बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18भाग 21

 परमात्‍मा को झेलने का पात्रता


 संजय उवाच:

ड़त्यहं वासुदेवस्य यार्थस्य च महात्मन:।

संवादभिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।। 74।।

व्याक्यसादाच्‍छूतवानेतदगह्यमहं परम्।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्‍साक्षाक्कथयत स्वयम्।। 75।।

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।

केशवार्जुनयो पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहु:।। 76।।

तव्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूयमत्यद्भुतं हरे:।

विस्मयो मे महान् राजन्हष्यामि च युन: पुन:।। 77।।

यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पाथों धनर्धर:।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिमर्तिर्मम।। 78।।


इसके उपरांत संजय बोला, हे राजन, इस प्रकार मैने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अदभुत रहस्ययुक्त और रोमांचकारक संवाद को सुना।

श्री व्यासजी की कृपा से दिव्‍य—दृष्टि के द्वारा मैने इस परम रहस्ययुक्त गोपनीय योग को साक्षात कहते हुए स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान से सुना है।

इसीलिए हे राजन, श्रीकृष्ण भगवान और अर्जुन के इस रहस्ययुक्तु कल्याण् कारक और अदभुत संवाद को पुनः—पुन: स्मरण करके मैं बारंबार हर्षित होता हूं।

तथा हे राजन, श्री हरि के उस अति अदभुत रूप को भी पुन—पुन: स्मरण करके मेरे चित्त में महान विस्मय होता है और मैं बारंबार हर्षित होता हूं।

हे राजन, विशेष क्या कहूं! जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान हैं और जहां गांडीव धनुषधारी अर्जुन है, वही पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है, ऐसा मेरा मत है।


इसके उपरात संजय बोला, हे राजन, इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अदभुत, रहस्ययुक्त और रोमांचकारक संवाद को सुना।

थोड़ा जीवंत, थोड़ा प्राणवान चैतन्य हो, तो सुनकर भी द्वार खुलने लगेंगे। बात संजय से कही न गयी थी। संजय तो केवल एक गवाह है। कही थी किसी और ने, कही थी किसी और के लिए। संजय तो एक प्रत्यक्षदर्शी गवाह है, एक चश्मदीद गवाह है। संजय तो सिर्फ एक साक्षी है। उसने वही दोहरा दिया है अंधे धृतराष्ट्र के सामने, जो घटा था। संजय तो एक रिपोर्टर है, एक अखबारनवीस। लेकिन उसके जीवन में भी कुछ घटने लगा।

सत्य की महिमा ऐसी है कि तुम उसके निकट जाओगे, तो वह तुम्हें छू ही लेगा। तुम शायद गवाही की तरह ही गए थे, या तुम सिर्फ एक दर्शक की भांति गुजरे थे, लेकिन सत्य की महिमा ऐसी है, उसका रहस्य ऐसा है कि तुम्हारे हृदय में कुछ होना शुरू हो जाएगा। तुम दर्शक की भांति गए हो, लेकिन दर्शक की भांति वापस न लौट सकोगे।

कभी दर्शक भी कभी कुतूहलवशात आ जाए सत्य के करीब, तो उसके हृदय में भी रोमाच हो जाता है।

इसके उपरांत संजय बोला, हे राजन, इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अदभुत रहस्ययुक्त और रोमांचकारक संवाद को सुना। मेरा भी रोमांच हो गया है! मैं भी आपूरित हो गया हूं! सुन—सुनकर मैं भी और हो गया!


और संजय कहता है, महात्मा अर्जुन!

