सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 9

 प्रकृति और परमात्मा


ये चैव सात्त्विा भावा राजसास्तामसाश्च ये।

मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि।। 12।।


और भी जो सत्व गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू मेरे से ही होते हैं ऐसा जान, परंतु वास्तव में उनमें मैं और वे मेरे में नहीं हैं।


प्रकृति परमात्मा में है, लेकिन परमात्मा प्रकृति में नहीं है। यह विरोधाभासी, पैराडाक्सिकल सा दिखने वाला वक्तव्य अति गहन है। इसके अर्थ को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।

कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, तीनों गुणों से बनी जो प्रकृति है, वह मुझमें है। लेकिन मैं उसमें नहीं हूं।

ऐसा करें कि एक बड़ा वर्तुल खींचें अपने मन में, एक बड़ा सर्किल। उसमें एक छोटा वर्तुल भी खींचें। एक बड़ा वर्तुल खींचें, और उसके भीतर एक छोटा वर्तुल खींचें, तो छोटा वर्तुल तो बड़े वर्तुल में होगा, लेकिन बड़ा वर्तुल छोटे वर्तुल में नहीं होगा।

प्रकृति तो हमें दिखाई पड़ती है कि असीम है, बहुत विराट; ओर-छोर का कुछ पता नहीं चलता; लेकिन परमात्मा के खयाल से प्रकृति ना-कुछ है। बहुत छोटा वर्तुल है, बहुत सीमित घटना है। ऐसी अनंत प्रकृतियां परमात्मा में हो सकती हैं, होती हैं; बनती हैं, बिखर जाती हैं। परमात्मा के भीतर ही सब कुछ घटित होता है। इसलिए यह ठीक है कहना, सब कुछ मुझमें है, लेकिन मैं उस सब कुछ में नहीं हूं।

विराट क्षुद्र में नहीं होता, क्षुद्र तो विराट में होता ही है। लहर सागर में होती है, तो सागर कह सकता है, सब लहरें मुझमें हैं, लेकिन मैं लहरों में नहीं हूं। क्योंकि लहरें न रहें तो भी सागर रहेगा, लेकिन सागर न रहे तो लहरें न बचेंगी। हम सोच सकते हैं, सागर का होना बिना लहरों के, लेकिन लहरों का होना नहीं सोच सकते बिना सागर के। लहरें सागर में ही उठती हैं, सागर में ही होती हैं, फिर भी इतनी छोटी हैं कि उस सागर में उठकर भी सागर को घेर नहीं पातीं। घेर भी नहीं सकती हैं।

इस वक्तव्य को देने के कुछ कारण हैं। और साधक के लिए बहुत अनिवार्य है।

कृष्ण जब कहते हैं, यह सारी प्रकृति मुझमें है, फिर भी मैं इस प्रकृति में नहीं हूं, तो दो बातें ध्यान में रख लेने जैसी हैं। एक तो यह कि जो परमात्मा में प्रवेश कर जाए, उसमें प्रकृति होगी। लेकिन जो प्रकृति में ही खड़ा रहे, उसमें परमात्मा नहीं होगा।

जैसे कि कृष्ण को भी भूख लगती है, और कृष्ण को भी नींद आती है, और कृष्ण के भी पैर में चोट लगती है, तो दर्द और पीड़ा होती है। कृष्ण की मृत्यु हुई; पैर में तीर लगने से हुई। प्रकृति अपना पूरा काम करती है--कृष्ण में भी, महावीर में भी, बुद्ध में भी, जीसस में भी। जब जीसस को सूली पर लटकाया गया, तो प्रकृति ने पूरा काम किया।


जब क्राइस्ट की प्रकृति छूट रही है, वह छोटा वर्तुल छूट रहा है, तो क्राइस्ट भयभीत नहीं हैं, आनंदित हैं, क्योंकि वे बड़े वर्तुल में प्रवेश कर रहे हैं। लहर मिट रही है, और सागर में प्रवेश हो रहा है। जब हमारी लहर मिटती है, तो सिर्फ लहर मिटती है; सागर का हमें कुछ पता नहीं है। सागर में कोई प्रवेश नहीं होता।

