विभीषण और चन्द्रनखा पहुँचे तो ब्रह्मा, रावण और कुंभकर्ण तीनों किसी बात पर खुल कर हँस रहे थे।
चन्द्रनखा ने दूर से ही हाथ जोड़ कर ब्रह्मा को प्रणाम किया “प्रणाम पितामह!"
“आशीर्वाद पुत्री | आयुष्मान भव!"
“पितामह! तपस्या तो हम लोगों ने की थी और आते ही सबसे पहले पूछा आपने इसे।इसने तो कभी आपका स्मरण भी नहीं किया था । "
“पितामह भइया मिथ्या भाषण करते हैं। मैं भी आपको नित्य स्मरण करती थी । " “अरे परस्पर झगड़ो मता यह सबसे प्यारी जो हैं, इसी से मैंने इसे पूछा था। फिर तुम लोग तो यहीं उपस्थित थे। यहीं नहीं थी, मुझे तो अपने सारे बच्चों से मिलना था ।”
“पितामह ! किन्तु आपको इसके विषय में ज्ञात कैसे हुआ? तपस्या में तो यह कभी बैठी ही नहीं थी।"
इस बार विभीषण ने पूछा।
“अरे! तुम लोग जब यहाँ तपस्या में बैठते थे तो यह भी घर में मन ही मन मुझे स्मरण करती थी।" ब्रह्मा चन्द्रनखा का मन रखने के लिये बात बना दी। "करती थी न चन्द्रनखे।"
“जी पितामह! करती थी । "
"देखा। यह भी करती थी।" ब्रह्मा फिर खुल कर हँसे । फिर बोले
“तुम्हारे मन में कुछ प्रश्न मचल रहे हैं, पूछते क्यों नहीं वत्स रावण?"
रावण झेंप गया। मानो चोरी पकड़ी गई हो। पितामह ने उसके मन की बात पकड़ ली थी।
"पितामह हमने जब आपके चरण-स्पर्श किये तो हमें आपके चरणों के स्थान पर सिकता का बोध क्यों हुआ?" वह बोला
“ऐसा है वत्स! जब तुम लोगों की पुकार मेरी मानसिक तरंगों से टकरायी तो मैंने ध्यान लगा कर तुम्हें देखा पल में मुझे तुम्हारा सारा इतिवृत्त ज्ञात हो गया। मैं तो प्रसन्नता से नाच उठा तुम लोग तो विलुप्त ऐसे हो गये थे। यह ज्ञात होते ही कि तुम तो मेरी ही संतानें हो, मैं तुमसे मिलने का लोभ संवरण नहीं कर सका। अब मैं अवस्थित तो था सुदूर ब्रह्मलोक में आने में बहुत समय लग जाता। मैं तो अविलम्ब तुमसे साक्षात् करना चाहता था। बस, मैंने तत्काल अपनी मानसिक शक्ति से अपनी त्रिआयामी छवि यहाँ तुम्हारे सम्मुख प्रक्षिप्त की और उसके माध्यम से मानसिक रूप से तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो गया। यह जो तुम दर्शन कर रहे हो न, वस्तुत: यह मात्र मेरी छवि है, मेरा शरीर तो अभी ब्रह्मलोक में ही विद्यमान है। इसी कारण तुम मेरे शरीर का स्पर्श नहीं कर पाये, मात्र शून्य का आभास हुआ तुम्हें। किन्तु अतिशीघ्र में सशरीर आऊँगा तुम्हारे समक्ष तुम्हें प्रगाढ़ आलिंगन में भरने हेतु मेरा मन भी हुलस रहा है। "
“पितामह क्या हम भी आपकी तरह अपनी त्रिआयामी छवि प्रक्षिप्त कर सकते हैं।"
“क्यों नहीं कर सकते? किन्तु अभी नहीं, उसके लिये सुदीर्घ अभ्यास की आवश्यकता होती है। "
“कब कर पायेंगे हम ऐसा।" कुंभकर्ण ने पूछा
“ब्रह्मा पुन: हँसे । वही स्निग्ध, धवल हँसी। बोले “अरे! उतावले नहीं होता उतावली में किया गया कार्य सम्यक् नहीं हो पाता। बस धैर्य से अभ्यास किये रहो ।”
“अच्छा पुत्रों अब तो मुझे प्रस्थान करना होगा। विलम्ब हो रहा है, किन्तु क्या करूँ तुमसे बिछड़ने का मन ही नहीं हो रहा।"
“तो रुकिये न पितामह! हमारा मन भी नहीं हो रहा कि अभी आप जायें। पहली बार तो मिले हैं हम आपसे ।" रावण ने कहा।
“अत्यंत आवश्यक हैं पुत्रों, किन्तु चलो कुछ काल और सही । ”
“आहा !" चन्द्रनखा ने ताली बजाई "रुक गये पितामहा "
“अच्छा तुम सब एक-एक कर अपनी इच्छा बताओ। प्रथम तुम कहो रावण अपनी इच्छा "
"मैं तो अमर होना चाहता हूँ पितामह!”
