बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 8 भाग 8

 अक्षर ब्रह्म और अंतर्यात्रा


अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। 21।।

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।

यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।। 22।।


और जो वह अव्यक्त अक्षर ऐसे कहा गया है उस ही अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परम गति कहते हैं, तथा जिस सनातन अव्यक्त को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे नहीं आते हैं, वह मेरा परम धाम है।

और हे पार्थ, जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत हैं और जिस परमात्मा से यह सब जगत परिपूर्ण है, वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है।


गति संसार का स्वभाव है। ठहरना नहीं और चलते ही रहना, ऐसा संसार का स्वरूप है। यहां कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है; जो ठहरा हुआ मालूम होता है, वह भी ठहरा हुआ नहीं है। जो चलता हुआ मालूम होता है, वह तो चलता हुआ है ही; जो ठहरा हुआ मालूम होता है, वह भी चलता हुआ है। पत्थर ठहरे हुए मालूम पड़ते हैं, मकानों की दीवालें ठहरी हुई मालूम पड़ती हैं, लेकिन अब विज्ञान कहता है, वे सब भी चलती हुई हैं। और यह गति बहुआयामी है, मल्टी-डायमेंशनल है। इसे हम थोड़ा समझें, तो परम गति का हमें खयाल आ सके कि वह क्या है।

दीवाल दिखती है ठोस, जरा भी चलती हुई नहीं, लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं, दीवाल का अणु-अणु चल रहा है। अगर दीवाल के हम परमाणुओं को देखें, तो सब परमाणु गतिमान हैं। और प्रत्येक परमाणु के भीतर जो और छोटे खंड हैं, इलेक्ट्रांस, वे बड़ी तीव्र गति से चक्कर काट रहे हैं। हमें दीवाल थिर दिखाई पड़ती है, क्योंकि हमारी आंखें उतनी सूक्ष्म गति को पकड़ने में असमर्थ हैं। गति जितनी तीव्र हो जाती है, उतनी ही हमारी आंख पकड़ने में मुश्किल हो जाती है।

जैसे एक बिजली का पंखा बहुत जोर से चलता है, तो आपको पता नहीं चलता है कि उसमें तीन पंखुडियां हैं, चार पंखुड़ियां हैं या दो पंखुड़ियां हैं। अगर पंखा और भी तेजी से चले, तो आपको यह भी पता नहीं चलेगा कि पंखे में पंखुड़ियां हैं। ऐसा ही पता चलेगा कि गोल टीन का घेरा ही घूम रहा है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि पंखे की गति इतनी बढ़ाई जा सकती है कि आप उसके पार हाथ न डाल सकें, और इतनी भी बढ़ाई जा सकती है कि आप उसके ऊपर बैठे रहें और नीचे जो पंखा चल रहा है, वह आपको थिर मालूम पड़े। इतनी तेजी से घूम सकता है कि दो पंखुड़ियों के बीच की जो खाली जगह है, जब तक आपको उस खाली जगह का पता चले, उसके पहले ही दूसरी पंखुड़ी आपके नीचे आ जाए, तो आपको कभी भी पता नहीं चलेगा। पता चलने में समय चाहिए। और अगर तीव्रता से घूमती हो गति और हमारी पकड़ने की क्षमता कम पड़ती हो, तो गति का पता नहीं चलता।

पत्थर भी चल रहे हैं, उनका अणु-अणु घूम रहा है। दीवालें भी चल रही हैं, उनका अणु-अणु घूम रहा है। उतनी ही तेज गति से उनका अणु घूम रहा है, जितनी तेज गति से आकाश में चांदत्तारे घूम रहे हैं। इस जगत में कुछ भी थिर नहीं है।

मैंने कहा, बहुआयामी है यह गति। आप यहां बैठे हुए मालूम पड़ रहे हैं। निश्चित ही, आप बिलकुल बैठे हुए हैं, चल नहीं रहे हैं। लेकिन जिस पृथ्वी पर आप बैठे हैं, वह बड़ी तेजी से भागी जा रही है। उस पृथ्वी की दोहरी गति है। आप बैठे हुए हैं जिस पृथ्वी पर, वह पृथ्वी अपनी कील पर घूम रही है। और अपनी कील पर ही नहीं घूम रही, कील पर घूमती हुई वह सूर्य का चक्कर भी लगा रही है। दोहरी गति है उसकी। और जिस सूर्य का वह चक्कर लगा रही है, वह सूर्य भी अपनी कील पर घूम रहा है इस पृथ्वी को लिए। और अपने सब ग्रहों को लेकर वह सूर्य भी किसी महासूर्य का परिभ्रमण कर रहा है।

ऐसा मल्टी-डायमेंशनल, गति के भीतर गति है, और गति के भीतर गति है। शायद जिस महासूर्य का यह सूर्य चक्कर लगा रहा है, और अनेक सूर्य चक्कर लगाते होंगे, वह सूर्य भी अपनी कील पर घूमकर और किसी महान से महान सूर्य के चक्कर पर निकला होगा। परिभ्रमण, पर्तों-पर्तों में, जीवन का स्वभाव है।

इस परिभ्रमणशील जीवन में शांति असंभव है। इस गति से भरे हुए, भागते हुए जगत में कोई विश्राम संभव नहीं है। और जब आप विश्राम भी कर रहे होते हैं अपने बिस्तर पर लेटकर, तब आपका खून पूरी गति लगा रहा है। आपके कण-कण शरीर के गति कर रहे हैं। आपका हृदय धड़कन कर रहा है; आपकी श्वास गति कर रही है; आपका मन स्वप्नों में परिभ्रमण कर रहा है। जब आप बिस्तर पर विश्राम कर रहे हैं, तब भी कहीं कोई आपके भीतर विश्राम की जगह नहीं है। इस जगत में होते हुए विश्राम नहीं है।

कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, और जो वह अव्यक्त अक्षर ऐसा कहा गया है, उस अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परम गति कहते हैं। और अर्जुन, अगर तू उस परम गति को उपलब्ध होना चाहता है, जहां विश्राम स्वभाव है...।

इस जगत में तो श्रम ही स्वभाव है, अशांति ही परिणाम है। इस जगत में रहते हुए, इस जगत की कील पर घूमते हुए, न कोई विश्राम को उपलब्ध हो सकता है, न कोई विश्रांति को। यदि कोई विश्रांति की खोज में जाना ही चाहे, तो उसे अपनी चेतना का तल ही बदलना पड़ेगा। परिधि से हटाकर केंद्र पर, संसार से हटाकर ब्रह्म पर, उसे अपनी चेतना का पूरा रूपांतरण कर लेना होगा।

वह जो अक्षर नाम से कहा है, उस अक्षर नामक अव्यक्त भाव को ही परम गति कहते हैं।

यहां दो बातें समझ लेनी चाहिए। अक्षर का अर्थ है, जो कभी क्षीण नहीं होता, क्षरता नहीं। जैसा है, वैसा ही है। कणभर जिसमें कभी कोई रूपांतरण नहीं होता, जो अपने स्वभाव से जरा भी च्युत नहीं होता। अच्युत है, ठहरा हुआ है।

