बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 8 भाग 6

वासना, समय और दुःख


मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।

नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।। 15।।

आब्रह्मभुवनालोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।। 16।।

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।

रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।। 17।।


और वे परम सिद्धि को प्राप्त हुए महात्माजन मेरे को प्राप्त होकर, दुख के स्थान आलयरूप क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं।

क्योंकि हे अर्जुन, ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक पुनरावर्ती स्वभाव वाले हैं, परंतु हे कुंतीपुत्र, मेरे को प्राप्त होकर उसका पुनर्जन्म नहीं होता है।

और हे अर्जुन, ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको हजार युग तक अवधि वाला और रात्रि को भी हजार युग तक अवधि वाली, ऐसा जो पुरुष तत्व से जानते हैं, वे योगीजन काल के तत्व को जानने वाले हैं।


पूरब की मनीषा ने दुख का कारण, पश्चिम की मनीषा से बिलकुल ही भिन्न जाना है। शायद धर्म और विज्ञान का वही भेद है। या ऊपर से जीवन की जो खोज करते हैं और भीतर जीवन के गहन तत्व में जो प्रवेश करते हैं, उनकी दृष्टि का वह अंतर है।

पश्चिम सदा से सोचता रहा है कि दुख का कारण परिस्थिति में है, स्थिति में है। और यदि हम परिस्थिति को बदल लें, तो दुख विनष्ट हो जाएगा। यदि बाहर की सारी स्थिति ऐसी बनाई जा सके, जहां दुख पैदा न हों, तो फिर दुख पैदा नहीं होगा। बाह्य को हम बदल लें, तो दुख की समाप्ति है। दुख है, तो इसलिए कि बाहर की परिस्थिति भीतर की चेतना के अनुकूल नहीं है।

इसलिए पश्चिम दो हजार वर्षों तक निरंतर विज्ञान की सतत साधना से बाहर की स्थिति को बदलने में लगा रहा है। और अब पहला मौका है, जब पश्चिम कुछ सीमा तक सफल हुआ। और सफल होते ही उसकी सारी आशाओं का महल गिरकर ढेर हो गया है। सफलता इतनी असफल हो सकती है, यह कभी पश्चिम के चिंतकों ने सोचा भी नहीं था। सोचा भी नहीं था कि जिस दिन हम परिस्थिति से सारे दुख को अलग कर लेंगे, उस दिन और भी बड़ा दुख आदमी के ऊपर टूट पड़ने वाला है।

पृथ्वी पर ज्ञात पांच हजार वर्षों के इतिहास में पश्चिम ने सर्वाधिक समृद्धि, यंत्र-कौशल, वैज्ञानिक प्रगति और बाहर की स्थिति को मनुष्य के अनुकूल रूपांतरित करने में जैसी सफलता पाई है, वैसी किसी सदी ने और किसी समाज ने कभी नहीं पाई थी। लेकिन आज उस सफलता के शिखर पर बैठा हुआ अमेरिका दुख के महागर्त में गिर गया है। ऐसे दुख के गर्त में गरीब, दीन-हीन, पीड़ित और भिखारी समाजों को भी गिरते कभी नहीं देखा गया। पश्चिम का तर्क बुरी तरह असफल हुआ है।

पूरब और तरह से सोचता है। पूरब ने जाना है कि परिस्थिति में दुख नहीं, मनुष्य की चेतना में ही दुख है। मनुष्य की चेतना ही बदल जाए, तो ही दुख से छुटकारा हो सकता है। अन्यथा मनुष्य की चेतना को कैसी भी परिस्थिति मिले, दुख को पकड़ लेने वाली, दुख को पैदा कर लेने वाली चेतना, पुनः पुनः दुख पैदा कर लेती है, हर स्थिति में दुख पैदा कर लेती है। दुखवादी हर जगह दुख को खोज लेता है।

यह मनुष्य की चेतना का रूपांतरण ही दुख से मुक्ति बन सकता है। कृष्ण अर्जुन से इसका पहला सूत्र कहते हैं। वे कहते हैं, परम सिद्धि को जो प्राप्त हुए महात्माजन हैं, वे मुझे पाकर, दुख के स्थान, आलयरूप, क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं। दुख के आलयरूप, दुख का जहां घर है, ऐसे क्षणभंगुर जीवन को वे उपलब्ध नहीं होते हैं।

इसे समझना पड़े। यह पूरब का गहनतम तर्क है, अंतर्दृष्टि है। दुख का घर पुनर्जन्म है। पुनर्जन्म का प्रारंभ जीवन की आकांक्षा है, जीते रहने की आकांक्षा, लस्ट फार लाइफ, जीवेषणा, और जीता ही रहूं, और जीता ही चला जाऊं। एक वासना पूरी नहीं होती कि दस वासनाओं को जन्म दे जाती है। और किसी भी वासना को पूरा करना हो, तो जीवन चाहिए, समय चाहिए, हैअन्यथा वासना पूरी नहीं होगी।

वासना के लिए भविष्य चाहिए। अगर भविष्य न हो, तो वासना क्या करेगी? अगर मैं इसी क्षण मर जाने वाला हूं, तो वासना करना व्यर्थ हो जाएगा। क्योंकि वासना के लिए जरूरी है कि कल हो, आने वाला दिन हो। आने वाला दिन हो, तो ही मैं वासना को फैलाऊं, श्रम करूं, भवन बनाऊं, पूर्ति की आकांक्षा करूं, दौडूं। वासना पूरी हो सके, उस मंजिल तक जाने का यत्न करूं। लेकिन समय की जरूरत है; टाइम इज़ नीडेड।