“यह किसने कह दिया वत्स तुमसे कि अमरत्व भी संभव है। कोई भी जिसका जन्म हुआ है, वह चाहे चेतन हो या जड़ उसका विनाश अवश्यंभावी है। यह धरती यह अम्बर, सभी नाशवान हैं। मैं भी अविनाशी नहीं हूँ। हाँ योग और प्राणायाम का मेरा अभ्यास इतना दीर्घ है कि काल मेरे पास आने से भयभीत रहता है। फिर भी, मैं भी मात्र दीर्घजीवी हैं, अमर नहीं। वे सारी योग क्रियाएँ जो दीर्घजीवी बनाती हैं, मैं तुम्हें भी सिखा दूंगा। अच्छा और बताओ!”
“और पितामह!... देव, दानव, गंधर्व, नाम, यक्ष आदि कोई भी मेरा वध न कर पाये।" रावण ने कुछ देर सोचने के उपरांत कहा।
“अर्थात् प्रकारान्तर से पुन: वही अभिलाषा!” ब्रह्मा खुलकर हँसे बच्चों की बातें उन्हें आनंद में डुबो रही थीं। आज बहुत समय बाद वे स्वयं को इतना हल्का-फुल्का महसूस कर रहे थे। बच्चों का साथ उन्हें कहाँ मिल पाता था। उनके सामने तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, देव-दानव आदि जटिल प्रश्न लिये उपस्थित रहते थे। हँसते हुये ही वे आगे बोले
“किन्तु रावण! तुमने इसमें मनुष्यों का नाम तो लिया ही नहीं।"
“मनुष्यों को तो हम यूँ मसल देंगे पितामह!” दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ने का अभिनय करते हुये कुंभकर्ण बीच में ही बोल पड़ा।
ब्रह्मा और जोर से हँस पड़े फिर घोर आश्चर्य का अभिनय करते हुये बोले -
“अच्छा!!!! इतना बल है तुममें।"
“हाँ पितामह! मेरे शरीर से दिखाई नहीं देता?"
“दिखाई देता है। दिखाई देता है।" हँसी रोकने का प्रयास करते हये ब्रह्मा बोले।
“पितामह खाता भी तो कितना है। इसका बस चले तो सबके हिस्से का भोजन चट कर डाले" यह चन्द्रनखा थी |
“ऐसा? क्यों कुंभकर्ण चन्द्रनखा का भाग तो नहीं खाते?” ब्रह्मा ने पुन: आश्चर्य का अभिनय किया।"
"नहीं पितामह! माता देती ही नहीं। "
“उचित करती है। "
“कभी तुम्हारा भाग खाये तो मुझे बताना। मैं इसके कान खींच कर सब बाहर निकाल लूँगा " बच्चों के संग ब्रह्मा भी बच्चे बन गये थे।
“अच्छा एक बात बताओ" ब्रह्मा ने थोड़ा गंभीर होते हुये पूछा- “मुझे लगता है कथाएँ अधिक सुनते हो तुम लोगा तभी वरदान और श्राप पर इतना यकीन हैं। हैं न ऐसी बात ?"