देखा है रास्ते पर चलती हुई बैलगाड़ी को। चाक चलता है, लेकिन कील ठहरी रहती है। और बड़ा मजा तो यह है--और इस मजे के राज को जान लेना, जीवन के बड़े राज को जान लेना है--कि जिस कील पर चाक घूमता है, वह कील जरा भी नहीं घूमती है, वह खड़ी ही रहती है। चाक हजारों मील की यात्रा कर लेता है, कील अपनी जगह को छोड़ती ही नहीं। और मजा इसलिए कहता हूं कि अगर यह कील न हो, तो यह चाक जरा भी घूम नहीं सकता। इस ठहरी हुई कील के कारण ही, इसके आधार पर ही चाक घूमता है।

संसार का अस्तित्व असंभव है, अगर इस संसार के भीतर गहन में, इसकी गहराइयों में, कहीं कोई अव्यक्त, कहीं कोई अक्षर कील मौजूद न हो। यह पूर्वीय मनीषा की खोजों में से एक गहनतम खोज है। क्योंकि पाया हमने कि जहां भी परिवर्तन है, वहां परिवर्तन के आधार में कोई अपरिवर्तित चाहिए। और जहां भी गति है, वहां गति के मूल में कोई अगति चाहिए। और जहां सब चीजें चल रही हों, वहां उनके चलने के लिए भी कोई अचल चाहिए। इस गत्यात्मक जगत में गति-शून्य कोई कील चाहिए।

उस कील को ही कृष्ण अक्षर कह रहे हैं। वे कहते हैं, वह जो अक्षर है, अव्यक्त है, वह भाव ही परम गति है।

लेकिन इस अक्षर तक पहुंचने के लिए हम कौन-सी यात्रा करें? इस अव्यक्त भाव को, जो गहन में छिपा है, निगूढ़ है, इस तक हम कैसे पहुंचें? क्योंकि हमारे पहुंचने का कोई भी उपाय अगर परिधि पर हुआ और चाक के सहारे हुआ, तो हम कभी भी इस कील तक नहीं पहुंच पाएंगे।

ऐसा समझें कि एक बड़ा चाक है, उस पर आप बैठे हुए हैं। और आप चाक पर घूमते रहें, हजारों-हजारों चक्कर लगाएं, तो भी आप केंद्र पर नहीं पहुंचेंगे। यद्यपि चाक केंद्र पर ही घूमता है, कील पर ही घूमता है, फिर भी आप कील पर नहीं पहुंचेंगे चाक पर घूमते हुए। आपको चाक छोड़कर कील की तरफ सरकना होगा। आपको धीरे-धीरे चाक से हट जाना होगा। परिधि से हटना होगा, केंद्र की तरफ सरकना होगा। और जिस दिन आप चाक को बिलकुल छोड़ देंगे, उसी क्षण आप कील को, अक्षर को उपलब्ध हो जाएंगे।

संसार में हम कितनी ही यात्राएं करें, उस अक्षर को हम न खोज पाएंगे। कोई चाहे तो जाए हिमालय, केदार और बद्री, और कोई चाहे तो जाए कैलाश। कोई चाहे तो मक्का और मदीना, कोई काशी, कोई गिरनार, जिसे जहां जाना हो, भटकता रहे। संसार में कहीं भी कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां से आप कील पर पहुंच जाएंगे। संसार की कोई भी यात्रा तीर्थयात्रा होने वाली नहीं है। जहां पहुंचने के लिए पैरों की जरूरत पड़ती हो, वह परम धाम नहीं है। और जहां पहुंचने के लिए शरीर को साधन बनाना पड़ता हो, वह परिधि ही होगी, वह केंद्र नहीं होगा। जहां जाने के लिए बाहर ही गति करनी पड़ती हो, वह अंतरतम नहीं है। बाहर चलकर हम बाहर ही पहुंचेंगे। संसार में यात्रा करके हम संसार में ही खड़े रहेंगे। पैरों से चलकर हम वहीं पहुंच सकते हैं, जहां पैर पहुंचा सकते हैं।

उस परम गति अक्षर को पाने के लिए तो हमें अपने भीतर एक ऐसी यात्रा करनी पड़ेगी, जिसमें पैरों की कोई जरूरत नहीं पड़ती। एक ऐसी यात्रा करनी पड़ेगी, जिसमें हमें बाहर नहीं, भीतर की तरफ जाना पड़ता है। एक ऐसी यात्रा करनी पड़ेगी, जिसमें इंद्रियों का उपयोग नहीं होता, इंद्रियों का अनुपयोग होता है। एक ऐसी यात्रा करनी पड़ेगी, जहां मन का सहारा लेना नहीं पड़ता, मन का सहारा छोड़ना पड़ता है। एक ऐसी यात्रा, जिसमें हम चाक के घूमते हुए रूप को छोड़कर धीरे-धीरे, धीरे-धीरे कील की तरफ सरकते जाते हैं और एक दिन वहां पहुंच जाते हैं, जहां चाक नहीं है, कील ही है।

वह कील प्रत्येक के भीतर है, क्योंकि प्रत्येक भी एक छोटा घूमता हुआ चाक है। जैसा मैंने कहा कि मल्टी-डायमेंशनल है गति। पृथ्वी अपनी कील पर घूम रही है और साथ ही सूर्य का चक्कर भी लगा रही है। ठीक हममें से प्रत्येक व्यक्ति संसार के चारों तरफ घूम रहा है और हमारे भीतर भी कील पर हमारे शरीर का चाक घूम रहा है। हमारी कील पर हमारे मन का चाक घूम रहा है। हमारी कील पर हमारी वासनाओं का चाक घूम रहा है। हमारी कील पर हमारी तृष्णा, हमारी कामना, हमारा क्रोध, हमारा लोभ, उन सबके चाक पर्त दर पर्त घूमते चले जा रहे हैं। चाक के भीतर चाक हैं, वे घूमते चले जा रहे हैं। जिस व्यक्ति को अक्षर को पाना है, उसे धीरे-धीरे एक-एक घूमते चाक को छोड़कर भीतर सरकना है।

सबसे ज्यादा कठिनाई हमारे भीतर सरकने में विचार के चक्र की है। क्योंकि विचार इतनी तीव्रता से घूम रहा है और न मालूम अज्ञान के किस गहन क्षण में हमने मान रखा है कि हम विचार ही हैं, तो शरीर से अपनी भिन्नता को समझ लेने में तो बहुत कठिनाई नहीं होती, लेकिन विचार से अपनी भिन्नता को समझने में बहुत कठिनाई होती है।

इसलिए अगर किसी आदमी का शरीर बीमार हो और हम कहें कि तुम्हारा शरीर बीमार है, तो वह नाराज नहीं होता। लेकिन किसी आदमी का दिमाग खराब हो और हम कहें कि तुम्हारा दिमाग खराब है, तो वह आदमी नाराज हो जाता है। क्योंकि शरीर से तो एक फासला हमको लगता ही है। शरीर बीमार भी हो, तो भी मैं स्वस्थ हो सकता हूं। लेकिन अगर मन बीमार हो, तो मैं ही बीमार हो गया।