अगर वासना पूरी करनी है, तो समय के बिना पूरी नहीं हो सकती। समय चाहिए। और अगर हर वासना दस वासनाओं को जन्म दे जाती हो, तो हर वासना के बाद दस गुना समय चाहिए। हर जीवन के बाद हमें दस और जीवन चाहिए, इतनी वासनाएं हम पैदा कर लेते हैं।

और मजा यह है कि पूरे जीवन हम वासनाओं को पूरा करने की कोशिश करते हैं और आखिर में पाते हैं, कोई वासना पूरी नहीं हुई, मरते क्षण हम और भी वासनाओं को जिंदा कर लिए हैं। जन्म के समय जितनी वासनाएं हमारे पास होती हैं, मृत्यु के समय तक उनमें से एक भी कम नहीं होती, यद्यपि बहुत बढ़ जाती हैं। तब मरते क्षण और जन्म की आकांक्षा पैदा होती है। क्योंकि वासना है, तो और जीवन चाहिए। और जीवन पुनर्जन्म बन जाता है; और जीवन को पाने की इच्छा पुनर्जन्म बन जाती है।

और कृष्ण कहते हैं, पुनर्जन्म ही दुख का घर है।

पुनर्जन्म होता है जीवन की आकांक्षा से; जीवन की आकांक्षा होती है, वासना को तृप्त करने के लिए समय की मांग से। तो अगर ठीक से समझें, तो पुनर्जन्म का सूत्र या दुख का सूत्र, वासना है, तृष्णा है, डिजायर है। अगर कोई भी वासना नहीं है, तो आप कहेंगे कि कल की अब मुझे कोई जरूरत न रही।

शायद ही सुनने वाले की समझ में आया हो! आपने भी अगर पूछा हो कि मोक्ष में क्या होगा, और अगर जीसस या कृष्ण जैसा व्यक्ति कहे, वहां समय नहीं होगा, तो आपकी भी समझ में नहीं पड़ेगा।

समय नहीं होगा, इसका अर्थ यही है कि वहां कोई वासना नहीं है, जिसके लिए समय की जरूरत पड़े। वासना नहीं होगी, समय नहीं होगा, तो वहां पुनर्जन्म नहीं होगा। वहां कल होगा ही नहीं। वहां सिर्फ आज ही होगा। शायद आज कहना भी ठीक नहीं है; अभी ही होगा; जस्ट दिस मोमेंट, बस यही क्षण होगा। और यह क्षण अनंत होगा। इस क्षण का कोई ओर-छोर नहीं होगा। यह क्षण कहीं समाप्त नहीं होगा, और कहीं प्रारंभ नहीं होगा। समय वहां नहीं होगा।

समय की जरूरत इसलिए है कि वासना की दौड़ के लिए स्थान चाहिए। वासना दौड़ती है समय में। वासना स्थान में नहीं दौड़ती, स्पेस में नहीं दौड़ती, टाइम में दौड़ती है। अगर आपके शरीर को दौड़ाना है, तो स्थान की जरूरत पड़ेगी, स्पेस की। लेकिन अगर आपके मन को दौड़ाना है, तो स्थान की कोई भी जरूरत नहीं; समय काफी है। इसलिए आप सपने में भी दौड़ सकते हैं। सपने में कोई स्पेस नहीं होती, लेकिन टाइम होता है, समय होता है। सपने में भी दौड़ सकते हैं। आरामकुर्सी पर लेटकर आंख बंद करके भी अनंत-अनंत यात्राएं कर सकते हैं। वे यात्राएं वासना की यात्राएं हैं और समय में घटित होती हैं।


इसलिए समाधि की परिभाषा जगत में कहीं भी की गई हो, तो एक बात उस परिभाषा में अनिवार्य रूप से है। किसी देश में, किसी काल में, किसी महाजन ने परिभाषा की हो, परिभाषा में और बातें अलग हों, लेकिन एक बात हमेशा अनिवार्यरूप से समान है और वह यह है कि समाधि समयातीत है, कालातीत है।

पुनर्जन्म हमारी मांग है। हम कहते हैं, और जीवन चाहिए; क्योंकि बहुत कुछ अधूरा रह गया है, अनफुलफिल्ड, उसे पूरा करना है। जो मकान बनाना चाहा था, उसकी मंजिलें पूरी नहीं हो पाईं। और जो नाव चलाई थी किसी गंतव्य के लिए, उसने अभी किनारा ही छोड़ा है, दूसरा किनारा नहीं मिला। जो-जो सोचा था, कर लेंगे, वह सब अधूरा है, इनकंप्लीट है।

इस संबंध में एक बात आपको खयाल दिलाऊं, तो आसानी होगी समझ लेना कि यह वासना समय की मांग कैसे बनती है, और समय की मांग पुनर्जन्म कैसे बन जाता है, और पुनर्जन्म दुख का घर क्यों है!

