रविवार, 25 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 4

 

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।

अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। 4।।


और हे अर्जुन, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार भी, ऐसे यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है।



इस सूत्र में दोत्तीन बातें समझने जैसी हैं। पहली बात, कृष्ण ने प्रकृति को आठ हिस्सों में विभाजित किया। पंच महाभूत--पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश।

पहले तो पंच महाभूत को थोड़ा समझ लें, क्योंकि पंच महाभूत की धारणा के कारण भारतीय चिंतन को पश्चिम में बहुत धक्का पहुंच रहा है। इस मुल्क में भी जो लोग सुशिक्षित हैं, उनको भी बड़ी कठिनाई होती है। चूंकि अब तो पंच महाभूत का कोई सवाल न रहा। अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि एक सौ आठ तत्व हैं। फिर और थोड़े गहरे गए हैं, तो वे कहते हैं, एक ही तत्व है--एक सौ आठ तो उसके प्रकार हैं--वह है विद्युत।

कृष्ण जैसा व्यक्ति जब कहता है, पंच महाभूत, तो यह सिर्फ कोई लोकोक्ति नहीं हो सकती। लोग सदा ऐसा कहते रहे हैं, पांच महाभूत। मोटा हिसाब है कि इन पांच चीजों से सारा जगत बना हुआ है। लेकिन कृष्ण जब ऐसा वक्तव्य देते हैं, तो उस वक्तव्य के पीछे थोड़ा गहरे उतरना पड़ेगा। कृष्ण का वक्तव्य बहुत वैज्ञानिक है। और इसलिए इन पंच महाभूत की व्याख्या जैसी मैं देखता हूं, और जैसी आज के पूरे वैज्ञानिक चिंतन के बाद की जानी चाहिए, वह मैं आपसे कहना चाहता हूं।

पंच महाभूत केवल लोगों की प्रचलित शब्दावली का उपयोग है। और इसलिए भारत के भी जो लोग सिर्फ शब्दों को सोचते हैं, शास्त्रों को सोचते हैं, वे भी इस पंच महाभूत की धारणा में गहरे नहीं उतर सके।

अगर ठीक से समझें, तो पश्चिम में विज्ञान ने जो तत्वों की धारणा पैदा की है, वह तो प्रयोगशालाओं में की गई है। और भारत ने जो पंच महाभूत की धारणा की है, वह प्रयोगशालाओं में नहीं, अंतस अनुभूति में की गई है। जो लोग भी अंतस जीवन की गहराइयों में उतरेंगे, उन्हें एक तत्व का साक्षात्कार जरूर ही होगा;  वह है अग्नि। जो लोग भी अपने भीतर गहरे में जाएंगे, अंततः उन्हें अग्नि का अनुभव होगा, विराट अग्नि का अनुभव होगा।

इसीलिए जैसे-जैसे व्यक्ति ध्यान में भीतर प्रवेश करता है, प्रकाश, और ऐसे जैसे हजारों सूरज उतर आए हों, दिखाई पड़ने लगते हैं। ध्यान में प्रकाश का अनुभव अंतर्गमन की सूचना है। यह प्रकाश उस अंतर-अग्नि की बहुत दूर की किरण है। जब हम बहुत गहरे में पहुंचेंगे, तभी हमें पूरी अग्नि का आभास होगा।

हां, अग्नि शब्द से सिर्फ आपके घर में जो आग जलती है, उससे ही कृष्ण का प्रयोजन नहीं है। अग्नि से अर्थ है, जीवन का समस्त रूप अग्नि का ही रूप है।

अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि आपके भीतर भी जो जीवन चल रहा है, वह भी आक्सीडाइजेशन से ज्यादा नहीं है। पूरे समय हवाओं में से जाकर आक्सीजन आपके भीतर की जीवन-ज्योति को जला रही है।

