रविवार, 25 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 5

 

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।। 5।।


सो यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा है अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है। और हे महाबाहो, इससे दूसरी को मेरी जीवरूप परा अर्थात चेतन प्रकृति जान कि जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है।



यह जो आठ अंगों वाली प्रकृति है, यह अपरा है। अपरा का अर्थ होता है, निम्न, नीचे की, इस पार की। और इन आठ के पार मेरी वह प्रकृति है, जो परा है, दि बियांड, उस पार की। ये आठ विभाजन इस किनारे के हैं। और एक मैं हूं, उस पार, इन सबसे दूर और ऊपर उठकर--परा। इन सबके पार, इन सबको ट्रांसेंड कर जाता हूं। उस चैतन्य को, उस चेतना को, जो इन सबके पार है, तू इन सबको धारण करने वाली समझ।

वह जो पार है, क्या है? उस संबंध में थोड़ा-सा समझें। क्योंकि वही सबको धारण करने वाली है। वही धर्म है। वही सबको सम्हाले है। यह इतना विराट विस्तार उसकी ही छाती पर है, उस परा की। उस पार की चेतना। वह पार की चेतना क्या है? और हमारे भीतर उस पार की चेतना की तरफ जाने वाला द्वार कहां है?

समस्त योग का सार, उस परा को पहचानने की प्रक्रिया, टेक्नीक है। स्वयं के भीतर वह परा, वह बियांड कहां शुरू होता है?

शरीर में नहीं, क्योंकि शरीर पदार्थ है। मन में नहीं, क्योंकि मन भी बाहर से संगृहीत विचारों का जोड़ है। बुद्धि में नहीं, क्योंकि बुद्धि भी सूक्ष्मतम अग्नि का रूप है। अहंकार में नहीं, क्योंकि अहंकार भी स्वनिर्मित धारणा है। फिर कहां? फिर किस में हम उस सेतु को पाएं, उस द्वार को, जहां से सबको धारण करने वाली चेतना का साक्षात और मिलन है?

इन सबके साक्षित्व में। मैं अपने शरीर का साक्षी हो सकता हूं। यह रहा मेरा हाथ; मैं इस हाथ को देख सकता हूं। यह हाथ मेरा काट दिया जाए, तो मैं इस हाथ की पीड़ा को देख सकता हूं। यह हाथ कट जाए, तो भी मैं देखूंगा कि मैं नहीं कटा, हाथ ही कटा है। इस हाथ के कट जाने के बाद भी मुझे जरा भी न लगेगा कि मेरे बीइंग, मेरे अस्तित्व में कुछ टुकड़ा अलग हो गया है। मैं उतना का उतना ही रहूंगा। मेरे होने की जो धारणा है, उसमें खंड जरा-सा भी अलग नहीं होगा। मैं उतना ही रहूंगा। मेरे पैर भी कट जाएं, तो भी मैं उतना ही रहूंगा। मेरी आंख भी फूट जाएं, तो मेरे शरीर में कमी पड़ती जाएगी, लेकिन मेरे होने में, मेरे अस्तित्व में कोई भेद न पड़ेगा।

सोचें ऐसा, आप रात सोए, रात आपकी आंख चली जाए नींद में। सुबह जब आपको पहली दफा पता चलेगा कि आप जाग गए हैं...क्या आपको पता चल सकेगा आंख बंद में कि आपकी आंख चली गई? अगर आपके भीतर कुछ कम हो गया हो, तो जरूर पता चलना चाहिए। लेकिन कुछ कम हुआ नहीं है, इसलिए पता नहीं चलेगा। आंख खोलेंगे, और जब कुछ न दिखाई पड़ेगा, तब पता चलेगा कि कुछ कमी हो गई। भीतर कोई कमी न होगी। बाहर के संबंध का एक द्वार टूट गया, भीतर आप पूरे के पूरे हैं। भीतर आपको कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

अगर आपको बेहोश करके आपका पैर काट दिया जाए, और जब तक पैर का दर्द न चला जाए, तब तक आपको बेहोश और डीप फ्रीज में रखा जाए। फिर आपके पैर का दर्द जा चुका हो, आपको होश में लाया जाए। शरीर पर कंबल पड़ा हो। आपको भीतर से जरा भी पता नहीं चलेगा कि पैर कट गया है, जब तक कि कंबल न उठाया जाए, जब तक आप देखें न। जब तक आप चलें और गिर न पड़ें, तब तक आपको पता नहीं चलेगा कि पैर कट गया। क्योंकि भीतर कुछ कटता ही नहीं। तो भीतर पता कैसे चलेगा? पता तो तभी चलेगा, जब बाहर प्रयोग करेंगे शरीर का और कोई कमी मालूम पड़ेगी; तभी पता चलेगा, अन्यथा पता नहीं चलेगा।

शरीर के हम साक्षी हो सकते हैं, विटनेस हो सकते हैं। जान सकते हैं कि यह मैं नहीं हूं। क्योंकि जिसको भी मैं देख पाता हूं, वह मैं नहीं हो सकता। जो भी दृश्य बन गया, वह मैं नहीं हो सकता। मैं आपको देख रहा हूं; एक बात पक्की हो गई कि वह जो आप वहां बैठे हुए हैं, वह मैं नहीं हूं। अन्यथा मैं आपको देख न पाता। देखने के लिए दूरी चाहिए; परसेप्शन के लिए पर्सपेक्टिव चाहिए, फासला चाहिए, नहीं तो मैं देख न पाऊंगा आपको।

