बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 9

 तीन प्रकार की बुद्धि

 

बुद्धेभेंदं धृतेश्चैव गुणतीस्त्रीवधं श्रृणु।

प्रौच्‍यमानमशेषेण पृथक्त्‍वेन धनंजय।। 29।।

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्यास्कीयें भयाभये।

बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धि: सा पार्थ सात्त्विकी।। 30।।

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।

अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी।। 31।।

अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।

सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी।। 32।।


तथा हे अर्जुन, तू बुद्धि का और धारणा— शक्ति का भी गुणों के कारण तीन प्रकार का भेद संपूर्णता से विभागपूर्वक मेरे से कहा हुआ सुन।

हे पार्थ, प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को एवं भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को जो बुद्धि तत्व से जानती है, वह बुद्धि तो सात्‍विक है। और है पार्थ, जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म की तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता है वह बुद्धि राजसी है।

और है अर्जुन, जो तमोगुण से आवृत हुई बुद्धि अधर्म को धर्म ऐसा मानती है तथा और भी संपूर्ण अर्थों को विपरीत ही मानती है, वह बुद्धि तामसी है।


तथा हे अर्जुन, तू बुद्धि का और धारणा का भी गुणों के कारण तीन प्रकार का भेद संपूर्णता से विभागपूर्वक मेरे से कहा हुआ सुन। हे पार्थ  प्रवृत्ति—मार्ग और निवृत्ति—मार्ग को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को एवं भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को जो बुद्धि तत्व से जानते है, वह बुद्धि तो सात्विकी है।

और हे पार्थ, जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता है, वह बुद्धि राजसी है।

और हे अर्जुन, जो तमोगुण से आवृत हुई बुद्धि अधर्म को धर्म ऐसा मानती है तथा और भी संपूर्ण अर्थों को विपरीत ही मानती है, वह बुद्धि तामसी है।

कृष्ण हर वचन के पहले कहते हैं, हे पार्थ, मुझसे कहा हुआ सुन। सुनने पर बड़ा जोर है। अर्जुन चूकता जाता है, सुन नहीं पाता। कृष्ण कहे जाते हैं और अर्जुन नहीं सुन पाता। कृष्ण कुछ कहते हैं, अर्जुन कुछ सुनता है। वह सुनने से चूकता जा रहा है। सुई बैठती ही नहीं कृष्ण के हृदय पर उसकी। वह वही नहीं सुन पाता जो कृष्ण कहना चाहते हैं, कह रहे हैं। इसलिए संवाद लंबा हुआ जाता है। इसलिए हर वचन के पहले वे कहते हैं, हे पार्थ, मेरे से कहा हुआ सुन।

ये जो तीन गुण हैं सांख्य के, बड़े अनूठे हैं। जीवन के हर पहलू पर लागू हैं। यह कोई दर्शनशास्त्र नहीं है। यह जीवन का सीधा — सीधा विश्लेषण है। ऐसा है; प्रकृति त्रिगुणमयी है। इसलिए स्वभावत: प्रत्येक चीजों के तीन गुण होंगे। और उन तीन के विभाजन से समझ के लिए बड़ी सुविधा मिलती है। उन कोटियों से चीजें साफ दिखाई पड़ने लगती हैं। और जिनके मन अंधेरे में दबे हैं, धुएं से घिरे हैं, उलझे—उलझे हैं, उनके लिए काफी सहारा हो जाता है।

तमोगुण से आवृत हुई बुद्धि अधर्म को धर्म ऐसा मानती है। वह जो तमस से दबा हुआ व्यक्ति है, उसका लक्षण, वह अधर्म को धर्म जैसा मानता है। उसकी बुद्धि विपरीत होती है। वह प्रकाश को अंधेरा मानता है; अंधेरे को प्रकाश मानता है। वह जीवन को मृत्यु की तरह जानता है; वह मृत्यु को जीवन की तरह जानता है। उसका सब कुछ विपरीत है। वह शीर्षासन कर रहा है। उसे सब उलटा दिखाई पड़ता है। उसकी खोपड़ी उलटी है।

तमस विपरीत बुद्धि का नाम है। जो करवाना हो, उसे तमस करने को राजी नहीं होता; वह उससे विपरीत करने को राजी होता है। और इसलिए कई बार तामसी व्यक्ति के साथ तुम्हें बहुत समझकर व्यवहार करना चाहिए। हो सकता है, तुम्हारे उसे सुधारने के सारे उपाय ही उसे बिगाड़ने के कारण हो जाएं।

लेकिन तामसी प्रवृत्ति के व्यक्ति की वह आदत है। उसे बदलना भी बड़ा कठिन मामला है। उससे थोड़ा सोचकर बोलना चाहिए। उससे जो करवाना हो, वही करने को नहीं कहना चाहिए।

क्योंकि हे अर्जुन, जो तमोगुण से आवृत हुई बुद्धि है, वह अधर्म को धर्म ऐसा मानती है, संपूर्ण अर्थों को विपरीत मानती है, वह बुद्धि तामसी है।

