रविवार, 6 जुलाई 2025

 शिव-विवाह

सती विरह में भगवान् शंकर की विचित्र दशा हो गयी। वे दिन-रात सती का ही ध्यान करते और उसी की चर्चा करते। सती ने भी देहत्याग करते समय यही संकल्प किया था कि मैं पर्वतराज हिमालय के यहां जन्म ग्रहण कर फिर से शंकरजी की अर्द्धांगिनी बनूं। भला जगदम्बा का संकल्प कहीं अन्यथा हो सकता है? वे काल पाकर हिमालय-पत्नी मैना के गर्भ में प्रविष्ट हुईं और यथासमय उनकी कोख से प्रकट हुईं। पर्वतराज की दुहिता होने के कारण वे 'पार्वती' कहलायीं। जब वे कुछ सयानी हुईं तो उनके माता-पिता को उनके अनुरूप वर तलाश करने की फिक्र पड़ी। एक दिन अकस्मात् देवर्षि नारद पर्वतराज के भवन में आ पहुंचे और कन्या को देखकर कहने लगे- इसका विवाह शंकरजी के साथ होना चाहिए, वही इसके योग्य हैं। यह जानकर कि साक्षात् जगन्माता सती ही उनके यहां प्रकट हुई हैं, पार्वती के माता-पिता के आनन्द का ठिकाना न रहा। वे मन ही मन अपने भाग्य की सराहना करने लगे।

एक दिन अकस्मात् शंकरजी सती विरह में व्याकुल, घूमते-घामते उसी प्रदेश में जा पहुंचे और पास ही गंगावतरण-स्थान में तपस्या करने लगे। हिमालय को जब इस बात का पता लगा तो वे अपनी पुत्री को साथ लेकर शिवजी के पास पहुंचे और अनुनय-विनय पूर्वक अपनी पुत्री को सेवा में ग्रहण करने की प्रार्थना की। शिवजी ने पहले तो उनकी सेवा स्वीकार करने में आनाकानी की, किन्तु पार्वती की अनुपम भक्ति देखकर उनका आग्रह न टाल सके। अब तो पार्वती प्रतिदिन अपनी सखियों को साथ लेकर शंकरजी की सेवा में उपस्थित होने लगीं। वे उनके बैठने का स्थान झाड़-बुहारकर साफ कर देतीं और उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो, इस बात का सदा ध्यान रखतीं। वे नित्यप्रति उनके चरण धोकर चरणोदक ग्रहण करतीं और षोडशोपचार से उनकी पूजा करतीं।

इस प्रकार पार्वती को भगवान् शंकर की सेवा करते सुदीर्घ काल व्यतीत हो गया। किन्तु त्रिभुवन सुन्दरी पूर्णयौवना बाला पार्वती से इस प्रकार एकान्त में सेवा लेते रहने पर भी शंकर के मन में कभी विकार नहीं उत्पन्न हुआ। वे सदा आत्मस्मरण करते हुए समाधि में निश्चल रहते।

इधर देवताओं को तारक नाम का असुर बड़ा त्रास देने लगा। यह जानकर कि शिव के पुत्र से ही उसकी मृत्यु हो सकती है, वे शिव-पार्वती का विवाह कराने की चेष्टा करने लगे। उन्होंने शिव को पार्वती के प्रति अनुरक्त करने हेतु कामदेव को सिखा-पढ़ाकर उनके पास भेजा, किन्तु पुष्पायुध का पुष्पबाण भी शंकर के मन को विक्षुब्ध न कर सका। उलटे वह उनकी क्रोधाग्नि से भस्म हो गया। शंकरजी भी वहां अधिक रहना अपनी तपश्चर्या के लिए अन्तराय रूप समझ कैलास की ओर चल दिए। पार्वती को शंकर की सेवा से वंचित होने का बड़ा दुःख हुआ, किन्तु उन्होंने निराश न होकर अबकी बार तप के द्वारा शंकर को सन्तुष्ट करने की मन में ठानी। उनकी माता ने उन्हें सुकुमार एवं तप के अयोग्य समझकर बहुत कुछ मना किया। इसीलिए उनका नाम 'उमा' = उ+मा (तप न करो) प्रसिद्ध हुआ।

किन्तु पार्वतीजी अपने संकल्प से तनिक भी विचलित नहीं हुईं। वे तपस्या हेतु घर से निकल पड़ीं और जहां शिवजी ने तपस्या की थी, उसी शिखर पर तपस्या करने लगीं। तभी से लोग उस शिखर को 'गौरी-शिखर' कहने लगे। वहां उन्होंने पहले वर्ष फलाहारी जीवन व्यतीत किया, दूसरे वर्ष वे पर्ण (वृक्षों के पत्ते) खाकर रहने लगीं और फिर तो उन्होंने पर्ण का भी त्याग कर दिया, इसीलिए वे 'अपर्णा' कहलायीं। इस प्रकार उन्होंने तीन हजार वर्ष तक घोर तपस्या की। उनकी कठोर तपश्चर्या को देखकर बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी दंग रह गए। अन्त में भगवान् आशुतोष का आसन हिला। उन्होंने पार्वती की परीक्षा के लिए पहले सप्तऋषियों को भेजा और बाद में स्वयं वटुवेश धारण कर पार्वती की परीक्षा के निमित्त प्रस्थान किया।

जब उन्होंने सब प्रकार से जांच-परखकर देख लिया कि पार्वती की उनमें अविचल निष्ठा है, तब वह अपने को अधिक देर तक न छिपा सके। वे तुरन्त अपने असली रूप में पार्वती के सामने प्रकट हो गए और उन्हें पाणिग्रहण का वरदान देकर अन्तर्धान हो गए।

पार्वती अपने तप को पूर्ण होते देख अपने घर लौट आयीं और अपने माता-पिता से शंकरजी के प्रकट होने तथा वरदान देने का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। अपनी एकमात्र दुलारी पुत्री की कठोर तपश्चर्या को फलोन्मुख देखकर हिमालय ने शंकर जी के पास विवाह का संदेश भेजा। इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित हुई। शंकरजी ने नारदजी के द्वारा सारे देवताओं को विवाह में सम्मिलित होने के लिए आदरपूर्वक निमन्त्रित किया और निश्चित तिथि को ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र प्रभृति सारे प्रमुख देवता अपने-अपने दल-बल सहित कैलास पर आ पहुंचे। उधर हिमाचल ने विवाह के लिए बड़ी धूम-धाम से तैयारियां कीं। शुभलग्न में शिवजी की बारात हिमालय के द्वार पर आ लगी। पहले तो शिवजी का विकट रूप तथा उनकी भूत-प्रेतों की सेना देखकर मैना बहुत डर गयीं। वे उनके साथ अपनी कन्या का पाणिग्रहण कराने में आनाकानी करने लगीं। बाद में जब उन्होंने शंकरजी का करोड़ों कामदेवों को लजाने वाला सोलह वर्ष की अवस्था का परम लावण्यमय रूप देखा तो वे देह-गेह की सुधि भूल गयीं। उन्होंने शंकर पर अपनी कन्या के साथ ही साथ अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर दिया। हर-गौरी का शुभविवाह आनन्दपूर्वक सम्पन्न हुआ तथा हिमाचल ने बड़े चाव से कन्यादान किया। भगवान् विष्णु, अन्यान्य देव और अन्य प्राणियों ने नाना प्रकार के उपहार भेंट किए। ब्रह्माजी ने वेदोक्त रीति से विवाह करवाया। सब लोग अमित उछाह से भरे अपने-अपने स्थानों को लौट गए।

रावण संहिता 

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