सोमवार, 16 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 17 भाग 4

 संदेह और श्रद्धा


 आहारस्थ्यपि सर्वस्य प्रिविधो भवति प्रिय:।

यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदीममं श्रृणु।। 7।।


और है अर्जुन, जैसे श्रृद्धा तीन प्रकार की होती है, वैसे ही भोजन भी सबको अपनी—अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी सात्विक, राजसिक और तामसिक, ऐसे तीन— तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस न्यारे— न्यारे भेद को तू मेरे से सुन।


और हे अर्जुन, जैसे श्रद्धा तीन प्रकार की होती है, वैसे ही भोजन भी सब को अपनी—अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी सात्विक, राजस और तामस, ऐसे तीन—तीन प्रकार के होते हैं। उनके इन न्यारे—न्यारे भेद को तू मुझसे सुन।

श्रद्धा के शास्त्र को कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं। वह शास्त्र सभी अर्जुनों को सर्व कालों में उपयोगी है, क्योंकि वह शास्त्र तुम्हारी ही व्याख्या और विश्लेषण है। और जब तक तुम अपनी ठीक से व्याख्या को न समझ पाओगे और ठीक से विश्लेषण को, तब तक तुम विज्ञान को न समझ पाओगे, जो तुम्हें त्रिगुणातीत बना दे, गुणातीत बना दे। इसलिए तुम्हें पहले इन तीनों गुणों की अलग—अलग व्यवस्था और तुम्हारे जीवन में इनके ढंग और ढांचे और इनकी शैली को समझ लेना जरूरी है। वह तुम्हारा सारा अस्तित्व है अभी।

तो कृष्ण कहते हैं कि श्रद्धा न केवल तुम्हारी परमात्मा की तरफ यात्रा में भिन्न—भिन्न मार्ग पकड़ा देती है तुम्हें, श्रद्धा न केवल तुम्हारे आचरण को भिन्न—भिन्न कर देती है, महत्वपूर्ण बातों में ही नहीं, जीवन की क्षुद्रतम बातों में भी तुम्हारी श्रद्धा तुम्हें रंगती है। छोटे से छोटा तुम्हारी श्रद्धा की सूचना देता है।

तो कृष्ण कहते हैं, भोजन भी इन तीन श्रद्धाओं के अनुसार तीन प्रकार का होता है। और लोग अपनी—अपनी श्रद्धा के अनुसार भोजन की रुचि रखते हैं।

तामसी वृत्ति का व्यक्ति है, तुम उसके भोजन का अध्ययन करके भी समझ सकते हो कि वह तामसी है। तामसी वृत्ति के व्यक्ति को बासा भोजन प्रिय होता है, सड़ा—गला उसे स्वाद देता है। घर का भोजन उसे पसंद नहीं आता। बाजार का सड़ा—गला, जिसका कोई भरोसा नहीं कि वह कितना पुराना है और कितना प्राचीन है। होटलों में दो—चार दिन पहले की सब्जी से बने हुए पकोड़े और समोसे उसे प्रिय होते हैं। बासा! सात्विक व्यक्ति को जो कूड़ा—करकट जैसा मालूम पड़े, जिसे वह अपने मुंह में न ले सके, उसी पर तामसी की लार टपकती है।

तामसी व्यक्ति का भोजन हमेशा अतिशय होगा, वह ज्यादा खाएगा। वह इतना खाएगा कि नींद के अतिरिक्त और कुछ करने को शेष न बचे। इसलिए तामसी व्यक्ति भोजन करके ही सुस्त होने लगेगा। उसका भोजन एक तरह का नशा है।

भोजन का एक नशा है। अगर तुम जरूरत से ज्यादा भोजन कर लो, तो भोजन अल्कोहलिक है। वह मादक हो जाता है, उसमें शराब पैदा हो जाती है। उसमें शराब पैदा होने का कारण है। जैसे ही तुम ज्यादा भोजन कर लेते हो, तुम्हारे पूरे शरीर की शक्ति निचुड़कर पेट में आ जाती है। क्योंकि उसको पचाना जरूरी है। तुमने शरीर के लिए एक उपद्रव कर दिया, एक अस्वाभाविक स्थिति पैदा कर दी। तुमने शरीर में विजातीय तत्व डाल दिए। अब शरीर की सारी शक्ति इसको किसी तरह पचाकर और बाहर फेंकने में लगेगी। तो तुम कुछ और न कर पाओगे; सिर्फ सो सकते हो। मस्तिष्क तभी काम करता है, जब पेट हलका हो। इसलिए भोजन के बाद तुम्हें नींद मालूम पड़ती है। और अगर कभी तुम्हें मस्तिष्क का कोई गहरा काम करना हो, तो तुम्हें भूख भूल जाती है।

