सोमवार, 16 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 17 भाग 3

 सुख नहीं, शांति खोजो


अशास्‍त्रविहितं धीरं तप्यन्ते ये तपो जना:।

दम्भाहंकारसंयुक्‍ता: कामरागबलान्त्तिता:।। 5।।

कर्शयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस:।

मां चैवान्त:शरीरस्थं तान्‍विद्धय्यासुरीनश्चयान्।। 6।।


और हे अर्जुन, जो मनुष्य शास्त्र— विधि से रहित केवल मनोकल्‍पित घोर तप को तपते हैं तथा दंभ और अहंकार से युक्‍त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्‍त हैं तथा जो शरीररूप से स्थित भूत— समुदाय को और अंत:करण में स्थित मुझे अंतर्यामी को भी कृश: करने वाले है, उन अज्ञानियों को तू आसुरी स्वभाव वाला जान।


और हे अर्जुन, जो मनुष्य शास्त्र—विधि से रहित केवल मनोकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा जो दंभ और अहंकार से युक्त हैं, कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं तथा जो शरीररूप से स्थित भूत—समुदाय को और अंतःकरण में स्थित मुझ अंतर्यामी को भी कृश करने वाले हैं, उन अज्ञानियों को आंसुरी स्वभाव वाला जान।

कौन है आंसुरी स्वभाव वाला? कौन है तामसी?

कृष्ण कहते हैं, जो मनुष्य शास्त्र—विधि से रहित केवल मनोकल्पित घोर तप करते हैं...।

मैं(रजनीश) वर्षों तक लोगों से कहता रहा कि न तो गुरु की कोई जरूरत है, न शास्त्र की कोई जरूरत है। उस बात में जरा भी भूल न थी। लेकिन मुझे लगा, बात में बिलकुल भूल नहीं है, लेकिन सुनने वाले पर परिणाम बड़ी भूल का हो रहा है।

बात बिलकुल सही है। क्योंकि परमात्मा तुम्हारे भीतर बैठा है। शास्त्र क्या समझाएंगे तुम्हें? सिर्फ आंख भीतर खोलनी है। वेद कंठस्थ करके क्या होगा? अपनी तरफ आंख खोलनी है, स्वाध्याय करना है। शास्त्र—अध्याय से क्या होगा? और गुरु की क्या जरूरत है? क्योंकि जिसे खोजना है, वह तुम्हें मिला ही हुआ है। जब जरा गरदन झुकाई..! गरदन झुकाने के लिए भी गुरु की जरूरत है? उतनी सी समझ भी तुममें नहीं है? और अगर उतनी ही समझ नहीं है, तो गुरु भी क्या करेगा? शास्त्र भी क्या करेंगे?

बात बिलकुल सही है। लेकिन धीरे—धीरे मुझे अनुभव होना शुरू हुआ, मेरी तरफ से सही है, सुनने वाले की तरफ से बिलकुल गलत है। मैंने पाया कि सौ लोग अगर सुनते हों, तो उसमें से एक को बात सही वैसी ही पहुंचती है, जैसी मैंने कही है। वह सत्वगुणी है। और सत्वगुणी पर क्या परिणाम होते थे, जब मैं यह कह रहा था?

उस पर परिणाम ये नहीं होते थे कि वह शास्त्र को छोड़ देता था, नहीं। या गुरु को छोड़ देता था, नहीं। न तो वह शास्त्र छोड़ता था, न वह गुरु छोड़ता था। सिर्फ पकड़ता नहीं था। यह सत्वगुणी पर परिणाम होता था, पकड़ता नहीं था, सिर्फ पकड़ छोड़ता था। न तो शास्त्र छोड़ता था; न गुरु छोड़ता था; सिर्फ पकड़ छोड़ता था। वह समझ लेता था कि बात क्या है, पकड़ छोड़ देनी है। और जब वह पकड़ छोड़ देता था, तो शास्त्र भी सहयोगी हो जाता था, गुरु भी सहयोगी हो जाता था।


