बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 6

 गुणातीत जागरण


ज्ञानं ज्ञेयं पीरज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।

करणं कर्म कर्तेति त्रिविध: कर्मसंग ।। 18।।

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदत:।

प्रोच्‍यते गुणसंख्याने यथावच्‍छृणु तान्ययि।। 19।।

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।

अविभक्तं विभक्तेषु तज्जानं विद्धि सात्‍विकम्।। 20।।

पृथक्त्‍वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृश्रश्विधान्।

वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ।। 21।।

यत्तु कृत्‍स्‍नवक्केस्मिन्क्रायें स्थ्यमहैक्कुम्।

अतल्छार्श्रवदल्पं च तत्तामसमुदहतम्।। 22।।


तथा हे भारत, ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय, ये तीनों तो कर्म के प्रेरक हैं अर्थात इन तीनों के संयोग मे तो कर्म में प्रवृत्त होने की इच्‍छा उत्पन्न होती है। और कर्ता, करण और क्रिया, ये तीनों कर्म के अंग हैं अर्थात इन तीनों के संयोग से कर्म बनता है।

उन सब में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता भी गुणों के भेद से सांख्य ने तीन प्रकार के कहे है, उनको भी तू मेरे से भली प्रकार सुन।

हे अर्जुन, जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक—पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मा को विभागरहित, समभाव से स्थित देखता है उस ज्ञान की तू सात्‍विक जान।

और जो ज्ञान अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संपूर्ण भूतों में अनेक भावों को न्यारा— न्यारा करके जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान।

और जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही संपूर्णता के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्ति वाला, तत्‍व अर्थ से रहित और तुच्‍छ है, वह ज्ञान तामस कहा गया है।


तथा हे भारत, ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय, ये तीनों तो कर्म के प्रेरक है अर्थात इनके संयोग से तो कर्म में प्रवृत्त होने की इच्छा उत्पन्न होती है। और कर्ता, करण और क्रिया, ये तीनों कर्म के संग्रह हैं अर्थात इनके संयोग से कर्म बनता है।

उन सब में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता भी गुणों के भेद से सांख्य ने तीन प्रकार के कहे हैं, उनको भी तू मेरे से भली प्रकार सुन। दो वर्तुल हैं तुम्हारे जीवन के। भीतर का वर्तुल है, ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय। वह विचार का वर्तुल है, जहां तुम जानने वाले हो, जहां कुछ जाना जाता है और जहां दोनों के बीच में ज्ञान घटता है। जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो, तब भी तुम ज्ञाता होते हो, ज्ञान घटता है, ज्ञेय होता है। तुम्हारे अकृत्य में भी विचार का कृत्य तो जारी रहता है। इसलिए विचार तुम्हारे भीतर का कृत्य है।

ज्ञाता का अर्थ है, कर्ता, विचार का कर्ता, विचारक। ज्ञेय का अर्थ है, जिस पर तुम अपने ज्ञाता को आरोपित करते हो, आब्जेक्ट, विषय। और दोनों के बीच जो घटना घटती है, वह ज्ञान। यह तुम्हारे मन की प्रक्रिया है।

तो पहली परिधि तुम्हारे आत्मा के आस—पास मन की है; एक वर्तुल। फिर दूसरा वर्तुल तुम्हारे शरीर का है। शरीर में दूसरा वर्तुल है कर्ता, करण और क्रिया का। जब विचार कृत्य बनता है, तब तुम कर्ता हो जाते हो। कोई उपकरण, हाथ, आंख करण बन जाते हैं। और बाहर के जगत में कृत्य घटित होता है। कर्ता, करण और क्रिया, यह तुम्हारा दूसरा वर्तुल है।

ऐसा समझो कि मध्य का बिंदु, केंद्र, तुम्हारी चेतना है। उसके बाद पहला धुआं इकट्ठा होता है विचार का, ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान। फिर जब धुआं और भी सघन हो जाता है, ठोस हो जाता है, तो कृत्य का जन्म होता है, तब कर्ता, करण और क्रिया।

संसार से तुम्हारा संबंध कर्म का है। इसलिए जब तक तुम कुछ कर्म न करो, तब तक अदालत तुम्हें नहीं पकड़ सकती। अगर तुम बैठकर रोज हजारों लोगों की हत्या करते हो विचार में, तो कोई अदालत तुम पर मुकदमा नहीं चला सकती। वह यह नहीं कह सकती कि यह आदमी रोज बैठकर बिना हजार की हत्या किए नाश्ता नहीं करता! मजे से करो, कोई मनाही नहीं है। और तुम अदालत के सामने वक्तव्य भी दे सकते हो कि मैं रोज एक हजार की हत्या करके, फिर नाश्ता करता हूं लेकिन विचार में।

