शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2022

 मनुष्‍य है एक द्वंद्व। प्रकाश और अंधकार का; प्रेम और घृणा का। यह द्वंद्व अनेक सतहों पर प्रकट होता है। यह द्वंद्व मनुष्‍य के कण—कण में छिपा है। राम और रावण प्रतिपल संघर्ष में रत है। प्रत्‍येक  व्‍यक्‍ति  कूरुक्षेत्र में ही खड़ा है। महाभारत कभी हुआ और समाप्‍त हो गया, ऐसा नही, जारी है। हर नए बच्‍चे  के साथ फिर पेदा होता है।


      इसलिए कूरुक्षेत्र को गीता में धर्मक्षेत्र कहा है, क्यों कि वहां निर्णय होता है। धर्म और अधर्म का। प्रत्‍येक के व्‍यक्‍ति के भीतर निर्णय होना है धर्म अधर्म का। प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति के भीतर निर्णायक घटना घटने को है। इसलिए आदमी को कहीं राहत नहीं। कुछ भी करे, राहत नहीं। क्‍योंकि भीतर कुछ उबल रहा है। भीतर सेनाएं बंटी खड़ी है। क्‍या होगा परिणाम, क्‍या होगी निष्‍पत्‍ति इससे चिंता होती है।

और चिंता के बड़े कारण हैं। क्योंकि घृणा के पक्ष में बड़ी फौजें हैं। घृणा के पक्ष में बडी शक्तियाँ हैं। महाभारत में भी कृष्ण की सारी फौजें कौरवों के साथ थी, केवल कृष्ण, निहत्थे कृष्‍ण  पांडवों के साथ थे। वह बात बड़ी सूचक है। ऐसी ही हालत है। संसार की सारी शक्तियाँ अँधेरे के पक्ष में है। संसार की शक्तियाँ यानी परमात्मा की फौजें। परमात्मा भर तुम्हारे पक्ष में है, निहत्था। भरोसा नहीं आता कि जीत अपनी हो सकेगी। विश्वास नहीं बैठता कि निहत्थे परमात्मा के साथ विजय हो सकेगी।

कृष्ण ही अर्जुन के सारथी थे, ऐसा नहीं, तुम्हारे रथ पर भी जो सारथी बनकर बैठा है वह कृष्ण ही है। प्रत्येक के भीतर परमात्मा ही रथ को सँभाल रहा है। लेकिन सामने विरोध में दिखायी पड़ती है बड़ी सेनाएँ, बड़ा विराट आयोजन। अर्जुन घबडा गया था। हाथ-पैर थरथरा गये थे। गांडीव छूट गया था। पसीना-पसीना हो गया था। अगर तुम भी जीवन के युद्ध में पसीना-पसीना हो जाते हो, तो आश्चर्य नहीं। हार निश्चित मालूम पड़ती है, जीत असंभव आशा।

इस द्वंद्व में ठीक-ठीक पहचान लेना जरूरी है--कौन तुम्हारा मित्र है और कौन तुम्हारा शत्रु है। यही महाभारत की प्रथम घड़ी में अर्जुन ने कृष्ण से कहा था,- मेरे रथ को युद्ध के बीच में ले चलो, ताकि मैं देख लूँ कौन मेरे साथ लड़ने आया है, कौन मेरे विपरीत लड़ने को खड़ा है? किससे मुझे लड़ना है? साफ-साफ समझ लूँ कि कौन साथी-संगी है, कौन शत्रु है?

और युद्ध के मैदान पर जितनी आसान बात थी यह जान लेना, जीवन के मैदान पर इतनी आसान नहीं। वहाँ शत्रु-मित्र सम्मिलित खड़े हैं। वहाँ जहाँ प्रेम है, वहीं घृणा भी दबी हुई पड़ी है। जहाँ करुणा है, उसी के साथ क्रोध भी खड़ा है। सब मिश्रित है। कुरुक्षेत्र के उस युद्ध में तो चीजें साफ थीं, सेनाएँ बँट गयी थीं, बीच में रेखा थी--एक तरफ अपने लोग थे, दूसरी तरफ विरोधी लोग थे, बात साफ थी किसको मारना है, किसको बचाना है। लेकिन जीवन के युद्ध में बात इतनी साफ नहीं है, ज्यादा उलझन की है। तुम जिसको प्रेम करते हो, उसी को घृणा भी करते हो। जिसको चाहते हो और सोचते हो कि जरूरत पड़े तो जान दे दूँ, किसी दिन उसी की जान लेने का मन भी होने लगता है। जिस पर करुणा बरसाते हो, कभी उसी पर क्रोध भी उबल पड़ता है। सब उलझा है। धागे एक-दूसरे में गुँथ गये हैं। जन्मों-जन्मों की गुत्थियाँ हैं।

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