अगर आप, एक दीया जल रहा हो और उसके ऊपर एक कांच का बर्तन ढांक दें, तब आपको पता चलेगा। कभी ऐसा हो जाता है कि तूफान जोर का होता है, तो घर में कोई कांच के गिलास को दीए पर ढांक दे। एक क्षण को तो लगेगा कि दीए को आपने बचा लिया तूफान से। लेकिन ध्यान रखना, तूफान में तो दीया बच भी सकता था, गिलास के भीतर दीया नहीं बचेगा। क्योंकि थोड़ी ही देर में आक्सीजन चुक जाएगी। और आक्सीजन के बिना दीया जल नहीं सकेगा। थोड़ी ही देर में ग्लास के भीतर जितनी हवा है, उसकी आक्सीजन जल जाएगी। और फिर तो कार्बन डाइ आक्साइड रह जाएगा, जो दीए को बुझा देगा। तूफान तो झेल सकता है दीया, लेकिन आक्सीजन की कमी नहीं झेल सकता। क्योंकि आक्सीजन ही फायर है, अग्नि है।

आप भी नहीं झेल सकते। आपकी भी श्वास बंद कर दी जाए; नाक तो छोड़िए, अगर नाक आपकी चलने भी दी जाए, और पूरे शरीर पर ठीक से डामर पोत दिया जाए; रोएं-रोएं सब बंद कर दिए जाएं, नाक चलने भी दी जाए, तो भी आप पंद्रह मिनट से ज्यादा जिंदा नहीं रह पाएंगे। क्योंकि आपका रोआं-रोआं श्वास ले रहा है। वह श्वास जाकर आपके भीतर की जीवन अग्नि को जला रही है। और अगर श्वास बंद कर दी जाए, तब तो आप अभी ही समाप्त हो जाएंगे। क्योंकि भीतर भी जीवन एक दीए की भांति है, जिसको पूरे समय आक्सीजन चाहिए।

जो अग्नि के जलने का नियम है, वही जीवन के जलने का नियम भी है। जीवन की गहराई में, समस्त तत्वों की गहराई में अग्नि है। अग्नि महाभूत है। आधारभूत है।

आज विज्ञान की खोज इलेक्ट्रिसिटी पर ले गई है। वे जिसे आज विद्युत कह रहे हैं, भारत के अंतर्मनीषी ने उसे अग्नि कहा था। और ठीक था, क्योंकि अग्नि उन दिनों सुपरिचित शब्द था। और उसी से बात प्रकट की जा सकती थी।

विद्युत भी अग्नि का ही रूप है। तो अग्नि मूल तत्व है। पृथ्वी अग्नि का एक रूप है, सालिड। अग्नि का ठोस रूप पृथ्वी है। अग्नि का दूसरा रूप है, जल, लिक्विड, प्रवाह। अग्नि का तीसरा रूप है, वायु।

विज्ञान कहता है, पदार्थ की तीन स्थितियां हैं, सालिड, लिक्विड और गैसीय। पदार्थ की तीन स्थितियां हैं, या तो ठोस, जैसे कि पत्थर है या पानी का बर्फ। फिर जलीय, द्रवीय, जैसे कि जल है। और फिर वायुवीय, जैसे कि पानी की भाप है। प्रत्येक अस्तित्ववान चीज तीन रूपों में प्रकट हो सकती है।

पृथ्वी, जिसे आज विज्ञान कहता है, सालिड। उन दिनों पृथ्वी से सालिड और कोई चीज खयाल में आ भी नहीं सकती थी। वह प्रतीक शब्द है। जल, जल से ज्यादा और प्रवाहवान कोई चीज खयाल में नहीं आ सकती थी। और वायु; वायु से ज्यादा वाष्पीय, गैसीय और कोई तत्व खयाल में नहीं आ सकता था।

हां, अग्नि है मूल तत्व। अग्नि जब प्रकट होती है, तो तीन रूपों में प्रकट होती है। पदार्थ का एक रूप ठोस, दूसरा रूप जलीय, तीसरा रूप गैसीय।

और यह अग्नि के प्रकट होने के लिए जो जगह चाहिए, वह जगह है आकाश। आकाश से अर्थ है, स्पेस। आकाश से अर्थ स्काई नहीं है। आकाश से, आपके ऊपर जो चंदोवा तना हुआ है, उससे प्रयोजन नहीं है। आकाश शब्द बहुत अदभुत है। आकाश का कुल अर्थ होता है, जिसमें अवकाश मिले, जिसमें जगह मिले, जिसके बिना कोई चीज न हो सके। जगह तो चाहिए। और जगह के दो प्रकार हैं।