जब आपको भूख लगती है, तो आपको भूख लगती है। और जब कृष्ण को भूख लगती है, तो प्रकृति को भूख लगती है। और जब आपके पैर में पीड़ा होती है, तो आपको पीड़ा होती है। और जब कृष्ण के पैर में पीड़ा होती है, तो प्रकृति को पीड़ा होती है। कृष्ण तो साक्षी ही होते हैं।

जिस व्यक्ति ने परमात्मा को जाना, वह प्रकृति का साक्षी मात्र रह जाता है। वह छोटा वर्तुल उसे दिखाई पड़ता है, लेकिन वह स्वयं बड़े वर्तुल के साथ एक हो जाता है। लेकिन जिसने परमात्मा को नहीं जाना, उसे तो छोटा वर्तुल ही सब कुछ दिखाई पड़ता है। उसके पार कुछ भी नहीं है। और जब हमारा ध्यान प्रकृति में अतिशय लग जाता है, तो अतिशय लग जाने के कारण ही परमात्मा की तरफ ध्यान जाना मुश्किल हो जाता है।

प्रकृति में उलझा हुआ मन ऊपर की तरफ नहीं उठ पाता। उसे नहीं देख पाता वह, जो वृहत वर्तुल है, वह जो ग्रेटर सर्किल है। जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं, मुझमें है प्रकृति, लेकिन मैं प्रकृति में नहीं हूं। उस तरफ नजर नहीं उठ पाती है।

तो जो प्रकृति में उलझा है, वह कृष्ण के वचन से ठीक से समझ ले, क्योंकि इस बात की भ्रांति है कि अगर कृष्ण यह कहते कि मैं प्रकृति में हूं और प्रकृति मुझमें है, तो भी गलत नहीं था। क्योंकि छोटा वर्तुल अगर बड़े वर्तुल में है, तो बड़ा वर्तुल भी किसी न किसी अर्थ में छोटे वर्तुल में है। अगर लहर सागर में है, तो सागर कितने ही क्षुद्रतम अर्थों में, लहर के भीतर है। तर्क किया जा सकता है। क्योंकि यह असंभव है कि बड़ा वर्तुल छोटे वर्तुल में न हो, तो छोटा वर्तुल बड़े वर्तुल में कैसे हो सकेगा? माना कि पूरा बड़ा वर्तुल छोटे वर्तुल में नहीं हो सकेगा, अंश ही होगा; लेकिन होगा तो ही।

लेकिन कृष्ण उस तर्क को मद्दे-नजर कर रहे हैं, जानकर। क्योंकि एक बार आदमी को यह पता चल जाए और यह खयाल में आ जाए कि प्रकृति में परमात्मा है और परमात्मा में प्रकृति है, तो शायद हम प्रकृति से ऊपर नजर उठाने को कभी राजी न हों। कभी राजी न हों। क्योंकि हम कहें कि जब प्रकृति में ही परमात्मा है--खाने-पीने में, कपड़े पहनने में, मकान बनाने में--तो फिर और परमात्मा की खोज की जरूरत क्या है? जब इस शरीर में ही परमात्मा है, तो फिर शरीर ही परमात्मा हो जाएगा। हम तत्काल इस बात को अपने मतलब की तरफ झुका लेंगे।

और आदमी बड़ा कुशल है, वह सब चीजों के अर्थ अपनी तरफ झुका लेता है। क्योंकि दो ही रास्ते हैं। या तो अर्थ की तरफ आप झुकिए, या तो सत्य की तरफ आप झुकिए; या सत्य को अपनी तरफ झुका लीजिए। अन्यथा बेचैनी अनुभव होगी।