इसलिए जिन लोगों ने मस्तिष्क के गहरे काम किए हैं, वे हमेशा अल्पभोजी लोग हैं। और धीरे— धीरे उन्हीं अल्पभोजियों को यह पता चला कि अगर मस्तिष्क बिना भोजन के इतना सक्रिय हो जाता है, तेजस्वी हो जाता है, तो शायद उपवास में तो और भी बड़ी घटना घट जाएगी। इसलिए उन्होंने उपवास के भी प्रयोग किए। और उन्होंने पाया कि उपवास की एक ऐसी घड़ी आती है, जब शरीर के पास पचाने को कुछ भी नहीं बचता, तो सारी ऊर्जा मस्तिष्क को उपलब्ध हो जाती है। उस ऊर्जा के द्वारा ध्यान में प्रवेश आसान हो जाता है।

जैसे भोजन अतिशय हो, तो नींद में प्रवेश आसान हो जाता है। नींद ध्यान की दुश्मन है; मूर्च्छा है। भोजन बिलकुल न हो शरीर में, तो शरीर को पचाने को कुछ न बचने से सारी ऊर्जा मुक्त हो जाती है पेट से, सिर को उपलब्ध हो जाती है। ध्यान के लिए उपयोगी हो जाता है।

लेकिन उपवास की सीमा है, दो—चार दिन का उपवास सहयोगी हो सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति उपवास की अतिशय में पड़ जाए तो फिर मस्तिष्क को ऊर्जा नहीं मिलती। क्योंकि ऊर्जा बचती ही नहीं। इसलिए उपवास तो किसी ऐसे व्यक्ति के पास ही करने चाहिए जिसे उपवास की पूरी कला मालूम हो। क्योंकि उपवास पूरा शास्त्र है। हर कोई, हर कैसे उपवास कर ले, तो नुकसान में पड़ेगा।

और प्रत्येक व्यक्ति के लिए गुरु ही ठीक से खोजेगा कि कितने दिन के उपवास में संतुलन होगा। किसी व्यक्ति को हो सकता है पंद्रह दिन, इक्कीस दिन का उपवास उपयोगी हो। अगर शरीर ने बहुत चर्बी इकट्ठी कर ली है, तो इक्कीस दिन के उपवास में भी उस व्यक्ति के मस्तिष्क को ऊर्जा का प्रवाह मिलता रहेगा। रोज—रोज बढ़ता जाएगा। जैसे—जैसे चर्बी कम होगी शरीर पर, वैसे—वैसे शरीर हलका होगा, तेजस्वी होगा, ऊर्जावान होगा। क्योंकि बढ़ी हुई चर्बी भी शरीर के ऊपर बोझ है और मूर्च्छा लाती है।

लेकिन अगर कोई दुबला—पतला व्यक्ति इक्कीस दिन का उपवास कर ले, तो ऊर्जा क्षीण हो जाएगी। उसके पास रिजर्वायर था ही नहीं; उसके पास संरक्षित कुछ था ही नहीं। उनकी जेब खाली थी। दुबला—पतला आदमी बहुत से बहुत तीन—चार दिन के उपवास से फायदा ले सकता है। बहुत चर्बी वाला आदमी इक्कीस दिन, बयालीस दिन के उपवास से भी फायदा ले सकता है। और अगर अतिशय चर्बी हो, तो तीन महीने का उपवास भी फायदे का हो सकता है, बहुत फायदे का हो सकता है। लेकिन उपवास के शास्त्र को समझना जरूरी है।

तुम तो अभी ठीक विपरीत जीते हो, दूसरे छोर पर, जहां खूब भोजन कर लिया, सो गए। जैसे जिंदगी सोने के लिए है। तो मरने में क्या बुराई है! मरने का मतलब, सदा के लिए सो गए।

तो तामसी व्यक्ति जीता नहीं है, बस मरता है। तामसी व्यक्ति जीने के नाम पर सिर्फ घिसटता है। जैसे सारा काम इतना है कि किसी तरह खा—पीकर सो गए। वह दिन को रात बनाने में लगा है; जीवन को मौत बनाने में लगा है। और उसको एक ही सुख मालूम पड़ता है कि कुछ न करना पड़े। कुल सुख इतना है कि जीने से बच जाए जीना न पड़े। जीने में अड़चन मालूम पड़ती है। जीने में उपद्रव मालूम पड़ता है। वह तो अपना चादर ओढ़कर सो जाना चाहता है।

ऐसा व्यक्ति अतिशय भोजन करेगा। अतिशय भोजन का अर्थ है, वह पेट को इतना भर लेगा कि मस्तिष्क को ध्यान की तो बात दूर, विचार करने तक के लिए ऊर्जा नहीं मिलती। और धीरे— धीरे उसका मस्तिष्क छोटा होता जाएगा; सिकुड़ जाएगा। उसका तंतु—जाल मस्तिष्क का निम्न तल का हो जाएगा।

तो ध्यान के लिए तो शक्ति मिलना मुश्किल ही है, विचार तक के लिए नहीं मिलती। शांत होना तो दूर है, अभी अशांत होने लायक तक शक्ति मस्तिष्क में नहीं जाती। मस्तिष्क खो ही जाता है। वह आदमी शरीर की तरह जी रहा है।

