सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 10

 

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्।

मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्।। 13।।


गुणों के कार्यरूप सात्विक, राजस और तामस, इन तीनों प्रकार के भावों से यह सब संसार मोहित हो रहा है, इसलिए इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को तत्व से नहीं जानता।


प्रकृति के मोह में सारे ही लोग हैं। अलग-अलग कारण होंगे मोह के, अलग-अलग बहाने होंगे। बस, बहाने ही अलग-अलग होते हैं, मोह का परिणाम एक ही होता है।

बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है! सत्व, रज, तम, तीनों से ही जो मोहित हैं, वे मेरे तत्व को न जान पाएंगे, क्योंकि मैं बियांड हूं, मैं पार हूं तीनों के।

इसको समझना पड़ेगा। क्योंकि हमें लगता है, चोर नहीं जान पाएगा, बेईमान नहीं जान पाएगा; लेकिन हमें लगता है, सज्जन तो जान लेगा! सज्जन तो सत्व से मोहित है। हम कहते हैं, वह आदमी नहीं जान पाएगा, जो सिर्फ धन कमा रहा है। वह आदमी तो जान लेगा, जो जाकर मरीजों की सेवा कर रहा है! हम कहते हैं, वह आदमी भला न जान पाए, जो आदमी सिर्फ राजनीति की सीढ़ियां चढ़ रहा है। लेकिन वह आदमी तो जान लेगा, जो दीन-दुखियों के पैर दाब रहा है।

कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, तीनों ही! वह जो बुरा दिखाई पड़ता है, वह तो मोहित है ही। वह जो भला दिखाई पड़ता है, वह भी मेरी ही प्रकृति के सत्व गुण से हिप्नोटाइज्ड है, वह भी मोहित है। यह बड़े मजे का है, और कठिन है थोड़ा; और थोड़ा जटिल है जानना ।

समझिए कि आप अपनी दुकान पर बैठे हैं, और आज अगर ग्राहक न आए, तो आप दुखी होते हैं। लेकिन आपको पता है कि किसी सेवक को अगर कोई सेवा करवाने वाला न मिले, तो आपसे कम दुख नहीं होता। इतना ही दुख हो जाता है। फर्क क्या हुआ? माना कि वह काम अच्छा कर रहा था, लेकिन परिणाम तो एक ही है।

अगर समाज इतना सुखद हो जाए, इतना मंगल को उपलब्ध हो जाए कि किसी व्यक्ति को समाज में समाज-सुधार के काम करने का मौका न मिले, तो आप जानते हैं, समाज-सुधारकों की कैसी हालत हो जाए! बड़ी मुश्किल में पड़ जाएं, बड़ी बेचैनी में। वह बेचैनी ठीक वैसी ही होगी, जैसे अचानक धंधा डूब जाए; ग्राहक न आएं; फैशन बदल जाए; आपकी दुकान की चीजें बिकनी बंद हो जाएं। वह पीड़ा उतनी ही होगी।

सत्व भी, अच्छा काम भी बिना परमात्मा को समर्पित हुए सिर्फ एक मोह है, और उससे भी अहंकार ही निर्मित होता है। इसलिए जिनको हम सात्विक लोग कहते हैं, वे भी अपने ढंग से अपनी अस्मिता को मजबूत करने में लगे रहते हैं।

परमात्मा के अतिरिक्त--वह जो पार है, वह जो परा है प्रकृति के ऊपर, उसके अतिरिक्त--सभी सम्मोहन है। सभी मोह के आधार बन जाते हैं; सभी मन को पकड़ लेते हैं, और सभी मन को मूर्च्छित कर देते हैं।

कृष्ण को यह कहने की जरूरत क्या है अर्जुन से? अर्जुन सत्व से मोहित हो रहा है, इसलिए कहने की जरूरत है।



लेकिन कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, तीनों! चाहे कोई ऐसा कृत्य, जो बुरा हो; और चाहे कोई ऐसा कृत्य, जो भला हो; और भले और बुरे की तरफ दौड़ने की जो प्रवृत्ति है, वे तीनों ही प्रकृति हैं। और अर्जुन, तू ठीक से समझ ले कि जब तक इन तीन से कोई मोहित हुआ जी रहा है, तब तक वह मुझ पार को, वह जो अतीत है, वह जो अतिक्रमण कर जाता है, उसको उपलब्ध नहीं हो सकेगा।

इसका अर्थ? इसकी निष्पत्ति?