दिनभर आप बहुत कुछ करते हैं; सांझ होते-होते सब कुछ अधूरा ही होता है; कभी पूरा नहीं होता। अगर कोई आपसे इसी समय पूछे कि मरने को तैयार हो? कोई काम करने की जरूरत तो नहीं है? तो आप कहेंगे, थोड़ा रुको। बहुत से काम अधूरे हैं, जरा पूरे कर लूं। शायद ही वह आदमी मिले, जो कहे कि सब पूरा है, मैं मरने को तैयार हूं। सब काम पूरा है, मैं मरने को तैयार हूं।

सवालों का अंत नहीं है। कामों का अंत नहीं है। समय चुक जाता है, वासना तो नहीं चुकती। समय तो चुक ही जाता है, कामना नहीं चुकती है। समय छोटा पड़ जाता है, कामना अनंत है।

काम बाकी रह जाते हैं, कुछ न कुछ बाकी रह जाता है। और मन कहता है, बस इसे पूरा कर लो। लेकिन उसे पूरा करने में हम दस नई और वासनाएं पैदा कर लेते हैं। वे अधूरी रह जाती हैं। इस अधूरेपन की कोई सीमा नहीं आती। तो फिर अगले जन्म की मांग जरूरी हो जाती है।

मरते क्षण में भी जो अधूरा रह जाता है, उसी के कारण हमें दूसरे जन्म को स्वीकार करना पड़ता है। मरते क्षण में जो पूरा करके मर सकता है, उसका अगला जन्म नहीं होगा। क्योंकि उसे मांग ही नहीं रह जाएगी। जन्म का करिएगा क्या? उसका कोई उपयोग नहीं है। समय की मांग बंद हो जाए, तो अगला जन्म नहीं होता। लेकिन समय की मांग तो बनी रहती है।

समय तो निश्चित कम है, क्योंकि वासनाएं बहुत हैं। और सब चीजें तुलनात्मक होती हैं। जब हम कहते हैं कि समय कम है, तो उसका मतलब है किससे? वासनाओं से। जिसकी वासनाएं नहीं हैं, उसके पास तो समय बहुत है, उसका कोई अंत नहीं। और जिसके पास वासनाएं बहुत हैं, समय बहुत छोटा है। फिर भी वासनाओं वाला आदमी भी कहता है, समय काटे नहीं कटता, क्योंकि वासनाओं को पूरा करते-करते भी वह पाता है कि वासनाएं पूरी नहीं होतीं। वासनाएं पूरी नहीं होतीं। सब तरह कोशिश कर लेता है और कोई वासना पूरी होती नहीं दिखाई पड़ती। तब वह समय को भुलाने की कोशिश करता है। उसी को वह समय नहीं कटता कहता है। इतने मनोरंजन के साधन खोजने पड़ते हैं समय को भुलाने के लिए।

और अनंत है परमात्मा का विस्तार। हम जितना मांगते हैं, हमें मिलता चला जाता है। और हर जीवन में हम वही पुनरुक्त करते हैं, जो हमने पीछे किया था।

कृष्ण इसे दुख क्यों कहते हैं? दुख यही है कि जो हम पाना चाहते हैं, वह मिलता नहीं और मेहनत बहुत होती है। दुख नहीं होगा, तो क्या होगा! दुख का एक ही अर्थ है, जो मैं पाना चाहता था, वह नहीं मिला; और जो मैं नहीं पाना चाहता था, वह मिल गया है। दुख का और कोई अर्थ नहीं है।

दुख बहुत आयामी है।

एक आयाम तो यह है, जो मैंने कहा। दूसरा आयाम यह है, सब करते, सब पाते, चलते-दौड़ते वासनाओं के पीछे, हारते-जीतते, भीतर कहीं भी ऐसा नहीं लगता, कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि शांति का एक क्षण, विश्राम का एक पल, आनंद की एक छोटी-सी किरण भी कहीं अंकुरित होती हो भीतर। कहीं ऐसा नहीं लगता।

सदा ऐसा लगता है कि कल मिलेगा आनंद। आज तो दुख है, कल मिलेगा आनंद। यह कल बहुत खतरनाक है, यह सिर्फ आज को भुलाने का उपाय है। आज इतना दुख से भरा है कि कल की आशा में ही हम उसे भुला सकते हैं। और मजा यह है कि कल, बीते कल में भी हमने ऐसा ही किया था। और जिसे हम आज कह रहे हैं, वह बीते कल में कल था। और कल भी हमने यही कहा था कि आने वाले कल में आनंद मिलेगा, और आज भी वही कह रहे हैं, और आने वाले कल में भी हम वही कहेंगे। और हर जन्म में हमने यही कहा, अगले जन्म में, अगले जन्म में, आगे।

जो भी व्यक्ति आज को पोस्टपोन कर रहा है कल के लिए, वह अगले जन्म की तैयारी कर रहा है। अगर आप कहते हैं, कल करूंगा, तो आपको पुनर्जन्म लेना ही पड़ेगा। और अगर एक जन्म में नहीं कर पाए, तो आने वाले जन्म में भी क्या करिएगा? उसी को फिर पुनरुक्त करिएगा--वही बचपन, वही जवानी, वही बुढ़ापा, वे ही बीमारियां, वे ही रोग--वही सब होगा।

ऐसा ही है मन। मरते क्षण में भी आप उन पापों के लिए पछताते रहेंगे, जो आप नहीं कर पाए। फिर पुनर्जन्म की यात्रा शुरू होगी। क्योंकि आप ही मांग रहे हैं। और ध्यान रहे, परमात्मा वही दे देता है, जो आप मांगते हैं।

सदा ही हम वही नहीं मांगते, जो हमारे हित में है। अक्सर तो हम वही मांगते हैं, जो हमारे हित में नहीं है। क्योंकि हम जो भी सोचते-विचारते हैं, वह आत्मघाती है, सुसाइडल है।

