सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 7

 रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।। 8।।

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।

जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु।। 9।।


हे अर्जुन, जल में मैं रस हूं; चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हूं; संपूर्ण वेदों में ओंकार हूं तथा आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूं। तथा पृथ्वी में पवित्र गंध और अग्नि में तेज हूं, और संपूर्ण भूतों में उनका जीवन हूं अर्थात जिससे वे जीते हैं, वह मैं हूं, और तपस्वियों में तप हूं।


उस अदृश्य की ओर इशारा कृष्ण ने शुरू किया। दृश्य को बताया, और कहा, उस दृश्य में मैं कौन हूं। इशारा किया दृश्य की तरफ, और फिर भी इशारा किया अदृश्य की तरफ। कहा, जल में मैं रस।

जल में रस! रस को थोड़ा समझना पड़े।

रस बहुत अदभुत शब्द है, और बहुत सूक्ष्म और बहुत अदृश्य। दिखाई जो पड़ता है--कोई पेय आप पीते हैं, अमृत भी पीएं--तो जो दिखाई पड़ता है, जब आप पीते हैं, तो जो अनुभव में आता है, क्या वह वही है, जो दिखाई पड़ता था? जब पीते हैं, तो जो अनुभव में आता है, वह तो दिखाई बिलकुल न पड़ता था। जो दिखाई पड़ता था, वह तो कुछ और दिखाई पड़ता था। और जो फिर अनुभव में आता है पीने पर, वह कुछ और ही है। वह जो अनुभव में आता है पीने पर, वह है रस। वह रस आंतरिक अनुभूति है।

ऐसा ही नहीं; जहां भी...। आपका प्रेमी आपके पास है, आप हाथ में हाथ लेकर बैठ गए हैं। हाथ तो प्रेमी का हाथ में है, लेकिन भीतर जो एक स्वाद उत्पन्न होता है प्रियजन के पास होने का, वह रस है। वह अगर हम वैज्ञानिक के पास दोनों के हाथ लेबोरेटरी में पहुंचा दें और कहें कि काट-पीटकर पता लगाओ कि इनको कैसा रस उपलब्ध हुआ! क्योंकि ये दोनों कह रहे थे कि जन्म-जन्म तक हम ऐसे ही हाथ में हाथ लिए बैठे रहें, कि चांदत्तारे बुझ जाएं और हमारे हाथ अलग न हों! ये कुछ ऐसी बातें सुनी हैं इनकी हमने। जरा कृपा करके इन दोनों के हाथ का पता तो लगाओ खोजबीन कर कि इसमें रस कहां है?

खून मिलेगा बहता हुआ। पानी मिलेगा बहता हुआ। हड्डी, मांस, मज्जा, सब मिल जाएगी। रस नहीं मिलेगा। रस अदृश्य है। उन्हें जरूर मिल रहा था। उन्हें जरूर मिल रहा था। भ्रांत हो, सपना हो, उन्हें जरूर मिल रहा था। प्रत्येक वस्तु के भीतर जो आंतरिक अनुभव में उतरता है स्वाद, उसका नाम रस है।

तो कृष्ण कहते हैं, समस्त जलीय द्रव्यों में, समस्त पेय पदार्थों में, वह जो तुम पीते हो, वह मैं नहीं हूं; वह जो तुम पीकर अनुभव करते हो, वह मैं हूं। रस हूं मैं।

रस अदृश्य है। सभी रस अदृश्य हैं। फूल है खिला गुलाब का। गए आप उसके पास। कहा, बहुत सुंदर है। लेकिन कोई पकड़ ले आपको, मिल जाए कोई तार्किक, और पूछे, कहां है सौंदर्य? जरा मुझे भी दिखाओ। तो आप पड़ेंगे कठिनाई में। कितना ही बताएंगे, नहीं बता पाएंगे। और जितना बताएंगे, उतना ही पाएंगे कि बताने में असमर्थ हैं। और आप हारेंगे। आपकी हार निश्चित है। वह तार्किक जीतेगा। उसकी जीत निश्चित है। क्योंकि उसने दृश्य को पकड़ा, और आपने अदृश्य की घोषणा की है, जिसको आप न बता पाएंगे।