इसकी निष्पत्ति यह हुई कि परमात्मा को पाने के लिए बुरे के तो ऊपर उठना ही पड़ता है, भले के भी ऊपर उठ जाना पड़ता है। परमात्मा को पाने के लिए असदवृत्तियों को तो छोड़ ही देना पड़ता है, सदवृत्तियों को भी छोड़ देना पड़ता है। असल में उस परम स्वतंत्रता के लिए लोहे की जंजीरें तो तोड़नी ही पड़ती हैं, सोने की जंजीरें भी तोड़ देनी पड़ती हैं।

और ध्यान रहे, लोहे की जंजीरों से अक्सर ही सोने की जंजीरें ज्यादा जंजीरें सिद्ध होती हैं। क्योंकि लोहे की जंजीर को तो तोड़ने का मन भी होता है; सोने की जंजीर को बचाने का भी मन होता है। सोने की जंजीर आभूषण मालूम पड़ने लगती है। इसलिए बुराई से तो कोई आदमी उठने की तैयारी दिखलाता है, लेकिन भलाई से तो उठने की तैयारी भी नहीं दिखलाता।

तो कृष्ण कहते हैं, तू सत्व की बातों में मत पड़ अर्जुन। तू यह साधुता की बातें मत कर। क्योंकि मुझे पाए बिना कोई भी साधु नहीं है। उसके पहले सिर्फ धोखा है मन का। कुछ लोग बुरे ढंग से अपने को धोखा देते हैं, कुछ लोग भले ढंग से अपने को धोखा देते हैं। कुछ लोग दूसरों को नुकसान करके अपने को धोखा देते हैं, कुछ लोग दूसरों को लाभ पहुंचाकर अपने को धोखा देते हैं। लेकिन धोखा तब तक जारी रहता है, जब तक कोई प्रकृति के गुणों के ऊपर न उठ जाए।

नहीं; चित्त ऐसी अवस्था में चाहिए जहां न बुरा खींचता हो, न भला खींचता हो। न आकर्षित करती हों बीमारियां--क्रोध, काम, लोभ; न आकर्षित करते हों तथाकथित फूल--सेवा, सदभाव, मंगल, कल्याण। नहीं; कोई भी आकर्षित न करता हो।

और जब दोनों में से कोई भी आकर्षित नहीं करता, तो चित्त ठहर जाता है। नहीं तो दौड़ता रहता है। कभी बुरे के लिए, कभी भले के लिए; कभी साधु होने के लिए, कभी असाधु होने के लिए; दौड़ जारी रहती है। चित्त तो रुकता ही तब है, जब दोनों से मुक्त हो जाता है। और जब चित्त दोनों से मुक्त होता है, तब एक नए आयाम में यात्रा शुरू होती है, अंतर्यात्रा या ऊर्ध्वयात्रा शुरू होती है। तब व्यक्ति प्रकृति के ऊपर उठकर परमात्मा को अनुभव कर पाता है।

इसलिए हमने इस देश में साधु को वह मूल्य नहीं दिया, जो संत को दिया। साधु और असाधु ठीक है; एक ही दुनिया के रहने वाले लोग हैं। एक के हाथ में लोहे की जंजीरें हैं। एक के हाथ में सोने की जंजीरें हैं। एक बुरे कामों में उलझा है, लेकिन व्यस्त है उसी तरह, जैसा दूसरा भले कामों में उलझा है और व्यस्त है, आक्युपाइड है। लेकिन दोनों की नजरें जमीन पर लगी हैं। दोनों में से कोई आकाश की तरफ नहीं देख रहा है।