मरते वक्त शायद ही कोई मांगता हो कि अब मुझे और कुछ नहीं मांगना है। मांग जारी रहती है। आखिरी क्षण, डूबते हुए मौत में भी मांग जारी रहती है। वही मांग बीज बन जाती है। दैट डिजायर बिकम्स दि सीड। वही बीज बन जाती है और फिर नए जीवन का अंकुर फूटना शुरू हो जाता है।

इस बीज से दुख क्यों मिलता है? और यह नया जन्म क्यों दुख ले आता है? क्षणभंगुर होने के कारण।

कृष्ण कहते हैं, क्षणभंगुर पुनर्जन्म को...।

इस जगत में जो भी हम पा सकते हैं, वह क्षणभंगुर है, क्षणभर हाथ में होगा। पानी में जैसे बबूला उठ आए हवा का, बस, वैसा होगा। जब देखेंगे उसे, तो सूरज की किरणें उस पर इंद्रधनुष फैला रही होंगी। और जब हाथ से छुएंगे, तो वह फूट जाएगा। सोचा होगा, इंद्रधनुष को पकड़ लें हाथ में। नहीं मन में आता कि इंद्रधनुष को ले आएं और घर के बैठकखाने में लगा दें?

लेकिन जब इंद्रधनुष के पास पहुंचेंगे, तो वहां कुछ भी न मिलेगा। वहां कुछ है ही नहीं। वह जो इतना सुंदर धनुष खिंचा हुआ दिखता है आकाश के ओर-छोर, अगर जाएं उसके पास, तो वहां कुछ भी नहीं है। केवल पानी के बिंदु, पानी की बूंदें और बूंदों से गुजरती हुई सूरज की किरणों का जाल है। पास पहुंचकर कुछ भी नहीं है वहां।

ठीक पूरे जीवन यही इंद्रधनुष की खोज है। और जब पहुंचते हैं पास, तो पाते हैं, कुछ हाथ नहीं लगा। और हाथ जो लगता है, वह केवल टूटा हुआ इंद्रधनुष है, पानी की बूंदें हैं। न वहां रंग हैं, न वहां सौंदर्य है, न वहां कुछ और है। खाली हाथ रह जाता है।

क्षणभंगुर सब कुछ है इस जगत में। एक क्षण होना है उसका, और उस क्षण में हम उसे पाने निकलते हैं। जब तक हम पाने के करीब पहुंचते हैं, वह क्षण बीत चुका होता है। दुख हाथ लगता है। असफलता, विषाद, फ्रस्ट्रेशन हाथ लगता है। और इस जगत में कोई भी चीज क्षणभंगुर से ज्यादा नहीं हो सकती।

क्षणभंगुरता अस्तित्व का स्वभाव है। यहां कोई भी चीज थिर नहीं है। यद्यपि हम कोशिश करते हैं निरंतर कि सब कुछ थिर हो जाए। अगर मैं आपसे प्रेम करूं, तो मैं कहूंगा कि यह मेरा प्रेम शाश्वत है, सदा रहेगा। सभी प्रेमी कहते हैं। और कोई चीज इस जगत में शाश्वत नहीं है। मजा तो यह है कि जितनी देर लगेगी यह बात कहने में कि यह प्रेम शाश्वत है और सदा रहेगा, और चांदत्तारे मिट जाएं, लेकिन यह प्रेम नहीं मिटेगा--शायद इतना कहने में जितनी देर लगी, उतने में ही मिट गया हो।

लेकिन कोशिश चलती है कि प्रेम को हम थिर  बना लें। फिर दुख लगता है। क्योंकि जो थिर नहीं है, वह थिर नहीं हो सकता। जो क्षणभंगुर है, वह क्षणभंगुर रहेगा। वह उसका अंतर-स्वभाव है।

इस जगत की प्रत्येक वस्तु का स्वभाव क्षणभंगुर है। जवान रहना चाहें सदा, न रह पाएंगे। प्रसन्न रहना चाहें सदा, न रह पाएंगे। मजा तो यह है कि अगर दुखी भी रहना चाहें सदा, तो न रह पाएंगे। दुख भी क्षणभंगुर है। वह भी बदलता रहेगा। वह भी बदलता रहेगा। यहां सभी कुछ बदलता हुआ  है।


हमारा सारा दुख इस बात से पैदा होता है कि हम, थिर जो नहीं है, उसको सब जगह थिर कर लेना चाहते हैं। कहते हैं, मेरा प्रेम थिर रहेगा। मां कहती है कि मेरा बेटा है; यह प्रेम सदा रहेगा। लेकिन कल एक नई लड़की को लेकर बेटा घर लौट आता है और पता चलता है, मां उस बेटे की आंखों में अब दिखाई ही नहीं पड़ती! धक्का लगता है। दुख आता है।

लेकिन दुख के लिए बेटा जिम्मेवार नहीं है। दुख के लिए मां की वह कामना जिम्मेवार है, जो सोचती थी कि प्रेम थिर रहेगा। इस बेटे ने जब उसके आंचल में सिर रखकर मुस्कुराया था और प्रेम से उसे देखा था, वह अभी भी उसी को थिर रखने की कोशिश में लगी है। वह वासना अब दुख देगी।