जिस दिन कोई जानेगा बड़े वर्तुल को, परमात्मा को, उस दिन वह शायद यह भी जान ही लेगा कि प्रकृति भी उसमें ही है, वह भी प्रकृति में है। लेकिन हमसे यह कहना, यह सत्य कहना, खतरनाक है। कहना इसलिए खतरनाक है कि अगर हमें यह बात पक्की हो जाए कि हम जो कर रहे हैं, उसमें भी परमात्मा है, तो फिर शायद परमात्मा की तरफ नजर उठाने का खयाल ही मिट जाए। जरूरत भी नहीं रह जाती।

इसलिए कृष्ण बहुत सोच-विचारकर कहते हैं, प्रकृति मुझमें है अर्जुन, लेकिन मैं प्रकृति में नहीं हूं। तो तू प्रकृति में कितना ही खोजता रहे, मुझे न पा सकेगा। हां, मुझे पा ले, तो प्रकृति तो पाई ही हुई है।

यह भी बहुत मजे की बात है। कोई आदमी कितना ही धन खोजे, धनी नहीं हो पाता। लेकिन कोई आदमी परमात्मा को खोज ले, तो दरिद्रता भी धन हो जाती है।

लेकिन हम सबको खोजने चलते हैं, प्रभु को छोड़कर। तब प्रभु तो मिलता ही नहीं, सबमें से भी कुछ नहीं मिलता है। सिर्फ दौड़-धूप; और आखिर में राख हाथ में लगती है--सपनों की राख, आशाओं की राख। यश कोई कितना ही खोजे, यश हाथ लगेगा नहीं। और कोई परमात्मा को खोज ले, तो यशस्वी हो जाता है, तत्क्षण। कोई कितना ही प्रेम खोजे, प्रेम मिलेगा नहीं। और कोई प्रार्थना को खोज ले, तो जीवन प्रेम की सुगंध से भर जाता है; ऐसी सुगंध से, जो फिर कभी चुकती नहीं।

हम कुछ भी खोजें प्रकृति में, हमारे हाथ में कुछ लगेगा नहीं; मिट्टी-पत्थर ही लगेंगे। यद्यपि प्रत्येक मिट्टी-पत्थर के भीतर परमात्मा छिपा है। लेकिन जो प्रकृति में खोजने चला है, वह परमात्मा के प्रति अंधा होता है। 

इसलिए कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, सब मुझमें हैं अर्जुन, लेकिन मैं उनमें नहीं हूं।

बड़ी मजेदार बात है। अगर कोई आदमी परमात्मा के बिना सात्विक भी हो जाए, तो भी धार्मिक नहीं हो सकता। अगर कोई व्यक्ति परमात्मा के बिना सात्विक भी हो जाए, परम सात्विक हो जाए, तो भी धार्मिक नहीं हो सकता। और कोई व्यक्ति कितना ही तामसिक और कितना ही राजसिक हो, अगर परमात्मा में प्रवेश कर जाए, तो तत्काल सात्विक हो जाता है।

अगर आदमी अपने ही बल से सात्विक हो जाए, तो सिवाय अहंकार के और कुछ निर्मित नहीं होता। पवित्र अहंकार निर्मित होता है। और कोई व्यक्ति कितना ही बुरा हो, दीन हो, हीन हो, पापी हो, और परमात्मा में छलांग लगा जाए, तो तत्काल, जैसे आग में कचरा जल जाए, ऐसे परमात्मा की आग में सब पाप जल जाते हैं।

और परमात्मा में जब कुछ जलता है, तो अहंकार नहीं बचता, वह भी जल जाता है। और आदमी जब कुछ भी जलाए, कुछ भी मिटाए, कुछ भी बनाए, एक चीज पीछे बची रह जाती है--मैं पीछे बचा रह जाता है।

इसलिए सात्विक से सात्विक व्यक्ति भी एक सूक्ष्म अहंकार से पीड़ित रहता है। और परमात्मा तभी उपलब्ध होता है, जब अहंकार की पतली से पतली, बारीक से बारीक दीवाल भी बीच में न रह जाए। और कोई बाधा नहीं है।