उसने एक अपूर्व जन्म देखा है। वह एक ऐसे जन्म की घटना का गवाह रहा है कि कोई दूसरा गवाह खोजना मुश्किल है। जिसने संदेह को समर्पण बनते देखा, जिसने अहंकार को विसर्जित होते देखा; जिसने योद्धा को संन्यासी बनते देखा; जिसने क्षत्रिय के अहंकार को ब्राह्मण की विनम्रता बनते देखा; जिसने अर्जुन का नया जन्म देखा। शुरू से लेकर, आखिर तक, पूरी जीवन—यात्रा देखी। वह कहता है, महात्मा अर्जुन! अब साधारण अर्जुन कहना ठीक न होगा।

श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य—दृष्टि द्वारा मैंने इस परम रहस्ययुक्त गोपनीय योग को साक्षात कहते हुए स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान से सुना है।

इसलिए हे राजन, श्रीकृष्ण भगवान और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अदभुत संवाद को पुन: —पुन: स्मरण करके मैं बारंबार हर्षित होता हूं।

जैसे एक झरना भीतर कलकलित हो रहा है, जैसे भीतर एक फुहार पडी जाती है, बार—बार मेघ घिर आते हैं, बार—बार वर्षा हो जाती है!

बारंबार हर्षित होता हूं स्मरण कर—करके!

जो देखा है, वह अपूर्व है। जैसा आंखों से देखा नहीं जाता, ऐसा देखा है! जो कभी सुना नहीं, ऐसा सुना है! और जो घटना देखी है, भरोसे के योग्य नहीं है!

अहंकार समर्पण बन जाए, इससे ज्यादा रहस्ययुक्त घटना इस संसार में दूसरी नहीं है। इससे बड़ी कोई रोमांचकारी घटना नहीं है। यह अपूर्व है। यह असाधारण से भी असाधारण बात है।

और व्यक्ति तब तक साधारण ही रहता है, जब तक अहंकार में रहता है। जिस दिन अहंकार समर्पण बनता है, उस दिन व्यक्ति भी असाधारण हो जाता है। उसके पैर जहां पड़ते हैं, वहा मंदिर हो जाते हैं। वह मिट्टी छूता है और स्वर्ण हो जाती है। उसकी हवा में काव्य होता है। उसके स्पर्श से सोए लोग जाग जाते हैं, मृत जीवित हो जाते हैं।

मरे हुए अर्जुन को पुन: जीवित होते देखा है। हाथ—पांव शिथिल हो गए थे, गांडीव छूट गया था, उदास, थका—मादा अर्जुन बैठ गया था। विषाद की कथा को आनंद तक पहुंचते देखा है! नर्क से स्वर्ग तक की पूरी की पूरी सोपान—सीढ़ियां देखी हैं!

पुन: स्मरण करके बारंबार हर्षित होता हूं।

तथा हे राजन, श्री हरि के उस अदभुत रूप को भी पुन: —पुन: स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है.......।

कितनी करुणा! कितनी बार अर्जुन छूटा; भागा; फिर—फिर खींचकर उसे ले आए। जरा भी नाराज न हुए! एक बार भी उदासी न दिखाई! कितना अर्जुन ने पूछा, थका डाला पूछ—पूछकर वही—वही बात। लेकिन कृष्ण उदास न हुए; वे फिर—फिर वही कहने लगे, फिर—फिर नए द्वारों से कहने लगे, नए शब्दों में कहने लगे!

कृष्ण पराजित न हुए! अर्जुन का संदेह पराजित हुआ, कृष्ण की करुणा पराजित न हुई। अर्जुन का अज्ञान पराजित हुआ, ज्ञान कृष्ण का पराजित न हुआ।

महान आश्चर्य होता है और मैं बारंबार हर्षित होता हूं।



संजय कुछ कह नहीं पा रहा; बार—बार कहता है, बस हर्षित हो रहा हूं। एक गीत बज रहा है भीतर। नाचने का मन हो रहा है। और उसे कुछ भी नहीं हुआ है। वह दूर खड़ा दर्शक है।

धन्यभागी हैं वे भी, जो धर्म के दर्शक बन जाएं। धन्यभागी हैं वे भी, जो मंदिर के पास से गुजर जाएं और जिनके कानों में मंदिर की घंटियों का नाद भी पड़ जाए! क्योंकि वह भी हर्षित करेगा।

हे राजन, विशेष क्या कहूं! जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान हैं और जहां गांडीव धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर विजय है, श्री है, विभूति है, अचल नीति है, ऐसा मेरा मत है।