इसलिए बीमार तो मान लेता है कि आप ठीक कह रहे हैं; पागल कभी नहीं मानता कि आप ठीक कह रहे हैं। अगर पागल से कहो कि पागल हो, तो पागल सब तरह के उपाय करेगा कि मैं पागल नहीं हूं। बीमार ऐसे उपाय नहीं करता। क्योंकि बीमार समझता है कि शरीर बीमार है, मैं बीमार नहीं हूं। सिर्फ ज्ञानियों से अगर कोई कह दे कि पागल हो, तो वे परेशान नहीं होते, क्योंकि मन से भी उनकी दूरी स्थापित हो जाती है। अन्यथा किसी के भी मन को जरा-सी चोट, शरीर को लगी चोट से ज्यादा गहरी मालूम पड़ती है। किसी का पैर काट डालें, तो इतनी तकलीफ नहीं होती; किसी के एक विचार का खंडन कर दें, तो पीड़ा ज्यादा होती है।

आदमी अपने विचार के लिए मरने को, कुर्बान होने को तैयार होता है। फांसी लग जाए, उसकी तैयारी है; लेकिन मेरा विचार नहीं छोड़ सकता हूं। क्यों? क्योंकि विचार के साथ हमने बहुत गहरा तादात्म्य बनाया है। असल में हमें ऐसा लगता है कि शरीर बाहर की पर्त है और विचार मेरे भीतर का केंद्र है।

यह झूठ है। विचार भी मेरे भीतर का केंद्र नहीं है, विचार भी बाहर की ही एक पर्त है। मेरे भीतर का केंद्र तो अक्षर है। विचार तो अक्षर नहीं है। विचार तो अभी है और क्षणभर बाद बदल जाता है। सुबह जो था, दोपहर नहीं होता। दोपहर जो था, वह सांझ नहीं होता। इसलिए अगर आप विचार के लिए थोड़ी देर रुक जाएं, तो हो सकता है, वह काम करने की आपको कभी जरूरत ही न पड़े।





इसीलिए ज्ञानियों ने कहा है, अगर बुरा विचार उठे, तो थोड़ी देर रुक जाना, क्योंकि उतनी देर रुकने में वह विचार ही जा चुका होगा। अगर हत्याएं करने वाले लोग दो क्षण भी रुक जाएं, तो हत्याएं नहीं हों। आत्महत्याएं करने वाले लोग एक क्षण के लिए ठहर जाएं, तो आत्महत्या न हो। इसलिए ज्ञानियों ने यह भी कहा है कि जब अच्छा विचार उठे, तो तत्काल उसे पूरा कर लेना, एक क्षण मत रुकना, क्योंकि एक क्षण रुकने पर वह भी बदल जाएगा।

विचार इतनी तेजी से बदल रहा है, फिर भी हम विचार को अपना स्वभाव मान लेते हैं। स्वभाव का तो अर्थ ही होता है, जो बदले नहीं। क्या आपको पता है, बचपन के आपके विचारों का क्या हुआ? क्या आपको पता है, आपके जवानी के विचारों का क्या हुआ? कहां खो गए? किस रास्ते पर पड़े रह गए? आज उनका कोई भी पता नहीं है। और कल जो बात बहुत महत्वपूर्ण मालूम होती थी, क्या आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण मालूम होती है? कल जिसके लिए जान दे सकते थे, क्या आज भी उसके लिए जान देना उचित मालूम पड़ेगा?

सब बदल रहा है। विचार भी इतनी तेजी से घूम रहे हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं, लेकिन फिर भी हम विचारों से अपने को एक मान लेते हैं, क्योंकि हम कभी विचारों के भीतर और प्रवेश नहीं किए। जो विचार के भी भीतर प्रवेश करेगा, निर्विचार को पाएगा, वही उस अक्षर को अपने भीतर अनुभव कर पाता है, उस कील को, जिस पर विचार का चाक घूमता है, शरीर का चाक घूमता है, वासना का चाक घूमता है; और फिर बड़े संसार का चाक, और फिर और बृहत ब्रह्मांड का चाक।

प्रत्येक व्यक्ति के भीतर वह कील है। उस कील को पा लेने से कृष्ण कहते हैं, परम गति उपलब्ध होती है। अक्षर को, अव्यक्त को पा लेना, परम गति को पा लेना है। तथा जिस सनातन अव्यक्त को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे नहीं आते हैं, वही मेरा परम धाम है।

जिस सनातन अव्यक्त को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे वापस नहीं आते! एक ऐसी जगह है चेतना के विकास की जहां से कोई पीछे वापस नहीं लौटता।

हम पानी को गरम करते हैं, निन्यानबे डिग्री तक भी पानी गरम हो जाए, तो भी पीछे वापस लौट सकता है। लेकिन सौ डिग्री तक गरम होकर भाप बन जाए, तो फिर पीछे वापस नहीं लौट पाएगा। सौ डिग्री पार कर ले, तो भाप बनकर आकाश में उड़ जाएगा।

अब यह बड़े मजे की बात है! पानी की गति नीचे की तरफ है, भाप की गति ऊपर की तरफ है। अगर पानी को बहा दें, तो गङ्ढे की तलाश करेगा। अगर भाप को छोड़ दें, तो आकाश की खोज करेगी, जितने ऊपर जा सके। और एक बिंदु है सौ डिग्री का, सौ डिग्री तापमान पर पानी भाप बन जाता है। उसके स्वभाव में एक मौलिक परिवर्तन होता है, गुणात्मक, कि वह नीचे की तरफ जाना छोड़कर ऊपर की तरफ जाना शुरू कर देता है। लेकिन अगर निन्यानबे डिग्री तक गरम किया हो और फिर पानी को वैसी ही गरमी पर छोड़ दें, तो पानी वापस लौट जाएगा--अट्ठानबे, सत्तानबे, नब्बे--नीचे गिर जाएगा और पानी पानी ही रहेगा।

अब यह भी मजे की बात है कि शून्य डिग्री पर ठंडा पानी भी नीचे की तरफ बहेगा, निन्यानबे डिग्री पर गरम पानी भी नीचे की ही तरफ बहेगा। लेकिन एक डिग्री और, सौ डिग्री, और पानी ऊपर की तरफ यात्रा शुरू कर देता है। पानी पानी ही नहीं रह जाता, भाप हो जाता है; विराट आकाश में खोने के लिए तैयार हो जाता है।

मनुष्य की चेतना की भी ऐसी एक स्थिति है, एक सौ डिग्री का बिंदु है, उस डिग्री के पहले आदमी कितना ही ऊंचा चेतना को ले जाए, बार-बार गिरता रहता है। आप भी कई बार स्वर्ग के इतने करीब मालूम पड़ते हैं कि एक कदम और, और भीतर प्रवेश कर जाएंगे। लेकिन जब तक आप यह सोचते हैं, पाते हैं कि आप काफी दूर हट चुके, स्वर्ग काफी फासले पर है।