आज जिस पत्नी को लेकर यह घर में चला आया है, उसकी उमंग का कोई अंत नहीं है, उसके पैर जमीन से नहीं लगते हैं। क्योंकि आज वह रानी हो गई है। और इस युवक ने उसे कहा है कि तुझसे ज्यादा सुंदर और कोई भी नहीं है। और मैं मर जाऊं, लेकिन सोच भी नहीं सकता कि कभी मेरे प्रेम में क्षणभर की भी, कणभर की भी कमी होगी। लेकिन कल वही पाएगी कि उसके साथ चलते रास्ते पर किसी और स्त्री पर उसकी आंख गई है। और उस क्षण में वह उसे भूल ही गया है कि वह पास भी है।


सब बहा जा रहा है। इस बहाव में हम सब कोशिश में लगे हैं ठहर जाने की, ठहर जाएं! बस, दुख पैदा होगा। तंबू गाड़ रहे हैं बहती हुई नदी की धार पर। फंसेंगे मुसीबत में। तंबू में डूबेंगे खुद और। खूंटियां नहीं गाड़ी जातीं पानी पर और न तंबू खड़े किए जाते हैं। और स्थिर तंबू, शाश्वत तंबू खड़े करने की कोशिश चलती है, तो दुख आता है।

दुख, क्षणभंगुर जीवन के स्वभाव में शाश्वत को बनाने की चेष्टा का फल है। अनित्य है जो, उसमें नित्य को खड़ा करने की जो वासना है, वही दुख बन जाती है। लेकिन जो क्षण को क्षण जैसा जान ले, उसके दुखी होने का फिर कोई कारण नहीं। क्योंकि वह आकांक्षा ही नहीं करता उसकी, जो विपरीत है।

कृष्ण कहते हैं, वे जो परम सिद्धि को प्राप्त होते महात्माजन, मुझे प्राप्त होकर क्षणभंगुर पुनर्जन्म को उपलब्ध नहीं होते।

क्योंकि जिसने भी प्रभु को जाना--प्रभु को अर्थात शाश्वत को, नित्य को, इटरनल को, वह जो सदा है--वह फिर क्षणभंगुर की कामना नहीं करता। जिसे ठोस लोहे के महल मिल गए हों, वह ताश के पत्तों के घरों में रहने की कोशिश नहीं करता।

मैं सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं। ऐसे तो लोहे के ठोस घर भी ताश के ही घर हैं। समय का ही फासला है। ताश का घर, हवा का एक झोंका आता है, और गिर जाता है। लोहे के घर लाख-करोड़ झोंके आएंगे, तब गिरेगा। क्वांटिटी का फर्क है, क्वालिटी का कोई फर्क नहीं है। चाहे रेत का घर बनाएं और चाहे सीमेंट-कांक्रीट का; रेत का घर एकाध झोंके में गिर जाएगा, सीमेंट-कांक्रीट का घर गिरने में जरा ज्यादा देर लेगा। बस, देर का ही फर्क है, टाइम का ही फर्क है। वह भी गिर जाएगा। क्योंकि सीमेंट-कांक्रीट भी रेत से ज्यादा और कुछ भी नहीं है।

लेकिन जिसने एक कण भी अनुभव कर लिया हो उसका, जो शाश्वत है, उसके लिए सारा जगत उसी क्षण स्वप्नवत हो जाता है। फिर उसमें उसकी कामना नहीं रह जाती है।


उसकी प्रतीति हो, उसी को कृष्ण कहते हैं, मुझे पाकर वे महात्माजन फिर क्षणभंगुर पुनर्जन्म की वासना नहीं करते। और वासना नहीं, तो पुनर्जन्म की पुनरुक्ति नहीं। क्योंकि हे अर्जुन, ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक पुनरावृत्ति वाले हैं, रिपिटीटिव हैं।

यह बहुत मजे का वचन है। इसे हम अपनी तरफ से समझें, तो आसानी हो जाएगी। क्या आपको पता है, सभी वासनाएं रिपिटीटिव हैं? आप बहुत-सी वासनाएं नहीं कर रहे हैं, एक-एक वासना को हजार-हजार बार दोहरा रहे हैं। और बड़ा मजा यह है कि हर बार दोहराकर कहते हैं, कुछ नहीं पाया। और चौबीस घंटेभर बाद फिर दोहराने को तैयार खड़े हैं। बड़े अजीब हैं!

अपनी भी याद नहीं रहती कि चौबीस घंटे पहले क्या कहा था! कितनी बार आपने क्रोध किया है? और हर क्रोध के बाद कितनी बार आप पछताए हैं? शायद क्रोध से ज्यादा पछताए होंगे। क्योंकि आदमी एक दफे क्रोध करता है, तो पीछे पांच-सात दफे पछताता है। लेकिन यह पछताना क्रोध के आने में रुकावट नहीं बनती। बल्कि जो जानते हैं, वे कहते हैं, यह पछतावा फिर से क्रोध करने की तैयारी है।

जब आप क्रोध में तन जाते हैं, तत्काल आपको पश्चात्ताप की अति पर जाना पड़ता है। यह सिर्फ अपनी जगह पर वापस लौटने के लिए है। वह जो पहली स्थिति थी क्रोध के पहले आपके मन की, उस तक आने के लिए। क्रोध कर लिया, एक सीमा में खिंच गए। अब पश्चात्ताप कर लिया, अब दूसरी तरफ चले गए। फिर क्रोध-पश्चात्ताप दोनों के बीच डोलते-डोलते अपनी जगह वापस आ गए। नाउ यू कैन बी एंग्री अगेन--अब आप फिर से क्रोध कर सकते हैं। क्योंकि आपने पुरानी स्थिति पा ली, जहां आप क्रोध के पहले थे। उस स्थान पर आप पुनः पहुंच गए।