आपको देख पाता हूं, क्योंकि मैं अलग हूं। दूर खड़ा हूं। मैं अपने शरीर को भी देख पाता हूं। आप बच्चे थे, तब भी अपने शरीर को देखा। जवान हो गए, तब भी अपने शरीर को देखा। फिर भी आपको खयाल न आया कि शरीर तो बिलकुल बदल गया है, लेकिन आप? आप तो वही के वही हैं! आपके भीतर कुछ भी नहीं बदला, रत्तीभर। आप बूढ़े भी हो जाएंगे, तब भी आपके भीतर आप वही होंगे, जो बच्चे थे तब थे। भीतर, वह जो चेतना है, वह अछूती गुजर जाती है।

शरीर मैं नहीं हूं, यह हम शरीर के साक्षी होकर जान सकते हैं। फिर हम विचारों के भी साक्षी हो सकते हैं। आप भीतर देख सकते हैं कि यह क्रोध चल रहा है। आप भीतर देख सकते हैं, यह लोभ सरक रहा है। आप भीतर देख सकते हैं कि यह काम यात्रा कर रहा है।

विचार को आप देख सकते हैं वैसे ही, अपने भीतर के पर्दे पर, जैसे आप फिल्म को देखते हैं। उसके भी आप साक्षी हो सकते हैं। तो फिर आप उससे भी अलग हो गए। कठिनाई थोड़ी-सी पड़ेगी मैं को देखने में, क्योंकि वह सूक्ष्मतम है और हम उससे आइडेंटिफाइड हैं।

लेकिन मैं को भी आप देख सकते हैं। जब आप सड़क पर चलते हैं; एकांत सड़क; कोई भी नहीं है। फिर अचानक दो आदमी सड़क पर निकलते हैं, तब आपने खयाल किया है कि कोई सांप आपके भीतर सरककर फन उठा लेता है। उसे जरा गौर से देखना। जब आप अकेले थे, तो आप कुछ और थे। अब दो आदमी सड़क पर आ गए, तो आप कुछ और क्यों हो गए? यह कुछ और क्या है? यह भीतर मैं का भाव खड़ा हो गया।

कोई आदमी आपको गाली देता है, तब जरा भीतर गौर से देखना कि कोई सांप फन उठाता है, जैसे फुफकारता हो, जैसे सोए सांप को चोट मार दी हो, कोई आपके भीतर उठकर खड़ा हो जाता है। जरा उसे गौर से देखना। जब आप सुंदर कपड़े पहनकर निकलते हैं सड़क पर, तब आप वही नहीं होते, जब आप दीन-हीन कपड़े पहनकर निकलते हैं। भीतर थोड़ा-सा फर्क होता है।





वह जो भीतर मैं है, उसको जरा जागकर खोजते रहेंगे कि वह कहां-कहां खड़ा होता है, तो जल्दी आपकी उससे मुलाकात होने लगेगी; जगह-जगह मुलाकात होगी। आईने के सामने खड़े होंगे, तो शक्ल कम दिखाई पड़ेगी, अहंकार ज्यादा दिखाई पड़ेगा। किसी से हाथ मिलाएंगे, तो आप कम मिलते हुए मालूम पड़ेंगे, अहंकार ज्यादा मिलता हुआ मालूम पड़ेगा। किसी से बात करेंगे, तो आप संवाद करते हुए नहीं मालूम पड़ेंगे, अहंकार भीतर खड़ा हुआ मालूम पड़ेगा।

थोड़ा होश का प्रयोग करेंगे, तो धीरे-धीरे आपके और आपके अहंकार के बीच एक गैप, एक फासला पैदा हो जाएगा। और आप देख पाएंगे, यह अहंकार है; यह रहा अहंकार।

और जिस दिन आप अहंकार को भी देख पाएंगे, उसी दिन, उसी दिन छलांग। उसी दिन आप इस आठ वाली प्रकृति से छलांग लगाकर उस भीतर की परा प्रकृति में पहुंच जाएंगे, जिसे कृष्ण कहते हैं, मेरा स्वरूप, मेरी चेतना।

और उसी चेतना ने सब धारण किया हुआ है। तब आप पाएंगे कि आपके शरीर को भी उसी ने धारण किया हुआ है। तब आप पाएंगे कि आपकी बुद्धि को भी उसी ने धारण किया हुआ है। तब आप पाएंगे कि आप कभी भीतर गए ही नहीं, उसको कभी आपने देखा ही नहीं, जो प्राणों का प्राण है। आपने उसे देखा ही नहीं, जो सारी परिधि का केंद्र है। आपने कभी मालिक को देखा ही नहीं; आप नौकरों से ही उलझे रहे। और अनेक बार आपने नौकरों को ही समझ लिया कि यह मैं हूं। आप मालिक तक कभी पहुंचे नहीं।

कृष्ण अर्जुन को उस मालिक की तरफ ले जाने की एक-एक कदम कोशिश कर रहे हैं। कहा, यह है आठ की प्रकृति अर्जुन। तू इसे ठीक से समझ ले। और फिर इसके पार होने के लिए मैं उस बात की तुझे खबर दूं, जो परा है, वह जो चैतन्य है, पीछे सबसे छिपा, जो सबका निर्माता, जो सबका आधार और जो सबको फिर अपने में आत्मसात कर लेता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल


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