हममें से सभी लोग कभी-कभी निन्यानबे डिग्री तक भी पहुंच जाते हैं। कभी किसी प्रार्थना के क्षण में, कभी किसी पूजा के भाव में, कभी किसी प्रेम की स्थिति में, कभी किसी संगीत को सुनकर, कभी किसी सुगंध के सहारे, कभी किसी सौंदर्य के निकट, कभी हम निन्यानबे डिग्री तक भी पहुंच जाते हैं और ऐसा लगता है कि बस...। लेकिन फिर वापस गिर जाते हैं।

आपने शायद अनुभव किया हो, कविता पढ़ते हैं किसी कवि की और ऐसा लगता है कि यह आदमी कितना निकट नहीं पहुंच गया होगा सत्य के! और फिर एक दिन वही आदमी चाय की दुकान में चाय पीता और बीड़ी फूंकता मिल जाता है। और आप एकदम हैरान हो जाते हैं कि यही वह आदमी है, जिसने इतनी अदभुत कविता लिखी! क्या यही वह आदमी है, जिससे ऐसी पंक्तियों का जन्म हुआ? क्या यही वह आदमी है, जिसके भाव ने इतनी गहराई और ऊंचाई को स्पर्श किया? यह आदमी कैसे हो सकता है!

नहीं, यह आदमी नहीं है। यह निन्यानबे डिग्री पर किसी क्षण में रहा होगा। इसने आकाश का खुला रूप देखा, तारों में झांककर देखा, आंखें मिलाईं इसने बड़ी ऊंचाइयों से, लेकिन अब यह वापस अपनी जगह लौट आया है।


इसलिए हमने पुराने दिनों में एक और शब्द खोजा हुआ था, जिसका अर्थ कवि ही होता है, वह शब्द है, ऋषि। ऋषि का अर्थ कवि ही होता है, लेकिन एक भिन्न गुण के साथ। ऋषि हम उस कवि को कहते हैं, जो उस जगह से गा रहा है, जहां से वापस लौटना असंभव है, प्वाइंट आफ नो रिटर्न। वह भी गीत को ही जन्म देता है।

उपनिषद महाकाव्य हैं। गीता स्वयं महाकाव्य है। लेकिन कृष्ण उस जगह से इस गीत को जन्म देते हैं--इसलिए उसका नाम है, भगवत्गीता; गीत भगवान का, गीत भागवत चैतन्य का--उस जगह से इस गीत को जन्म मिलता है, जहां से लौटना संभव नहीं है।

फिर भगवत्गीता के न मालूम कितनी भाषाओं में रूपांतरण हुए हैं, लेकिन अब तक एक भी ऋषि उपलब्ध नहीं हुआ उसके रूपांतरण के लिए। कवियों ने रूपांतरण किए हैं। फासला ज्यादा नहीं है। फासला ज्यादा नहीं है। कभी-कभी तो कोई कवि बिलकुल कृष्ण के करीब पहुंच जाता है। अगर कृष्ण एक सौ डिग्री के पार से बोल रहे हैं, तो कभी-कभी कोई कवि ठीक निन्यानबे डिग्री के पास से बोलता है। एक डिग्री का फासला कोई बड़ा फासला नहीं है, लेकिन उससे बड़ा कोई फासला नहीं है। वहां एक डिग्री भी बहुत कीमती है।

कितना ही बड़ा कवि, कितनी ही बड़ी कविता को जन्म दे, वह ऋषि नहीं हो पाता, क्योंकि वापस-वापस गिर जाता है। और जब कविता को जन्म देने वाला ही वापस गिर जाता हो, तो कविता में डाले गए जो अर्थ हैं, वे ऊर्ध्वगामी नहीं हो सकते; वे नीचे की तरफ ही बहने वाले होते हैं, चाहे कितनी ही ऊंचाई की डिग्री क्यों न रही हो।

इसलिए बड़े से बड़ा काव्य भी नीचे की तरफ ही बहता हुआ मालूम पड़ता है। चाहे कालिदास का हो, तो भी नीचे की तरफ ही बहता हुआ मालूम पड़ता है। बड़े से बड़ा काव्य भी मनुष्य की कामवासना की तरफ ही बहता हुआ मालूम पड़ता है।

ऋषि हमने उसे कहा है, जो चेतना की उस जगह से गीत को जन्म देता है या किसी भी चीज को जन्म देता है, जहां से लौटना संभव नहीं।

एक क्रिस्टलाइजेशन का, एक स्वयं के भीतर संगठित हो जाने का एक क्षण है, जिसके पार गिरना नहीं होता। इस जिस सनातन अव्यक्त को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे नहीं आते, वही मेरा परम धाम है, वही मेरा घर है। बाकी सब रास्ते के पड़ाव हैं, जहां आदमी ठहरता है क्षणभर और आगे बढ़ जाता है, मंजिल नहीं है। परमात्मा की मंजिल। और सबके भीतर परमात्मा छिपा है, उसी यात्रा पर, उसी परमात्मा की मंजिल के लिए। वह मंजिल कहां है?

कृष्ण कहते हैं, सनातन अव्यक्त, तो जो सदा से अप्रकट है, जो सदा से ही छिपा है, इटरनली हिडेन, जिसे कभी कोई खोल नहीं पाया, जिसे कभी कोई उघाड़ नहीं पाया, जिसके पर्दे कभी कोई गिरा नहीं पाया; उस सदा से, अनादि से, अनंत तक के लिए छिपे हुए को पा लेने वाला वापस नहीं लौटता। वही मेरा परम धाम है।

इसे जरा समझ लें।

अगर हम ऐसा कहें कि परमात्मा सदा से ही छिपा हुआ है, तो जिन जानने वालों ने परमात्मा की बात कही है, उन्होंने जानी कैसे?

तर्कशास्त्री निरंतर ही ऋषियों के संबंध में, मिस्टिक्स के संबंध में एक महत्वपूर्ण तर्क उठाते रहे हैं। तर्कशास्त्री सदा से ही कहते रहे हैं कि ये मिस्टिक्स जो हैं, उनके वक्तव्य नानसेंस हैं; उनके वक्तव्यों में अर्थ बिलकुल नहीं है। क्योंकि एक ओर वे कहते हैं, हम उसके संबंध में कहने जा रहे हैं, जिसके संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। और हम उसकी तुम्हें खबर देते हैं, जिसकी खबर किसी को कभी नहीं मिली। और जो सदा से छिपा है, हम तुम्हारे सामने उसे प्रकट करते हैं।

कृष्ण ने थोड़ी देर ही पहले अर्जुन को कहा है कि मैं संक्षिप्त में उसके संबंध में तुझसे कहूंगा! और अब वे कहते हैं, वह है सनातन अव्यक्त!