“कभी-कभी मातुल सुनाते हैं ऐसी कहानियाँ।" रावण ने कहा।
“वे सारी कहानियाँ मिथ्या हैं। वरदान और श्राप कोई तर्क से ऊपर की शक्तियाँ नहीं है कि बस कहा और हो गया । "
“यह तो आपने बड़ी अद्भुत बात कह दी। हमें समझाइये।" इस बार बड़ी देर से चुप बैठा विभीषण बोला।
"देखो वरदान क्या है किसी का हित करना, किसी की सहायता करना| है न?"
“जी!” सभी समवेत स्वर में बोल उठा
"किसी का हित या सहायता तीन प्रकार से हो सकती है पहला भौतिका किसी को धन की आवश्यकता हुई तो मेरे पास प्रचुर है मैंने उसे उसकी आवश्यकतानुसार दे दिया। किन्तु यदि कोई यह अभीप्सा करे कि उसे त्रिलोक का सारा धन मिल जाये तो मैं भला कैसे दे दूँगा। समझ गये?"
"जी"
“दूसरा शारीरिक या ज्ञान संबंधी। मान लो कोई रोग से पीड़ित है। उसने अभीप्सा की कि रोग दूर हो जाये तो मेरी सामथ्र्य में हैं कि मैं उसके लिये श्रेष्ठतम चिकित्सक, अन्य सुविधाओं और औषधियों की व्यवस्था कर दूँगा किन्तु लाभ तो उस व्यक्ति को उतना ही मिल पायेगा जितना उन श्रेष्ठतम चिकित्सकों, सुविधाओं और औषधियों से संभव होगा। प्रत्येक रोग का उपचार तो मेरे लिये भी संभव नहीं है यदि ऐसा होता तो न कोई रोगी होता और न किसी की मृत्यु होती, सब अमर हो जाते किन्तु मैंने रावण से पूर्व ही कह दिया कि अमर होना तो संभव ही नहीं । उचित है न?"
"जी!”
“रावण से मैंने कहा कि मैं उसे योग और प्राणायाम की क्रियाएँ सिखा दूंगा जिससे वह सदैव स्वस्थ रहेगा और दीर्घजीवी होगा। किन्तु वे समस्त क्रियाएँ करनी तो स्वयं उसे ही होंगी। करेगा ही नहीं तो कैसे प्राप्त होगा उनका लाभ?"
“जी पितामहा पर यह कर लेगा।" चन्द्रलखा ने कहा "यह बहुत उद्योगी हैं।"
“तीसरा हुआ मानसिका यह सबसे महत्वपूर्ण है। जिस प्रकार मैंने मानसिक शक्ति से अपनी त्रिआयामी छवि यहाँ प्रक्षिप्त कर दी और उसके माध्यम से तुमसे बात कर रहा हूँ। ऐसे ही मानसिक शक्ति से मैं अनेक अद्भुत कार्य सम्पादित कर सकता हूँ जो तुम्हें चमत्कार प्रतीत होंगे। मान तो कोई अत्यंत पीड़ा में हैं तो मैं उसे सम्मोहित कर यह भावना दे दूँगा कि उसे पीड़ा का अनुभव ही नहीं होगा। मानसिक शक्ति के प्रयोग से मैं उसके रोग का भी किसी सीमा तक उपचार कर सकता हूँ किन्तु पूर्णतः स्वस्थ तो नहीं कर सकता, वह तो औषधियों से ही होगा। समझझ गये?"
“जी!”
“एक बात और, तुम जानते होगे कि सृष्टि की प्रत्येक वस्तु पंचमहाभूतों से बनी हैं। बस सबके रासायनिक और भौतिक गुण-धर्म भिन्न हैं, उनका संघटन भिन्न है।"
“जी!"
“अब देखो यह सिकता है। मैं अपनी मानसिक शक्ति से इसके गुण-धर्म परिवर्तित कर इसे मिष्ठान्न में परिवर्तित कर सकता हूँ।"
“सच पितामह!” चन्द्रनखा आश्चर्य से बोली- "कीजिये ना!"
