देवों का अपने सौतेले भाइयों दैत्यों के साथ सदैव विवाद चलता रहा। दैत्य कश्यप की दूसरी पत्नी दिति के पुत्र थे, इसी कारण उन्हें दैत्य कहा गया। बल- पराक्रम में वे देवों से कतई कम नहीं थे किन्तु वे कभी भी विष्णु की कूटनीति से पार नहीं पा पाये|
देवराज इन्द्र को अपनी सत्ता से अत्यंत मोह था और विष्णु सहज भाव से उसका सिंहासन बचाये रखने में उसकी सहायता करते थे। स्वाभाविक भी था, इन्द्र आखिर उनके बड़े भाई थे। जब भी दैत्य, ... बाद में रक्ष, देवों पर भारी पड़े तो विष्णु ने ही इन्द्र का उद्धार किया।
इन्द्र की सत्ता की भूख इतनी प्रबल थी कि किसी भी दैत्य, रक्ष या मानव के शक्ति में प्रबल होते ही वह चिंतातुर हो जाता था और छल बल से उसे सताच्युत करने का प्रयास करने लगता था। यह स्थिति सभी इन्द्रों की बनी रही और विष्णु सदैव उनके संकटमोचन बनते रहे।
इसके कुछ उदाहरण देना शायद उचित रहेगा क्षीरसागर - मंथन के साझा अनुसंधान से प्राप्त अमृत को अकेले ही प्राप्त करने के उद्देश्य से देवों ने दैत्यों का महाविनाश किया। बावजूद इसके कि दैत्यों ने उस अभियान की अन्य सभी उपलब्धियाँ सहर्ष देवों को सौंप दी थीं।
अपने पुत्रों के इस महाविनाश से व्यथित दिति (इन्द्र की विमाता) ने पुन: एक ऐसे पुत्र की कामना की जो बड़ा होकर इन्द्र का नाश कर सके तो इन्द्र ने उस पुत्र को गर्भ में ही मार दिया।
विश्वामित्र ने जब अपने तप के प्रभाव से क्षत्रिय होते हुये भी ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया तो पुन: इन्द्र को लगा कि कहीं ये स्वर्ग पर दावा न कर दें तो उसने मेनका को भेज कर विश्वामित्र का तप भंग करने का प्रयास किया।
दानवराज बलि ने अपने श्रेष्ठ शासन से जब चतुर्दिक अद्भुत सम्मान प्राप्त किया तो इन्द्र को पुन: आशंका हुई कि बलि कहीं स्वर्ग पर दावा न कर बैठें तो तो उसने विष्णु की सहायता से छल से बलि को सत्ताच्युत करवा दिया। ऐसी घटनाएँ बार-बार दोहराई गयीं, बिना यह सोचे कि अगला व्यक्ति इन्द्र के सिंहासन का इच्छुक है भी या नहीं। इन्द्र भी आज के राजनीतिज्ञों की भाँति ही यह चाहता था कि उसकी सत्ता को चुनौती देने में समर्थ कोई भी शक्ति पनप न पाये। देव नि:संदेह स्वार्थी थे। उपरोक्त उदाहरणों के अतिरिक्त भी आप देखें उन्होंने अपने विज्ञान या अध्यात्मिक विज्ञान से जो भी उपलब्धियाँ प्राप्त की उनका उपयोग मात्र अपने लिये किया। अपनी उपलब्धियों को जनकल्याण के लिये बाँटना उन्हें कभी स्वीकार नहीं हुआ। सम्पूर्ण पौराणिक इतिहास में देखें तो वायुयान देवों के अतिरिक्त मात्र रावण के पास ही उपलब्ध था किन्तु वह भी उसने कुबेर से छीना था। देवों के पास यदि ऐसी तकनीक थी भी तो उन्होंने कभी भी वह आर्य सम्राटों से साझा नहीं की, बावजूद इसके कि ये आर्य सम्राट जब भी देवों को आवश्यकता हुई, उनकी सहायता के लिये युद्ध में दैत्यों के विरुद्ध उतरते रहे।