जो सनातन अव्यक्त है, सदा से ही छिपा हुआ, कभी प्रकट नहीं हुआ, कृष्ण उसे प्रकट कैसे करेंगे? और कृष्ण उसके संबंध में अगर कुछ भी कह रहे हैं, तो वह प्रकट करना हो जाता है। यह कहना भी कि वह सनातन से अव्यक्त है, व्यक्त करने की बात हो गई। इतना कहना भी, उसके संबंध में कुछ कहना है। तर्क निरंतर रहस्यवादियों पर हंसता रहा है और कहता रहा है, तुम्हारे वक्तव्य पागलों के वक्तव्य हैं।

विट्गिंस्टीन ने अपनी बहुत अदभुत किताब टेक्टेटस में कहा है कि जिस संबंध में न कहा जा सके, उस संबंध में न कहना ही उचित है। जिस संबंध में न कहा जा सके, उस संबंध में न कहना ही उचित है। न कहा जा सके, तो मत ही कहो।

लेकिन अगर इतना भी कहा जा सकता है कि इस संबंध में मैं कुछ भी न कह सकूंगा,  तब कुछ कहा ही गया, तब कुछ कह ही दिया। और यह भी कहना ही है, प्रकट करना ही है।

तो रहस्यवादी बड़ी मुश्किल में हैं कि वे क्या करें! या तो वे कहना बंद कर दें; अगर वे सच में ही जानते हैं कि वह अव्यक्त है, प्रकट नहीं किया जा सकता, भाषा बोल नहीं सकती, वाणी के पार है, तो चुप हो जाएं।

लेकिन अगर वे चुप हो जाएं, तो इतना भी नहीं कह सकते कि वह अव्यक्त है। और फिर चुप हो जाना भी तो एक तरह का कहना होगा, ए सार्ट आफ सेइंग। चुप होना भी एक तरह का कहना ही होगा। वह भी खबर होगी, सूचना ही होगी।  चुप हो जाना एक वक्तव्य है। मौन हो जाना, फिर भी वाणी का ही उपयोग है, निषेधात्मक रूप से, निगेटिव ढंग से।

फिर ये रहस्यवादी क्या करें? चुप हों तो मुश्किल है, बोलें तो मुश्किल है। और साथ में उन्हें यह कहना ही है कि वह कभी भी उघाड़ा नहीं गया। वह सदा से ढंका है, और सदा ढंका ही रहेगा। ढंका होना ही उसका स्वभाव है।

अगर वह सदा से ढंका है, तो कृष्ण उसे कैसे उघाड़ते हैं? अगर वह सदा से ढंका है, तो बुद्ध उसे कैसे जानते हैं? यह बड़े मजे की बात है, इसे थोड़ा खयाल में ले लेना चाहिए।

अगर संसार में किसी ढंकी हुई चीज को उघाड़ना हो, तो उसी चीज को उघाड़ना पड़ता है। अगर एक वैज्ञानिक किसी वस्तु के संबंध में खोज करता है, तो उस वस्तु को तोड़ता है, फोड़ता है, उसके भीतर प्रवेश करता है, उसे उघाड़ता है। सब पर्दे निकालकर अलग कर देता है, भीतर प्रवेश करता है। अगर उसे आदमी के शरीर में पता लगाना है कि क्या बीमारी है, तो एक्स-रे से भीतर प्रवेश करता है; सब पर्दे तोड़ देता है, चीर-फाड़ करता है; मशीनों को भीतर ले जाता है, भीतर के चित्र लाता है; भीतर के संबंध में सब जानकारी पकड़ता है; सब पर्दे उघाड़ता है और भीतर की खोज करता है। यह पदार्थ की खोज का ढंग है।

परमात्मा की भी खोज होती है और वह कभी उघाड़ा नहीं जाता। उसकी खोज बड़ी उलटी है। जिसे परमात्मा को उघाड़ना हो, उसे अपने सब पर्दे तोड़ देने पड़ते हैं। अपने! उसे अपने सब पर्दे तोड़ देने पड़ते हैं, अपने भीतर कोई भी छिपावट नहीं रखनी पड़ती, अपने भीतर कोई राज नहीं रखना पड़ता, अपने भीतर कुछ भी अव्यक्त नहीं रखना पड़ता, सब भांति अपने को अभिव्यक्त कर देना पड़ता है, द्वार-दरवाजे खुले छोड़कर।

जो व्यक्ति अपने को बिलकुल उघाड़ा कर लेता है...। जैसे महावीर नग्न खड़े हो गए। वह नग्न खड़ा होना सिर्फ प्रतीक है इस बात का कि जिसे भी परमात्मा को जानना हो, जिसे भी उस अनउघड़े हुए को उघाड़ना हो, उसे अपने को बिलकुल उघाड़कर नग्न, वलनरेबल, सब तरह से खुला हुआ छोड़ देना चाहिए। जो व्यक्ति अपने को पूरी तरह उघाड़कर, सब द्वार-दरवाजे खोलकर, ओपन, खुला हुआ हो जाता है, आकाश की भांति, परमात्मा जो सनातन अव्यक्त है, उसके समक्ष--वह तो बचता ही नहीं इतने उघड़ेपन में--प्रकट हो जाता है। यह प्रकटीकरण बहुत और तरह का प्रकटीकरण है। क्योंकि इसमें परमात्मा को हम उघाड़ते ही नहीं, सिर्फ अपने को उघाड़ते हैं।

इसे हम ऐसा भी समझ लें कि ढंके हुए हम मनुष्य हैं, उघड़कर हम परमात्मा हो जाते हैं। ढंके हुए हम मनुष्य हैं, उघड़कर हम परमात्मा हो जाते हैं। कोई हमारे सामने नहीं आता, अचानक हम पाते हैं उघड़ते ही कि जिसे हम खोजते थे, वह तो मैं स्वयं हूं। जिस अक्षर की तलाश थी, वह तो मेरे भीतर बैठा है। जिस कील के लिए हमने बैलगाड़ी पर बैठकर इतनी यात्रा की, उसी कील पर बैलगाड़ी का चाक चलता था।


हम जिसे खोज रहे हैं, जानने वाले कहते हैं, हम उसे कभी न खोज पाएंगे, क्योंकि उस पर ही हम सवार हैं। लेकिन तेजी इतनी है कि हम अनंत-अनंत यात्रा कर लेंगे, और तेजी इतनी है कि हमें स्मरण भी न आएगा कि जिसके ऊपर सवार होकर हम खोज रहे हैं, वही हमारी खोज है, वही हमारा गंतव्य है। जिसे हम पाने चले हैं, उसे हम पाए ही हुए हैं। जिसके लिए हम हाथ फैला रहे हैं, वही हमारे हाथों में फैला हुआ है। और जिसके लिए हमने तृष्णा के जाल बोए, वही हमारी तृष्णाओं का तंतु है। और जिसके लिए हम भागे चले जा रहे हैं, दौड़ रहे हैं, परेशान हो रहे हैं, वही है हमारे भीतर, जिसे हम परेशान किए दे रहे हैं।


ऐसा ही विशियस सर्किल है, ऐसा ही दुष्चक्र है। चिंता के कारण आदमी बूढ़ा हुआ जा रहा है। बूढ़ा हुए जाने के कारण चिंता कर रहा है। अब इसे कहां से तोड़ना है!