अगर मैं आपसे कहूं कि हत्या हो गई; तो आप पूछेंगे, कहां और कब? आप दो शब्द पूछेंगे, कहां और कब? कहां का मतलब है, किस स्थान में, कौन-सी जगह। अगर मैं कहूं, नहीं; जगह कोई भी नहीं है, सिर्फ फलां आदमी की हत्या हो गई है। तो आप कहेंगे कि गलत कह रहे हैं। क्योंकि बिना किसी जगह में हुए हत्या नहीं हो सकती। जगह तो चाहिए। लेकिन अकेली जगह में भी हत्या नहीं हो सकती, टाइम भी चाहिए। तो आप पूछते हैं, कब? किस समय हुई? अगर मैं कहूं, नहीं, समय में नहीं हुई। स्थान में तो हुई, समय में नहीं हुई। तो आप कहेंगे, नहीं हो सकती है। किसी भी वस्तु को होने के लिए दो आयामों में स्थान चाहिए, समय और स्थान, क्षेत्र।

पूछा जा सकता है कि इस पंच महाभूत की धारणा में आकाश को तो गिनाया, स्पेस को; टाइम को, काल को क्यों नहीं गिनाया?

तो एक और मजे की बात आपसे कहना चाहता हूं कि आइंस्टीन के पहले तक ऐसा खयाल था कि टाइम और स्पेस दो चीजें हैं, वैज्ञानिकों को। लेकिन आइंस्टीन ने यह सिद्ध करने का भगीरथ प्रयास किया, और बात सिद्ध हो गई, कि टाइम और स्पेस दो चीजें नहीं हैं। एक ही चीज है, टाइम-स्पेस या स्पेस-टाइम-कंटीनम। ये दो चीजें नहीं हैं। समय और स्थान एक ही चीज के दो पहलू हैं।

इसलिए कृष्ण के समय तक भी यह खयाल था कि समय अलग नहीं है। समय भी स्थान का ही एक हिस्सा है। इसलिए अलग से उसे नहीं गिनाया गया। पंच महाभूत में अवकाश देने के लिए जरूरी--आकाश; अस्तित्व के लिए आधारभूत--अग्नि; और प्रकट अस्तित्व के तीन रूप--पृथ्वी, जल और वायु; इन पंच महाभूतों की धारणा है।

लेकिन कृष्ण जैसे व्यक्ति जब बात करते हैं, तो जिनसे बात करते हैं, उनके ही शब्दों का उपयोग करते हैं। यही उचित भी है। इसीलिए आज कठिनाई हो गई है। आइंस्टीन मजाक में कहा करता था कि मेरी बात को समझने वाले इस जमीन पर बारह लोगों से ज्यादा नहीं हैं। वह भी अनुमान था उसका कि बारह लोग इस जमीन पर हैं साढ़े तीन अरब आदमियों में, जो मेरी बात समझ सकते हैं। हालांकि उसकी पत्नी ने शक जाहिर किया है कि बारह लोग भी हो सकते हैं।

क्या बात है? आइंस्टीन की बात को समझने के लिए बारह लोग! आइंस्टीन जो भाषा बोल रहा है, उस भाषा में सारी कठिनाई है। वह गणित की भाषा है।

कृष्ण जो भाषा बोल रहे हैं, वह लोक-भाषा है। कृष्ण की बात सब की समझ में आ सकती है। लोक-भाषा में बोलने का एक खतरा है कि चीजें कभी बहुत तर्कबद्ध और सूक्ष्म नहीं हो सकतीं। लेकिन सूक्ष्म और तर्कबद्ध और गणित की भाषा में बोलने का दूसरा खतरा है कि चीजें किसी की समझ में नहीं आतीं; समझ के बाहर खो जाती हैं।