“देखो इसके मुँह में पानी आ गया।” कहते हुये ब्रह्मा हँसे ।
"यह तो जन्मजात चटोरी है पितामहा" कुम्भकर्ण ने अपना बदला पूरा किया।
ब्रह्मा हंसे फिर बोले
“अभी नहीं कर सकता। अभी तो मैं ब्रह्मलोक में बैठा हूँ। मेरी छवि यह काम थोड़े ही कर सकती हैं। उसके लिये तो मुझे प्रत्यक्ष में उपस्थित होना पड़ेगा। हाँ! इतना अवश्य कर सकता हूँ कि मिष्ठान्न की छवि वहाँ प्रक्षिप्त कर दूँ और तुम्हें भावना दे दूँ कि तुमने वह मिष्ठान्न उदरस्थ किया "
“वही कीजिये पितामहा "
“क्या खाओगे बताओ?"
“मालपूआ " चन्द्रनखा फौरन बोली। उसकी तत्परता पर शेष सब हँसने लगे तो वह झेप गयी।
“उपहास क्यों कर रहे हो उसका ?” ब्रह्मा ने भाइयों को डाँटने का अभिनय किया। चन्द्रनखा प्रसन्न हो गयी। तभी सबने देखा कि सामने एक रजत थाल में ढेर सारे मालपूये रखे हैं। चन्द्रखा ने उन्हें उठाने का प्रयास किया तो उसके हाथ में बालू आ गई। सारे भाई इस बार खिलखिला कर हँस पड़े। पर यह हँसी बीच में ही रुक गयी। सबको ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने मालपूये खाये हों। आहा क्या स्वाद था? जैसा उन्होंने पहले कभी अनुभव नहीं किया था।
सब संतुष्ट थे।
“और कुछ?” ब्रह्मा ने पूछा
“पितामह श्राप भी इसी तरह से होता होगा?" रावण ने प्रश्न किया।
“हाँ पुत्र! यदि कोई ऋषि यह कहे कि वह श्राप देकर किसी को भस्म कर देगा तो वह ऐसा नहीं कर सकता। वह मात्र सामने वाले को सम्मोहित कर जलन की भावना दे सकता है। उसे यह अनुभव करा सकता है कि वह लपटों में घिरा हुआ हैं। वस्तुत: भस्म करने जितनी शक्ति उपार्जित करने हेतु इतनी साधना और इतने अभ्यास की आवश्यकता होती हैं जो अत्यल्प ऋषियों के पास ही है। वे जब अपनी सम्पूर्ण मानसिक शक्ति किसी एक विशेष बिन्दु पर एकाग्र कर उसे भस्म कर देने की अभिलाषा करते हैं तो वह बिन्दु प्रज्ज्वलित हो उठता है। किन्तु पहले ही बताया कि इस स्तर तक अत्यल्प ऋषि ही पहुँच पाते हैं। इस स्तर को सम्पूर्ण रूप से मात्र शिव, विष्णु और मैंने प्राप्त किया है। कुछ ऋषि-गण भी न्यूनाधिक मात्रा में यह शक्ति अर्जित कर पाये हैं। तथापि इसमें इतनी मानसिक शक्ति व्यय हो जाती है कि पुन: सुदीर्घ साधना की आवश्यकता पड़ती है उसे पुन: प्राप्त करने हेतु।”
“पितामह जिस प्रकार आपने कहा कि आप बालू के गुण-धर्म परिवर्तित कर उसे मिष्ठान्न में परिवर्तित कर सकते हैं। उसी प्रकार बालू के गुण-धर्म परिवर्तित कर उसे अग्नि में भी तो परिवर्तित किया जा सकता होगा। यही क्रिया मनुष्य के शरीर के साथ भी तो संभव होगी?" रावण ने पूछा।
“हाँ वत्स! किन्तु मैंने बताया न कि उसमें इतनी मानसिक शक्ति व्यय हो जाती है कि उसके पुन: उपार्जन हेतु पुन: सुदीर्घ साधना की आवश्यकता होती हैं। अत: कोई भी ऋषि ऐसे प्रयोग नहीं करता। यदि कोई करता है तो अत्यंत क्रोध की अवस्था में ही करता है... और क्रोध में तो मानसिक शक्ति का वैसे ही त्वरित गति से क्षय होता हैं। ऐसा ऋषि अति शीघ्र ही साधारण व्यक्ति की कोटि में आ जाता है। "
“पितामह! आपने मेरी अभिलाषा पूछी ही नहीं!"