समाज का विचार से कोई लेना—देना नहीं है। तुम समाज की परिधि में उतरते ही तब हो, जब विचार कृत्य बनता है। जब विचार कृत्य बन जाता है, तब तुम्हारा संबंध दूसरे से जुड़ा। शरीर हमें दूसरे से जोड़ता है। इसे तुम ठीक से समझो।

मन तुम्हारी आत्मा को शरीर से जोड़ता है। इसलिए जब तक तुम ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय के बीच उलझे हो, तुम्हारा संबंध शरीर से बना रहेगा; वह सेतु है। फिर कर्म तुम्हें अपने शरीर को दूसरों के शरीरों से जोड़ता है, संसार से जोड़ता है। संसार और समाज तुम्हारे कर्म की चिंता करते हैं।

इसलिए अदालत उस बात को पाप कहती है, जो कृत्य हो जाए। विचार में घटे पाप को पाप नहीं कहती, अपराध नहीं कहती। लेकिन धर्म? धर्म तो उसको भी पाप कहता है, जो तुम्हारे भीतर विचार में घटे। यही अपराध और पाप का भेद है।

अपराध ऐसा पाप है, जो कृत्य बन गया; और पाप ऐसा अपराध है, जो केवल विचार रह गया। जहां तक तुम्हारा संबंध है, विचार करने से ही कृत्य हो गया। तुम उतने ही पाप के भागीदार हो गए विचार करके भी, जितना तुम करके होते, यद्यपि दूसरा तुमसे अप्रभावित रहा। दूसरे पर प्रभाव तो तब पड़ेगा, जब तुम विचार को कृत्य बनाओगे।

तो समाज तुम्हारे कृत्य पर रोक लगाता है, धर्म तुम्हारे विचार पर। समाज की नीति सिर्फ इसी बात पर निर्भर है कि तुम शुभ कर्म करो, अशुभ कर्म मत करो। धर्म की चिंतना इस पर है कि तुम शुभ विचार करो, अशुभ विचार मत करो।

धर्म ज्यादा गहरे जाता है। क्योंकि अंततः अशुभ विचार ही अशुभ कर्म बन जाएगा किसी दिन। वह बीज है, अभी दिखाई नहीं पड़ता, सूक्ष्म है। फिर वह प्रकट होगा।। फिर वह वृक्ष बनेगा। फिर उसमें शाखाओं पर शाखाएं निकलेंगी और वह फैल जाएगा। और उसका जहर अनेकों लोगों के जीवन को प्रभावित करेगा।

इसलिए इसके पहले कि कोई विचार कृत्य बने, उसे विचार के जगत में ही शून्य कर दो। वही आसान भी है। बीज को मिटाना बहुत आसान है, वृक्ष को मिटाना मुश्किल हो जाएगा। वृक्ष बड़ी शक्ति बन जाता है। विचार को लौटा लेना आसान है, कृत्य को लौटाना मुश्किल हो जाएगा। वह छूटा हुआ तीर है। वह फिर वापस कैसे लौटेगा?

ये दो वर्तुल हैं। और इन दोनों वर्तुलों से जो मुक्त हो जाता है, वही साक्षी है। जब तुम कृत्य के भी देखने वाले हो जाते हो और कर्ता नहीं रह जाते और तुम विचार के भी देखने वाले हो जाते हो और ज्ञाता नहीं रह जाते, तुम मात्र साक्षी हो जाते हो। इसे थोड़ा समझना। बहुत—से लोग साक्षी और ज्ञाता का अर्थ एक—सा ही कर लेते हैं। वे उसे पर्यायवाची समझते हैं। वे भूल में हैं। ज्ञाता तो कर्ता हो गया। उसने कहा, मैंने जाना। मैंने किया, तो कर्ता हो गए; मैंने जाना, तो भी कर्ता हो गए, सूक्ष्म में। मैंने सोचा। मैं आ गया। ज्ञाता भी कर्ता का सूक्ष्म रूप है।

साक्षी सबके पार है। साक्षी में कोई मैं— भाव नहीं है। न तो जाना, न किया, सिर्फ देखते रहे। साक्षी में द्रष्टा तक भी नहीं है, क्योंकि द्रष्टा जैसे कहा, फिर कर्ता बना।