आप शायद सोचते होंगे, पश्चात्ताप इसलिए करते हैं, ताकि दुबारा क्रोध न करें, तो आप गलती में हैं; आपको जीवन के सत्यों का कोई भी पता नहीं है। पश्चात्ताप आदमी इसीलिए करता है, ताकि फिर क्रोध कर सके। यह बहुत उलटा लगेगा। लेकिन आपका अनुभव भी यही कहेगा।

तो मैं तो आपसे कहूंगा, अगर क्रोध से मुक्त होना हो, तो अब की बार क्रोध करना, पश्चात्ताप मत करना। फिर देखें, क्रोध दुबारा आता है कि नहीं! अगर पश्चात्ताप से बच गए, तो फिर क्रोध को दोहरा न सकेंगे, क्योंकि क्रोध के लिए पुरानी स्थिति उपलब्ध नहीं होगी।

लेकिन पश्चात्ताप से बचना उतना ही मुश्किल है, जितना क्रोध से बचना मुश्किल है। दोनों अनकांशस हैं, दोनों अचेतन हैं। आप कहते हैं, क्या करें, क्रोध आ ही गया! फिर ऐसे ही, क्या करें, पश्चात्ताप आ ही गया! दोनों एक साथ चलते रहेंगे।

लेकिन क्रोध करके आपने कुछ पाया है? कुछ मिला? कोई रत्न हाथ लगा? कहेंगे, कुछ भी नहीं पाया; सिर्फ राख हाथ लगती है; और अपना ही पतित मन हाथ लगता है। गङ्ढे में गिर गए। अपने ही हाथ से कीचड़ से भर गए। ऐसा हो जाता है।

लेकिन दुबारा फिर क्रोध क्यों करते हैं? क्योंकि वासना रिपिटीटिव है। चौबीस घंटे में फिर भूल जाते हैं। फिर वासना मांग करती है। कामवासना से भरता है चित्त।


कृष्ण कहते हैं, ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक पुनरावर्ती हैं। वापस लौट-लौटकर वही-वही होता रहता है, वही-वही होता रहता है।


इस जगत में कुछ भी नया नहीं है। लेकिन सब नया मालूम पड़ता है, क्योंकि हमारे लिए पहली दफा दिखाई पड़ता है। यह हम भूल गए होते हैं, और पहली दफे दिखाई पड़ता हुआ मालूम पड़ता है।

ब्रह्मलोक तक, कृष्ण कहते हैं, सब लोक, ब्रह्मलोक तक...।

असल में जहां तक लोक हैं, जहां तक जगत की पर्तें हैं, चाहे हम उसे ब्रह्मलोक ही क्यों न कहें, अंतिम लोक, वहां तक भी पुनरुक्ति ही होती रहती है। फिर पुनरुक्ति कहां बंद होती है? उसे कहा है ज्ञानियों ने अलोक, नान-वर्ल्ड, नो वर्ल्ड। जहां तक जगत हैं, वहां तक लोक हैं, फिर अलोक है। वह अलोक में ही प्रवेश परमात्मा में प्रवेश है। वहां पुनरुक्ति नहीं है।

ध्यान रखें, यहां सब कुछ पुराना है; वहां सब कुछ नया। यहां सब कुछ पुराना है; वहां सब कुछ नया। यहां सब कुछ बासा है; वहां सब कुछ ताजा। यहां सब कुछ बूढ़ा है; वहां सब कुछ युवा, फ्रेश, ताजा। जैसे सुबह ओस की बूंद, सुबह-सुबह खिला हुआ फूल--बस, खिला ही रह जाए और कभी सांझ न आए, और कभी दोपहरी न हो, और फूल कभी मुरझाए न, और फूल कभी वापस धूल में न गिरे। बस, वह ताजगी ताजी ही रह जाए, वैसी ही युवा, वैसी ही युवा सदा-सदा के लिए। जैसे कोई गीत की कड़ी गूंजे, और गूंजती ही रहे, गूंजती ही रहे, गूंजती ही रहे; फिर कभी समाप्त न हो।

लेकिन यह तो वहीं हो सकता है, जहां कुछ भी कभी शुरू न हुआ हो। लोक में सभी कुछ पुनरुक्त होता है, पुराना है। लोक के पार परमात्मा में सभी कुछ नया है, कुछ भी पुनरुक्त नहीं होता। वहां सभी कुछ नया है, सभी कुछ ताजा है। इस ताजगी की, इस निर्दोष ताजगी की, इस कुंआरेपन की जो उपलब्धि है, वह आनंद है। और इस पुराने की, बासे की, पुनरुक्ति की, बार-बार इसी में सड़ने और घूमने की जो प्रतीति है, वह दुख है।

परंतु हे कुंतीपुत्र, मेरे को प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता।

परमात्मा को पा लेने के बाद पा लेने को बचता क्या है, जिसके लिए जन्म की और जीवन की जरूरत पड़े, समय की जरूरत पड़े!