कुंभकर्ण अचानक बीच में ही बोल पड़ा वार्ता का रुख पुन: गंभीर से सहज हो गया।
ब्रह्मा बोले -
“अगली बारी तुम्हारी ही है। किन्तु प्रथम रावण की अभिलाषा पर तो वार्ता सम्पूर्ण हो जाये।"
“चलिये उचित ही है। यह अग्रज होने के कारण सदैव लाभ में रहता है। " सब हँस पड़े।
“देखो प्रत्येक व्यक्ति जिसे वह प्यार करता है उसकी सहायता हेतु बिना कहे तत्पर रहता है। है न?"
सबके सिर सहमति में हिलने लगे।
“अगर विभीषण पर कोई वार करेगा तो क्या कुंभकर्ण यह प्रतीक्षा करेगा कि विभीषण सहायता माँगे तब वह जाकर उसे बचाये?"
“कैसी बात कर दी पितामह आपने? मैं तत्काल उस दुस्साहसी को धराशायी कर दूँगा।"
“बस ऐसे ही मैं, तुम्हारे पितामह और पिता भी, तीनों ही तुम लोगों से अत्यधिक प्यार करते हैं। जब भी तुम्हें हमारी सहायता की आवश्यकता होगी, तब हम अवश्य तुम्हारी सहायता हेतु उपस्थित हो जायेंगे। अस्त्र-शस्त्रों के संचालन में मैं तुम्हें पूर्ण पारंगत कर ही दूँगा। अपने पास से नवीनतम दिव्यास्त्र भी तुम्हें दूँगा। तुम्हें ऐसे दुर्धर्ष योद्धा के रूप में विकसित करूँगा जिसके सारा संसार भयभीत रहेगा। किन्तु एक बात सदैव ध्यान रखना अपनी शक्ति का दुरुपयोग कदापि मत करना। तुम्हारी यह अभिलाषा भी पूर्ण होगी कि देव, दानव आदि कोई भी तुम्हारा वध न कर पाये| मैं तत्काल वार और तुम्हारे मध्य उपस्थित होकर तुम्हारी सुरक्षा करूँगा। हाँ यदि तुम्हारी आयु पूर्ण हो ही गयी होगी तो मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाऊँगा। कोई न कोई ऐसा व्यवधान उपस्थित हो ही जायेगा कि मैं सहायता नहीं कर पाऊँगा और जैसा तुम सोचते हो कि मनुष्यों से तुम्हें कोई भय नहीं है तो उनसे तुम्हारे युद्ध में में हस्तक्षेप नहीं करूँगा। यह मुझे शोभा भी नहीं देता कि किसी दुर्बल के विरुद्ध तुम्हारे युद्ध में मैं तुम्हारी सहायता हेतु आऊँ उचित है न?"
“जी पितामह!"