पकड़ के कारण शास्त्र भी बाधा बन जाता है, गुरु भी बाधा बन जाता है। क्योंकि तुम एक आग्रह से भर जाते हो, एक आसक्ति से, एक मोह से। मेरा शास्त्र—वेद हिंदू का, कुरान मुसलमान का। मेरा गुरु—महावीर जैन का, मोहम्मद मुसलमान का। वह मेरा—पन छोड़ देता था, वह जो एक प्रतिशत सत्वगुणी मनुष्य था।

और बड़े मजे की बात यह है कि जैसे ही वह मेरा—पन छोड़ता था, वह वेद का तो लाभ ले ही लेता था, कुरान का भी ले लेता था। वह महावीर के पीछे चलकर तो शांति का मजा ले ही लेता था, वह बुद्ध के पीछे चलकर भी ले लेता था। जब पकड़ ही न रही, तो सभी गुरु हो जाते थे।

सत्वगुणी की व्याख्या यह थी कि जब पकड़ ही नहीं, कोई गुरु नहीं, तो सभी गुरु हो गए। और जब कोई पकड़ ही नहीं, कोई शास्त्र ही नहीं, तो सभी शास्त्र अपने हो गए। बंधन छूट जाता था। वह निर्मुक्त भाव से जीने लगता था। सबसे सीखता था।

सत्वगुणी यह सुनकर कि न गुरु की जरूरत है, न शास्त्र की, गुरु को नहीं पकड़ता था, शास्त्र को नहीं पकड़ता था, लेकिन शिष्यत्व उसका गहरा हो जाता था। पर वह घटता था एक प्रतिशत लोगों में।

फिर मैंने देखा कि नौ प्रतिशत रजोगुणी लोग हैं। उन पर क्या परिणाम होता था? वर्षों उनका अध्ययन करके मुझे समझ में आया कि यह सुनकर कि न शास्त्र को पकड़ना है, न गुरु को पकड़ना है, वे शास्त्र को छोड़ने में लग जाते थे, गुरु को छोड़ने में लग जाते थे। समझ पैदा नहीं होती थी, छोड़ने की दौड़ पैदा होती थी। रजोगुण का वह लक्षण है कि हर चीज में से दौड़ निकाल लेता है।

अब देवी—देवता क्या बिगाड़ते थे? घर में रहे आते। कोई हर्जा न था। और कभी सुबह—सांझ एक फूल भी उन पर रख देते, तो भी कोई हर्जा न था। सजावट थे, घर की रौनक थे, रहने देते। शास्त्र घर में रखे थे, कोई अड़चन न थी। पकड़ना नहीं था, छोड़ने का सवाल नहीं था। मगर रजोगुणी छोड़ने को उत्सुक हो जाता है। 

रजोगुणी सदा डरता है कि कहीं देवी—देवता नाराज न हो जाएं, नहीं तो महत्वाकांक्षा में बाधा डाल देंगे। रजोगुणी पूजा ही इसलिए करता है कि और धन मिल जाए, और पद मिल जाए। 

मैंने देखा कि मुल्क में ऐसे बहुत—से लोग थे, जो समझे नहीं, जिन्होंने शास्त्र पर पकड़ तो न छोड़ी, शास्त्र को छोड़ने की दौड़ में पड़ गए; शास्त्र को छोड़ने की दौड़ पकड़ ली। पकड़ना जारी रहा, मुट्ठी न खुली; सिर्फ जरा एक कदम पीछे हट गई पकड़, और गहरी हो गई।

फिर नब्बे प्रतिशत लोग हैं, जो तमोगुणी हैं, जो कि विराट मनुष्य जाति का समुदाय है। वे वैसे ही किसी गुरु और शास्त्र में उलझे न थे। क्योंकि इतना भी उपद्रव वे लेने को राजी नहीं। वे अपने आलस्य में पडे थे। वे तो शास्त्रों से वैसे ही थके थे, क्योंकि शास्त्र कहते हैं, उठो! जागो! शास्त्रों से वैसे ही नाराज थे, कि नींद हराम करते हैं! गुरुओं के पीछे वे कभी गए नहीं थे, क्योंकि उतना चलने की भी उनमें इच्छा नहीं जगी थी, उतना आलस्य भी छोड़ने की हिम्मत न थी। 