और हे पार्थ, जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है।

तामसी बुद्धि उलटा करके देखती है, सात्विक बुद्धि सीधा—सीधा देखती है। वह शुद्ध प्रत्यक्षीकरण है। जैसा है, वैसा देखती है। पत्थर को पत्थर, फूल को फूल; धर्म को धर्म, अधर्म को अधर्म। जैसा है, वैसे को वैसा ही देखना सात्विक बुद्धि है। जैसा नहीं है, वैसा देखना, उलटा देखना तामसी बुद्धि है। दोनों के मध्य में राजसी बुद्धि है।

राजसी बुद्धि, जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य— अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता है।

ठीक—ठीक समझ में नहीं आता कि क्या क्या है, वह मध्य में उलझा हुआ है, बिगचन में पड़ा हुआ है। कुछ—कुछ समझ में भी आता है, कुछ—कुछ समझ में नहीं भी आता। धर्म भी कुछ धर्म मालूम पड़ता है, अधर्म भी कुछ धर्म मालूम पड़ता है। अधर्म भी अधर्म जैसा दिखाई पड़ता है और धर्म में भी कुछ अधर्म दिखाई पड़ता है। राजसी व्यक्ति मध्य में खड़ा है। वह आधा—आधा बंटा है, वह त्रिशंकु है।

इसलिए तुम तामसी व्यक्ति को भी राजसी व्यक्ति से ज्यादा शांत और स्वस्थ पाओगे। यह बड़ी अनूठी घटना है।

तामसी वृत्ति के व्यक्ति आमतौर से ज्यादा सरलता से जीते हुए मिलेंगे, क्योंकि कोई दुविधा नहीं है। साफ ही है उन्हें। जो साफ है, वह बिलकुल गलत है, लेकिन उनकी तरफ से उन्हें साफ है। खाओ—पीओ, मौज करो; यह उनकी परम गति है। इसके पार कुछ है नहीं।

ज्ञानी भी सुनिश्चित है कि सत्य सत्य है, असत्य असत्य है। अज्ञानी भी सुनिश्चित है कि उसे, जिसे वह सत्य समझता है, वह सत्य है; और जिसे असत्य समझता है, वह असत्य है।

दोनों कम से कम सुनिश्चित हैं। मध्य में दोनों के राजसी व्यक्ति है, वह डांवाडोल है। वह ऐसे है, जैसे रस्सी पर चल रहा हो, कभी बाएं झुकता, कभी दाएं झुकता। उसे दोनों बातें ठीक भी लगती हैं और इतनी ठीक भी नहीं लगती कि चुन ले। वह हमेशा दुविधा में है।

राजसी व्यक्ति हमेशा उलझन में है। वह निर्णय नहीं कर पाता; आधा—आधा जीता है। इसलिए राजसी व्यक्ति सब से ज्यादा तनावग्रस्त होगा। उसके जीवन में सब से ज्यादा तनाव, अशांति, बेचैनी, उत्तेजना होगी।

और हे पार्थ, जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता है, वह बुद्धि राजसी है।

प्रवृत्ति—मार्ग और निवृत्ति—मार्ग को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को, बंधन और मोक्ष को जो बुद्धि तत्व से जानती है, जैसा है वैसा जानती है, वह बुद्धि सात्विकी है।

अपने भीतर खोजना कि कौन—सी बुद्धि तुम्हारे भीतर सक्रिय है। और जब तक सात्विक बुद्धि तक पहुंचना न हो जाए, तब तक समझना कि धर्म से संबंध न हो सकेगा।

अगर तामसी व्यक्ति मंदिर भी जाएगा, तो गलत कारणों से जाएगा। राजसी व्यक्ति मंदिर जाएगा, तो पूरा न जा सकेगा, अधूरा जाएगा, आधा बाजार में छूट जाएगा। सात्विक व्यक्ति को मंदिर जाने की जरूरत नहीं, वह जहां होता है, वहीं मंदिर आ जाता है। अपने भीतर ठीक से विश्लेषण कर लेना जरूरी है।

यह अर्जुन तामसी तो नहीं है; दुर्योधन तामसी है। इसलिए गीता दुर्योधन से नहीं कही जा सकी। कहने का कोई उपाय ही न था। प्रश्न ही नहीं है। दुर्योधन तो चार्वाकवादी है; तो खाओ—पीओ, मौज करो, यही सब कुछ है। इसके पार कुछ भी नहीं है। जाना कहां, पाना क्या, आत्मा क्या, परमात्मा क्या—सब व्यर्थ बकवास है। भोग ही एकमात्र मोक्ष है।

दुर्योधन के लिए कोई सवाल ही नहीं उठा। कोई सवाल है ही नहीं। दुर्योधन एक अर्थ 'में सीधा—सादा है। उसकी बुद्धि कितनी ही गलत हो, मगर वह सीधा—सादा आदमी है। उसके जीवन में प्रश्न भी नहीं है। वह अंधेरे से तृप्त है। उसकी जिज्ञासा भी अभी उठी नहीं। अभी बीज टूटा ही नहीं, अंकुर फूटा ही नहीं। कृष्ण से पूछने का सवाल ही नहीं है।