      साक्षी बड़ा अनूठा शब्द है। उसमें कर्ता का भाव बिलकुल नहीं है। द्रष्टा में देखने का भाव आ गया, कि देखा। तत्काल तीन हो गए। देखा, द्रष्टा बने, तो दर्शन और दृश्य।

साक्षी सबका अतिक्रमण कर जाता है। तुम सिर्फ हो; न तुम करते, न तुम देखते, न तुम सोचते। सारी क्रियाएं शून्य हो गईं। जो साक्षी में जीता है, वही कर्म करते हुए अकर्म में जीता है। देखते हुए देखता नहीं, जानते हुए जानता नहीं, सिर्फ होता है। यह शुद्धतम अस्तित्व है। यह आत्यंतिक परिशुद्धि की धारणा है।

कृष्ण कहते हैं, सांख्य ने ज्ञान, कर्म और कर्ता को भी तीन गुणों के अनुसार विभाजित किया है। तू उन्हें भी मुझसे भली प्रकार सुन। जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक—पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मा को विभागरहित, समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्विक जान।

सांख्य का एक सुनिश्चित सिद्धांत है कि प्रत्येक चीज तीन—रूपी होगी, क्योंकि सारे अस्तित्व की सभी चीजें त्रिगुण से बनी हैं। तो वह विभाजन हर जगह करते हैं। और वह विभाजन कीमती है। उससे साधक को साफ सीढियां हो जाती हैं, कैसे आगे बढ़ना। सत्व कहते हैं उस ज्ञान को, जब सब जगह अनेक रूपों में एक ही दिखाई पड़ने लगे। रूप हों अनेक, नाम हों अनेक, सभी नामों में एक ही अनाम की प्रतीति होने लगे और सभी रूपों में एक अरूप झलकने लगे, सभी आकार एक ही निराकार की तरंगें मालूम होने लगें, तब ज्ञान सात्विक। जब अनेक में एक दिखाई पड़े, तो ज्ञान सात्विक।

और जब मनुष्य संपूर्ण भूतों में अनेक— अनेक भावों को न्यारा—न्यारा करके जानता है, उस ज्ञान को राजस जान। और जब अनेक अनेक की भांति दिखाई पड़े! अनेक एक की भांति दिखाई पडे, तो सत्व। अनेक अनेक की भांति दिखाई पड़े, तो राजस। भेद दिखाई पडे, द्वंद्व दिखाई पड़े, विरोध दिखाई पड़े, सीमाएं दिखाई पड़े, तो राजस।

क्षत्रिय की सारी जीवन— धारा सीमा से बंधी है। वह लड़ता है सीमा के लिए। सीमा को बडा करने की चेष्टा में लगा रहता है। पर सीमा है।

ब्राह्मण का सारा जीवन असीम से बंधा है। लड़ने का कोई उपाय नहीं है। सीमा बनाने की कोई सुविधा नहीं है। परिभाषा करना गलत है।

फिर तीसरा है तमस से भरा हुआ व्यक्ति। तीसरे व्यक्ति को हम ऐसा समझें कि उसे न तो एक दिखाई पड़ता, न अनेक दिखाई पड़ते; उसे दिखाई ही नहीं पड़ता। वह अंधा है। जैसे दीया बुझा है। दीया तो रखा है, पर ज्योति नहीं है। तो नाम मात्र का दीया है, उसको क्या दीया कहना! मिट्टी का दीया रखा है, तेल भरा है, बाती लगी है, पर ज्योति नहीं है।

फिर ज्योति जलती है। थोड़ा—सा प्रकाश होता है। अंधेरे में चीजें नहीं दिखाई पड़ती थीं, अब अनेक चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं; थोड़ा—सा प्रकाश है। इस थोड़े—से प्रकाश में अनेक का अनुभव होता है।

फिर महाप्रकाश का जन्म है। जहां दीए की बाती, दीया, तेल, सब खो जाते हैं। बिन बाती बिन तेल! तब सिर्फ प्रकाश रह जाता है। उस प्रकाश में सभी रूप लीन हो जाते हैं।

तमस यानी अंधकार। इस शब्द का अर्श भी अंधकार है। सत्व का अर्थ, प्रकाश। सत्व का अर्थ है, जहां परम प्रकाश हो गया। तमस का अर्थ है, जहां परम अंधकार है। अंधकार में कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। न एक, न अनेक। सत्य में सब कुछ दिखाई पड़ता है और इतनी गहराई से दिखाई पड़ता है कि परिधियों में जो अनेकता है, वह खो जाती है और केंद्र की एकता अनुभव होने लगती है। और दोनों के मध्य में है राजस। कुछ दिखाई पड़ता है, कुछ नहीं भी दिखाई पड़ता। कुछ अंधेरा है, कुछ प्रकाश है। प्रकाश—अंधेरे का तालमेल है। तो सीमाएं दिखाई पड़ती हैं, अनेक दिखाई पड़ता है।