तामसी आदमी शरीर की तरह जीता है। इसे सूत्र समझ लें। उसकी श्रद्धा शरीर में है, मुरदे में, मृत्यु में है, जीवन में नहीं। तुम उसके चेहरे पर मौत को लिखा हुआ पाओगे। तुम उसके चेहरे पर एक कालिमा पाओगे। तुम उसके व्यक्तित्व के आस—पास मृत्यु की पदचाप सुनोगे।

वैसा आदमी अगर तुम्हारे पास बैठेगा, तो तुम्हें जम्हाई आने लगेगी। वैसा आदमी तुम्हारे पास बैठेगा, तो तुम भी शिथिलगात होने लगोगे। तुम्हें भी ऐसा लगेगा कि नींद मालूम पड़ती है। वैसा आदमी अपने चारों तरफ तरंगें पैदा करता है तमस की।

जहां भी तुम्हें कहीं ऐसा लगे कि कोई आदमी ऐसा कर रहा है, हट जाना तत्‍क्षण; क्योंकि वह आदमी तुम्हें चूसता है। वह तुम्हारी ऊर्जा के लिए गड्डे का काम करता है। वह खुद तो गड्डा हो ही गया है। उसका शिखर तो खो गया है। वह तुम्हारे शिखर को भी चूस लेता है।

तामसी व्यक्ति ज्यादा भोजन करेगा और गलत तरह का भोजन करेगा, जिससे बोझ बढ़े, जिसे पचाना मुश्किल हो, जो अपाच्‍य हो, जो ज्यादा देर पेट में रहे, जल्दी पच न जाए। शाक—सब्जी उसे पसंद न आएंगी। फल उसे पसंद न आएंगे। शाकाहारी होने में उसे मजा न मालूम होगा।

तमस शब्द का अर्थ होता है, अंधकार। तो अंधकार में डूबने की प्रवृत्ति होगी उसकी। उसे दिन पसंद न आएगा। उसे रात पसंद आएगी। वह निशाचर होगा, तमस से भरा हुआ व्यक्ति निशाचर होगा। दिन में सोएगा, रात जागेगा।

रात तुम उसको क्लब में देखोगे, ताश खेलते देखोगे, जुआ खेलते देखोगे, शराब पीते देखोगे। दिन तुम उसे घर्राटे लेते देखोगे। जब सारी दुनिया जागेगी, तब वह सोएगा।

कृष्ण ने योगी की परिभाषा की है कि योगी तब जागता है जब सारी दुनिया सोती है, तब भी जागता है। या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी—जब सब सोए हैं, तब भी योगी जागता है।

भोगी, उसकी परिभाषा उन्होंने नहीं की, वह मैं कर देता हूं कि जब सब जागते हैं, तब वह सोता है। तमस उसका लक्षण है, अंधकार उसका प्रतीक है। रात जरा उनमें जीवन मालूम पड़ता है। जैसे—जैसे तमस बढ़ता है किसी संस्कृति में, उसकी रात घटने लगती है। बारह, दो बजे रात तक राग—रंग चलता है। पश्चिम में तमस बढ़ा, तो लोग रात को दो बजे तक जग रहे हैं। वही जीवन मालूम पड़ता है। पश्चिम के लोग  कहते हैं कि भारत में कोई रात्रि का जीवन नहीं, नाइट—लाइफ बिलकुल नहीं है।

थोड़ी—बहुत बंबई में है। बाकी भारत के अगर गांव में जाएंगे, तो रात्रि—जीवन जैसी कोई चीज ही नहीं है। न कोई नाइट क्लब है, न कोई रात का उपद्रव है, न बिजली है, लोग सांझ हुई कि विश्राम को चले गए।

भारत की उलटी संस्कृति थी। यहां लोग सुबह जल्दी उठते थे, तीन बजे। अब पश्चिम में लोग तीन बजे तक जग रहे हैं। यहां तीन बजे उठते थे। उठने का वक्त आ गया। प्रकृति के साथ एक तल्लीनता थी। जब सूरज जाग रहा है, तब तुम जागो। जब सूरज डूब गया, तब तुम डूब जाओ। लयबद्धता थी।

तामसी वृत्ति का व्यक्ति प्रकृति से लयबद्धता छोड़ देता है। वह अपने में बंद हो जाता है। वह अपना अलग ही ढांचा बना लेता है। वह टूट जाता है इस विस्तार से। तो जब पक्षी गीत गाते हैं, तब वह गा नहीं सकता। जब सूरज उगता है, तब वह जाग नहीं सकता। 

