मंगलवार, 17 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 17 भाग 9

 दान—सात्‍विक, राजस, तामस


दातव्‍यमिप्ति यद्दानं दींयतेउनुपकारिणे।

देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्‍विक स्मृतम्।। 20।।

यत्तु प्रत्यक्कारार्थं फलमुद्दिश्‍य वा पन:।

दीयते च परिक्‍लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।। 21।।

अदेशकाले यद्दानमयात्रेभ्यश्च दीयते।

असत्‍कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदष्ठतम्।। 22।।


हे अर्जुन, दान देना ही कर्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर प्रत्युपकार न करने वाले के लिए दिया जाता है, वह दान तो सात्‍विक कहा गया है। 

और जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को उद्देश्य रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है।

और जो दान बिना सत्कार किए अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश—काल में कुपात्रों के लिए दिया जाता है वह दान तामस कहा गया है।


हे अर्जुन! दान देना ही कर्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर प्रत्युपकार न करने वाले के लिए दिया जाता है, वह दान सात्विक।

और जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को उद्देश्य रखकर दिया जाता, वह दान राजस।

और जो दान बिना सत्कार किए अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश, काल में कुपात्रों को दिया जाता है, वह तामस कहा गया है।

कृष्ण तीनों गुणों को जीवन की सब विधाओं में समझाने की कोशिश कर रहे हैं।

दान देना कर्तव्य है........।

कर्तव्य शब्द को थोड़ा समझना चाहिए। क्योंकि जो अर्थ कृष्ण के समय में कर्तव्य का होता था, अब वह अर्थ रहा नहीं, विकृत हो गया है। शब्द पर बड़ी धूल जम गई है। शब्द खराब हो गया है। तुम तो कर्तव्य तभी कहते हो किसी चीज को, जब तुम करना नहीं चाहते और करना पड़ता है। जैसे कि बाप बीमार है और तुम पैर दबा रहे हो; और तुम मित्रों से कहते हो, कर्तव्य है। तुम यह कह रहे हो कि करना तो नहीं था, लेकिन लोक—लाज करवाती है। तुम्हारे मन में कर्तव्य का अर्थ ही यह हो गया है कि जो जबरदस्ती करना पड़ता है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, दुकान करनी पड़ रही है। अब कोई प्रेम नहीं मालूम पड़ता। बच्चों को बड़ा करना है, इसमें कोई अहोभाव नहीं मालूम पड़ता। बच्चों को शिक्षा देनी है, उनको जीवन की दिशाओं में यात्रा पर भेजना है, इसमें कोई रस नहीं मालूम पड़ता। कर्तव्य है! जैसे बच्चे खुद जबरदस्ती घर में घुस गए हों। जैसे बच्चों ने खुद ही आकर कब्जा कर लिया हो और घोषणा कर दी हो कि हम तुम्हारे बच्चे हैं; अब तुम दुकान करो और कर्तव्य करो!

कर्तव्य शब्द की गरिमा खो गई। कृष्ण के समय में कर्तव्य शब्द बड़ा दूसरा अर्थ रखता था। कर्तव्य का अर्थ यह नहीं था कि जो नहीं करने की इच्छा है, और करना पड़ता है। नहीं, कर्तव्य का अर्थ था—बडा सात्विक भाव था उसमें छिपा—वह अर्थ था, जो करने योग्य है, जो ही करने योग्य है, जिसके अतिरिक्त करने योग्य कुछ भी नहीं है।

तुम पिता के पैर दबा रहे हो......।

कर्तव्य का अर्थ है, जो करने योग्य है। तुम्हारे लिए कर्तव्य का अर्थ है, जो करना नहीं चाहते, करने योग्य मालूम भी नहीं पड़ता; मगर क्या करें, संसार करवा रहा है! लोक—लाज है, मर्यादा है, नियम हैं, संस्कार है, करना पड़ेगा। तुम बेमन से जो करते हो, उसी को तुम कर्तव्य कहते हो।

कृष्ण जब कहते हैं कि सात्विक व्यक्ति के लिए दान देना कर्तव्य है, तो वे यह कह रहे हैं कि वह देता है, क्योंकि देने से बड़ा और कुछ भी नहीं है। वह देता है, क्योंकि देने में ही उसका आनंद प्रगाढ़ होता है। देना अपने आप में आनंद है।