अर्जुन क्या कह रहा है? अर्जुन यह कह रहा है कि मुझे इस युद्ध से जाने दो। यह तामसिक, राजसिक मालूम पड़ता है। मैं सात्विक होना चाहता हूं। मुझे हट जाने दो। यह सब बात बड़ी गड़बड़ मालूम पड़ती है। यह लोगों को मारना--यश के लिए, धन के लिए, राज्य के लिए--क्षुद्र मालूम पड़ता है। यह मेरे सात्विक मन को प्रीतिकर नहीं लगता; यह श्रेयस्कर नहीं है। मुझे जाने दो कृष्ण, मुझे हट जाने दो, इस युद्ध से। इससे तो बेहतर भीख मांगकर जी लेना होगा। इससे तो बेहतर भिखारी हो जाना होगा। इससे तो बेहतर किसी वृक्ष के नीचे, किसी अरण्य में बैठ जाऊंगा, प्रार्थना में डूब जाऊंगा। यह सब मैं नहीं करना चाहता हूं। यह बड़ा तामसिक मालूम पड़ता है।

कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, सब मुझमें हैं, लेकिन मैं उनमें नहीं हूं। इसलिए अगर तू सात्विक भी हो जाए मेरे बिना, मुझे समर्पित हुए बिना, तो तेरे सत्व से भी कुछ हल न होगा। अगर तू अपने ही हाथ से स्वर्ग में भी पहुंच जाए, तो तेरा अहंकार साथ होगा और सब स्वर्ग नर्क हो जाएंगे। क्योंकि असली नर्क तेरे पीछे ही चलता रहेगा; तेरे साथ ही चलता रहेगा। तू पहले मुझे पा ले और फिर तू बात करना सत्व, रज और तम की; फिर तू बात करना प्रकृति की। पहले तू मुझे पा ले।

धर्म की और नीति की यही बुनियादी दूरी है। नीति कहती है, सात्विक हो जाओ। धर्म कहता है, धार्मिक हो जाओ। नीति कहती है, पहले अपने कर्म बदलो, आचरण बदलो। धर्म कहता है, पहले प्रभु में प्रवेश कर जाओ। क्योंकि तुम क्या आचरण बदलोगे और तुम्हारा बदला हुआ आचरण तुम्हारा ही बदला हुआ होगा। वह तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। तुम क्या सदाचरण करोगे? वह तुमसे ही निकलेगा। वह तुमसे महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। जैसे कोई आदमी अपने जूते के बंद पकड़कर खुद को नहीं उठा सकता, ऐसे ही कोई आदमी अपने ही द्वारा सदाचरण को उपलब्ध नहीं हो सकता। आप ही तो सदाचरण करेंगे--आप ही। यह थोड़ा समझने जैसा है।

एक आदमी चोर है। और वह चोर कहता है कि मैं कोशिश कर रहा हूं कि अचोर हो जाऊं, चोरी छोड़ दूं। अब चोर ही तो चोरी छोड़ने की कोशिश करेगा! चोर ही कोशिश करेगा चोरी छोड़ने की। यह जूते के बंद पकड़कर अपने को उठाने से भी कठिन काम है। यह होने वाला नहीं है। क्योंकि अगर चोर इस योग्य होता कि चोरी उससे न होती होती, तब तो बात ही और थी, लेकिन यह बात नहीं है।

चोर चोर है। और कसम खा रहा है कि मैं चोरी नहीं करूंगा। वह अपने साथ भी चोरी कर जाएगा।

एक आदमी क्रोधी है और वह कह रहा है, मैं क्रोध नहीं करूंगा। लेकिन उसे पता नहीं है कि जो यह कह रहा है, नहीं करूंगा, यह भी उसका क्रोधी स्वभाव है, जो कसम ले रहा है, जो संकल्प बांध रहा है कि मैं क्रोध नहीं करूंगा। सौ में सौ ही मौके इस बात के हैं कि यह क्रोध ही बोल रहा हो कि मैं क्रोध नहीं करूंगा। अब वह दिक्कत में पड़ेगा।

