बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 10

 गुरु पहला स्‍वाद है


धृत्या यया धारयते मनप्राणेन्द्रियक्रिया:।

योगेनाथ्यमिचारिण्या धृति: सा पार्थ सात्‍विकी।। 33।।

यया त धर्क्कामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जन।

प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृति: सा पार्थ राजसी।। 34।।

यया स्वप्‍नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।

न विमुज्‍चति दुमेंधा धृति: आ पार्थ तामसी।। 35।।


और हे पार्थ, ध्यान— योग के द्वारा जिस अव्‍यभिचारिणी धृति अर्थात धारणा से मनुष्य मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाऔं को धारण करता है, वह धृति तो सात्‍विकी है।

और हे पृथापुत्र अर्जुन, फल की इच्‍छा वाला मनुष्य अति आसक्ति से जिस धृति के द्वारा धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धृति राजसी है।

तथा हे पार्थ, दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य जिस धृति अर्थात धारणा के द्वारा निंद्रा, भय और दुख को एवं उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता है अर्थात धारण किए रहता है, वह धृति तामसी है।


और हे पार्थ, ध्यान—योग के द्वारा, अव्यभिचारिणी धृति अर्थात धारणा से मनुष्य मन—प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति तो सात्विकी है।

फल की इच्छा वाला मनुष्य अति आसक्ति से जिस धृति के द्वारा धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धृति राजसी है। तथा हे पार्थ, दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य जिस धृति अर्थात धारणा के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दुख को एवं उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता है और धारण किए रहता है, वह धृति तामसी है।

धृति है धारणा की शक्ति। ये सूत्र बहुत कीमती हैं। तुम्हारे कदम—कदम पर काम पड़ेंगे। इसलिए किसी की झपकी लग गई हो, तो कृपा करके थोड़ी देर को तोड़ ले।

हमारी खोज यही है कि मनुष्य के जीवन में वही घटता है, जो उसकी धारणा होती है। धारणा ही तुम्हारे जीवन का मूल सूत्र और आधार है। तुम जैसी धारणा करते हो, वही हो जाते हो।

कोई दूसरा तुम्हें न तो सताता है, न कोई दूसरा तुम्हें सुख देता है। तुम्हारी धारणा ही तुम्हें सुख देती है, तुम्हें दुख देती है। न तो किसी ने तुम्हें बांधा है और न तुम्हें कोई मुक्त करेगा; तुम्हारी धारणा ही तुम्हें बांधती है और तुम्हें मुक्त करती है। इसलिए धारणा बड़ी बहुमूल्य है।

लेकिन तुम्हारे जीवन में आज जो हो रहा है, यह कल बीते अतीत में की गई धारणा का परिणाम है। यह तुमने ही चाहा है, इसलिए हो रहा है। और आज तुम जो धारणा करोगे, वह कल घटित होगा। अब बड़ी कठिनाई यह है कि धारणा और फल के बीच तुम संबंध नहीं जोड़ पाते, इसलिए बड़ी अड़चन में पड़ते हो। तुम सोचते हो, दुख तुम्हें कोई और दे रहा है। वह तुम्हारी ही धारणाओं का परिणाम है।

 तुम सोचते हो, दूसरे तुम्हें सता रहे हैं। कोई तुम्हें सताता नहीं। किसी को क्या प्रयोजन है! तुम अपनी ही धारणाओं में घिरे परेशान हो रहे हो।




तुम न मालूम कितनी धारणाओं के जाल जन्मों—जन्मों में अपने पास बुन लिए हो। और बड़े मजे की बात यह है कि तुम उन्हें सही सिद्ध करने की कोशिश करते हो, चाहे उनसे कितना ही कष्ट क्यों न मिले।

कृष्ण कहते हैं, हे पार्थ, दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य जिस धृति अर्थात धारणा के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दुख को एवं उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता है अर्थात धारण किए रहता है, वह धृति तामसी है। तो तीन तरह की धारणाएं हैं; तीन तरह के ध्यान हैं; तीन तरह की धृतिया हैं।

तामसी, कि तुम उसको पकड़े रहते हो, जो तुम्हारा नरक है। तुम्हें नरक से भी कोई निकालने को राजी हो जाए, तो तुम जाने को राजी नहीं होते। क्योंकि तुम उसके आदी हो गए होते हो। तुम कहते हो, यह मेरा घर है।

गलत को भी पकड़कर ऐसा लगता है, कुछ तो हाथ में है। बुरे को भी पकड़े ऐसा लगता है, कम से कम हाथ खाली तो नहीं है। इसको कहते हैं, तामस धृति। जानते हुए कि दुख पा रहा हूं इस धारणा को छोड़ दूं नहीं छोड़ते। जानते हुए कि आलस्य पीड़ा दे रहा है, जीवन बोझ हुआ जा रहा है, नहीं छोड़ते। सोचते ही नहीं कि मेरी धारणा का फल है।

फल की इच्छा वाला मनुष्य अति आसक्ति से जिस धृति के द्वारा धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धृति राजसी है। फल की इच्छा वाला पुरुष।