दान देना कर्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान दे। देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर।

निश्चित ही, सात्विक व्यक्ति हमेशा इस बात को ध्यान में रखेगा कि वह जो कर रहा है, उस करने के व्यापक, परिणाम क्या होंगे? क्योंकि तुम तुम्हारा कृत्य जब करते हो, तुम तो चाहे समाप्त भी हो जाओगे कभी—हो ही जाओगे—लेकिन तुम्हारा कृत्य जीवित रहेगा अनंत— अनंत काल तक।

ऐसे ही जैसे किसी ने एक कंकड़ फेंक दिया झील में। वह तो झील में कंकड़ फेंककर चला गया, कंकड़ भी जाकर झील की तलहटी में बैठ गया; लेकिन जो लहरें उठीं, वे चलती जाती हैं, चलती जाती हैं। वह आदमी मर जाए, रास्ते में एक्सीडेंट हो जाए कार का; लेकिन वे लहरें चलती रहेंगी। वे लहरें तो दूर तटों तक जाएंगी, जहां तक फैलाव होगा झील का। और जीवन की झील का कहीं कोई तट है? कहीं कोई तट नहीं। इसका अर्थ है कि तुम जो भी कृत्य करोगे, वह शाश्वत है, उसकी तरंग चलती ही रहेगी।
तुमने एक आदमी को दान दिया। तुम समाप्त हो जाओगे, जिसे दान दिया, वह समाप्त हो जाएगा; लेकिन दान का कृत्य चलता ही रहेगा। तो इसका अर्थ यह हुआ कि सात्विक व्यक्ति सोचेगा, अत्यंत समाधिस्थ भाव से सोचेगा देश, काल और पात्र को। क्योंकि यह हो सकता है, तुम अपात्र को दान दे दो। दिया तो तुमने सही, लेकिन वह दान न रहा और अधर्म हो गया।

तुमने एक हत्यारे को दान दे दिया।

तुम अगर एक आदमी को दान देते हो, और वह हत्यारा है और उससे जाकर बंदूक खरीदकर दस आदमियों को मार डालता है, तो क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारा इसमें हाथ नहीं?

जानकर तो नहीं है, अनजाने तो हाथ है। और यह संभव था कि तुम अगर थोड़े सात्विक होते, तो इस आदमी की चित्त—दशा को पहचान पाते। जब यह तुमसे मांगने आया था, तब भी यह हत्यारा था, छिपा हत्यारा था, बीज में छिपी थी हत्या। तुममें अगर जरा—सी भी समझ होती, जितनी माली में होती है समझ, तो वह देख लेता है कि इस बीज में कौन—सा वृक्ष छिपा है, कडुवा वृक्ष छिपा है कि मीठा। तुम अगर सात्विक होते हो, तो दूसरे लोग तुम्हारे सामने दर्पण की तरह साफ हो जाते हैं।

इसलिए सात्विक व्यक्ति को कृष्ण कहते हैं, देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर ही वह देता है।

हर किसी को नहीं बांटता फिरता। वह भैंस के सामने बैठकर बीन नहीं बजाता। क्योंकि भैंस क्या करेगी? भैंस पड़ी पगुराय! तुम बीन बजाते रहो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता भैंस को। वह सुअरों के सामने मोती नहीं फेंकता, क्योंकि वे व्यर्थ चले जाएंगे। वह हंस की खोज करता है। हंसा तो मोती के!

लेकिन सात्विक व्यक्ति ही यह खोज कर सकता है कि किसको देना, कब देना। क्योंकि यह भी जरूरी नहीं है कि जो आदमी सुबह ठीक है, वह सांझ ठीक हो, या जो आदमी एक दिन ठीक है, वह दूसरे दिन ठीक हो।