जैसे कभी-कभी कुत्ते को आपने देखा हो कि अपनी पूंछ पकड़ने की दिक्कत में पड़ जाता है। जोर से छलांग लगाता है। पूंछ बिलकुल पास मालूम पड़ती है। जरा सा मुंह पास पहुंच जाए, तो पूंछ पकड़ में आ जाए। लेकिन बेचारे कुत्ते को पता नहीं; कुत्ते को क्या, हमारे तथाकथित तपस्वियों, नैतिक साधकों को भी पता नहीं, तो कुत्ते का तो कोई कसूर नहीं है।

जब पूंछ बिलकुल करीब दिखाई पड़ती है, तो कुत्ता सोचता है कि जरा ही मुंह बढ़ा लूं, तो पूंछ पकड़ में आ जाए। मुंह बढ़ाता है, लेकिन तब तक पूंछ हट जाती है। क्योंकि वह मुंह से ही पीछे जुड़ी है, यह उसे पता नहीं है। जब छूटती है, तो और जोर से कूदता है। सोचता है कि शायद थोड़ा कम कूदा, इसलिए पूंछ पकड़ में नहीं आ सकी। पर जितने जोर से कूदता है, पूंछ भी उतने ही जोर से कूदती है। अब एक विसियस सर्किल, एक दुष्टचक्र पैदा होता है, जिसमें कुत्ता दिक्कत में पड़ेगा, थकेगा, परेशान होगा; कभी पूंछ पकड़ में आएगी नहीं।

जब कोई हिंसक आदमी कहता है कि अब मैं अहिंसक होने की कोशिश करूंगा, तब वह आदमी कुत्ते के तर्क पर चल रहा है। नहीं; आप अपने में बदलाहट न ला सकेंगे। क्योंकि लाएगा कौन बदलाहट? आप ही!

इसलिए कृष्ण कहते हैं,  कि परमात्मा की तरफ पहले नजर उठा लो, फिर बदलाहट आ जाएगी। क्योंकि तब तुम परमात्मा के हाथ में होओगे, और उसके हाथ में पड़ते ही बदलाहट शुरू हो जाती है। उसकी तरफ आंख उठाते ही बदलाहट शुरू हो जाती है, क्योंकि आप दूसरे ही आदमी हो जाते हैं। उसकी तरफ नजर पड़ते ही सब कुछ बदल जाता है। क्योंकि जैसे ही विराट दिखाई पड़ता है, वैसे ही हमारी क्षुद्रताएं गिर जाती हैं, कि हम भी कैसे पागल थे! हम खोज क्या रहे थे? हम पाने की कोशिश क्या कर रहे थे?






जिस दिन परमात्मा की तरफ दृष्टि उठेगी, कि प्रकृति परमात्मा का हिस्सा है; जिस दिन ऊपर की तरफ देखेंगे, उस विराट की तरफ, जिसमें सारी प्रकृति समाई हुई है; उस दिन आप दूसरे आदमी हो जाएंगे। उस दिन चोरी असंभव होगी। उस दिन क्रोध असंभव होगा। उस दिन बेईमानी मुश्किल हो जाएगी। उस दिन बेईमानी ऐसी ही होगी, जैसे कोई आदमी अपने एक खीसे से रुपए चुराकर दूसरे खीसे में रख ले। बस! ऐसे कुछ लोग हैं कि अपने ही एक खीसे से चुराकर अपने ही दूसरे खीसे में रख लेते हैं। सभी लोग ऐसे हैं, अगर सत्य दिखाई पड़े तो। क्योंकि आपका खीसा भी सिर्फ थोड़ी दूर, मेरा ही खीसा है।