तमस का भरोसा मृत्यु में है। वह खुद भी मरता है, दूसरे को भी मारता है।

तामसी वृत्ति का व्यक्ति इस तरह जीता है, इस तरह भोजन करता है, जैसे भोजन से कोई जीवन के सोपान नहीं चढ़ने हैं, कि भोजन से कोई सात्विक ऊर्जा लेनी है, बस, इस तरह कि किसी तरह ढो लेना है, जीवन एक बोझ है। तामसी वृत्ति का व्यक्ति आत्मघाती होता है। ज्यादा भोजन करेगा, गलत भोजन करेगा, व्यर्थ चीजें खाएगा। और खाने में उसका केंद्र होगा। भोजन उसका केंद्र होगा जीवन का। उसके वर्तुल में वह घूमेगा। वही सब कुछ है।

राजस प्रकृति का व्यक्ति भिन्न तरह के भोजन में रस लेता है। ऐसे भोजन में, जिससे ऊर्जा मिले, गति मिले, दौड़ मिले। क्योंकि राजस प्रकृति का व्यक्ति महत्वाकांक्षी है, उसे दौड़ना है। वह मांसाहारी होगा। इसलिए सारे क्षत्रिय मांसाहारी हैं।


हिंदुओं ने जो वर्ण की व्यवस्था की, वह बड़ी वैज्ञानिक है। वह कितनी ही विकृत हो गई हो, पर उसके पीछे बड़ा गहरा विज्ञान है। उन्होंने तीन खंड कर दिए! और ध्यान रखना मौलिक खंड तीन ही होंगे। क्योंकि अगर तीन ही गुण हैं, तो चार वर्ण नहीं हो सकते। तो चौथा जो वर्ण है वैश्य का, वह वर्ण नहीं है, वह खिचड़ी है। मेरे देखे, वह वर्ण नहीं है।

शूद्र का अर्थ है, तमस—प्रधान। शूद्र का अर्थ है, जो भोजन के लिए जी रहा है। जो जीने के लिए भोजन नहीं करता, जो जीता ही भोजन करने के लिए है, तमस से घिरा हुआ। वह थोड़ा—बहुत कर लेगा, जितने से भोजन मिल जाए। शूद्र आलसी होगा, वह ज्यादा काम नहीं करेगा। क्योंकि करना क्या है काम से! बस, आज का भोजन मिल गया, काफी है। इसलिए शूद्र दरिद्र रहेगा।

और ऐसा नहीं कि हिंदुस्तान में ही वह दरिद्र है, वह जहां भी होगा। क्योंकि शूद्र तो भीतर का गुण है, जाति से उसका कोई संबंध नहीं है। सारी दुनिया में शूद्र हैं, वे इतना कमा लेते हैं, जितना खा लें। बस, इससे ज्यादा वे फिर हाथ नहीं हिलाते। भोजन मिल गया, शराब मिल गई, वे सो गए; बात खतम हो गई। कल का कल देखेंगे। वे दरिद्र रहेंगे, दीन रहेंगे और भोजन के आस—पास उनकी सारी वृत्ति घूमती रहेगी।

क्षत्रिय है राजस। सैनिक, महत्वाकांक्षी लोग, दौड़ है जिनके जीवन में, कुछ पाना है, बड़ी महत्वाकांक्षा का उन्मेष हुआ है, वे दूसरे तरह का भोजन पसंद करेंगे, जो ऊर्जा दे, ऊर्जा दे और बोझिलता न दे; ऊर्जा दे और सुस्ती न दे; शक्ति दे और नींद न दे। क्योंकि नींद आ जाएगी तो महत्वाकांक्षा कैसे पूरी करेगा? कौन पूरी करेगा?

राजस व्यक्ति सोने में अड़चन अनुभव करता है। तामस व्यक्ति गहरी नींद सोता है, जोर से घुर्राता है। राजस व्यक्ति को अक्सर नींद की तकलीफ हो जाएगी; वह सो न पाएगा। उसको अक्सर अनिद्रा की बीमारी सताएगी।

वह दौड़ कोई भी हो, चाहे वह दौड़ धन की कर रहा हो, चाहे पद की कर रहा हो, राजनीति में लगा हो या किसी और उपद्रव में लगा हो, लेकिन उसे दुनिया को कुछ करके दिखलाना है। उसको अहंकार प्रकट करना है कि मैं कुछ हूं मैं कोई साधारण व्यक्ति नहीं हूं असाधारण। उसे हस्ताक्षर करने हैं इतिहास पर, उसे लकीर छोड़नी है अपने पीछे, कि लोग हजारों साल तक याद रखें कि कोई था, कोई मूल्यवान था। ऐसा व्यक्ति तामसी भोजन नहीं करेगा। तुम चकित होओगे जानकर, अगर तुम हिटलर के भोजन के संबंध में जान लो, तो तुम बहुत हैरान होओगे। हिटलर न तो शराब पीता था, न सिगरेट पीता था, न अति भोजन करता था। शाकाहारी था। और इतना दुष्ट सिद्ध हुआ। महत्वाकांक्षी था। यह सब तो व्यवस्था महत्वाकांक्षा के लिए थी, ताकि ऊर्जा तो उपलब्ध हो, लेकिन सुस्ती न आए।