सौंदर्य बताया नहीं जा सकता। असल में फूल में नहीं है सौंदर्य, फूल के अनुभव में आपके भीतर जो बोध पैदा होता है, उस रस में है। इसलिए फूल को तोड़कर अगर आप पता लगाने चलेंगे, तो हां, केमिकल्स मिलेंगे, रस न मिलेगा। रासायनिक मिल जाएंगी वस्तुएं, रस न मिलेगा। रंग मिल जाएंगे; सब कुछ मिल जाएगा। फूल की पूरी एनालिसिस हो जाएगी, पूरा विश्लेषण। और वैज्ञानिक एक-एक शीशी में अलग निकालकर रख देगा कि यह-यह, लेबल लगाकर। लेकिन कोई ऐसी शीशी न होगी, जिसमें वह एक लेबल लगाए कि यह रहा सौंदर्य। सौंदर्य के लेबल वाली शीशी खाली रह जाएगी। वह कहेगा, कोई सौंदर्य नहीं है।

असल में फूल में कोई सौंदर्य नहीं था। सौंदर्य तो आपको जो रस उपलब्ध हुआ फूल को देखकर, उसमें आया। वह आपका आंतरिक रस है। लेकिन मजे की बात है, फूल को भी तोड़कर देख लो, तो भी रस न मिलेगा; आपको तोड़कर देख लें, तो भी रस न मिलेगा। फिर रस कहां था? वह अदृश्य है। वह धागे की तरह भीतर मनकों के छिपा है। मनके पकड़ में आ जाएंगे और धागे का आपको कोई पता न चलेगा।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, पेय पदार्थों में मैं रस, जल में मैं रस। लेकिन उदाहरण लेते हैं जल का। वह अर्जुन को समझ में आएगा, और रस की तरफ इशारा हो सकेगा।

जीवन में जो भी हमारे गहरे अनुभव हैं, रस के अनुभव हैं। चाहे हो सौंदर्य, चाहे हो प्रेम, चाहे हो संगीत, जो भी हमारे अनुभव हैं, वे रस के अनुभव हैं। अनुभव रस रूप है। या ऐसा कहें कि समस्त अनुभवों का जो निचोड़ है, उसे हमने रस कहा है।

रस की धारणा भारत में अनूठी है। रस की धारणा ही अनूठी है। दुनिया में कोई भी रस के करीब इतना नहीं पहुंचा। सौंदर्य की उन्होंने व्याख्याएं कीं; लेकिन उनकी व्याख्याएं बड़ी ऊपरी हैं। पश्चिम ने सौंदर्य का बड़ा शास्त्र, एस्थेटिक्स पैदा किया। लेकिन उनकी सौंदर्य की परिभाषा बड़ी ऊपरी है।

सौंदर्य रस है। प्रेम रस है। आनंद रस है। और उपनिषद ने तो घोषणा की कि ब्रह्म रस है। ब्रह्म रस है!

वह कृष्ण वही घोषणा कर रहे हैं। जलों में मैं रस! फिर वे एक-एक उदाहरण लेते चलते हैं। कहते हैं, पृथ्वी में मैं गंध, पवित्र गंध

यह भी थोड़ा कठिन होगा। रस से कम कठिन नहीं होगा। क्योंकि पवित्र कृष्ण न लगाते तो आसानी पड़ जाती। लेकिन गंध में पवित्र लगाने का क्या प्रयोजन? सुगंध काफी न था कहना? कहते हैं, पृथ्वी में पवित्र सुगंध। सुगंध काफी मालूम पड़ता है। लेकिन कृष्ण जैसे लोग तो बहुत टेलीग्रैफिक होते हैं। अगर एक भी शब्द जरूरी न होता, तो वे उपयोग करते न। लेकिन इससे बड़ी उलझन खड़ी हो गई है।

कहा, पवित्र सुगंध, तो इसका यह अर्थ हुआ कि अपवित्र सुगंध भी होती है। और कहा, पवित्र सुगंध, तो इसका अर्थ हुआ कि पवित्र दुर्गंध, अपवित्र दुर्गंध, इनकी संभावना है क्या?