वह धर्म भी करता है, प्रार्थना भी, पूजा भी, तो भी फल की इच्छा से करता है। यश करता है, दान करता है, वह भी फल की आकांक्षा से करता है। वह सब करता है, लेकिन आकांक्षा फल की होती है, समझते हुए, जानते हुए कि फल की आकांक्षा से कोई कभी सुख को उपलब्ध नहीं होता।

फल की आकांक्षा दुख में ले जाती है। फल की आकांक्षा विषाद में ले जाती है। क्योंकि एक तो सौ में निन्यानबे मौकों पर तुम्हारी आकांक्षा कभी पूरी नहीं होती, इसलिए दुख होता है। और अगर कभी पूरी भी हो जाए, तो सुख नहीं होता, क्योंकि जैसे ही पूरी होती है, फल की आकांक्षा आगे बढ़ जाती है। वह क्षितिज की भांति है। उसे तुम कभी छू नहीं पाते। वह सदा दूर ही दूर रहती है। तुम कभी पहुंच नहीं पाते, उपलब्ध नहीं हो पाते।

कितना ही धन हो, दरिद्रता नहीं मिटती। कितना ही बड़ा पद हो, और पद की आकांक्षा नहीं मिटती। कितनी ही जीवन में सुख—सुविधा हो, और सुख—सुविधा की दौड़ समाप्त नहीं होती। और अनुपात हमेशा वही रहता है।

फलाकांक्षा दुख देती है। सब फलाकांक्षाएं अंततः विषाद में ले जाती हैं, हाथ में कुछ आता नहीं, हाथ खाली रह जाता है; तो भी राजसी व्यक्ति पकड़े रहता है।

और हे पार्थ, ध्यान—योग के द्वारा अव्यभिचारिणी धृति अर्थात। धारणा से मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति सात्विकी है।

जहां अव्यभिचारिणी ध्यान या धृति पैदा हो जाए..।

जब तुम शांत बैठते हो, तब भी मन का व्यभिचार चलता रहता है। तुम शांत बैठे हो, मन हजार यात्राएं करता है। तुम चुप बैठना चाहते हो, मन बोले ही चला जाता है। तुम रुकना चाहते हो, मन रुकता नहीं। यह मन का व्यभिचार है, यह बलात्कार है। और तुम मन के बलात्कार को सहे चले जाते हो। न केवल सहे जाते हो, सहयोग दिए जाते हो।

इस सहयोग को हटा लो। एकदम से बलात्कार न रुक जाएगा मन का। यह व्यभिचार बड़ा पुराना है, जन्मों—जन्मों का है। इसकी बड़ी गहरी गांठें हैं। नदी की धार बन गई है। पानी बहाओगे, वहीं से बहेगा। लेकिन टूट जाता है। टूट जाती हैं धारें पुरानी और एक ऐसी घड़ी भी आ जाती है कि कुंआरी चेतना पैदा होती है।

मन व्यभिचारिणी स्थिति है। कितने विचार! कितना व्यभिचार! मन एक बाजार की तरह है, एक पागलखाना, जहां कितनी आवाजें एक साथ गुंज रही हैं!

कृष्ण कहते हैं, ध्यान—योग के द्वारा जो अव्यभिचारिणी धृति को उपलब्ध हो जाता है।

ऐसी धारणा जो शुद्ध है, कुंआरी है, जिसमें विचार का व्यभिचार नहीं है, निर्विचार है। और जो निर्विचार है, वही निर्विकार है। और जहां विचार की तरंग नहीं उठती, वहीं कुंआरापन है। वहां शुद्धतम चैतन्य की अवस्था है।

ऐसी धारणा मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को धारण करती है, लेकिन व्यभिचारित नहीं होती। ऐसी धृति मन को चलाती है, मन द्वारा नहीं चलती। ऐसी धृति हाथ, पैर, इंद्रियों को चलाती है, इंद्रियों के द्वारा चलती नहीं। इंद्रियां मालिक नहीं रह जातीं। ऐसी कुंआरी धृति मालिक हो जाती है। यही स्वामित्व है।

इसलिए हम संन्यासी को स्वामी कहे हैं। वह सत्व की दशा है। वह संन्यासी की मंजिल है, कि वह स्वामित्व को उपलब्ध हो जाए; वह कुंआरी धारणा को उपलब्ध हो जाए। इसलिए ध्यान पर इतना जोर है। गैर— ध्यान की अवस्था संसार है। ध्यान संन्यास है।

और जिस दिन तुम अपने मन, तन, प्राण, सबके मालिक हो जाते हो, उसी दिन तुम योग्य हुए, पात्र हुए। अब परमात्मा तुम्हारे भीतर उतर सकता है।

इसलिए मैं निरंतर कहता हूं उससे मिलना हो, तो सम्राट होकर ही उसके द्वार पर जाना, भिखारियों की तरह नहीं। मन के गुलाम हुए उसके द्वार पर तुम न जा सकोगे। गुलामों के लिए वह नहीं है; मुक्त पुरुषों के लिए है।

तो इतनी मुक्ति तुम साध लो कि मन निर्विकार हो जाए, चेतना शांत और कुंआरी हो जाए; बस, तुम्हारा काम पूरा हो गया। तुमने कदम उठा लिया; अब परमात्मा के कदम उठाने की बारी है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल


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