तो दुनिया में सारे क्षत्रिय अल्पभोजी होंगे। इसलिए क्षत्रियों की देहयष्टि देखने में सुंदर होगी। जापान के समुराई, या भारत के क्षत्रिय, जिनको लड़ना है युद्ध के मैदान पर, वे कोई बड़े—बड़े पेट लेकर युद्ध के मैदान पर नहीं जा सकते। उनके पास सिंह जैसे पेट होंगे, सिंह जैसी छाती होगी। अल्पभोजी होंगे, तभी सिंह जैसा पेट हो सकता है। मांसाहारी होंगे, लेकिन अल्पभोजी होंगे।

और यह जानकर तुम हैरान होओगे कि जिन्हें अल्प भोजन करना हो, उनके लिए मांसाहार जमता है। क्योंकि मांस पचा—पचाया भोजन है। थोड़ा—सा ले लिया, काफी शक्ति देता है। अगर शाक—सब्जी खानी हो, तो थोड़ी—सी शाक—सब्जी खाने से काफी शक्ति नहीं मिल सकती, काफी शाक—सब्जी खानी पड़ेगी, तब मिलेगी। इसलिए तो शाकाहारी जानवर दिनभर चरते रहते हैं। गाय बैठी है, चर रही है। घास चरती है। इससे ज्यादा शुद्ध अहिंसक और शाकाहारी खोजना मुश्किल है। महावीर भी इसको नमस्कार करेंगे। इसलिए तो हिंदुओं ने इसको गौ माता मान लिया; शुद्ध शाकाहारी है। इसकी आंखें देखो, कैसी हल्की और शांत! मगर चरती है दिनभर।

बंदर बैठे हैं, चर रहे हैं अपने— अपने झाडू पर। दिनभर चलता है यह काम। क्योंकि सब्जी से या पत्तियों से या फलों से बहुत थोड़ी ऊर्जा मिलती है, मात्रा उसकी बहुत कम है।

इसलिए तुम देखोगे कि दिगंबर जैन मुनि हैं, उनके बड़े—बड़े पेट हैं। यह होना नहीं चाहिए। क्योंकि ये तो उपवासी लोग हैं। इनके बड़े—बड़े पेट क्यों हैं? ये एक ही बार भोजन करते हैं। इनके बड़े—बड़े पेट क्यों हैं?

इनको एक ही बार में इतना करना पड़ता है कि चौबीस घंटे के लायक ऊर्जा मिल जाए। इसलिए काफी कर लेते हैं। पेट बड़े हो जाते हैं।

हिंदू संन्यासी का पेट बड़ा है, वह समझ में आता है, कि वह खीर—पकवान पर जीता है। लेकिन जैन संन्यासी का पेट क्यों बड़ा है? शाकाहारी शरीर है; अति भर लेता है।

अगर दुनिया में ठीक शाकाहार कभी हुआ प्रचलित, तो लोग कम से कम तीन या चार या पांच बार भोजन करेंगे, थोड़ा— थोड़ा, लेकिन फैलाकर करेंगे। क्योंकि शाकाहार थोड़ी—सी मात्रा देता है। बड़ी शुद्ध मात्रा देता है, लेकिन वह मात्रा थोड़ी है। और थोड़ी मात्रा का काम पूरा हो जाए जब चार घंटे बाद, तब फिर थोड़ी मात्रा। एक फल ले लिया, चार घंटे बाद दूसरा फल ले लिया। एक ग्लास दूध ले लिया, चार घंटे के बाद फिर थोड़ी सब्जी ले ली। मात्रा थोड़ी, लेकिन लंबे फैलाव पर होनी चाहिए। नहीं तो पेट खराब हो जाएगा।

राजसी व्यक्ति अक्सर मांसाहारी होंगे, लेकिन अल्पाहारी होंगे। तामसी व्यक्ति अत्यधिक भोजन करेगा। राजसी व्यक्ति उतना भोजन नहीं करेगा। उसे बहुत करना है, दौड़ना है, लड़ना है, जीना है। क्षत्रिय उसका वर्ग है।

फिर ब्राह्मण का वर्ग है, सत्व। ध्यान रखना, तामसी व्यक्ति अति भोजन करेगा; राजसी व्यक्ति जरूरत से कम करेगा, सत्व को उपलब्ध व्यक्ति सम्यक भोजन करेगा। न तो तामसी की भांति ज्यादा और न राजसी की भांति कम। उसका भोजन संतुलित होगा, संगीतपूर्ण होगा। वह उतना ही करेगा, जितना जरूरी है। वह वही करेगा, जितना आवश्यक है। उससे न रत्तीभर ज्यादा, न रत्तीभर कम।