तो जिनकी दृष्टि केवल तत्व-अन्वेषण की है, वे तो गणित की भाषा भी बोल सकते हैं। इसलिए आइंस्टीन का खयाल है कि भविष्य की विज्ञान की भाषा, आम भाषा नहीं रहेगी, सिर्फ गणित की भाषा हो जाएगी। अंकों में बात होगी, शब्दों में नहीं। क्योंकि शब्दों में गड़बड़ होती है। प्रतीकों में बात होगी, शब्दों में नहीं। क्योंकि शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं।

लेकिन कृष्ण जो बोल रहे हैं, वह तत्व-अन्वेषण के लिए नहीं, तत्व-साधना के लिए बोल रहे हैं। अर्जुन को समझ में आ सके, उस भाषा में बोल रहे हैं। तो उन्होंने लोक-प्रचलित पंच महाभूत की बात कही। लेकिन उस पंच महाभूत की बात में पूरी वैज्ञानिक दृष्टि है।

आधारभूत तो एक ही है, अग्नि, तेज। इसलिए अग्नि को देवता कहा। इसलिए सारे जगत में अग्नि की पूजा हुई। अभी भी पारसी अपने मंदिर में चौबीस घंटे अग्नि को जलाए हुए है। शायद उसे ठीक पता भी नहीं कि किसलिए जलाए हुए है। रीति है, प्रचलित है, जलाए हुए है। उसका मंदिर तो अग्नि का ही मंदिर है। लेकिन खयाल नहीं है कि क्यों?

अग्नि जीवन का आधारभूत तत्व है; वही देवता है। उससे ही जीवन का सब रूप विकसित होता है। मंदिर में अग्नि जलाकर बैठने से कुछ हल न होगा। इस जीवन में सब तरफ अग्नि को ही जलते हुए देखने से अग्नि के देवता का दर्शन होता है।

जहां भी जो कुछ है, वह अग्नि का ही रूप है। और उस अग्नि के तीन रूप हैं प्रकट--ठोस, फिर जलीय, फिर वायवीय। और उसकी जगह जिसमें मिली है, समय और स्थान, उसका नाम आकाश है। इन पंच महाभूतों की कृष्ण ने बात कही। इनसे प्रकृति बनी है। और तीन और अंतर-रूपों की बात कही। और इन आठों को इकट्ठा गिनाया। तीन कहा--मन, बुद्धि, अहंकार।

सबसे ज्यादा पहली चीज कही, पृथ्वी। और सबसे अंतिम चीज कही, अहंकार। पृथ्वी सबसे मोटी और स्थूल चीज है। अहंकार सबसे सूक्ष्म और बारीक और डेलिकेट चीज है। इस जगत में जो सूक्ष्मतम अस्तित्व है, वह अहंकार है। और जो स्थूलतम अस्तित्व है, वह पृथ्वी है। इसलिए इस तरह। और एक-एक के बाद। सबसे पहले भीतर की यात्रा में कहा, मन।

मन का अर्थ है, हमारे भीतर वह जो सचेतना है, वह जो कांशसनेस है। मन का अर्थ है, सचेतना। वह जनरलाइज्ड हमारे भीतर जो मनन की शक्ति है, उसका नाम मन है। मन का बहुत रूप जानवरों में भी है। जानवर भी मन से जीते हैं, लेकिन बुद्धि उनके पास नहीं है।

बुद्धि मन का स्पेशलाइज्ड रूप है। सिर्फ मनन नहीं, बल्कि तर्कयुक्त, तर्कसरणीबद्ध चिंतन का नाम बुद्धि है। और बुद्धि के भी पीछे जब कोई बहुत बुद्धि का उपयोग करता है, तभी भीतर एक और सूक्ष्मतम चीज का जन्म होता है, जिसका नाम अहंकार है, मैं।

ये आठ तत्वों से मैंने यह सारी प्रकृति रची है, कृष्ण कहते हैं।

यह किसलिए कहते हैं? यह वे इसलिए कहते हैं कि इन आठ तत्वों में तू प्रकृति को जानना। और जब इन आठ के पार चला जाए, तब तू मुझे जान पाएगा। इन आठ के भीतर तू जब तक रहे, तब तक तू जानना कि संसार में है; और जब इन आठ के पार हो जाए, तब तू जानना कि तू परमात्मा में है।