सात्विक बुद्धि का वहां कोई व्यक्ति नहीं है, नहीं तो वह भी नहीं पूछता। इसलिए मैं कहता हूं अगर महावीर वहां होते, तो वे चुपचाप उतरकर रथ से चले गए होते। वे कृष्ण से पूछते भी नहीं कि हे महाबाहो, मेरे हाथ शिथिल हुए जाते हैं, मेरा गांडीव गिरा जाता है; कि मैं कंप रहा हूं मैं भयभीत हूं। मैं जानता नहीं, क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है। मुझे बोध दें।

महावीर यह बात ही नहीं करते, बुद्ध यह बात ही नहीं करते। वे भी क्षत्रिय थे। वे भी धनुष—बाण ऐसा ही चलाना जानते थे जैसा अर्जुन जानता था। उनके भी अपने गांडीव थे। अगर युद्ध के स्थल पर वे होते, वे चुपचाप उतरकर चल दिए होते। कृष्ण पूछते उनके पीछे भी दौड़ते, तो भी वे कहते, नाहक.. हमें कुछ पूछना नहीं है। न दुर्योधन को कुछ पूछना है, न बुद्ध को कुछ पूछना है। पूछना अर्जुन को है, अर्जुन राजसी है। वह मध्य में है। जो मध्य में है, उसे पूछना है। क्योंकि उसे निश्चय करना है। उसे डर है, अगर कृष्ण सहारा न देंगे, तो वह गिर जाएगा, जहां दुर्योधन है वहां। वह नहीं चाहता, दुर्योधन की तरह युद्ध में उतरना नहीं चाहता। वह तो बिलकुल व्यर्थ मालूम पड़ रहा है। वह तो साफ है कि उसमें सिर्फ हिंसा होगी, हत्या होगी, लाखों लोग मरेंगे, पाप फैलेगा। वीभत्स है। उसमें कुछ रस नहीं मालूम होता।



वह महावीर की अवस्था में भी नहीं है कि साफ हो जाए दृष्टि खुल जाए, रख दे गांडीव और जंगल की तरफ चला जाए। वह सात्विक स्थिति भी नहीं है। वह राजस है, वह मध्य में खड़ा है—अनिर्णीत, बेचैन, डांवाडोल, कंपता हुआ। इसलिए कृष्ण से मेल है।

तामसिक व्यक्ति शिष्य बनता ही नहीं। सात्विक को बनने की जरूरत नहीं। राजसिक को! अर्जुन को! सभी शिष्य अर्जुन हैं। अर्जुन तो शिष्यों का सार प्रतीक है।

अपने भीतर खोजना। लेकिन ध्यान रखना, कई और खतरे भी हैं। जैसे मैंने कहा, यह महाभारत का युद्ध और यह महाभारत की कथा बड़ी अनूठी है। वहा युधिष्ठिर भी है। वह भी प्रश्न नहीं पूछता। वह धर्मराज है, लेकिन वह महावीर की तरह युद्ध छोड्कर भी नहीं चला जाता। वह सिर्फ पंडित है। वह सात्विक है नहीं। सात्विक का खयाल है, धारणा है, शब्द हैं। वह पंडित है, उसे प्रज्ञा नहीं हुई है। उसे कोई बोध नहीं हुआ है; वह कोई जाग नहीं गया है। वह वहीं है, जहां अर्जुन है, लेकिन पांडित्य में दबा है। अर्जुन सीधा—सादा है। वह पांडित्य में दबा नहीं है। इसलिए प्रश्न पूछ सकता है। युधिष्ठिर प्रश्न नहीं पूछ सकता, उत्तर उसे खुद ही मालूम है। उत्तर, जो उसने खुद जीवन से खोजे नहीं हैं, उधार हैं। तुम महाभारत में सभी को पा लोगे; वह सारी दुनिया का संक्षिप्त चित्र है। अगर एक—एक पात्र को महाभारत के तुम खोजने जाओगे, तो तुम पाओगे कि वह प्रतीक है। और उस पात्र के पीछे उस तरह के लोग सारी दुनिया में हैं, वह टाइप है।

लेकिन अगर तुम्हारे मन में जिज्ञासा उठी है, तो तुम जानना कि तुम मध्य में खड़े हो। अगर जिज्ञासा के सूत्र को पकड़कर आगे न बढ़े, तो पीछे गिर जाने का डर है। अगर ऊपर न उठे, तो दुर्योधन हो जाने का डर है।

और कृष्ण की पूरी चेष्टा यही है कि वे अर्जुन को दुर्योधन होने से बचा लें और अर्जुन को अर्जुन होने से भी बचा लें। और अगर अर्जुन युद्ध में उतरे, तो ऐसे उतरे, जैसे बुद्ध अगर युद्ध में उतरते तो उतरते—इतनी पवित्रता से, इतनी निर्दोषता से, इतने निर्विकार होकर, एक उपकरण—मात्र, निमित्त—मात्र।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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