इसलिए बुद्ध और महावीर दोनों ने सम्यक आहार पर जोर दिया है। वह सत्व का लक्षण है। जब बीमार होगा, उपवास कर लेगा। क्योंकि बीमारी में भोजन घातक है। जब स्वस्थ होगा, थोड़ा ज्यादा लेगा, जब उतना स्वस्थ न होगा, थोड़ा कम लेगा, उसका मापदंड रोज बदलता रहेगा। उसका प्राण हमेशा दिशासूचक यंत्र की तरह बताता रहेगा उसे कि कब कितना। कभी वह थोडा ज्यादा लेगा, कभी थोड़ा कम लेगा।

सत्व को उपलब्ध व्यक्ति अनुशासन से नहीं जीते। तामसी व्यक्ति सदा ज्यादा लेगा, राजसी व्यक्ति सदा कम लेगा। सात्विक व्यक्ति संतुलित लेगा। लेकिन उसका संतुलन रोज बदलेगा। थोड़ा इसे समझ लेना चाहिए।

क्योंकि संतुलन रोज बदलना है, जिंदगी रोज बदल जाती है। तुम पैंतीस साल के हो; अभी तुम जितना भोजन करते हो, चालीस साल में उतना करोगे तो नुकसान होगा। पचास साल में उतना करोगे, तो भयंकर बीमारी हो जाएगी। पैंतीस साल पर जीवन—ऊर्जा उतरनी शुरू हो जाती है। अब मौत की तरफ यात्रा शुरू हो गई। आखिरी शिखर छू लिया। सत्तर साल में मरना है, तो पैंतीस साल में शिखर आ गया। अब उतार शुरू हुआ।


 जैसे—जैसे उतार शुरू हुआ, सात्विक व्यक्ति का भोजन कम होता जाएगा। उसकी नींद भी कम होती जाएगी, भोजन भी कम होता जाएगा। सात्विक व्यक्ति मरते समय नींद से भी मुक्त हो जाएगा, भोजन से भी मुक्त हो जाएगा। सात्विक व्यक्ति की मृत्यु उपवास में होगी, अनिद्रा में होगी। तामसी व्यक्ति अक्सर नींद में मरेंगे। राजसी व्यक्ति संघर्ष में मरेंगे। सात्विक व्यक्ति उपवास में, शांति में, संगीत में मृत्यु को लीन होगा।

ब्राह्मण सात्विक का वर्ग है। सात्विक व्यक्ति जीने के लिए भोजन करता है, भोजन करने के लिए नहीं जीता। और सात्विक व्यक्ति के जीवन में कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, कोई एंबीशन नहीं है। इसलिए वह किसी दौड के लिए ऊर्जा इकट्ठी नहीं करता। वह उतनी ही ऊर्जा चाहता है, जो आज जीवन के फूल के खिलने में सहयोगी हो जाए। वह कल की उसकी कोई दौड नहीं है, उसका कोई भविष्य नहीं है।

सात्विक व्यक्ति का भोजन अत्यल्प होगा, शुद्धतम होगा, मौलिक रूप से शाकाहारी होगा। कभी उसके शरीर पर इतना बोझ न होगा भोजन का कि मस्तिष्क को नुकसान पहुंचे। हां, बहुत बार वह भोजन लेगा ही नहीं, ताकि ऊर्जा शुद्ध हो जाए, शांत हो जाए और ध्यान में लीन हो जाए।

संसार में जितने लोगों ने भी परम समाधि पाई है, वे सभी लोग उपवास के प्रेमी थे। महावीर, बुद्ध, जीसस, मोहम्मद, सभी ने उपवास किया है। और सभी ने उपवास की ऊर्जा का लाभ लिया है। परम समाधि का क्षण उपवास के क्षण में ही आता है। तब विचार भी बंद हो जाते हैं; शरीर से भी संबंध बहुत दूर का हो जाता है, और ऊर्जा इतनी शुद्ध होती है, इतनी पवित्र होती है, इतनी कुंवारी होती है, कि उस पर सवार होकर कोई भी समाधि की  अवस्था को उपलब्ध हो जाता है।

भोजन करते हुए सविकल्प समाधि संभव है। भोजन करते हुए निर्विकल्प समाधि संभव नहीं है। अगर निर्विकल्प समाधि कभी भी संभव होती है, तो वह ऐसे ही क्षणों में संभव होती है, जब तुम्हारी स्थिति उपवास की है। यह भी हो सकता है, तुम उपवास न कर रहे हो।

जैसे जिस रात बुद्ध को ज्ञान हुआ है, उस रात उन्होंने भोजन लिया था, उपवास वे नहीं थे। रात उन्होंने भोजन लिया था, सुबह वे ज्ञान को उपलब्ध हुए।

लेकिन सुबह आते— आते शरीर की अवस्था उपवास की हो जाती है। अंग्रेजी का शब्द अच्छा है नाश्ते के लिए, ब्रेकफास्ट। उसका मतलब होता है, उपवास तोड़ना। शरीर की अवस्था उपवास की हो जाती है। छ: घंटे में, जो तुमने खाया है, वह लीन होने लगता है। आठ घंटे में करीब—करीब लीन हो जाता है। आठ घंटे और बारह घंटे के बीच उपवास की अवस्था आ जाती है, तब भोजन किया, नहीं किया बराबर होता है।