सर्वाधिक कठिनाई और आखिरी मुसीबत तो अहंकार के साथ होगी, क्योंकि बहुत ही बारीक है। हवा को तो मुट्ठी में हम बांध भी लें थोड़ा-बहुत, उसको मुट्ठी में बांधने का भी उपाय नहीं। हवा तो चलती है, तो उसका धक्का भी लगता है; अहंकार चलता है, तो उसका स्पर्श भी मालूम नहीं पड़ता।

इसीलिए तो दुरूह हो जाता है अहंकार से ऊपर उठना। क्योंकि इतना सूक्ष्म है कि आप कुछ भी करो, उसी में प्रवेश कर जाता है। आप त्याग करो, वह उसी के पीछे खड़ा हो जाता है। वह कहता है, मैंने त्याग किया! आप किसी के चरण छुओ, समर्पण करो। वह पीछे से कहता है कि देखो, मैं कितना विनम्र हूं! मैंने चरण छुए! आप प्रार्थना करो, परमात्मा के मंदिर में सिर पटको। वह कहता है कि देखो, मैं कितना धार्मिक हूं! मैंने प्रभु की प्रार्थना की। जब कि दूसरे अधार्मिक सड़कों से जा रहे हैं दूकानों की तरफ; मैं धार्मिक, प्रभु की प्रार्थना कर रहा हूं!

वह मैं आपकी प्रत्येक क्रिया के पीछे खड़ा हो जाता है। आप कुछ भी करो, वह सदा पीछे है। वह इतना बारीक है कि आप कहीं से द्वार-दरवाजे बंद नहीं कर सकते, जहां वह न आ जाए। जहां भी आप होंगे, वहां वह पहुंच जाएगा। जब तक आप होंगे, तब तक वह पहुंच जाएगा।

तो कृष्ण ने यह विभाजन जो करके कहा, वह इसीलिए कहा है कि मोटी से मोटी चीज है पृथ्वी, और सूक्ष्म से सूक्ष्म चीज है अहंकार। पदार्थ से तो मुक्त होना ही है, अंततः अस्मिता से भी मुक्त होना है। क्योंकि अहंकार भी पदार्थ का ही सूक्ष्मतम रूप है।

अगर ठीक से समझें, तो मैंने जैसा कहा कि अग्नि के ही रूप हैं सब बाह्य पदार्थ, वैसे ही अग्नि के ही रूप हैं भीतर के पदार्थ। जिसको हम मनन कहते हैं, वह भी अग्नि का ही एक रूप है। और जिसे हम बुद्धि कहते हैं, वह भी अग्नि का ही एक रूप है।

और इसीलिए मैं आपसे कहूं कि अगर पश्चिम में आज सफलता मिल गई है कंप्यूटर बनाने में, और जो बुद्धि से आप काम करते थे, वह पेट्रोल या बिजली से चलने वाली मशीन करने लगी है, तो बहुत चकित होने की जरूरत नहीं। क्योंकि आप भी जो काम कर रहे हैं, वह भी सिर्फ नेचरल कंप्यूटर का है। आपके भीतर भी जो चल रहा है काम, वह भी अग्नि से ही चल रहा है। ठीक वैसी ही मशीन बाहर भी अग्नि से काम कर सकती है। और काम करने लगी है। और आदमी से ज्यादा कुशल काम करती है। क्योंकि उस मशीन के पास कोई अहंकार नहीं है, जो बीच में बाधा डाले। कोई अहंकार नहीं है; वह बिलकुल कुशलता से काम करती रहती है। ठीक फ्यूल मिल जाए, ईंधन मिल जाए, मशीन काम करती रहती है।

आपकी बुद्धि का काम तो मशीन करने लगी है। आज नहीं कल, शायद हम किसी दिन ऐसी मशीन भी ईजाद करने में सफल हो जाएंगे...। अभी किसी वैज्ञानिक को सूझा नहीं है, और न उन लोगों को सूझा है, जो विज्ञान के संबंध में उपन्यास और कल्पनाएं लिखते हैं। लेकिन मैं कहता हूं, किसी दिन यह भी संभव हो जाएगा कि हम ऐसी मशीन बनाने में सफल हो जाएंगे, जिस मशीन को आप जरा पैर की चोट मार दे, तो वह कहेगी, देखते नहीं; मैं कौन हूं! तो मशीन कह सकती है। क्योंकि अहंकार भी बहुत सूक्ष्म अग्नि है।