इनकी संभावना है। इसलिए जानकर लगाया, पवित्र सुगंध। सभी सुगंधें पवित्र नहीं होतीं। उस सुगंध को पवित्र कहा है कृष्ण ने, जिसकी भनक पड़ते ही जीवन की ऊर्जा ऊपर की तरफ प्रवाहित होती है।

ऐसी सुगंधें भी हैं, जिनकी भनक पड़ते ही जीवन की ऊर्जा नीचे की तरफ प्रवाहित होती है। जगत के कोने-कोने में अनुभवी वेश्याओं से पूछें आप। या पेरिस के बाजार में, जहां दुनियाभर की अपवित्र सुगंधें पैदा की जाती हैं, परफ्यूम। और सब तरह की जांच-परख की जाती है कि कौन-सी परफ्यूम आदमी में सेक्सुअलिटी ज्यादा पैदा करेगी। सुगंध है वह। लेकिन आपके भीतर कामवासना को जगाने में कौन-सी सुगंध काम करेगी, उसके एक्सपर्ट हैं, उसके विशेषज्ञ हैं। वे खबर लाते हैं कि कौन-सी सुगंध वेश्या के द्वार पर हो, तो ग्राहक के आने में सुविधा बनेगी। कौन-सी सुगंध स्त्री के कपड़ों पर हो, तो स्त्री गौण हो जाएगी और पुरुष का मन सुगंध की वजह से आंदोलित होगा।

अपवित्र सुगंधें हैं। जो सुगंध जीवन ऊर्जा को नीचे की ओर ले जाती है, कामवासनाओं के मार्गों की ओर ले जाती है, वह अपवित्र है।

फिर पवित्र सुगंध कौन-सी है? अभी तक किसी बाजार में तो कहीं पैदा होती दिखाई नहीं पड़ती। कभी-कभी पवित्र सुगंध की घटना घटती है, वह मैं आपसे कहूं, तब आपको यह सूत्र समझ में आएगा। अन्यथा यह समझ में नहीं आएगा। और गीता पर हजारों टीकाएं लोगों ने लिखी हैं। लेकिन पवित्र सुगंध के बाबत कुछ ध्यान नहीं दिया है। कभी आती है वह।

महावीर के संबंध में कहा जाता है कि महावीर जहां खड़े हो जाएं, वहां एक सुगंध व्याप्त हो जाएगी। चलेंगे तो, उठेंगे तो, चारों तरफ की हवाओं में एक सुगंध चलेगी। महावीर का शरीर भी पृथ्वी का ही बना हुआ है, जैसा हमारा बना हुआ है। महावीर के शरीर से जो सुगंध उठती है, उस सुगंध का नाम है--पृथ्वी में मैं सुगंध हूं।

जरूरी नहीं है कि महावीर आपके पास से निकलें, तो आपको सुगंध का पता चले। क्योंकि जो दुर्गंध के आदी हैं, उन्हें सुगंध का पता चलना मुश्किल होता है। और जो अपवित्र सुगंध के आदी हैं, उनके पास से पवित्र सुगंध गुजर जाएगी, स्पर्श भी न होगा। क्योंकि खुले द्वार भी चाहिए। लेकिन जिनके द्वार खुले हैं, और जिनका हृदय संवेदनशील है, वे महावीर की सुगंध को पकड़ पाएंगे।

तो महावीर जैसे शरीर से जब सुगंध उठती है, उस सुगंध का नाम है, पृथ्वी में पवित्र सुगंध। मैं पृथ्वी में पवित्र सुगंध हूं अर्जुन।

कभी आपने खयाल किया कि पृथ्वी में दुर्गंध-सुगंध सबकी अनंत संभावना है। एक ही बगीचा है आपके घर में छोटा-सा। एक छोटा-सा किचन गार्डन है। उसमें आप नीम का झाड़ लगा देते हैं। और हवाओं में चारों तरफ कड़वाहट फैलनी शुरू हो जाती है। वह नीम उस जमीन से ही रस लेती है। उसी के बगल में आप गुलाब का एक पौधा लगा देते हैं। वह गुलाब का पौधा भी उसी जमीन से रस लेता है। लेकिन गुलाब के फूल में सुगंध कोई और, और नीम के पत्तों में और नीम की बौरियों में सुगंध कुछ और। बात क्या है?