हमने उसे संत कहा है, जो न भले में उलझा है, न बुरे में। जो उलझा ही नहीं है; जिसने जमीन से नजर ऊपर उठा ली; जिसने आकाश को देखा है; जिसने परमात्मा को पहचाना है।

इसका यह मतलब नहीं है कि परमात्मा को पहचानने के बाद वह साधु नहीं होगा। वह साधु होगा। वही साधु होगा। लेकिन बुनियादी अंतर पड़ जाएंगे।

जिसने परमात्मा को नहीं पहचाना, उसकी साधुता असाधुता के खिलाफ एक संघर्ष होती है, एक सतत संघर्ष। असाधु भीतर मौजूद रहता है। वह तमस भीतर मौजूद रहता है। सत्व की लड़ाई चलती रहती है।

साधु का मतलब है, जिसने क्रोध को भीतर दबाया है; अक्रोधी हुआ। जिसने चोरी को भीतर दबाया; अचोर हुआ। जिसने परिग्रह को दबाकर छोड़ा; अपरिग्रही हुआ। जिसने अहंकार को दबाया, और विनम्र हुआ। लेकिन वे सब भीतर बीमारियां कतारबद्ध मौजूद हैं, और प्रतीक्षा कर रही हैं कि कब आप विश्राम करिएगा! कब! कब थोड़ा-सा अवकाश लेंगे अपने संघर्ष से!

इसलिए साधु रात सोने तक में डरते हैं, क्योंकि सोने में विश्राम हो जाता है। और जिस-जिस को दिन में दबाया है, वह सब सपना बनकर छाती पर घूमने लगता है। इसलिए साधु जरा भी विश्राम लेने में डरते हैं कि कहीं भी जरा विश्राम लिया और वह संघर्ष अगर थोड़ा भी शिथिल हुआ, तो मालूम है उन्हें भलीभांति कि दुश्मन मौजूद है।

सब साधु अपने भीतर असाधु को दबाए हुए हैं। और जब तक असाधु मौजूद है, साधु सिर्फ सतह है। भीतर तो सब उबल रहा है लावे की तरह। ज्वालामुखी की तरह भीतर आग लगी है। अभी धुआं दिखाई नहीं पड़ रहा; अभी ज्वालामुखी फूटा नहीं; लेकिन इससे ज्वालामुखी नहीं है, ऐसा कहने की कोई जरूरत नहीं। ज्वालामुखी भीतर तैयारी कर रहा है।

संत हम उसे कहते हैं, जो असाधुता से लड़कर साधु नहीं है। संत हम उसे कहते हैं, जिसने परमात्मा को देखा, और परमात्मा को देखने से साधु हो गया। कोई संघर्ष नहीं है। किसी को दबाया नहीं, किसी से लड़ा नहीं। इसलिए संत विश्राम से नहीं डरेगा। डरने का कोई सवाल ही नहीं है। उसे विपरीत की संभावना ही नहीं है। उसके भीतर से, परमात्मा को देखने से, असाधुता गिर गई।

संत वह है, जिसकी असाधुता गिर गई; और साधुता पनपी, प्रकट हुई। और साधु वह है, जिसने असाधुता को दबाया, और साधुता को कल्टिवेट किया, साधुता का अभ्यास किया; साधुता को थोपा, आरोपित किया। साधु की तरह अपने को नियोजित किया, संयमित किया; अपने को बनाया, तैयार किया। साधु की तरह जिसने अपने ऊपर मेहनत की। इसमें आदमी की मेहनत है। आदमी की मेहनत ज्यादा दूरगामी नहीं हो सकती। आदमी हमेशा प्रकृति से हार जाएगा। आदमी प्रकृति से बहुत कम है।

