बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 3

 फलाकांक्षा का त्‍याग


 नियतस्य तु संन्यास: कर्मणो नोययद्यते।

मोहात्तस्य परित्यागस्तामम: यरिकीर्तित:।। 7।।

दु:खमित्येव यत्कर्म कायक्लेशमयाल्यजेत्।

स कृत्या राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ।। 8।।

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन।

सङ्गं त्यक्त्‍वा फलं चैव स त्याग: सास्थ्यिाए मत:।। 9।।


और हे अर्जुन, नियत कर्म का त्याग करना योग्य नही है, इसलिए मोह से उसका त्याग करना तामस त्याग कहा गया है।

और यदि कोई मनुष्य, जो कुछ कर्म है वह सब ही दुखरूप है, ऐसा समझकर शारिरिक क्लेश के भय से कर्मों का त्याग कर दे, तो वह पुरूष उस राजस त्याग को करके भी त्याग के फल को प्राप्त नहीं होता है।

और हे अर्जुन, करना कर्तव्य है, ऐसा समझकर ही जो शास्त्र— विधि से नियत किया हुआ कर्तव्य कर्म आसक्‍ति को और फल को त्याग कर किया जाता है, वह ही सात्‍विक कहा जाते है।


और हे अर्जुन, नियत कर्म का त्याग करना योग्य नहीं है, इसलिए मोह से उसका त्याग करना तामस त्याग कहा गया है।

नियत कर्म कहते हैं उस कर्म को, जो शास्त्रों ने नियत किया है। शास्त्र हैं उन व्यक्तियों की वाणिया, जिन्होंने जाना है। जिन्होंने जाना है, उन्हें हम शास्ता कहते हैं; जो उन्होंने कहा है जानकर, उसे हम शास्त्र कहते हैं; जो उसे मानकर चले, उसे हम अनुशासन कहते हैं।

शास्त्र है अतीत में जाने हुए व्यक्तियों की वाणिया। उनमें बड़ा सार है। अगर आंख हो देखने की, तब तो शास्त्र में बडा सार है, सब छिपा है। और अगर आंख न हो देखने की, तो शास्त्र एक बोझ बन जाएगा। तब तुम गीता को ढोते रहो सिर पर।

 गीता से तुम्हारे पैरों में घुंघरू नहीं बंधते, नाच नहीं आता। गीता से तुम्हारे हृदय में कोई गीत थोड़े ही गूंजता है। गीता तो एक बोझ है, जिसे तुम किसी तरह निभाए जाते हो; एक भार है, एक कर्तव्य है, प्रेम थोड़े ही है।

शब्द की खोल को हटाओ, तुम सदा जीवित को छिपा पाओगे। कृष्ण कहते हैं, शास्त्र ने जो नियत किया है, उसे छोड़ने की कोई जरूरत नहीं है।उसे छोड़ने का मन करेगा, क्योंकि वह तामसी मन है। वह कुछ करना नहीं चाहता, वह हर कर्तव्य से बचना चाहता है।

कृष्ण कहते हैं, नियत कर्म……।

शास्त्र ने जो कहा है, वह तो पूरा करो ही, क्योंकि वह जानने वालों ने कहा है। और अगर जानने वालों और तुम्हारी बुद्धि के बीच चुनाव करना हो, तो जानने वालों का ही चुनाव करना, तुम्हारी बुद्धि का क्या तुम भरोसा करते हो? हां, जब तुम बुद्ध पुरुष हो जाओ, तब तुम अपनी बुद्धि का भरोसा कर लेना। पर अभी!

कृष्ण कहते हैं, शास्त्र में जो नियत है, वह किन्हीं अंधों की वाणी नहीं है; उसे बहुत जानकर ही उन्होंने किया है। जब तुम बुद्ध पुरुष हो जाओ, जब तुम्हारी चेतना जागे, प्रज्ञावान हो जाओ, जब तुम्हारी अंतर्ज्योति जल उठे, तब तुम अपने निर्णय से चलना, अपने प्रकाश से। अभी तो तुम्हारे पास अपना प्रकाश नहीं है। अंधेरे में चलने से तो यही बेहतर है कि तुम उधार प्रकाश से ही चलो।

अंधे के पास अपनी आंख नहीं है, तो पचास—साठ साल का बूढ़ा अंधा भी एक छोटे बच्चे के कंधे पर हाथ रखकर चलता है। अपनी अंधी आंखों के बजाय—अनुभवी है माना, साठ—सत्तर साल का है —एक गैर— अनुभवी बच्चे के कंधे पर हाथ रखकर चलता है।