जमीन एक, सूरज एक, हवाएं एक, मालिक बगीचे का एक, माली एक, पानी एक, पृथ्वी एक। गुलाब का बीज कुछ और चुनाव करता है; नीम का बीज कुछ और चुनाव करता है। नीम का बीज उसी पृथ्वी में से कड़वाहट को इकट्ठा कर लेता है। गुलाब का बीज उसी पृथ्वी में से कुछ और इकट्ठा करता है।

शरीर हमारा भी वही, महावीर का भी वही, कृष्ण का भी वही, क्राइस्ट का भी वही। लेकिन जरूरी नहीं है कि हम सबके शरीर से जो गंध निकले, वह एक हो।

इस संबंध में और भी कुछ बातें आपसे कहूं। जिन लोगों ने कामवासना के संबंध में गहरी खोजबीन की है, वे कहते हैं कि जब संभोग के क्षण में स्त्री-पुरुष अति आकुल हो जाते हैं, तो दोनों के शरीर से विशेष दुर्गंध निकलनी शुरू हो जाती है। आपके अनुभव में भी आती है। तीव्र कामवासना के क्षण में शरीर से दुर्गंध निकलनी शुरू हो जाती है।

क्या हुआ? शरीर वही है। लेकिन कामवासना में आप और नीचे उतरे, नीम की तरफ गए। आपके शरीर का चुनाव बदल गया। उसकी अलग ग्रंथियां काम करने लगीं, और आपके शरीर से दुर्गंध फैलने लगी।

अगर कामवासना में शरीर से दुर्गंध निकल सकती है--इसके लिए फिजियोलाजिस्ट राजी हैं; इसके लिए शरीरशास्त्री सहमत हो गए हैं कि कामवासना में शरीर से दुर्गंध निकलती है--तो दूसरी बात के लिए राजी होने में बहुत देर नहीं है कि ध्यान की गहराइयों में शरीर से एक तरह की सुगंध निकलती है। क्योंकि तब ऊर्जा ऊपर की तरफ जाती है और शरीर की दूसरी ग्रंथियां काम करती हैं, जो बिलकुल ही कामवासना से दूसरे छोर पर हैं।

तो महावीर जैसे व्यक्ति का जब पूरा जीवन का फूल खिलता है ध्यान का, तो आस-पास एक सुगंध फैलनी शुरू हो जाती है। यद्यपि उन्हीं को पता चलेगा, जो सौभाग्यशाली हैं।

अगर आपको महावीर के शरीर से सुगंध का पता चले, तो किसी और को मत बताना, नहीं तो वह कहेगा कि हमें नहीं पता चलता। गलत कहते हो। किसी भ्रम में पड़ गए हो। कोई इलूजन में आ गए हो। धोखा खा गए हो।

लेकिन एकाध आदमी को ही पता चलता हो, ऐसा नहीं है। महावीर के पास लाखों लोगों को पता चलता है। महावीर के निकट जो लोग रहते थे, वे कहते थे कि हम अगर दूर भी हों, अंधेरे में भी बैठे हों, और महावीर एक विशेष सीमा के भीतर आ जाएं, तो हम कह सकते हैं कि वे सीमा के भीतर आ गए। उनकी सुगंध उनके पहले ही चली आती है। सैकड़ों बार लोगों ने प्रयोग करके देखे।

जब कृष्ण कहते हैं, पृथ्वी में मैं पवित्र सुगंध, तो सिर्फ सुगंध नहीं कहते, नहीं तो गुलाब के फूल की सुगंध काम कर जाती। पवित्र सुगंध फूल में पैदा नहीं होती। पवित्र सुगंध तो मनुष्य नाम के फूल में पैदा होती है कभी-कभी। वही हूं मैं अर्जुन। बहुत रेयर फिनामिनन है। मुश्किल से कभी घटता है। लेकिन घटता है। और एक शरीर में घट सकता है, तो सब शरीर में घटने की खबर लाता है।

तो कहते हैं, पृथ्वी में मैं पवित्र सुगंध। चंद्रत्ताराओं में, सूरज में, ग्रहों में--आभा, प्रकाश।