ये तीन चित्त की दशाएं हैं। तुम कहां हो, अपने को ठीक से पहचान लेना चाहिए, क्योंकि वहीं से तुम्हारी यात्रा हो सकेगी।

अगर तुम तमस में हो, तो घबड़ाना मत। अगर यह भी तुम्हें समझ में आ जाए कि मैं तमस में हूं तो राजस शुरू हो गया। क्योंकि इतना बोध भी दीए में थोड़ी रोशनी आने से शुरू होता है। अगर तुम्हें ऐसा लगे कि मैं तमस में हुं, घबडाना मत। जो भी सत्व को उपलब्ध हुए हैं, सभी तमस से गए हैं। तमस में होने का अर्थ है, तुम अभी गर्भ में हो। बस, कुछ घबड़ाने की बात नहीं। जन्म होगा। थोड़ा जागो। थोडे होश को सम्हालो। तमस से उठो। ऊर्जा को उठाओ। रजस का जन्म शुरू हुआ।

रजस यानी ऊर्जा, शक्ति। थोड़ा हिलो—डुलो। थोड़ा जीवन में गति लाओ। अगति में मत पड़े रहो। थोड़ा घूमो आस—पास, देखो। अनेक का जन्म होगा।

जैसे ही अनेक का जन्म हो जाए, फिर एक—एक में थोड़ा गहरा देखना शुरू करो कि वस्तुत: अनेक हैं या सिर्फ दिखाई पड़ते हैं।

जैसे सागर के पास खडे रही, कितनी लहरें दिखाई पड़ती हैं! फिर हर लहर में गौर से देखो, तो वही सागर है, एक ही सागर है। ऊपर से जो अनेक दिखाई पड़ता है, वह भीतर से एक है। फिर सत्व का जन्म होता है।

और इन तीनों के पार है साक्षी। इसलिए उसको हमने तुरीय कहा है, चौथा। सत्व को भी मंजिल मत समझ लेना। क्योंकि तुम कहते हो कि हमें लहरों में सागर दिखाई पड़ता है, पर अभी लहरें भी दिखाई पड़ती हैं। अभी ऐसा नहीं हुआ कि सागर ही सागर हो गया हो। लहरों में सागर दिखाई पड़ता है। नामों में अनाम दिखाई पड़ता है, रूप में अरूप दिखाई पड़ता है, पर रूप भी दिखाई पड़ता है। फिर इन तीनों के पार तुम हो, वह जो साक्षी है।





जैसे कभी अंधेरा दिखाई पड़ा, फिर अंधेरा चला गया। फिर थोड़ी रोशनी आई, जिससे अनेक का जगत फैला, संसार का फैलाव हुआ, दुकान खुली, प्रकाश फैला, बहुत कुछ दिखाई पड़ा। जन्मों—जन्मों उसमें यात्रा की। फिर अनुभव गहरा हुआ। सत्य की प्रतीति हुई, प्रकाश सघन हुआ; अनेक में एक की झलक आने लगी। वह भी दिखाई पड़ा।

लेकिन जिसको ये तीनों दिखाई पड़े, जो इन तीनों से गुजरा, वह चौथा है। इसलिए हम उस चौथी अवस्था को गुणातीत कहते हैं। ये तीन तो गुण की अवस्थाएं हैं, चौथी गुणातीत है। इन तीन से गुजरना है और चौथे को पाना है। और जब तक चौथी न आ जाए, तब तक रुकना मत। तब तक कहीं ठहरना पड़े, तो ठहर जाना, रातभर का विश्राम कर लेना। सराय समझना।

तमस को तो समझना ही सराय, सत्य को भी सराय ही समझना। असाधु को तो छोड़ना ही है, साधु को भी छोडना है। झूठ को तो छोड़ना ही है, सत्य को भी छोड़ना है। क्योंकि अंततः पकड ही छोड़नी है। और एक ऐसी चैतन्य की अंतिम अवस्था में आ जाना है, जहां न तो पकड़ने वाला है, न पकड़ने को कुछ है। सिर्फ बोध—मात्र है।

उसको महावीर ने कैवल्य कहा, उसको बुद्ध ने शून्य कहा, उसको पतंजलि तुरीय कहते हैं, उसको कृष्ण गुणातीत अवस्था कहते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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