और वह यह कह रहा है कि माना कि आपके पुत्र विपरीत खड़े हैं और आपका पिता का हृदय चाहेगा कि वे जीत जाएं, लेकिन यह असंभव है। क्योंकि जहां कृष्ण भगवान हैं और जहां महात्मा अर्जुन है, वहीं होगी नीति, वहीं होगा सत्य, वहीं होगी श्री, वहीं होगी संपदा, वहीं आएगी विजय। सत्य ही जीतता है, असत्य नहीं।

तो संजय कहता है, माना, आपके पिता के हृदय को मैं समझता हूं कि आप चाहेंगे कि आपके बेटे जीत जाएं, लेकिन यह हो नहीं सकता। यह असंभव है। सत्य ही जीतेगा। सत्य ही जीतना भी चाहिए।

विषाद से शुरू होने वाली यह गीता, सत्य की विजय पर पूरी हो जाती है। विषाद में तुम हो। गीता के इशारे तुम्हारे काम पड़ जाएं, तो सत्य की विजय—यात्रा तुम्हारी भी पूरी हो सकती है।

कोई भी कारण नहीं है, जो अर्जुन को हुआ, वह सभी को हो सकता है। कोई भी बाधा नहीं है। जितनी बाधाएं अर्जुन को थीं, उससे ज्यादा तुमको नहीं हैं। जितना अज्ञान अर्जुन का था, उससे ज्यादा तुम्हारा नहीं है।

इसलिए अगर तुम राजी हो, जैसा अर्जुन राजी था, संदेह के बावजूद भी राजी था; संदेह के बावजूद भी कृष्ण के साथ चलने को राजी था; संदेह के बावजूद भी खोजने की उत्सुकता थी, तो पहुंच गया मंजिल पर। प्रत्येक व्यक्ति पहुंच सकता है। परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति के भीतर की स्वभाव—सिद्ध संभावना है।


गीता के ये सारे वचन हजार—हजार बार मैंने दोहराकर तुमसे कहे, इस आशा में ही कि किसी क्षण में, किसी मनोभाव की दशा में चोट पड़ जाएगी, तीर लग जाएगा।

तीर लगा हो, तो उसे सम्हालना। उसकी पीड़ा अमृतदायी है। उस पीड़ा को सींचना। संसार में मिला सुख भी असार है। परमात्मा के मार्ग पर मिला दुख भी अहोभाग्य है।

उसे पाने में कितनी ही कठिनाई हो, जिस दिन तुम पाओगे, उस दिन जानोगे, कठिनाई कुछ भी न थी। क्योंकि जो मिलेगा, वह अमूल्य है। तुम किसी भी मूल्य से उसे कूत नहीं सकते। जब तक नहीं मिला है, तब तक भला लगे किं बड़ी कठिनाई है; जिस दिन मिलेगा, उस दिन तुम भी कहोगे, तेरे प्रसाद से!

गीता समाप्त हो जाती है, लेकिन तुम्हारी यात्रा शुरू होती है! और सम्हलकर चले, होशपूर्वक चले, तो एक दिन जरूर वह अहोभाग्य की घड़ी आएगी, जब तुम्हारी स्मृति जगेगी; तुम्हें अपना स्मरण आएगा; भूला विस्मरण, भूला—बिसरा अपना स्वरूप याद आएगा; तुम्हारी प्रज्ञा थिर होगी!

और उसी दिन इस जगत के सारे रहस्य तुम्हारे लिए खुल जाएंगे! तुम फिर याद कर—करके ही आनंदित होओगे, आह्लादित होओगे! फिर तुम्हारा रोआं —रोआं पुलकित होगा! तुम्हारी धड़कन— धड़कन स्वर्ग के सुख से भर जाएगी!

जब तक तुम्हें स्मरण नहीं आया अपना, तब तक दुख है, तब तक महा अंधकारपूर्ण रात्रि है जीवन, अमावस है। जैसे ही स्मरण आया, फिर कोई रात्रि होती ही नहीं। फिर दिवस ही दिवस है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

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