अगर हमने विचार पैदा कर लिया मशीन से, अगर हमने विचार का काम ले लिया मशीन से, अगर हमने बुद्धि का काम ले लिया मशीन से, तो बहुत देर नहीं लगेगी कि उसमें हम अस्मिता को भी जन्म दे दें। और मशीनें भी अकड़कर बैठ जाएं! कुछ मशीनें राष्ट्रपति हो जाएं, कुछ मशीनें प्राइम मिनिस्टर हो जाएं। कुछ कठिनाई नहीं है। मशीनें दावे करने लगें। मशीनें कभी न कभी दावे करेंगी; क्योंकि हमारे भीतर भी मशीनें दावे कर रही हैं। हमारे भीतर भी दावे मशीनों के हैं। लेकिन वह है मशीन, है पदार्थ, है प्रकृति।



आदमी जो भी कर रहा है, उसमें और पशुओं में बड़ा भेद नहीं है। सिर्फ थोड़ी-सी सूक्ष्मता का भेद पड़ता है, और कुछ भेद नहीं पड़ता। पशु उसे ही जरा अनगढ़ ढंग से करते हैं; आदमी गढ़कर करता है।

सब पशु की प्रवृत्तियां आदमी में सूक्ष्म हो जाती हैं, बस। सूक्ष्म होने से और जटिल हो जाती हैं। सूक्ष्म होने से और कनिंग, और चालाक हो जाती हैं। पशु में एक सरलता भी दिखाई पड़ती है, आदमी में वह भी खो जाती है। क्योंकि वह जटिलता का बिंदु भीतर, अस्मिता, अहंकार पैदा हो जाता है; वह सारी चीजों को उलझा देता है।

और जिसको परमात्मा की यात्रा पर जाना हो, उसे पदार्थ के उस सूक्ष्मतम रूप, अग्नि के उस सूक्ष्मतम खेल, प्रकृति के उस सूक्ष्मतम रहस्य के ऊपर जाना पड़ेगा।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह विभाजन है। यह मैंने रची प्रकृति। इस तरह आठ हिस्सों में मैंने इस प्रकृति को रचा है।

जोर यह है कि तू समझ ले कि यह प्रकृति है; यह तू नहीं है। और जोर यह है कि तू समझ ले कि यह प्रकृति है; यह परमात्मा नहीं है। जो भी रचा जाता है, वह प्रकृति है; और जो भी रचा नहीं जाता है, वही परमात्मा है। जो भी बनता है, वह प्रकृति है; और जो कभी नहीं बनाया जाता, वही परमात्मा है। जो निर्मित होता है, वह प्रकृति है; और जो सदा अनिर्मित है और है--अनक्रिएटेड, अस्रष्ट--वही परमात्मा है।

अहंकार भी निर्मित होता है। बच्चों में अहंकार नहीं होता; धीरे-धीरे निर्मित होता है। बुद्धि भी निर्मित होती है। बच्चों में बुद्धि नहीं होती। और आप ऐसा सोचते हों कि आप बुद्धि लेकर पैदा हुए हैं, तो आप बड़ी गलती में हैं। सिर्फ आप संभावना लेकर पैदा होते हैं, बाद में सब निर्मित होता है। अगर आपको जंगल में भेड़ियों के पास रख दिया जाए और बड़ा किया जाए, तो आपके पास कोई बुद्धि नहीं होगी। हां, भेड़ियों के पास जितनी बुद्धि होती है, उतनी बुद्धि आपके पास होगी। उससे ज्यादा नहीं। अगर आप सोचते हैं कि आपको एकांत में रखा जाए...।


इसके पार है वह, जो अस्रष्ट, अनक्रिएटेड है। इन सबके पार जाए कोई, तो उसका दर्शन है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...