, "हम चारों एक हैं, सदैव एक रहेंगे, कभी नहीं लड़ेंगे।”और ठठाकर हँसने लगे।


तब तक गुरुमाता की आवाज सुनाई पड़ी - “आओ सब लोग, अपने-अपने पात्र लेकर आओ !”

सारे बच्चे भंडार से अपने पात्र लेने चल दिये। ये चारों भी उनमें सम्मिलित हो गये। गुरुकुल में डेढ़ सौ के लगभग बच्चे अध्ययन कर रहे थे। सर्वाधिक ब्राह्मणों के बालक थे। क्षत्रिय उनकी अपेक्षा मात्र आधे ही थे, और वैश्य तो गिने-चुने ही थे। शूद्रों का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। पूरे अध्ययन काल को चार-चार वर्ष के तीन वर्गों में विभाजित किया गया था प्रथमा, मध्यमा और उत्तमा।


पहले चार वर्षों के कालखण्ड, प्रथमा में, वेदों को रटाया जाता था; उनकी मीमांसा में नहीं पड़ा जाता था। इसके अतिरिक्त थोड़ा सा योग, थोड़ा सा सामान्य ज्ञान, थोड़ी सी वैदिक गणित और कुछ खेल, जो आगे चलकर युद्ध विद्या का आधार बन सकें, भी सिखाये जाते थे। हाँ, वैदिक आचार-विचार भी सिखाये जाते थे, ताकि विद्यार्थी का आचरण अन्य जनों से कुछ तो भिन्न प्रतीत   हो, और समाज में उनकी महत्ता स्थापित हो सके।


वैश्य, अधिकांशतः इन चार वर्षों के बाद ही गुरुकुल छोड़ देते थे; उनके जीवन-यापन के लिए इतना ज्ञान पर्याप्त होता था। क्षत्रिय भी पर्याप्त संख्या में इसी खण्ड के बाद गुरुकुल छोड़ देते थे, सामान्य वर्ग के ब्राह्मण भी इतनी शिक्षा को ही पर्याप्त मानते थे। उसके बाद अगले चार वर्ष, मध्यमा में वेदों और योग की गहराई में प्रवेश किया जाता था, मनन, चिन्तन और समाधि का अभ्यास करवाया जाता था। यज्ञों में दीक्षित किया जाता था, और शस्त्र विद्या भी सलीके से आरम्भ हो जाती थी। इस सीमा के उपरान्त, उत्तमा में प्रायः उच्च कुलों के ब्राह्मण वटुक ही शेष रह जाते थे, या फिर राजपरिवारों से जुड़े क्षत्रिय अन्य सभी बालक अपने कर्मक्षेत्र में उतर जाते थे। इसमें दोनों वर्गों के अध्ययन क्षेत्र भी पृथक हो जाते थे। ब्राह्मण, वेदों और षड्दर्शन की गहराइयाँ छानने लगते थे, और क्षत्रियों को शस्त्र - विद्या का गहन अध्ययन करवाया जाता था। उच्च कोटि के अस्त्र, दिव्यास्त्र, व्यूह-रचना के साथ-साथ राजनीति और कूटनीति में भी उन्हें पारंगत किया जाता था। कुमारों का अभी प्रथमा खंड का तीसरा वर्ष चल रहा था। इस बीच कई साथ के बालकों से उनकी मित्रता हो गयी थी; किन्तु यह मित्रता औपचारिक ही अधिक थी। मित्रता बढ़ाने का उनके पास समय ही नहीं होता था । गुरुकुल के कार्यों से मुक्त होते ही वे आपस में व्यस्त हो जाते थे। फिर भी सुकेश, वसुदेव, प्रमद, अनिरुद्ध और विशाल से इनके अपेक्षाकृत मधुर संबंध थे। ये पाँचों इनके समवयस्क थे, और इनका भी गुरुकुल में अभी तीसरा वर्ष ही था ।


प्रत्येक अमावस्या और पूर्णिमा को सारे विद्यार्थियों को परिजनों के साथ घर जाने की छूट थी, किन्तु उसी दिन सूरज डूबने से पहले ही उन्हें गुरुकुल में वापस आ जाना होता था। नियमों के उल्लंघन के लिये गुरुकुल में कड़े दंड का प्रावधान था। दंडों के लिये दंड-संहिता जैसी कोई अवधारणा नहीं थी... वे पूर्णतः गुरुजनों के विवेक पर थे। दिये गये दंड के विरुद्ध कहीं भी किसी प्रकार की सुनवाई की व्यवस्था नहीं थी... राज दरबार में भी नहीं। अमावस्या और पूर्णिमा को कुमारों को भी कोई न कोई परिचारक आकर अपने साथ लिवा ले जाता था। स्वयं महाराज या किसी मंत्री के आने पर गुरुदेव का स्पष्ट प्रतिबंध था, कि उनके आने से बालकों में कुमारों का सत्य परिचय जानने की उत्कंठा जागृत हो जायेगी, और फिर वे एक सामान्य विद्यार्थी की भांति नहीं रह पायेंगे। हालांकि सभी जानते थे कि मध्यमा स्तर तक पहुँचते-पहुँचते, गुरुकुल के बालकों के समझादार हो जाने पर, सारे प्रयासों के बाद भी यह परिचय गोपन नहीं रह पायेगा किन्तु इसके साथ ही यह भी सत्य था कि तब तक सहपाठियों के साथ कुमारों के संबंधों की डोर इतनी सुदृढ़ हो चुकी होगी, कि तब उनका कुमार रूप में परिचय पा लेने पर भी बहुत अधिक अंतर नहीं पड़ेगा। जो भी हो, महाराज पूरी ईमानदारी से इस निषेध का पालन कर रहे थे। वे कभी भी गुरुकुल परिसर में कुमारों के पिता के रूप में नहीं आये थे ।


कुछ ही दिनों में कुमारों पर गुरुकुल जीवन का असर प्रत्यक्ष दिखाई देने लगा। वे अब प्रासाद में भी अपने कार्य स्वयं ही करने का प्रयास करते थे। दासियाँ उनकी सेवा करना चाहती थीं, किन्तु वे नम्रता से मना कर देते थे; बेचारी मन मसोसकर रह जाती थीं; आंखिर कुमार उनको भी तो प्रिय थे; उनका वात्सल्य भी तो उमड़ता था कुमारों के प्रति। कभी-कभी वे उनकी माताओं के सम्मुख उलाहना भी देती थीं, कि ये कार्य कुमारों को शोभा नहीं देते; किन्तु मातायें भी हँसकर बात टाल जाती थीं।

गुरुकुल में सभी सहपाठियों के साथ बैठकर भोजन करने में कुमारों को भी विशेष आनन्द आता था; आज भी आ रहा था। भोजन, सदैव की भाँति पूर्णतः निरामिष था... दाल, चपाती, चावल और फल मान्यता थी कि आमिष भोजन, बुद्धि और मन को तामसी वृत्ति की ओर प्रवृत्त करता है, अतः गुरुकुल जीवन में वह पूर्णतः त्याज्य होता था। सभी भोज्य पदार्थ सुस्वादु थे; और कड़ी मेहनत के बाद तो रूखी रोटी भी सुस्वादु लगती है। सभी ने पूरे प्रेम से भोजन प्राप्त किया, और फिर अपने अपने पात्र लेकर धोने चले गये ।


सुलभ अग्निहोत्री 





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