जिनको भी जब भी कभी ज्ञान उपलब्ध हुआ है, ऐसी ही घड़ी में हुआ है, जब शरीर उस अवस्था में था, जिसको हम उपवास कहें। भोजन नहीं। शरीर भोजन नहीं पचा रहा था। भोजन जो किया था, वह पच गया था या किया ही नहीं था। शरीर बिलकुल सम्यक हालत में था। कोई काम नहीं चल रहा था। शरीर का कारखाना बिलकुल बंद पड़ा था। तभी तो सारी ऊर्जा मिल पाती है ध्यान को और ध्यान गति कर पाता है।

ये तीन वर्ण—शूद्र का, क्षत्रिय का, ब्राह्मण का—तमस, रजस, सत्व के वर्ण हैं। वैश्य का वर्ण तीनों का जोड़ है। तो वैश्य में तीनों तरह के लोग तुम पाओगे। शूद्र भी पाओगे, क्षत्रिय भी पाओगे, ब्राह्मण भी पाओगे। वैश्य मिश्रित वर्ग है। और तुमसे मैं यह बता दूं कि वैश्य दुनिया का सब से बड़ा वर्ग है।

ब्राह्मण तो कभी—कभी तुम्हें एकाध मिलेगा। जितने लोग ब्राह्मण की तरह जाने जाते हैं, उनको तुम ब्राह्मण मत समझ लेना। वे ब्राह्मण घर में जन्मे हैं। जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता। ब्राह्मण तो ब्रह्म को जानने से कोई होता है। जिनके जीवन के तीनों गुण संयुक्त हो गए, सम—स्वर हो गए, समवेत हो गए और जिन्होंने तीनों के पार एक को जान लिया, वे ही ब्राह्मण हैं। या उस जानने के मार्ग पर गतिमान हैं, वे ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण के घर में पैदा होने से कोई ब्राह्मण नहीं होता।

दुनिया में सब से बड़ा वर्ग वैश्य का है, सौ में से पंचानबे प्रतिशत लोग वैश्य हैं। शूद्र भी धंधा कर रहा है। वह भी धन इकट्ठा करने में लगा है। क्षत्रिय भी धन इकट्ठा कर रहा है। हो सकता है, सैनिक का धंधा कर रहा है क्षत्रिय। लेकिन धन ही इकट्ठा कर रहा है। ब्राह्मण भी हो सकता है पुजारी का धंधा कर रहा है, पुरोहित का धंधा कर रहा है, पंडित का धंधा कर रहा है, लेकिन धंधा ही कर रहा है। पंचानबे प्रतिशत लोग वैश्य हैं दुनिया में। चार प्रतिशत लोग शूद्र हैं दुनिया में, गहन तमस में पड़े हैं। और एक प्रतिशत मुश्किल से लोग ब्राह्मण हैं।


अगर तुम इन तीनों गुणों को ठीक से अपने भीतर समझोगे,अपने आचरण में, व्यवहार में, वस्त्र में, भोजन में, उठने—बैठने में, सब तरफ से तुम धीरे— धीरे तमस को कम करोगे, रजस को कम करोगे, ताकि उन दोनों की ऊर्जा सत्य को मिल जाए, वे बराबर समतुल हो जाएं, तराजू एक—सा हो जाए, पलड़े एक तल पर आ जाएं, तो तुम्हारे भीतर ब्राह्मण का जन्म होगा।

कोई ब्राह्मण के घर में पैदा नहीं होता; ब्राह्मण तुम्हारे भीतर पैदा होता है। तुम ब्राह्मण में पैदा नहीं होते। ब्रह्म का बोध ब्राह्मण का लक्षण है।

और जैसा भोजन के संबंध में सच है, वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन ही तरह के होंगे। सभी कुछ तीन तरह का होगा।

तामसी व्यक्ति यज्ञ करेगा, तो इसलिए करेगा कि जो उसके पास है, वह खो न जाए।इसे ठीक से समझ लो। तामसी व्यक्ति हमेशा इस चिंता में रहेगा कि जो उसके पास है, वह खो न जाए; उसे वह पकड़कर रखता है। वह अगर यज्ञ करेगा, तो इसलिए कि जो उसके पास है, वह बचा रहे।

राजसी को इसकी चिंता नहीं है, जो उसके पास है। उसको चिंता है, जो उसके पास नहीं है, वह उसे मिल जाए। इसलिए अगर राजसी यज्ञ करेगा, तो इसलिए, ताकि जो नहीं है, वह मिल जाए। वह कुछ पाने के लिए यज्ञ करेगा। तामसी बचाने के लिए यज्ञ करेगा।