ऐसा पंद्रह वर्ष निरंतर मुल्क में लाखों लोगों के साथ देखकर मुझे लगा कि कुछ करना पड़ेगा। मैं भला सच कह रहा हूं इससे कुछ हल नहीं है। मुझे सोचना पड़ेगा कि सुनने वाले पर क्या हो रहा है।

तो कृष्णमूर्ति ने नब्बे प्रतिशत लोगों के लिए नींद की सुविधा बना दी। नौ प्रतिशत लोगों के लिए दौड़ की सुविधा बना दी, शास्त्र छोड़ना है, गुरु छोड़ना है; वे उस दौड़ में लगे हैं। वह छूटता नहीं। क्योंकि कहीं छोड़ने से कुछ छूटा है? यह जानने से कि पकड़ व्यर्थ है, छूटना अपने आप हो जाता है। जब तुम छोड़ने की कोशिश करते हो, तो उसका मतलब है कि तुम पकड़े तो हो ही।

अब जैसे मैंने मुट्ठी बांध ली, और कोई मुझे समझाए कि मुट्ठी खोलो, तो मुट्ठी खोलने के लिए कुछ करना पड़ेगा! मुट्ठी खोलने के लिए कुछ करना ही नहीं पड़ता; सिर्फ बांधो मत, मुट्ठी अपने आप खुल जाती है। मुट्ठी खुलती है जब तुम नहीं बाधते। क्योंकि खुला होना मुट्ठी का स्वभाव है। लेकिन ऐसे लोग हैं, जो मुट्ठी को बांधे हुए हैं और अब खोलने की भयंकर चेष्टा कर रहे हैं। उनकी खोलने की चेष्टा से मुट्ठी और जकड़ती है, क्योंकि खोलने से कोई मुट्ठी नहीं खुलती।

मनसविद इसको कहते हैं, ला आफ दि रिवर्स इफेक्ट। इसको वे कहते हैं, विपरीत परिणाम का नियम। अगर तुम बहुत खोलने में उत्सुक हो गए, तो तुम यह बात ही भूल गए कि बांधी तुमने थी,. खोलने का सवाल ही न था। जब तुम खोलने में उलझ गए, तो तुमने पहली बात तो स्वीकार ही कर ली कि बंधी है। बस, वहीं भूल हो गई। अब बंधी है, यह स्वीकार हो गया। और तुम्हारे शरीर ने स्वीकार कर लिया कि यह बंधी है, और तुम उसके विपरीत लड़ने लगे। तुम खोल न पाओगे। तुम खोल नहीं सकते।


कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, जो मनुष्य शास्त्र—विधि से रहित.......।

शास्त्र क्या है? शास्त्र की परिभाषा क्या है? शास्त्र किसे कहते हैं? शास्त्र कहते हैं शास्ताओं के वचन को। शास्ता कहते हैं जिसने शासन दिया, अनुशासन दिया, डिसिप्लिन दी; जिसने चलने का मार्ग, व्यवस्था दी। जो चला, जो पहुंचा और जिसने पहुंचकर खबर दी कि थोड़े—से सूचक हैं, तुम्हारे रास्ते पर उपयोगी हो जाएंगे। बुद्ध को हम शास्ता कहते हैं, महावीर को शास्ता कहते हैं। उनके वचनों को हम शास्त्र कहते हैं। और उनके वचनों में जो कहा गया है, उसको हम शासन या अनुशासन कहते हैं।

जिन्होंने जाना, उनके वचनों का संग्रह है शास्त्र। अगर तुम समझदार हो, तो खूब लाभ ले सकते हो। नासमझ हो, तो तुम किसी भी चीज से लाभ नहीं ले सकते, नुकसान ही लोगे। शास्त्र का कसूर नहीं है। कसूर होगा तो तुम्हारा होगा। शास्त्र कोई सिर पर रखकर ढोने की चीज नहीं है; न चंदन—तिलक लगाकर पूजा करने की चीज है। शास्त्र उपयोग करने की चीज है; उसकी उपयोगिता है।