किसे खोज रहे हैं आप? किसकी तलाश है? जो तलाश कर रहा है, वही उसी की तलाश है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को छोड़कर और कुछ भी नहीं खोज रहा है। लेकिन स्वयं को कैसे खोज सकेगा?


दूसरे से हम अपना हिसाब लगा रहे हैं। हम सब को अपना तो कोई खयाल नहीं है, दूसरे का हमें खयाल है। इसलिए हम दूसरे की तरफ बड़ी नजर रखते हैं। अगर चार आदमी आपको अच्छा आदमी कहने लगें, तो आप अचानक पाते हैं कि आप बड़े अच्छे आदमी हो गए। और चार आदमी आपको बुरा कहने लगें, आप अचानक पाते हैं, सब मिट्टी में मिल गया; बुरे आदमी हो गए! आप भी कुछ हैं? या ये चार आदमी जो कहते हैं, वही सब कुछ है?

इसलिए आदमी दूसरों से बहुत भयभीत रहता है कि कहीं कोई निंदा न कर दे, कहीं कोई बुराई न कर दे, कहीं कोई कुछ कह न दे कि सब बना-बनाया खेल मिट जाए। आदमी दूसरों की प्रशंसा करता रहता है, ताकि दूसरे उसकी प्रशंसा करते रहें। सिर्फ एक वजह से कि दूसरे के मत के अतिरिक्त हमारे पास और कोई संपदा नहीं है। दूसरे का ही हमें पता है। अपना हमें कोई भी पता नहीं है।

मनुष्य जिस दिन भी अपने भीतर प्रवेश करता है, उस दिन ही पाता है कि जिसे वह खोजता था, वह भीतर ही मौजूद है।

आदमी तीर्थयात्रा पर चला जाए, लौट आए, इसमें कौन-सी बड़ी बात है! बहुत लोग आए और गए। किसी दिन तीर्थ किसी आदमी के पास आ जाए, मुझे खबर करना, मैं हाजिर हो जाऊंगा।

वह ठीक कह रहा है। ऐसी घटना भी घटती है, जब तीर्थ आदमी के भीतर आ जाता है। ऐसी भी घटना घटती है, जब भक्त भगवान को खोजने नहीं जाता और भगवान भक्त को खोजता आता है।

असल में ऐसी ही घटना घटती है। भक्त के खोजे भगवान कभी नहीं मिला और कभी मिल नहीं सकता है। भक्त को अगर पता ही होता कि भगवान कहां है, तो वह कभी का भगवान को खोज लिया होता। उसे कुछ भी पता नहीं है। भक्त क्या कर सकता है?

भक्त कहीं जाता नहीं। भक्त सिर्फ अपने को खोलता, उघाड़ता और नग्न करता है। भक्त सिर्फ अपने को उघाड़ता है। और जिस दिन भक्त पूरा उघड़ा होता है, नग्न पूर्ण रूप से, कोई वस्त्र नहीं उसके चित्त पर, उसकी चेतना पर कोई आवरण नहीं, निरावरण, उसी दिन भगवान उपलब्ध हो जाता है। भक्त कभी भी यात्रा करके भगवान तक नहीं पहुंचे हैं। जब भी कोई भक्त हो सका है भक्त, तब भगवान स्वयं यात्रा करके आ गया है।

यह जो घटना है, यह जो सनातन अव्यक्त को प्राप्त कर लेना है, कृष्ण कहते हैं, यही मेरा परम धाम है।

यह परम धाम प्रत्येक के भीतर है, यह वैकुंठ प्रत्येक के भीतर है, यह मोक्ष प्रत्येक के भीतर है। और इसे परम धाम इसलिए कहा है कृष्ण ने कि यह पड़ाव नहीं है। इस पर ठहरकर फिर आगे की यात्रा के लिए तैयारी नहीं करनी है। इस पर आकर सारी यात्राएं समाप्त हो जाती हैं।

परम धाम का अर्थ है, जिसके आगे अब कोई और यात्रा की तैयारी नहीं करनी है। और परम धाम का एक अर्थ और खयाल में ले लें, जो और भी जरूरी है।

परम धाम का यह अर्थ नहीं है कि जहां आप बहुत-सी यात्राएं करके पहुंच गए। अगर आप बहुत-सी यात्रा करके वहां पहुंचे हैं, तो वह परम धाम नहीं हो सकता, धाम ही हो सकता है। परम धाम तो वह है, जहां पहुंचकर पता चला कि जहां हम सदा से थे ही! यह थोड़ी-सी कठिन बात है। परम धाम वह है, जहां पहुंचकर पता चले कि हद हो गई, यहां तो हम सदा से थे ही!

परम धाम वह है, जो अभी भी हमारे साथ है और हमें पता नहीं। परम मंजिल वह है, जिसे हम अपने हृदय के कोने में लिए हुए चल रहे हैं, खोज रहे हैं। निरंतर जो मौजूद है और हमें पता नहीं। बस, पता नहीं है। इतना ही फर्क पड़ेगा पहुंचकर, जानकर, पता हो जाएगा; और कोई भी फर्क नहीं पड़ेगा।

परम धाम का अर्थ है, ऐसी मंजिल, जो हमें मिली ही है और फिर भी हमें पता नहीं।

और हे पार्थ, जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत हैं और जिस परमात्मा से यह जगत परिपूर्ण है, वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है।

जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत हैं!

निश्चित ही, भूतों के अंतर्गत परमात्मा नहीं है। पदार्थ के अंतर्गत परमात्मा नहीं है, लेकिन परमात्मा के अंतर्गत पदार्थ हैं। जैसे विराट आकाश सब पदार्थों को घेरे हुए है, ऐसा ही विराट परमात्म-चैतन्य समस्त आकाशों को भी घेरे हुए है। चेतना इस जगत में सर्वाधिक विस्तार है, सबसे बड़ा विस्तार है।

इस परम चेतना के संबंध में ही कृष्ण कह रहे हैं कि वह जो परमात्मा है, उसके अंतर्गत सर्वभूत हैं।

परमात्मा को खोजने के लिए उम्र की कोई शर्त नहीं है। और कभी तो बूढ़े भी नहीं खोज पाते, और कभी बच्चे भी खोज लेते हैं। और जिन्हें हम बूढ़े और बच्चे कहते हैं, उनमें भी कौन बूढ़ा है और कौन बच्चा है, यह इतना आसान नहीं है तय करना। क्योंकि अगर बुढ़ापे का कोई भी अर्थ होता हो, तो बुद्धिमत्ता होगी। तो बूढ़े भी नासमझ हो सकते हैं, बच्चे भी समझदार हो सकते हैं।

कृष्ण के इस सूत्र में है वह अर्थ। हे पार्थ, जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत हैं...।