इन्द्र का विलासी चरित्र भी सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। आरुणि और अहल्या के चरित्र तो राम कथा में आये ही हैं, अन्यत्र भी ऐसे तमाम प्रसंग उपलब्ध हैं। इन्द्र के पुत्र जयन्त ने तो स्वयं सीता पर ही कुदृष्टि डाली थी जिसका भुगतान उसे अपनी एक आँख गँवा कर करना पड़ा था।
प्रत्येक युग में आर्यों की इस देवपूजन प्रथा का विरोध करने वाले भी हुये। सतयुग में दैत्य तो विरोध करते ही रहे और विष्णु के सहयोग से इन्द्र उनका दमन करते रहे फिर हिरण्यकश्यप व हिरण्याक्ष हुये उन्हें भी विष्णु ने ही समाप्त किया। बाद में माल्यवान आदि ने किया तो भी विष्णु के द्वारा ही उनका पराभव हुआ।
त्रेता में दैत्यों का प्रभाव क्षीण हो जाने से यह प्रतिरोध भी हल्का पड़ गया। इस युग में पहला प्रबल विरोध कार्तिवीर्य अर्जुन और फिर रावण ने दर्ज कराया था। द्वापर में यह कार्य कृष्ण ने किया।त्रेता के दोनों विरोधियों का अन्त करवाने में देव राम के माध्यम से सफल हुये। यद्यपि दोनों अलग-अलग थे किन्तु नाम दोनों का ही राम था। पहले थे महर्षि जमदग्नि के पुत्र राम जो अपने अस्त्र परशु के कारण परशुराम नाम से जाने-पहचाने गये। कार्तिवीर्य ने देव पूजा का विरोध करते हुये अनेक ऋषियों के आश्रमों पर आक्रमण कर उनका विनाश किया था। इनमें एक महर्षि जमदग्नि का आश्रम भी था। इस आक्रमण में स्वयं महर्षि जमदग्नि भी मारे गये थे और उनकी इस हत्या का प्रतिशोध लेते हुये परशुराम ने न केवल कार्तिवीर्य अर्जुन का नाश किया अपितु उन्होंने उस समस्त महिष्मत प्रदेश (आज के मध्यप्रदेश, गुजरात आंशिक राजस्थान और आंशिक महाराष्ट्र) में जो भी क्षत्रिय मिला उसे मौत के घाट उतार दिया।
इसके कुछ ही उपरांत हमारे राम कथानक के एक प्रमुख पात्र रावण ने भी देवों की पूजा का विरोध किया। उसका यह विरोध अत्यंत प्रखर था। उसने मात्र देव पूजा का विरोध ही नहीं किया समर में समस्त देवों को परास्त कर उनका मानमर्दन भी किया। रावण को भी देवों ने लम्बे कूटनीतिक अभियान के बाद दशरथ पुत्र राम के द्वारा समाप्त करवाने में सफलता प्राप्त की। इसका विस्तृत विवरण राम कथा में आपको मिलेगा । देव समर्थक आर्यों के समाज ने इन दोनों को ही विष्णु की उपाधि से विभूषित किया|
द्वापर में कृष्ण ने यही कार्य किया। उन्होंने इन्द्र की पूजा बन्द करवाकर गोवर्धन पूजा का आयोजन करवाया। इस काल तक देवों की शक्ति अपेक्षाकृत क्षीण हो चुकी थी अत: वे कृष्ण का फलदायी प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं थे। उन्होंने कृष्ण से समझौता कर लिया। कृष्ण ने आजीवन किसी भी जाति या संस्कृति का विरोध करने की बजाय बुराई का विरोध किया, वह बुराई कहीं भी क्यों न हो? अपने कितने भी सगे व्यक्ति में क्यों न हो? कृष्ण का यह चरित्र विष्णु के चरित्र से पूर्णत: मेल खाता था। उन्हें श्री विष्णु की उपाधि से विभूषित किया गया। कृष्ण इकलौते पौराणिक चरित्र हैं जो इन्द्र का विरोध करने के बावजूद विष्णु की उपाधि से विभूषित हुये।
सुलभ अग्निहोत्री
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