जिस दिन परमात्मा दिखाई पड़े, उस दिन चोरी असंभव है, क्योंकि सबमें ही परमात्मा दिखाई पड़ेगा। अपनी ही चोरी कौन करता है? वह तो चोरी हम करते इसलिए हैं कि दूसरा दूसरा है। और जिस दिन परमात्मा दिखाई पड़े, उस दिन सब मालकियत का खयाल खो जाता है। क्योंकि जब असली मालिक का पता चल गया, तो हमें पता चल जाता है कि हम मालिक नहीं हैं, और हम मालिक नहीं हो सकते। जब मालकियत ही नहीं हो सकती, तो क्या चोरी? क्योंकि चोरी तो मालकियत की व्यवस्था है, किसी तरह मालकियत कायम करने की चेष्टा है।

कृष्ण कहते हैं, मुझमें तो सारी प्रकृति है, लेकिन मैं प्रकृति में नहीं हूं। तू मुझे खोज ले, तो पूरी प्रकृति तुझे मिल जाए। और तूने प्रकृति खोजी, तो तू मुझे न पा सकेगा। इसलिए तू सत्व गुण की बात मत कर। तू यह तम और रज की निंदा मत कर। ये तीनों मुझमें हैं। पर तू मेरी बात कर; तू मेरी शरण आ। टुकड़ों की बात मत कर; पूरे की बात कर। खंडों की बात मत कर; पूर्ण की बात कर।

खंडों में पूर्ण है, लेकिन पूर्ण में खंड नहीं है। यह आध्यात्मिक गणित का एक कीमती सूत्र है। कहां से शुरू करनी है यात्रा, उसे स्मरण दिलाने के लिए कृष्ण ने ऐसा कहा है।


जिस दिन कोई परमात्मा को झांक लेता है, उस दिन सब दुकानें अपनी हो जाती हैं, सब कुछ अपना हो जाता है। उस दिन भीतर की प्रफुल्लता का कोई अंत नहीं है। उस दिन फूल खिलते हैं भीतर के। सहस्र पंखुड़ियों वाला फूल उस दिन खिलता है भीतर का, क्योंकि उस दिन हम परम आनंद में विराजमान हो जाते हैं। सब अपने हैं। सब अपना है। सारा विराट अपना है।

लेकिन जो प्रकृति में खोजने जाएगा, वह न खोज पाएगा इसे। इसे तो परमात्मा में कोई खोजने जाएगा, तो प्रकृति में भी पा लेगा।

टेनिसन ने कहा है, एक वृक्ष के पास से निकलते हुए, एक दीवाल के पास से निकलते हुए, जिसमें एक छोटा-सा घास का फूल खिला है; निकलते वक्त उसने कहा है कि अगर मैं इस छोटे-से फूल के राज को समझ लूं, तो मुझे सारी दुनिया का राज समझ में आ जाए।

लेकिन अगर वह कृष्ण से पूछे, तो कृष्ण कहेंगे, तू कभी इस फूल के राज को न समझ पाएगा। अगर तुझे सारी दुनिया का राज समझ में आ जाए, तो इस फूल का राज समझ में आ सकता है।

धर्म की दृष्टि पूर्ण से नीचे की तरफ यात्रा करती है। अधर्म की दृष्टि खंड से ऊपर की तरफ यात्रा करती है। धर्म अवतरण है पूर्ण से नीचे की ओर। और हमारी सब सोच-समझ, हमारी तथाकथित सांसारिक समझ, नीचे से ऊपर की तरफ चढ़ाव है--एक-एक कदम, एक-एक सीढ़ी।

ध्यान रहे, पर्वत से उतरना सदा आसान है; पर्वत पर चढ़ना बहुत कठिन है। सबसे बड़ी कठिनाई तो यही होती है पर्वत पर चढ़ने में कि जिस कदम पर आप खड़े होते हैं, वहां आपने जो इकट्ठा कर लिया होता है, वही अगले कदम उठाने में बाधा बनता है। और हर कदम पर आप कुछ इकट्ठा करते चले जाते हैं। यश, धन, मान, सम्मान, मित्र, प्रियजन इकट्ठा करते हैं हर कदम पर। फिर हर अगले कदम पर यही फांसी बन जाते हैं; यही बोझ की तरह चारों तरफ लटक जाते हैं। ये कहते हैं, कहां जाते हो? हमें छोड़कर कहां जाते हो? ये सब तिजोड़ियां छाती से अटक जाती हैं।