तो शास्त्रों के वचन तो अनुभवियों के वचन हैं। तुम अपनी अंधी आंख की सलाह मानने की बजाय उनकी ही सलाह मानकर चलना। और जिस दिन तुम जाग जाओगे, उस दिन अगर चाहो तो छोड़ देना। हालांकि अक्सर बुद्ध पुरुषों ने छोड़ा नहीं है। कभी—कभी छोड़ा है, और वह छोड़ा तभी है, जब शास्त्र समय के विपरीत पड़ा है, अन्यथा नहीं छोड़ा। क्योंकि तब बुद्ध पुरुष को यह देखना है कि कहीं शास्त्र समय के विपरीत पड़ गया, तो अब उसको मानकर चलने वाला भी गड्डे में गिरेगा। अगर शास्त्र समय के विपरीत नहीं है, तो मानकर चलना ही उचित है।

कृष्ण को तो पक्का पता है, कृष्ण के लिए स्वयं तो नियत कर्मों का कोई मूल्य नहीं है। लेकिन अर्जुन के लिए! आने वाले अर्जुनों के लिए! सदियों तक उनका वक्तव्य अर्थपूर्ण रहेगा।



तो वे कहते हैं हे अर्जुन, नियत कर्म का त्याग करना योग्य नहीं। जो शास्त्र ने कहा है, उसे तो करना ही है। उसका त्याग करना तमस त्याग कहा गया है।

उसे अगर तुमने छोड़ा, तो उसका अर्थ होगा कि वह तुम आलस्य के कारण छोड़ रहे हो, तमस के कारण छोड़ रहे हो, मूर्च्छा के कारण। ज्ञान की भला तुम कितनी ही बातें करो, उन बातों का कोई मूल्य नहीं है।

और यदि कोई मनुष्य, जो कुछ कर्म है वह सब ही दु:खरूप है, ऐसा समझकर शारीरिक क्लेश के भय से कर्मों का त्याग कर दे, तो वह पुरुष उस राजस त्याग को करके भी त्याग के फल को प्राप्त नहीं होता।

जो ऐसा समझकर छोड़ दे, उसके त्याग को, कृष्ण कहते हैं, वह राजस त्याग है। उसके पास ऊर्जा थी, शक्ति थी भागने की, त्यागने की, उसने उपयोग कर लिया, लेकिन उपयोग जागरणपूर्वक नहीं हुआ।

और हे अर्जुन, करना कर्तव्य है, ऐसा समझकर जो शास्त्र—विधि से नियत किया हुआ कर्तव्य कर्म आसक्ति को और फल को त्यागकर किया जाता है, वह ही सात्विक त्याग माना गया है।

करना कर्तव्य है, ऐसा जानकर तुम जो भी करते हो, उससे तुम मुक्त हो जाते हो। करना कर्तव्य है, ऐसा जानकर जो भी किया जाता है, उसकी कोई रेखा तुम्हारे ऊपर नहीं छूटती, जैसे तुमने किया ही नहीं, परमात्मा ने करवाया। उसकी मरजी थी, हुआ; तुम अपने को बीच में लाते ही नहीं। तुम ज्यादा से ज्यादा नाटक के एक पात्र हो जाते हो।

लेकिन हमारे जीवन की तो हालतें उलटी हैं। हम तो नाटक के पात्र में भी भूल जाते हैं; वहा भी ऐसा लगने लगता है कि हमारा जीवन दाव पर लगा है। नाटक में अभिनय करने वाले लोग भी कभी—कभी भूल जाते हैं कि यह सिर्फ अभिनय कर रहे हैं; वास्तविक हो जाता है, भ्रांति गहन हो जाती है।

कृष्ण का सार—सूत्र समर्पण है। समर्पण की इस भाव—दशा में ही फलाकांक्षा शून्य हो जाती है; फल का कोई सवाल नहीं है : फल की चिंता वह करे।


और हे अर्जुन, करना कर्तव्य है, ऐसा समझकर ही जो शास्त्र—विधि से नियत किया हुआ कर्तव्य कर्म आसक्ति को और फल को त्यागकर किया जाता है, वह ही सात्विक त्याग माना गया है।

सात्विक त्याग का अर्थ है, फल का त्याग। सात्विक त्याग का अर्थ कर्म का त्याग नहीं। कर्म तो करना ही है। कर्म तो जीवन है। और परमात्मा ने जीवन दिया है, तुम भागने वाले कौन? और परमात्मा ने तुम्हें भेजा है, तुम त्यागने वाले कौन? जिस विराट से तुम्हारा आना हुआ है, उसी विराट पर छोड़ दो चिंताएं।  उसकी मर्जी! और उसकी मर्जी में पूरे राजी हो जाओ।

फिर तुम करोगे भी और कर्म की रेखा भी तुम पर न पड़ेगी। तुम फिर जल में कमलवत हो जाओगे! और जो जल में कमलवत हो जाए, उसके जीवन में परम धन्यता प्रकट होती है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल


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