मैंने आपसे कहा, अब मैं एक और छोटा वर्तुल आपसे बनाने को कहता हूं। मैंने कहा, एक बड़ा वर्तुल खींचें, वह परमात्मा है। उसमें एक छोटा वर्तुल खींचें, वह प्रकृति है। उसमें और एक छोटा-सा वर्तुल खींचें, वह आदमी है।

मैंने आपसे कहा कि प्रकृति परमात्मा में है, लेकिन परमात्मा प्रकृति में नहीं है। अब मैं आपसे दूसरी बात कहता हूं। आदमी प्रकृति में है, लेकिन प्रकृति आदमी में नहीं है। वह आदमी और छोटा वर्तुल है।

तो आदमी प्रकृति के खिलाफ लड़ेगा अगर, तो हारेगा। प्रकृति से लड़ नहीं सकता; वह बड़ी है, उससे विराट है। प्रकृति आदमी में है, छिपी पूरी भीतर, गहरे में। आदमी उसका छोटा-सा हिस्सा दबाए हुए है। इसलिए आप रोज प्रकृति से हारते हैं, लेकिन आपको खयाल नहीं आता कि आप अपने से बड़ी शक्ति से लड़ रहे हैं; हारेंगे ही।

जब आप क्रोध से हारते हैं, तो आपको पता है, आप किससे लड़ रहे हैं? आप सोचते हैं कि क्रोध छोटी-मोटी चीज है। क्रोध छोटी-मोटी चीज नहीं है; प्रकृति का हिस्सा है। उसकी जड़ें गहरी हैं; आपके खून से ज्यादा गहरी; आपकी हड्डियों से ज्यादा गहरी; आपकी बुद्धि से ज्यादा गहरी। इसलिए आप हजार दफे तय कर लेते हैं बुद्धि से कि अब क्रोध नहीं करूंगा, और जब क्रोध आता है, तो पता नहीं बुद्धि कहां फिंक जाती है, और क्रोध आ जाता है। क्रोध गहरा है। आप ऊपर-ऊपर निर्णय करते रहते हैं, भीतर प्रकृति आपकी फिक्र नहीं करती।

अगर प्रकृति से आपने अपने ही भरोसे जीतने की कोशिश की, तो आप रोज हारेंगे। कभी-कभी साधु मालूम पड़ेंगे, फिर असाधुता प्रकट हो जाएगी। फिर साधु बनेंगे, फिर असाधुता प्रकट हो जाएगी। प्रकृति आपको हराती ही रहेगी।

अगर प्रकृति को हराना है, तो आदमी के भरोसे नहीं, बड़े वर्तुल, परमात्मा के भरोसे हराया जा सकता है। आदमी के भरोसे नहीं। तब सहारा उसका लें; उस बड़े वर्तुल के साथ सहारा लें। उसके साथ तत्काल जीत हो जाती है। उसके साथ प्रकृति उसी तरह हार जाती है, जैसे आपके साथ प्रकृति से आप हार जाते हैं।

प्रकृति से आप लड़ेंगे, तो आप हारेंगे। अगर परमात्मा को लड़ाएंगे, तो प्रकृति हारी ही हुई है; कोई सवाल नहीं है। कोई सवाल नहीं है, क्योंकि परमात्मा और भी प्रकृति के गहरे में है।

आप, जैसा मैंने कहा, सागर, सागर पर उठी लहरें, लहरों पर तैरता हुआ एक तिनका, ऐसा समझ लें। सागर परमात्मा, लहरें प्रकृति, और आप एक छोटे-से तिनके हैं लहरों के ऊपर। आप लहरों से भी नहीं लड़ सकते हैं। लहर से भी हार जाएंगे। आप कितना ही निर्णय करें कि हम तो लहर के ऊपर रहेंगे; लहर की मर्जी कि कब नीचे गिरा दे। लेकिन सागर का सहारा ले लें, तो फिर लहर कुछ भी नहीं है। क्योंकि सागर के सामने लहर की क्या औकात! क्या वश!