अगर किसी ने परमात्मा को ही पा लिया, तो वह सर्वभूतों को तो पा ही लेगा। और जो भूतों को पाने में लगा रहा, पदार्थों को पाने में लगा रहा, वह पदार्थों को पा नहीं सकता। क्योंकि जब तक पदार्थों के मालिक को नहीं पाया, तब तक पदार्थों को कैसे पाया जा सकता है! हमारे जीवन की सारी पीड़ा यही है।

सच, धार्मिक व्यक्ति इस जगत में कुशलतम बुद्धिमान व्यक्ति है। वह पदार्थों को नहीं मांगता, वह पदार्थों के मालिक को ही मांग लेता है; पदार्थ तो पीछे चले आते हैं।

जिसे हम गृहस्थ कहते हैं, जिसे हम समझदार कहते हैं, वह सिर्फ नासमझों की आंखों में समझदार होगा; उससे ज्यादा नासमझ कोई भी नहीं, क्योंकि वह जो भी मांगता है, वह क्षुद्र पदार्थ है। और मालिक को बिना मांगे हम वहम में ही होते हैं कि हमें कुछ मिल गया, क्योंकि मौत हमसे फिर सब छीनकर मालिक को वापस लौटा देती है। थोड़ी-बहुत देर हम पहरेदारी करते हैं। बड़े से बड़ा हमारे बीच जो धनपति है, वह धन का पहरा देता है। जितना ज्यादा धन, उतना ही खर्च करना मुश्किल हो जाता है। खर्च करना तो सिर्फ फकीर ही जानते हैं।

पहरे देते हैं लोग। अपने धन पर पहरा देते हैं, अपने यश पर पहरा देते हैं और मर जाते हैं। और उनका धन, और उनका यश उन पर हंसता हुआ यहीं पड़ा रह जाता है। सिर्फ एक धन है जिसे मृत्यु नहीं छीन पाती, और वह परमात्मा है। सिर्फ एक ही यश है जिसे मृत्यु नहीं धूमिल कर पाती, और वह परमात्मा है।

और मजा यह है कि जो परमात्मा को पा लेता है, वह सब पा लेता है। और जो सबको पाने की कोशिश में रहता है, वह सबमें से तो कुछ पाता ही नहीं; जिसे पा सकता था, परमात्मा को, उसे भी पाने के अवसर चूकता चला जाता है।

और जिस परमात्मा से यह जगत परिपूर्ण है, वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है।

और जिस परमात्मा से यह जगत परिपूर्ण है!

लेकिन हमें तो कहीं परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। और कृष्ण कहते हैं कि जिस परमात्मा से यह जगत परिपूर्ण है। वह हमें कहीं दिखाई नहीं पड़ता। हमें सब कुछ दिखाई पड़ता है परमात्मा को छोड़कर। हमें सब कुछ दिखाई पड़ता है, आदमी, वृक्ष, पत्थर, हीरे-जवाहरात, आकाश, चांदत्तारे, सब दिखाई पड़ता है, सिर्फ परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। और ये कृष्ण जैसे लोग निरंतर कहे जाते हैं कि और सब कुछ भी नहीं है, परमात्मा ही है। जरूर कहीं कोई बात है।

 इस जगत में जब तक आपको पदार्थ दिखाई पड़ते हैं, तब तक परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता। क्योंकि जहां पदार्थ समाप्त होते हैं, उनकी जो समाप्त होने की रेखा है, वही परमात्मा के प्रारंभ होने की रेखा है। इसलिए जिस आदमी को पदार्थ दिखाई पड़ता है, वह कहता है, कहां है परमात्मा? कहीं नहीं है। और जिसको परमात्मा दिखाई पड़ता है, वह पूछता है, कहां है संसार? कहां है पदार्थ? कहीं कोई नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, यह जगत, इसका सब कुछ परमात्मा से परिपूर्ण है, उसी से भरा हुआ है।

तब जगत में पदार्थ नहीं दिखाई पड़ता, परमात्मा ही दिखाई पड़ता है। एक क्षण ऐसा आता है कि जगत में उसके अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, वही शेष रह जाता है। सब रेखाएं उसी में लीन हो जाती हैं। और सब नदियां पदार्थ की उसी के सागर में डूब जाती हैं और मिल जाती हैं।

वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है।

और यह जो परम सत्ता व्याप्त है सब जगह, यह अनन्य भक्ति से प्राप्त हो जाती है। ये दो शब्द आखिर में समझ लें।

अनन्य भक्ति, ऐसी भक्ति जो संपूर्ण रूप से, समग्र रूप से, एक निष्ठा से परमात्मा की तरफ हो। एक निष्ठा से परमात्मा की तरफ हो। निष्ठा जरा भी यहां-वहां खंडित न होती हो, भागती न हो। बंटी हुई निष्ठा उस तक नहीं पहुंचा पाएगी। बंटी हुई निष्ठा संसार के गेस्टाल्ट में ले जाती है। एक निष्ठा संसार के गेस्टाल्ट से ऊपर उठाती है। उसके कारण हैं।

संसार का अर्थ है, बहुत वस्तुएं, अनेक। अगर अनेक के बीच जीना है, तो आपके भीतर अनेक आकांक्षाएं और अनेक निष्ठाएं होनी चाहिए। परमात्मा का अर्थ है, एक। अगर एक को पाना है, तो एक निष्ठा, एक आकांक्षा, एक अभीप्सा होनी चाहिए। एक को पाना हो, तो आपको भी एक होना चाहिए। अनेक को पाना हो, तो आप अनेक में विभाजित होकर जी सकते हैं।

चूंकि हम संसार को पाने में लगे हैं, इसलिए हमारे एक-एक आदमी के भीतर अनेक-अनेक आदमी होते हैं। सच तो यह है, हममें से कोई भी एक नहीं होता। क्राउड, एक भीड़ होती है हर आदमी के भीतर। आप भी पहचान सकते हैं कि आपके भीतर बहुत चेहरे होते हैं, बहुत आदमी होते हैं आपके भीतर। मनोविज्ञान कहता है, आदमी  बहु-चित्तवान है। उसके भीतर बहुत चित्त हैं। और एक चेहरा दूसरे चेहरे से भी अपरिचित बना रहता है। परिचय का मौका ही नहीं आता।


आपके भीतर इतने चेहरे हैं जिनके साथ ही आप तैर रहे हैं, सागर में डूब रहे हैं, लेकिन आपका कोई परिचय नहीं है। क्योंकि आपके खुद के चेहरों से कोई दूसरा तो आपका परिचय करवाएगा नहीं, आपको ही परिचय करना पड़ेगा। आप शिष्ट आदमी हैं, कैसे परिचय करें! और आपके चेहरे को दूसरा परिचय करवाएगा कैसे? और अगर कोई करवाने की कोशिश करे, तो आप नाराज भी हो जाते हैं। अगर कोई आपको बताए कि देखो, सुबह तुम्हारा दूसरा चेहरा था, अब तुम दूसरा चेहरा लिए हो, तो आप एकदम नाराज हो जाते हैं। और आप कभी अपने आत्म-परिचय में लगते नहीं हैं, नहीं तो पाएंगे कि भीतर एक भीड़ है।