“किन्तु मैं मात्र तुम्हारी सुरक्षा ही कर सकता हूँ, युद्ध तो प्रत्येक अवस्था में तुम्हें स्वयं ही करना होगा। "
“आप तो सब जानते हैं पितामहा यह भी जानते होंगे कि ऐसा समय कब आयेगा जब चाह कर भी आप मेरी सहायता नहीं कर पायेंगे।”
“चतुर हो । किन्तु सत्य तो यह है कि इसके लिये मुझे तुम्हारे जन्मांग पर विचार करना होगा। अभी तो मैं तुमसे भेंट की उत्सुकता में ऐसे ही आ गया। तुम्हारा जन्मांग तो देखा ही नहीं है अभी। किन्तु इतना तो निश्चित है कि ऐसा समय निकट भविष्य में नहीं आने वाला।"
“जी पितामहा देखियेगा अवश्य जन्मांग! "
“अवश्य देखूँगा पुत्रो मुझे स्वयं उत्सुकता रहेगी।"
“अब मेरी बारी?” कुंभकर्ण अपने को रोक नहीं पा रहा था।
“हाँ बोलो, अब तुम्हारी बारी । " ब्रह्मा ने उसकी चंचलता का आनंद लेते हुये कहा
“पितामह मैं तो चाहता हूँ कि मैं बस सोता ही रहूँ... सोता ही रहूँ।”
“इसके लिये तो मुझे कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है। अपना भोजन और बढ़ा दो।आवश्यकता से दूजा चौगुना खाओगे तो वैसे ही भोजन के मद में पड़े रहोगे।”
“किन्तु पितामह माता देती ही नहीं। कहती हैं पेट खराब हो जायेगा, हानि पहुँचायेगा|” “कुछ यौगिक क्रियाएँ सिखा दूँगा, कुछ विलक्षण औषधियाँ बतला दूँगा जिनसे वह भोजन तुम्हारे शरीर को पुष्ट ही करेगा, हानि कदापि नहीं करेगा।"
ब्रह्मा कहा।
फिर बाकी तीनों से बोले “तुम लोग माता को बता देना कि इसे जितना यह खा पाये उतना भोजन दें। यह सब पचा लेगा और फिर इतना शक्तिशाली बन जायेगा कि सम्पूर्ण जगत आश्चर्य करेगा। कह दोगे ?"
“जी पितामहा”
सबने समवेत स्वर में कहा। कुंभकर्ण तो इस बात से खुशी से उछल ही पड़ा- “ये बात हुई पितामहा "
“अच्छा अब तुम बताओ विभीषण। तुम बहुत शांत बैठे हो ।”
“मेरी कोई अभिलाषा नहीं पितामह! बस प्रभु के चरणों में चित्त लगा रहे। बुद्धि सदैव शुद्ध दे पिता से सीखी विद्याओं में आस्था बनी रहे"
“मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं वत्स! ऐसा ही होगा।"
विभीषण की इस इच्छा का मर्म अभी इनमें से कोई नहीं समझता था। स्वयं विभीषण भी।
“अच्छा अब तुम बताओ चन्द्रनखे !"
“मैं तो पितामह मात्र इतना चाहती हूँ कि मैं विश्व की सबसे सुन्दर नारी बनूं।”
ब्रह्मा फिर खुलकर हँसे - “वह तो तुम वैसे ही हो, विश्व की सबसे सुन्दर कन्या। भाइयों के साथ योगाभ्यास करती रहना बस अपने आप बन जाओगी विश्व की सबसे सुन्दर कन्या से सबसे सुन्दर नारी ।”
“पितामह! आइये घर चलिये न! मातामह, माता, मातुल आदि सभी कितना प्रसन्न होंगे आपसे मिलकर "
“नहीं पुत्री अभी नहीं। अभी तो पहले ही अत्यंत विलम्ब हो गया है। अब तो चलूँगा| चलो प्रणाम करो सब " ब्रह्मा ने आनंदित मन से कहा।
लड़कों ने दंडवत कर और चन्द्रनखा ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। ब्रह्मा ने पूरे मन से उन्हें आशीर्वाद दिया। उनका समय अपने इन बच्चों के साथ अत्यंत आनंद में व्यतीत हुआ था। वे अत्यंत प्रफुल्लित थे। और फिर देखते ही देखते वह छवि धूमिल होकर विलुप्त हो गयी। ब्रह्मा अन्तध्यान गये थे।
उधर वृक्षों के झुरमुट में छुपा सुमाली सोच रहा था कि आज उसकी तपस्या पूर्ण हुई। अब उसे छिप कर रहने की आवश्यकता नहीं रही। वह निशंक हो कर कहीं भी जा सकता है अपने इन सौभाग्यशाली दौहित्रों के साथा इनका ब्रह्मा के साथ संबंध स्वत: अब सर्वज्ञात हो जायेगा। ये अभय हो जायेंगे। अब रावण को लंका हस्तगत करने के लिये उकसाने का समय आ गया है।
सुलभ अग्निहोत्री
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