परमात्मा में निष्ठा का अर्थ, या परमात्मा के प्रति परायण होने का अर्थ, या परमात्मा में समर्पित होने का इतना ही अर्थ है कि प्रकृति से मनुष्य की सीधी लड़ाई असंभव है। हम परमात्मा में समर्पित होते हैं, समर्पित होते ही लड़ाई समाप्त हो जाती है। परमात्मा को देखते ही प्रकृति शांत हो जाती है--देखते ही।

यह करीब-करीब ऐसा ही घटित होता है, जैसे कि स्कूल के क्लास के बच्चे खेल रहे हैं, शोरगुल कर रहे हैं, और शिक्षक भीतर आया, और सब शांति हो गई। बच्चे अपनी जगह बैठ गए हैं; उन्होंने किताबें खोल लीं; अपना काम करने लगे। अभी शोरगुल था, अब सब शांत हो गया।

ठीक ऐसे ही परमात्मा की तरफ आंख उठते ही प्रकृति एकदम शांत हो जाती है। मालिक आ गया। प्रकृति का कोई उपाय नहीं रह जाता। लेकिन आप! आप तो प्रकृति के एक छोटे-से टुकड़े हैं, तिनके, और प्रकृति से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं।

सात्विक होने की चेष्टा बिना धार्मिक हुए, बिना परमात्मा में समर्पित हुए, प्रकृति से लड़ने की चेष्टा है। इन तीनों के पार है प्रभु। जब आपके चित्त में तीन चीजें न हों, तब आपका चित्त परमात्मा की तरफ उठेगा; सत्व न हो, तम न हो, रजस न हो। इनको थोड़ा-सा समझ लें कि कैसी स्थिति होगी, जब ये तीनों न होंगे।

बुरा करने की भावना न हो, भला करने की भावना न हो, जब ये दोनों भावनाएं नहीं होतीं, तो वह जो करने वाली ऊर्जा है, वह जो रजस है, वह जो शक्ति है...। ये दो काम करने के केंद्र बिंदु हैं। वह जो शक्ति है, जो करती है, जब ये दोनों नहीं रहते--बुरा करने का भाव नहीं, भला करने का भाव नहीं--तब वह जो शक्ति है, वह कहां जाए? और शक्ति तो कहीं जाएगी ही। अगर आप मार्ग न देंगे, तो भी जाएगी। अब न बुरे की तरफ जा सकती है, न भले की तरफ जा सकती है, तो अब कहां जाए?

जब दोनों दिशाएं बंद हो जाती हैं, तो शक्ति ऊपर की तरफ, तीसरे, थर्ड डायमेंशन में, तीसरी यात्रा पर उठने लगती है। और वह तीसरी यात्रा पर परमात्मा है, जहां न शुभ है, न अशुभ है। जहां दोनों नहीं, जहां द्वंद्व नहीं; जहां अद्वय है, जहां अद्वंद्व है, जहां अद्वैत है। उसकी एक झलक, और सारी प्रकृति शांत हो जाती है।

फिर कृष्ण कहते हैं कि तू उस झलक को पा ले और फिर तू बात करना साधुता की। करने की जरूरत न रहेगी; तू साधु हो जाएगा। तू साधु हो ही जाएगा। उसकी नजर पड़ी, कि तू बदला; तेरी नजर उस पर पड़ी, कि तू बदला। एक दफा उस दर्शन को...।

यह दर्शन शब्द बड़ा अदभुत है। इसका अर्थ है, एक दफा उसका दीदार, उसका दर्शन, एक दफे वह दिख जाए, बस। और उसे देखने के लिए इन तीन के ऊपर जाना जरूरी है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, मैं इन तीनों के पार हूं। इन तीनों तक प्रकृति है, ऐसा तू जानना। और जब इन तीनों के पार उठे, तब तू मुझे देख, और जान पाएगा।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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