शास्त्र में संगृहीत हैं वचन, जानने वालों के। तुम जरा होशपूर्वक समझने की कोशिश करोगे, तो शास्त्र से तुम्हें बड़े रहस्य उपलब्ध हो जाएंगे। पकड़ना मत उनको। उनको तरल रहने देना, उनको ठोस नियम मत बना लेना। क्योंकि समय बदलता, परिस्थिति बदलती, चेतना भिन्न होती। तो तुम बिलकुल रूढ़ की तरह मत चलने लगना, लकीर के फकीर मत हो जाना, कि शास्त्र में ऐसा लिखा है, तो ऐसा ही करेंगे।

शास्त्र संकेत देते हैं, उपदेश नहीं। और वह रहस्य ऐसा है कि उसे ठीक—ठीक पूरा का पूरा बांधा नहीं जा सकता। सिर्फ इशारे किए जा सकते हैं। इशारे का मतलब होता है, समझने की कोशिश करना इशारे को, उसका उपयोग करने की कोशिश करना। लेकिन उसके लकीर के फकीर होकर अंधे अनुयायी मत हो जाना।

कृष्ण कहते हैं कि शास्त्र—विधि से जो रहित हैं।

और बहुत—से लोग शास्त्र का उपयोग न करना चाहेंगे, क्योंकि वह भी उनके अहंकार के विरोध में है। उनके रहते कोई दूसरा ज्ञानी कैसे हो गया पहले? उनके रहते वेद लिख लिए गए? यह हो ही नहीं सकता। वेद तो वे ही लिख सकते हैं। और अभी वे ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए!

अज्ञानी शास्त्रों को मानने को राजी नहीं होता; इशारे भी लेने को राजी नहीं होता। वह यह ही नहीं मान सकता कि मेरे सिवाय कोई और भी मुझसे पहले ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है। वही तो अहंकार की पकड़ है, प्रमाद है। तो वह मनोकल्पित साधनाएं करता है, शास्त्रों की नहीं सुनता।

उनमें संकेत हैं, सावधानियां हैं, हिफाजतें हैं; जो चले हैं, उन्होंने रास्ते के कंटकों के संबंध में बताया है। जंगली जानवरों के हमले का डर है, बीहड़ रास्ते हैं, भटक जाने की संभावना है। स्वात पगडंडियां हैं, जिन पर कोई यात्री भी न मिलेगा, जो तुम्हें बताए कि तुम भूल गए, या ठीक हो, या गलत हो। उस अनजान के संबंध में कुछ सूचनाएं शास्त्रों में संगृहीत हैं। वे बहुमूल्य हैं। उनको समझकर—शास्त्र को पकड़कर नहीं—उनको समझकर तुम्हें अपनी यात्रा पर जाना है।

बुद्ध ने कहा है, हम मार्ग बता सकते हैं, लेकिन तुम्हारे लिए चल तो नहीं सकते। चलना तुम्हें ही होगा; पहुंचना भी तुम्हें होगा। तुम हमारी बात को सुन लेना, पकड़ मत लेना। बात को समझ लेना, फिर अपने ही बोध और अपनी ही साक्षी—चेतना और अपने ही ध्यान से गति करना। अंतिम रूप में तो तुम्हीं निर्णायक रहोगे। लेकिन अगर तुमने हमें सुना है, तो कम से कम तुम उन भूलों से बच जाओगे, जो हमने कीं।

इस बात को ठीक से समझ लो। शास्त्र तुम्हें सत्य तक नहीं पहुंचा सकते, लेकिन बहुत—से असत्यों से बचा सकते हैं। उनका उपयोग नकारात्मक है। वे तुम्हें सत्य तक नहीं पहुंचा सकते, लेकिन सत्य के मार्ग पर बहुत—सी भ्रांतिया जो हो सकती हैं, उनसे तुम्हें बचा सकते हैं। तुम्हारा बहुत—सा भटकाव बच सकता है, अगर तुम उनका उपयोग करना जान लो।