हे अर्जुन, ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको हजार युग तक अवधि वाला और एक रात्रि जो है, वह भी हजार युग अवधि वाली, ऐसा जो पुरुष तत्व से जानते हैं, वे योगीजन काल के तत्व को जानने वाले हैं।

 मैंने समय के बाबत थोड़ी बात आपसे कही। यहां समय के बाबत और भी कुछ बातें कृष्ण ने कहीं। और कहा कि इस काल के रहस्य को जो जान लेता है, वही जानने वाला है। यह काल का रहस्य क्या है?  क्या है समय का राज? तो दोत्तीन बातें खयाल में लें।



एक, कभी आपने खयाल किया, कुर्सी पर बैठे-बैठे झपकी लग गई और आपने एक लंबा सपना देखा। लंबा--कि चालीस साल लग जाएं उस सपने के पूरे होने में। कि आप बच्चे थे, और बड़े हुए, और जवान हुए, और प्रेम में पड़े, और विवाह हुआ, और बच्चे हुए, और अब आप अपने बच्चे की शादी करके बारात लिए जा रहे हैं, तभी बैंड-बाजे के शोर में नींद खुल गई। लेकिन घड़ी में देखते हैं, तो लगता है, केवल मिनटभर सोए थे। तो मिनटभर में यह चालीस साल का विस्तार कैसे देखा जा सका!

एक मिनट है बाहर के लिए जो, सपने के लिए चालीस साल हो सकता है। समय बड़ी अदभुत चीज है। बड़ी अदभुत चीज है। इसे छोड़ें।

समय की प्रतीति चित्त पर निर्भर है। कभी आपने शायद खयाल न किया हो, दुख में समय बहुत लंबा मालूम पड़ता है। घर में कोई मर रहा है। बिस्तर पर पड़ा है। चिकित्सक कहते हैं, बस आखिरी रात है। बहुत लंबी लगती है रात। ऐसा लगता है, कभी समाप्त न होगी। लेकिन सुख की स्थिति हो, चित्त प्रसन्न हो, प्रमुदित हो, तो रात ऐसे बीत जाती है कि जैसे समय ने कुछ बेईमानी की और घड़ी के कांटे को जल्दी घुमाया।

नहीं, घड़ी के कांटों को आपमें कोई उत्सुकता नहीं है, वे अपनी ही चाल से चलते चले जाते हैं। लेकिन चित्त के अनुसार समय लंबा और छोटा हो जाता है।

अगर आपने दिनभर बहुत-से काम किए, तो बाद में सोचने पर लगेगा कि दिन बहुत लंबा था, क्योंकि बहुत भरा हुआ मालूम पड़ेगा। इसलिए यात्रा के दिन बहुत लंबे मालूम पड़ते हैं। लेकिन आप दिनभर खाली बैठे रहे, तो खाली बैठते समय तो लंबा मालूम पड़ेगा, बाद में याद करने पर बहुत छोटा मालूम पड़ेगा। क्योंकि उसमें कोई घटनाएं नहीं हैं, जिनकी वजह से भरा हुआ मालूम पड़े।

यात्रा का दिन, नई-नई घटनाओं का दिन जब गुजरता है, तब तो छोटा लगता है; और जब पीछे याद करते हैं, तो लंबा लगता है। खाली दिन, गर्मी का दिन, उदास बैठे हैं घर में, कुछ काम-धाम नहीं, बेकार; काटते वक्त बहुत लंबा लगता। पीछे लौटकर याद करें, तो लगता है, बहुत छोटा है, क्योंकि उसमें कुछ भरावट नहीं है। चित्त पर निर्भर करता है कि समय लंबा है या छोटा।

कृष्ण यहां कह रहे हैं कि अगर तुझे अंदाज हो जाए, जैसा कि ज्ञानियों को पता चल जाता है, ब्रह्मा का दिन...।

ब्रह्मा का अर्थ है, इस सृष्टि और प्रलय के बीच जिस शक्ति के हाथ में नियंत्रण है। एक सृष्टि और एक प्रलय के बीच में जो नियंत्रण है जिस शक्ति के हाथ में, जो एक सृष्टि और एक प्रलय के बीच में अध्यक्ष है इस अस्तित्व का, उसके लिए एक दिन और एक रात का ही है मामला यह सिर्फ। उसके लिए ये चौबीस घंटे हैं। हमारे लिए युग-युग, हजार-हजार युग, अनंत-अनंत जन्म।

एक पतिंगा आप देखते हैं, वर्षा में पैदा हो जाता है। सांझ को पैदा होता है, रात आधी होते-होते मरकर सड़कों पर गिर जाता है। उतनी देर में सब कुछ हो गया, जो आप सत्तर साल में करेंगे। आपको पता नहीं होगा। उतनी देर में सब कुछ कर डाला उसने, जो आप सत्तर साल में करेंगे। इसलिए वह कोई गरीब नहीं है; बेचारा नहीं है। आप सत्तर साल में करेंगे, वह सात घंटे में कर लेता है। एक अर्थ में आपसे ज्यादा कुशल, शक्तिशाली मालूम पड़ता है! क्योंकि इस बीच वह प्रेम कर लेता है। रोमांस कर लेता है। गुनगुना लेता है गीत। कविताएं गा लेता है। विवाह कर लेता है। बच्चे पैदा कर जाता है। अंडे रख जाता है। बूढ़ा हो जाता है। मर जाता है।

अगर उसकी जिंदगी की घटनाएं और आपकी जिंदगी की घटनाएं देखी जाएं, तो सिर्फ फर्क इतना ही लगेगा कि जो काम उसने सात घंटे में किए, वे आपने सत्तर साल में किए। यह कोई बड़ी गौरव की बात मालूम नहीं पड़ती। सिर्फ इतना ही मालूम पड़ता है कि इनइफिशिएंसी आपमें ज्यादा है, कुशलता जरा कम है; समय ज्यादा ले लेते हैं।