तो देश, काल........।

और जो आदमी यहां ठीक है, वह वहा ठीक न हो! जो इस गांव में ठीक है, वह दूसरे गांव में ठीक न हो! क्योंकि आदमी का होना तो परिस्थिति पर निर्भर है, जब तक कि आदमी जाग न जाए। और बुद्ध तो तुम्हें मिलते नहीं है, जिनको तुम दान दोगे। तो तुम्हारा दान एक कृत्य है, जिसके परिणाम अनंत काल तक गूंजते रहेंगे।
तो सोचकर, होशपूर्वक देना। सिर्फ देना काफी नहीं है, देखकर देना, समझकर देना। देश, काल, पात्र को पूरा जब तुम देख लो, कि यह तुम्हारा कृत्य सदा के लिए शुभ रहेगा, तुम्हारा यह कृत्य सदा के लिए शुभ के फल लाएगा, फूल लाएगा, तो ही देना।
और प्रत्युपकार न करने वाले के लिए दिया जाता है।

क्योंकि दान का अर्थ ही है कि सौदा नहीं। उसी को देता है सात्विक व्यक्ति, जिससे लेने की कोई आकांक्षा नहीं। नहीं तो वह दान न रहा। अगर तुमने कुछ भी प्रत्युत्तर मिला, तो वह सौदा हो गया। तुमने अगर धन्यवाद भी मांगा, तो वह सौदा हो गया। इसलिए गहरा दानी ऐसे देता है कि किसी को पता न चले।


आदमी दिखाना चाहता है। धन्यवाद पाना चाहता है। दो पैसा देता है, तो हजार गुना करके बताना चाहता है। उसकी चर्चा करता है, उसकी बात उठाता है। उसका प्रचार करता है कि मैंने इतना दान दे दिया।

अगर जरा—सी भी आकांक्षा प्रत्युत्तर की है कि कोई धन्यवाद दे, कोई कहे, वाह! वाह! खूब किया! बड़ी ऊंची बात की! तो कृष्ण कहते हैं, दान सात्विक न रहा; सात्विक की कोटि से नीचे गिर गया। फिर वह राजस हो गया।

जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को उद्देश्य में रखकर दिया गया, वह दान राजस है।

और जब तुम कुछ प्रत्युत्तर चाहते हो, तो तुम दान आनदभाव से देते ही नहीं। क्योंकि तुम्हारा आनंद तो तब होगा, जब फल मिलेगा, जब उत्तर आएगा। तो देने में तो तुम क्लेशपूर्वक ही दोगे, क्योंकि फल का क्या पक्का पता है? तुम दे रहे हो, यह आदमी लौटाएगा, इसका कुछ पक्का पता है? इसका कोई पक्का पता नहीं है। इसलिए क्लेश रहेगा कि दे तो रहे हैं, लौटेगा कि नहीं? कहीं व्यर्थ तो न चला जाएगा?

क्लेश रहेगा। और फल को उद्देश्य में रखकर दिया जाएगा, तो सौदा हो गया, दान न रहा। तुम खो ही दिए वह अदभुत क्षण, जो शुद्ध दान का है, जो सिर्फ कर्तव्य से किया जाता है।

और जो दान बिना सत्कार किए।

लेकिन राजस व्यक्ति कम से कम सत्कार करेगा देने वाले का। क्यों? क्योंकि पीछे उससे उत्तर पाना है। भीतर चाहे कितना ही क्लेश से भरा हो, ऊपर मुस्कुराकर देगा, ताकि इस आदमी को क्लेश की खबर न मिल जाए। यह तो यही समझे कि बड़े आनंद से दिया गया है, ताकि इतने ही आनंद से यह वापस भी कर सके। जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक।

फिर कुछ दानी ऐसे भी हैं, जो न तो सत्कार करते, न सत्कार से कोई प्रयोजन है उनका; वस्तुत: दान देकर वे अपमान करते हैं, तिरस्कार करते हैं। दान देने का उनका मजा ही यह है कि हमारा हाथ ऊपर और तुम्हारा हाथ नीचे! दान देने का मजा ही यह है कि देखो, हम दान देने की स्थिति में हैं और तुम दान लेने की स्थिति में!