लेकिन तुम्हारी हालत ऐसी है, जैसे मैं देखता हूं कई लोगों को, कार में रखे हुए हैं नक्‍शा, लेकिन बस वह रखा रहता है। उस नक्‍शो का न तो उन्हें उपयोग पता है कि कैसे? क्योंकि नक्‍शो को देखना आना चाहिए। नक्‍शो की भाषा आनी चाहिए।

नक्‍शा तो संकेत है, संकेत लिपि है, उसका कोड है। रास्ता तो मीलों का है, नक्‍शो पर इंचभर का है। नक्‍शो को समझना आना चाहिए, नक्‍शो को सीधा रखकर पढ़ना आना चाहिए, नक्‍शो की संकेत लिपि मालूम होनी चाहिए। और नक्‍शा तो केवल सूचक है, वह कोई फोटोग्राफ थोड़े ही है। उसमें कोई सारी चीजें थोड़े ही आ गई हैं। सारी आ भी नहीं सकतीं। और सारी आ जाएं, तो तुम कार में लेकर कैसे चलोगे! वह तो सिर्फ प्रतीक है। जरा से चिह्न हैं। अगर नक्‍शो का तुम ठीक उपयोग करो, तो एक बात पक्की है कि तुम कम भटकोगे। कई मार्ग, जिन पर तुम जा सकते थे, न जाओगे।

शास्त्र का उपयोग नकारात्मक है, गुरु का उपयोग विधायक है। क्योंकि शास्त्र मुरदा है  वह विधायक नहीं हो सकता, वह नकारात्मक है। पर उसका मूल्य है। इतना ही क्या कम है कि सौ भूलें होती हों, निन्यानबे हुईं। उतना समय बचा; उतना जीवन बचा। और कौन जानता है, निन्यानबे भूलें करके तुम इतने थक जाते, हताश हो जाते, कि यात्रा ही छोड़ देते।

 शास्त्र बचाता है भूल करने से, गुरु संभालता है सही करने की तरफ। शास्त्र और गुरु का उपयोग ऐसा है, जैसे कभी तुमने कुम्हार को घड़ा बनाते देखा हो। चाक पर चढ़ा देता है घड़े को, एक हाथ भीतर कर लेता है, और एक हाथ घड़े के बाहर कर लेता है। बाहर के हाथ से थपकी देता है, घड़े की दीवार बनाता है। भीतर के हाथ से सम्हालता है भीतर के शून्य को। दोनों हाथ घड़े को बनाने में समर्थ हो जाते हैं। बाहर के हाथ से चोट करता जाता है, भीतर के हाथ से सम्हालता रहता है।

शास्त्र बाहर से सम्हालते हैं, गुरु भीतर से। एक दिन तुम्हारा घड़ा पककर तैयार हो जाता है। जब तक तुम कच्चे हो, तब तक सम्हालने वाले की जरूरत है। जब तक तुम आग से नहीं गुजर गए, तब तक तुम अपने ही बल से चलने की कोशिश करोगे, तो पहुंचना करीब—करीब असंभव है।

मनोकल्पित तप करते हैं।

क्योंकि उनका अहंकार यह नहीं मान सकता कि वे किसी का सहारा लें।

दंभ और अहंकार से युक्त हैं, कामना, आसक्ति, बल और अभिमान से युक्त हैं।

अहंकार लक्षण है तामसी व्यक्ति का। अहंकार लक्षण है राजसी व्यक्ति का भी। अहंकार शेष रहता है सात्विक व्यक्ति में भी। लेकिन तीनों में अहंकार की प्रक्रियाएं अलग हो जाती हैं।

तामसी व्यक्ति में अहंकार होता है सोया हुआ। राजसी व्यक्ति में अहंकार होता है दौड़ता हुआ, गतिमान, गत्यात्मक, डायनैमिक। सात्विक व्यक्ति में अहंकार होता है जागा हुआ, लेकिन होता है। साधु में भी अहंकार होता है, जागा हुआ। अभी मिट नहीं गया है। बड़ा विनम्र हो गया है, सूक्ष्म हो गया है, पारदर्शी हो गया है, आर—पार देख सकते हो, लेकिन अभी परदा मौजूद है।