और भी छोटे कीड़े हैं, जो क्षण में ही पैदा होते हैं, क्षण में ही मर जाते हैं। मगर सब काम पूरा कर जाते हैं। कोई काम अधूरा नहीं छोड़ जाते। और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि समय कम हो, तो काम आदमी जल्दी और कुशलता से कर लेता है।

क्योंकि समय कम हो, तो आदमी जल्दी करता है, तेजी। समय ज्यादा हो, धीमे-धीमे करता है। समय बहुत हो, तो जमीन पर सरकने लगता है। अगर उसको पता चल जाए कि मरना ही नहीं है, तो बिस्तर से निकलना मुश्किल हो जाए! मरना ही नहीं है, तो फिर न भी उठे; फिर ऐसी जल्दी भी क्या है उठने की! वह तो मरना है, इसलिए इतनी दौड़ है। वह मरना है, इसलिए इतनी दौड़ है।

अगर पूरब में विज्ञान पैदा नहीं हुआ, और इतनी दौड़ पैदा नहीं हुई, और जीवन शिथिल और शांत और धीमी गति से चला, तो उसका कारण पुनर्जन्म की धारणा है। हमें पता है कि यह मौत कोई आखिरी मौत नहीं; यह जन्म कोई पहला जन्म नहीं। यह होता ही रहेगा। इतनी जल्दी क्या है!


इसलिए आप जानकर हैरान होंगे, पूरब के पास टाइम कांशसनेस बिलकुल नहीं है। पश्चिम के पास टाइम कांशसनेस है। पश्चिम समय के प्रति बहुत सजग है; एक-एक सेकेंड की सजगता है। यहां! यहां अगर हम घड़ी हाथ पर बांध भी लेते हैं, तो वह शृंगार ज्यादा है, वह समय का बोध कम है। और पुरुष को तो थोड़ी-बहुत समय की जरूरत पड़ गई, ट्रेन पकड़नी है। स्त्रियां भी घड़ी बांधे हुए हैं चूड़ियों की भांति। अगर एकदम से उनसे पूछो कि घड़ी में कितने बजे हैं, तो पता नहीं चलता।

समय का बोध पूरब को हो नहीं सकता, क्योंकि समय इतना लंबा है हमारे पास कि ठीक है, कोई जल्दी नहीं है। पश्चिम को समय की प्रतीति गहन हो गई, क्योंकि ईसाइयत ने कहा, बस एक ही जन्म है, और मामला इसके पीछे सब समाप्त हो जाएगा। जो भी करना है, अभी कर लो। त्वरा आ गई। जल्दी करो। फैसले का दिन निकट है!

कृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि अगर तू ब्रह्मा के हिसाब से सोचे, तो बस एक दिन और एक रात। सुबह होती है सृष्टि; सांझ होते आधी हो जाती; रात होती, सुबह होते, पूरी हो जाती; प्रलय आ जाता। यह चौबीस घंटे का खेल है। एक चक्र है ब्रह्मा के लिए। इसमें कुछ भी नया नहीं है अर्जुन। ब्रह्मा के लिए सब एक वर्तुल है। वही आरा नीचे आ जाएगा और सब समाप्त हो जाएगा।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, समय के इस रहस्य को जो जान लेता है, वह तत्वविद है और ऐसे योगीजन परम गति को पाते हैं।

समय के इस रहस्य को जो जान लेता है! यह समय का रहस्य क्या हुआ? यह समय का रहस्य यह हुआ कि जानने वाली चेतना पर ही समय का फैलाव या सिकुड़ाव निर्भर है।

ब्रह्मा की चेतना के लिए इतना विराट आयोजन सिर्फ एक दिन और रात है। हमारे लिए जो घड़ी में बीतता हुआ एक सेकेंड है, वह किसी छोटे मकोड़े के लिए, किसी पतिंगे के लिए, किसी अमीबा के लिए, एक पूरा जीवन का वर्तुल है।

पर यह है क्या? और यह समय का इतना फैलाव और सिकुड़ाव, यह है क्या? और अगर यही है, यही समय का घूमता वर्तुल ही सब कुछ है, तो इसमें घूमते जाना समझदारी नहीं है। इस वर्तुल के बाहर निकलना समझदारी है। इस चक्र के बाहर होना समझदारी है। समय के बाहर होना बुद्धिमत्ता है।  समय के पार हो जाना बुद्धिमत्ता है। क्योंकि जो समय के पार हो गया, वह सृष्टि और प्रलय के पार हो गया। जो समय के पार हो गया, वह जन्म और मृत्यु के पार हो गया। जो समय के पार हो गया, वह दुख और सुख के पार हो गया। जो समय के पार हो जाता है, वह उस अलोक को उपलब्ध हो जाता है, जहां से न कोई लौटना है, जहां से न कोई वापसी है, न कोई पुनरागमन है। जहां परम जीवन में प्रवेश, परम अस्तित्व में प्रवेश है; अनादि और अनंत।

काल के इस रहस्य को अगर जानना हो, तो ध्यान में थोड़ी गति करें, क्योंकि ध्यान काल के विपरीत है। ध्यान में जितनी गति होगी, उतने समय के बाहर हो जाएंगे।

इसलिए कभी तो ध्यान में ऐसा हो जाता है कि घंटों बीत गए और जागकर वह व्यक्ति कहता है कि क्या हुआ, कितना समय बीत गया! मुझे तो कुछ पता ही नहीं। मैं था, होश था, बेहोश नहीं था, लेकिन समय का मुझे कुछ पता नहीं है। घड़ी जैसे रुक गई, ठहर गई भीतर की।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल




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