ऊपर से नीचे की तरफ उतरना बड़ा ही सुगम है, जैसे सूरज की किरण उतरती है। नीचे से ऊपर की तरफ जाना बहुत कठिन है।

कृष्ण यह कह रहे हैं कि प्रकृति की तरफ अगर तूने ध्यान दिया, तो तू मुझ तक न आ पाएगा। यद्यपि प्रकृति मुझमें है, फिर भी तू मुझ तक न आ पाएगा, क्योंकि मैं छिपा हूं। और जो तुझे दिखाई पड़ेगा, वह मैं नहीं हूं; जो नहीं दिखाई पड़ेगा, वह मैं हूं। हां, तू मुझे देख ले, अदृश्य को; जब तू अदृश्य को देख लेगा, तो दृश्य में देख लेना तो बहुत सरल है।

जब कोई आदमी ध्वनिरहित ध्वनि को सुन ले, तो फिर ध्वनि को सुनना कठिन नहीं है। और जब कोई शब्दरहित शब्द को जान ले, तो फिर शब्दों को पहचानना कठिन नहीं है। और जब कोई विराट को देख ले, तो क्षुद्र को देखने में क्या अड़चन है!

इसलिए कृष्ण का तर्क, या कृष्ण की पद्धति पूर्ण से शुरू करने की है। समस्त धर्म की पद्धति पूर्ण से शुरू करने की है। समस्त विज्ञान की पद्धति खंड से, टुकड़े से शुरू करने की है, फ्राम दि पार्ट। और धर्म की पद्धति, फ्राम दि होल। वही विज्ञान और धर्म की पद्धतियों का बुनियादी भेद है।

विज्ञान शुरू करता है एटम से, अणु से। और अणु से छोटी चीज मिले, तो उससे। और भी छोटी चीज मिल जाए, तो उससे। जितनी क्षुद्र मिल जाए, विज्ञान उससे शुरू करेगा। क्योंकि जितनी क्षुद्र हो, आदमी अपने हाथ में उसे उतनी ही आसानी से ले सकता है। जितनी क्षुद्र हो, उतना ठीक से विश्लेषण हो सकता है। जितनी क्षुद्र हो, प्रयोगशाला में प्रयोग हो सकता है। जितनी क्षुद्र हो, आदमी उसका मालिक हो सकता है।

और धर्म शुरू करता है विराट से। निश्चित ही फर्क पड़ेगा। विराट को आप अपने हाथ में नहीं ले सकते। अगर विराट को जानना है, तो आपको स्वयं ही विराट के हाथों में गिर जाना होगा। क्षुद्र को आप अपने हाथ में ले सकते हैं। प्रयोगशाला की परखनली में जांच सकते हैं। काट-पीट कर सकते हैं। क्षुद्र के आप मालिक हो सकते हैं। लेकिन विराट के मालिक आप नहीं हो सकते हैं। विराट को ही आपको अपना मालिक बना लेना होगा।

इसलिए पूर्ण से जब धर्म शुरू होता है, तो समर्पण उसकी विधि हो जाती है। और चूंकि विज्ञान क्षुद्र से शुरू होता है, इसलिए संघर्ष उसकी विधि होती है। इसलिए विज्ञान सोचता है इन टर्म्स आफ कांकरिंग, जीतने की भाषा में। और धर्म सोचता है हारने की भाषा में, आदमी कैसे हार जाए परमात्मा के चरणों में।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि मैं तो छिपा हूं इस सब क्षुद्र में भी, लेकिन तू मुझसे शुरू कर।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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