अहंकार मिटता तो है जब तीनों ही शून्य हो जाते हैं। एक एक को जब उपलब्ध होता है, तभी पूरा जाता है।

तामसी वृत्ति का व्यक्ति अपने ही ढंग सोचता रहता है, उलटे—सीधे काम करता रहता है। न शास्त्र की सुनता, न गुरु की, सिर्फ अहंकार की सुनता है।

तथा जो शरीररूप से स्थित भूत—समुदाय को और अंतःकरण में स्थित मुझ अंतर्यामी को भी कृश करने वाले हैं, उन अज्ञानियों को आंसुरी स्वभाव वाला जान।

ऐसे लोग कई उलटे—सीधे काम करते हैं। कृष्ण बड़ी अनूठी बात कह रहे हैं। कहते हैं कि न केवल वे शरीर को सताते हैं—उपवास करेंगे, भूखे मरेंगे, शरीर को कसेंगे, जलाएंगे, काटेंगे। क्योंकि अहंकार सदा लड़ना चाहता है, या तो दूसरे से लड़े या खुद से लड़े। बिना लड़े अहंकार बच नहीं सकता।

तो जो लोग दूसरों से नहीं लड़ते। दुनिया में दो तरह के लड़ने वाले लोग हैं। एक, जो बाजार में लड़ रहे हैं दूसरों से, प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा। और एक वे हैं, जो जंगलों में चले गए हैं, आश्रमों में बैठ गए हैं, और लड़ रहे हैं अपने से। मगर लड़ाई जारी है।

कृष्ण कहते हैं कि न केवल ऐसे अहंकारी तामसी व्यक्ति अपने शरीर से लड़ने लगते हैं, अपने शरीर को काटने और मारने लगते हैं, बल्कि मुझ अंतर्यामी को, जो उनके भीतर छिपा हूं मुझको भी कृश करते हैं, मुझे भी सताते हैं।

एक बात ध्यान रखना, सताने से कुछ होगा नहीं, वह हिंसा है। शरीर की सुरक्षा करना और भीतर के अंतर्यामी की भी। सुरक्षा का अर्थ यह नहीं है कि तुम सुख और भोग में डूबे रहना। क्योंकि सुख और भोग में डूबा हुआ भी शरीर को नष्ट करता है और भीतर के अंतर्यामी को सताता है। भोगी भी सताते हैं, एक ढंग से, त्यागी भी सताते हैं, दूसरे ढंग से।

तुम मध्य में रहना, निरति। तुम संतुलन साधना। न तो बहुत भोजन देना, क्योंकि बहुत भोजन से भी शरीर को कष्ट होता है। न भूखा रखना, क्योंकि भूखा रखने से भी कष्ट होता है। न तो अति श्रम करना, क्योंकि अति श्रम से कष्ट होता है। न बिस्तर पर ही पड़े रहना, क्योंकि अति विश्राम भी शरीर को गलाता और नष्ट करता है। तुम सदा मध्य में होना, अति मत करना। तो तुम अपने शरीर और अपने भीतर छिपे अंतर्यामी, दोनों को एक शांत समरसता का मार्ग बता सकोगे।

मुझ अंतर्यामी को भी कृश करने वाले हैं, उन अज्ञानियों को आंसुरी स्वभाव वाला जान।

वे असुर हैं। तमस से घिरे हैं।

अहंकार तमस का गहनतम रूप है, वह अमावस है अंधेरी रातों में। रजस से भरा हुआ व्यक्ति सप्तमी—अष्टमी का चांद है, आधा अंधेरा, आधा ज्योति। सत्व से भरा व्यक्ति पूर्णिमा की रात है, पूरे प्रकाश से भरा। लेकिन रात है। तीनों के जो बाहर आ गया, उसका सूर्योदय होता है; उसके जीवन में सुबह होती है।

अमावस को बदलो धीरे—धीरे आधी रोशनी, आधी अंधेरी रात में। आधी अंधेरी, आधी रोशनी से भरी रात को धीरे— धीरे बदलो पूर्णिमा की रात में। तब तुम्हें वह मार्ग मिल जाएगा, जो सुबह तक ले आता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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