और सात्विक व्यक्ति अगर यज्ञ करेगा, तो सिर्फ उत्सव के लिए। न कुछ बचाने के लिए, न कुछ पाने के लिए; जो मिला ही हुआ है, जो सदा मिल ही रहा है, उसके अहोभाव, उसके आनंद के लिए, उसके उत्सव के लिए। उसका यज्ञ एक नृत्य है; उसका यज्ञ एक गीत है, परमात्मा की तरफ गाया गया। उसका यज्ञ एक धन्यवाद है।

तामसी जाएगा मंदिर में, तो कहेगा कि जो मेरे पास है, छीन मत लेना। राजसी जाएगा, तो कहेगा कि जो मेरे पास नहीं है, उसे मेरे लिए जुटा। सात्विक जाएगा मंदिर में, तो धन्यवाद देने कि जो है, वह जरूरत से ज्यादा है। जो चाहिए, उससे बहुत ज्यादा है। मैं धन्यवाद देने आया हूं।

प्रार्थना तीनों की अलग—अलग होगी। ऐसे ही तीनों का तप अलग—अलग होगा। ऐसे ही तीनों का दान भी अलग—अलग होगा। तामसी अगर दान देगा, तो वह इसीलिए देगा कि वह जो उसने लूट—खसोट की है, वह बचे। लाख रुपया चोरी करेगा, दस रुपया दान करेगा। लाख रुपया बचा लेगा सरकार से टैक्स में, तो हजार रुपए का एक ट्रस्ट खड़ा कर देगा। वह यह दिखाना चाहता है कि दानी आदमी कहीं टैक्स बचाने वाला हो सकता है? कभी नहीं। वह चाहेगा कि समाज में खबर फैले कि वह बड़ा दानी है। अखबार में फोटो छपवाएगा कि अस्पताल बना दिया।

अभी तो मैं देखकर चकित हुआ। किसी ने यहां शहर में दस लाख रुपया दान दिया किसी अस्पताल को। चकित हुआ देखकर मैं यह कि अखबारों ने शायद यह खबर छापी न होगी, तो इसका विज्ञापन छपा अखबार में। विज्ञापन! एडवरटाइजमेंट! कि इतना—इतना दान फलां—फलां परिवार ने अस्पताल को दिया है। यह भी उसी परिवार की तरफ से छपा हुआ विज्ञापन!

दान का विज्ञापन करेगा। क्योंकि उससे उसको कुछ छिपाना है, कुछ बचाना है, कुछ ढांकना है। जो है, वह खो न जाए, इसलिए वह थोड़ा—सा दान भी देगा। ताकि परमात्मा भी ध्यान रखे, समाज भी ध्यान रखे, लोग भी खयाल रखें। चोर अक्सर दानी होते हैं। मगर उनका दान तामसी होता है। वे देते हैं इसलिए ताकि किसी को खयाल न आए कि इन्होंने इतना छीना होगा।

राजसी भी दान देगा। वह दान देगा इसलिए ताकि जो नहीं मिला है, वह मिले। उसका दान ऐसा है, जैसे कि मछली को पकड़ने वाला काटे पर आटा लगाता है। वह कोई मछली को आटा देने के लिए नहीं, मछली को पकड़ने के लिए है। वह दान देता है, ताकि उसकी महत्वाकांक्षा के लिए रास्ता बने।

तो राजसी भी दान देता है, वह उसको पाने के लिए देता है, जो उसके हाथ में नहीं है। तामसी देता है उसको बचाने के लिए, जो उसके पास है।

सात्विक व्यक्ति दान देता है अहोभाव से, प्रेम से, न कुछ बचाने को है, न कुछ पाने को है। जो है, वह बांटने को है। जो है, उसमें दूसरे को भी साझीदार बनाना है। वह इतना आनंदित है कि तुम्हें अपने आनंद में भी मित्र बनाना चाहता है, कि तुम आओ। जो भी है उसके पास—रूखा—सूखा है तो, बहुत बहुमूल्य है तो, झोपड़ा है तो, महल है तो—वह तुम्हें बुलाता है कि निकट आओ, जो मेरे पास है, हम बांटें, हम साझीदार बनें। वह भी दान देता है, लेकिन उसका दान बेशर्त है।

तीनों पर ध्यान रखना। अपने भीतर धीरे— धीरे खोज करना। यह विश्लेषण का सूत्र है कि तुम तामसी हो, कि राजसी हो, कि सात्विक हो। और किसी को धोखा देना नहीं है, इसलिए ठीक—ठीक जांच—परख करना।

विश्लेषण ठीक कर लोगे, तो उससे तुम्हारा रास्ता साफ होगा। और तब धीरे— धीरे तुम ऊर्जा को रूपांतरित कर सकते हो। जो ऊर्जा तमस में जा रही है, उसे रजस में ला सकते हो। जो ऊर्जा रजस में जा रही है, उसे सत्य में ला सकते हो।

शास्त्र की परिणति है, जब तीनों की ऊर्जाएं समतुल हो जाएंगी, वे तीनों एक —दूसरे को काट देते हैं चेतना गुणातीत हो जाती है। गुणातीत हो जाते ही तुम भी कह सकोगे, अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं!

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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