स्वभावत:, तामसी दान न तो देश का विचार कर सकता है, न काल का, न पात्र का। वह दान दान ही नहीं है, नाम—मात्र को दान है। तामसी व्यक्ति खोज भी कैसे सकता है, कौन है पात्र? अभी खुद की पात्रता नहीं। तुम दूसरे को वहीं तक पहचान सकते हो, जहां तक तुम्हारी जीवन—ऊर्जा का विकास हुआ है।

अक्सर तामसी व्यक्ति तामसी को खोज लेगा दान देने के लिए, क्योंकि समान समान में बड़ा तालमेल है। तामसी व्यक्ति किसी ऐसे आदमी को दान देगा, जो उस दान से नुकसान ही करेगा, लाभ नहीं पहुंचा सकेगा। वह खोजेगा अपने जैसों को। और हमेशा ऐसे समय में देगा, जब कि योग्य न तो काल था, न स्थान था, न पात्र था। और फिर सोचेगा कि कोई धन्यवाद तक नहीं देता!

तामसी धन्यवाद देना जानते ही नहीं। धन्यवाद तो सिर्फ सात्विक देना जानते हैं। लेकिन सात्विक को खोजना कठिन बात है।
बुद्ध ने कहा है, ध्यानी को, संन्यासी को, सात्विक को अगर तुम खोज लो भोजन देने के लिए, तो तुम धन्यभागी हो। तुम्हारा अहोभाग्य है। तुम्हारा पूरा जीवन सार्थक हुआ।
बुद्ध के पचास हजार भिक्षु थे। सुबह से कतार लग जाती थी लोगों की, निमंत्रण देने वालों की। और भिक्षु जहां जाता, वहीं उसका सम्मान था। भिखारी नहीं था भिक्षु।
इसलिए हमने अलग शब्द उसके लिए गढा है। भिखारी नहीं है वह, वह हमसे कहीं ज्यादा बड़ा सम्राट है। वह ज्यादा सात्विक है।। उसके जीवन की सारी ऊर्जा शांति और ध्यान और मोक्ष की तलाश में लगी है। उसने अपने को सब भांति मौन किया है। उसके उठने, चलने में है तुम्हारे भोजन सब तरफ सत्व का आभास। वह घर ले ले, तो तुम धन्यभागी हो। इसलिए भिक्षु धन्यवाद नहीं देता था, धन्यवाद तुम देते थे कि तुमने भोजन लिया, हम धन्यभागी!
इसलिए दान, जब तक दक्षिणा न दी जाए, तो पूरा नहीं है। आए। तुम, स्वीकार किया हमारा भोजन, हम अपात्र को मौका दिया कि हम सुपात्र को कुछ दे सकें, ऐसी घड़ी हमारे जीवन में आ सकी कि जो करने योग्य था, हम कर सके, ऐसा अवसर तुमने जुटाया, उसके लिए दक्षिणा है।

सात्विक दान सात्विक पात्र की खोज, सात्विक क्षण की खोज, सात्विक स्थान की खोज से होगा; प्रत्युत्तर की बिना आकांक्षा के, चुपचाप होगा; देने वाला जैसे है ही नहीं। और देने वाला अनुगृहीत होगा कि तुमने लिया, स्वीकार किया, तुम इनकार भी कर सकते थे। वह दान के बाद दक्षिणा भी देगा।

राजस दान क्लेशपूर्वक दिया जाएगा, आकांक्षापूर्वक, कि उत्तर ज्यादा आना चाहिए, पाच दे रहा हूं, तो दस लौटने चाहिए।

क्लेश क्लेश बढ़ाएगा। आनंद आनंद बढाता है। तुम जो बनते जाते हो, उसी के और होने की संभावना बढ़ती जाती है।

जीसस का बडा अनूठा वचन है, जिनके पास है, उन्हें और दिया जाएगा, और जिनके पास नहीं है, उनसे वह भी छीन लिया 
जाएगा। अगर तुम आनंदित हो, तो और आनंद मिलेगा। अगर तुम दुखी हो, और दुखी हो जाओगे, आनंद थोडा—बहुत होगा, वह भी छीन लिया जाएगा। जीवन का गणित जीसस के वचन में पूरी तरह है। और फिर तामस दान है, जो दान नहीं है, जो सिर्फ अपमान के लिए दिया जाता है, जो अहंकार की तृप्ति के लिए दिया जाता है। वह निश्चित ही कुपात्रों के हाथ में पड़ेगा और उसके दुष्परिणाम होंगे।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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