इस भीड़ का कारण क्या है? इस भीड़ का एक ही कारण है, क्योंकि आप बहुत-सी चीजों को पाना चाहते हैं। बहुत-सी चीजों को पाने के लिए आपको बहुत-से हिस्से, अपने खंड-खंड करने पड़ते हैं। आप उस आदमी की तरह हैं, जो चौराहे पर खड़ा है और चारों रास्तों पर एक साथ जाना चाहता है! तो थोड़ा हिस्सा इस रास्ते पर चला जाता है, थोड़ा हिस्सा उस रास्ते पर चला जाता है, थोड़ा हिस्सा और रास्ते पर चला जाता है। आपके सब हिस्से अलग-अलग यात्राओं पर निकल जाते हैं। फिर शायद मुश्किल ही हो जाता है उनको इकट्ठा करना और एक जगह लाना।

परमात्मा को पाना हो, तो अनन्य भक्ति से ही वह प्राप्त करने योग्य है। अनन्य का अर्थ है, इंटीग्रेटेड; आपके भीतर आप इतने एक हो जाएं कि आप जिस तरफ आंख उठाएं, आपके पूरे प्राणों की आंख उस तरफ उठ जाए।

अभी ऐसा नहीं होता। अभी आदमी मंदिर में पूजा के लिए भी सिर नीचे रखता है, तो एक आंख परमात्मा की तरफ लगी रहती है कि प्रार्थना सुनी या नहीं! दूसरी आंख पीछे देखती रहती है कि लोग कोई देख रहे हैं कि नहीं कि मैं कितनी प्रार्थना कर रहा हूं, कैसा धार्मिक आदमी हूं!

खंडित है सब, बंटा हुआ है सब। इस बंटी हुई स्थिति को लेकर कोई प्रभु की तरफ नहीं जा सकता। इसलिए शर्त है, अनन्य। और भक्ति का अर्थ है, प्रेम। और प्रेम अनन्य ही हो सकता है। उसकी धारा एक ही हो सकती है। प्रेम में बंटाव नहीं है, प्रेम में कटाव भी नहीं है। प्रेम खंड-खंड चित्त से हो भी नहीं सकता; अखंड चित्त हो, तो ही हो सकता है। अखंड प्रेम के द्वारा यह परम सत्ता पाने योग्य है।

पाने योग्य है दो अर्थों में। एक तो इस अर्थ में कि इतनी मेहनत उठानी पड़े--कितनी ही मेहनत उठानी पड़े स्वयं को एक करने की, तो भी वह कोई मूल्य नहीं है। वह चुका देने जैसा है। और मुफ्त है, क्योंकि जो मिलता है, उसका कोई मूल्य नहीं आंका जा सकता है। इसलिए अनन्य भक्ति से पाने योग्य है। एक।

और दूसरा कि यही पाने योग्य है, और कुछ इस जीवन में, अस्तित्व में पाने योग्य नहीं है। यह परम धाम ही पाने योग्य है। और इस परम धाम को जब तक हम न पा लें, तब तक हम ऐसी चीजों को पाते चले जाएंगे, जिन्हें न पाया होता तो कुछ हर्ज न था, और पा लिया तो कुछ पाया नहीं।

लेकिन आदमी खाली नहीं बैठ सकता। आदमी कुछ तो पाता ही रहेगा। कुछ तो करता ही रहेगा। यह मकान बनाएगा, और बड़ा मकान बनाएगा। यह दुकान खोलेगा, और बड़ी दुकान खोलेगा। कुछ न कुछ करता ही रहेगा। और सब कुछ करके भी पाएगा कि कुछ पाया नहीं, तो फिर कुछ और करने में लग जाएगा।

हमारी जिंदगी का तर्क ऐसा है कि अगर एक मकान मैं बना लूं और सुख न मिले, तो मैं सोचता हूं, इतने छोटे-से मकान से कहां सुख मिलेगा! थोड़ा बड़ा मकान बनाना चाहिए। वह उतना बड़ा बना लूं, फिर भी मेरा तर्क कहेगा, इतने से नहीं मिला, साफ जाहिर होता है कि थोड़ा और बड़ा मकान चाहिए। इसी तरह मैं दौड़ता रहूंगा। कभी भी यह खयाल नहीं आता कि जब छोटे मकान में कम से कम थोड़ा तो सुख मिलना चाहिए था, तो बड़े में थोड़ा और ज्यादा मिल जाता! थोड़े में थोड़ा भी नहीं मिला, छोटे में छोटा सुख भी नहीं मिला, तो बड़े में भी नहीं मिल सकता है। मैं कहीं कुछ गलत काम में लगा हूं। मैं सिर्फ व्यस्त होने की कोशिश में लगा हूं। खालीपन घबड़ाता है, तो भरता रहता हूं--कभी धन से, कभी यश से, कभी पद से--कुछ न कुछ, कुछ न कुछ काम से अपने को भरता रहता हूं।

लेकिन कितना भी भरूं अपने को, कितने ही कामों से, खाली ही रह जाऊंगा। सिवाय परमात्मा के और कोई चीज वस्तुतः किसी को भर नहीं सकती। उस भराव के साथ ही फुलफिलमेंट है, उस भराव के साथ ही भराव है। उसके पहले हर आदमी खाली है।

इसलिए पश्चिम में इधर पचास वर्षों में--और पश्चिम का प्रभाव तो सारे पूरब पर भी छा गया है--पचास वर्षों में जितने जीवन-दर्शन पैदा हुए हैं, वे सभी जीवन-दर्शन एक बात पर खड़े हैं कि आदमी की जिंदगी में भराव नहीं है, खाली है, एंप्टी है, रिक्त है। इनकी रिक्तता का कारण है, क्योंकि पिछले पचास वर्षों में पश्चिम और पश्चिमी विचारधारा के प्रभावी लोगों ने परमात्मा को इस तरह इनकार किया है, जैसा इनकार इसके पहले मनुष्य के इतिहास में कभी भी नहीं हुआ।

जितना हम परमात्मा को इनकार करेंगे, उतना ही हम एंप्टी और खाली अपने को अनुभव करेंगे। और फिर उस खालीपन को न एटम से भर सकते हो, न हाइड्रोजन बम से भर सकते हो। उस खालीपन को, बड़ी से बड़ी युनिवर्सिटियां खड़ी करो, नहीं भर पाओगे। उस खालीपन को, बड़े महल खड़े करो, सौ डेढ़ सौ मंजिल ऊंचे, आकाश को छूने लगें, वह खालीपन बिलकुल नहीं छुआ जाएगा। वह खालीपन किसी और चीज से कभी भरता ही नहीं। वह सिर्फ एक से ही भरता है, जिससे वह पहले से ही भरा हुआ है। उसको ही जान लेने से भरापन उपलब्ध होता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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