इसे भी थोड़ा खयाल में ले लें। क्योंकि आप कहेंगे, प्रकाश तो बड़ी दृश्य बात है।

नहीं। प्रकाश बहुत अदृश्य घटना है। आप कहेंगे, सरासर कैसी बात मैं कह रहा हूं! आपने देखा है प्रकाश। अभी देख रहे हैं। सुबह सूरज निकलता है, आप प्रकाश देखते हैं। आपसे प्रार्थना करता हूं, पुनर्विचार करना। आपने प्रकाश अभी तक नहीं देखा है; केवल प्रकाशित चीजें देखी हैं। प्रकाश आपने कभी नहीं देखा। प्रकाश को देखना असंभव है। प्रकाश अदृश्य चीज है।

जब आप कहते हैं, प्रकाश है, तो उसका कुल मतलब इतना होता है कि चीजें दिखाई पड़ रही हैं। और कोई मतलब नहीं होता। और जब चीजें नहीं दिखाई पड़तीं, आप कहते हैं, अंधेरा है। आपको बल्ब दिखाई पड़ रहा है। बल्ब एक चीज है। मैं दिखाई पड़ रहा हूं। यह टेबल, कुर्सी, तख्त दिखाई पड़ रहा है; ये सब चीजें हैं। आपको प्रकाश नहीं दिखाई पड़ रहा है; केवल प्रकाशित चीजें दिखाई पड़ रही हैं। प्रकाश जिनके ऊपर आकर लौट रहा है, वे लोग दिखाई पड़ रहे हैं। प्रकाश आपको दिखाई नहीं पड़ रहा है। प्रकाश आज तक किसी मनुष्य को साधारणतः दिखाई नहीं पड़ा है, जिस तरह हम सोचते हैं। प्रकाश अदृश्य चीज है।

तो कृष्ण कहते हैं, सूर्यों, ताराओं, चंद्रों में मैं प्रकाश। सूरज नहीं, चांद नहीं, तारा नहीं; जो तुम्हें दिखाई पड़ता है, वह नहीं। मैं वह प्रकाश हूं, जिसके कारण तुम्हें दिखाई पड़ता है, लेकिन जो तुम्हें कभी दिखाई नहीं पड़ता। प्रकाश अदृश्य उपस्थिति है। सिर्फ प्रेजेंस है। कभी दिखाई नहीं पड़ता।

आप सोचते होंगे, अंधे को नहीं दिखाई पड़ता। मैं कह रहा हूं, आंख वालों को भी प्रकाश नहीं दिखाई पड़ता। अंधे और आंख वालों में फर्क यह नहीं है कि एक को प्रकाश दिखाई पड़ता, और एक को प्रकाश नहीं दिखाई पड़ता। फर्क इतना है, एक को प्रकाशित चीजें दिखाई पड़ती हैं, एक को प्रकाशित चीजें नहीं दिखाई पड़तीं। प्रकाश तो दोनों को नहीं दिखाई पड़ता है।

प्रकाश तो उसे दिखाई पड़ता है, जो इन आंखों को छोड़कर भीतर की और भी अंतरतम की आंखें हैं, उनको खोलता है, उसे प्रकाश दिखाई पड़ता है। फिर चांदत्तारे नहीं दिखाई पड़ते। यह भी बड़े मजे की बात है।

जब तक चांदत्तारे दिखाई पड़ते हैं, तब तक प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता; और जिस दिन प्रकाश दिखाई पड़ता है, उस दिन चांदत्तारे दिखाई नहीं पड़ते। उस दिन यह सारा जगत प्रकाश ही रह जाता है। फिर कोई प्रकाशित वस्तु नहीं रह जाती; कोई आब्जेक्ट नहीं रह जाता। सिर्फ प्रकाश का सागर, सिर्फ अनंत प्रकाश। न कोई सूर्य जिससे निकलता है, न कोई और विषय जिस पर पड़ता है, सिर्फ प्रकाश ही प्रकाश रह जाता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, चांदत्ताराओं में, सूर्यों में अर्जुन, तू मुझे प्रकाश जान। चांदत्तारे तुझे दिखाई पड़ते हैं, मैं तुझे दिखाई नहीं पड़ता।

तपस्वियों में तेज।

सोचने जैसा है, तपस्वियों में तेज! तपस्वी तो दिखाई पड़ते हैं सभी को। और तपस्वी को देखना बहुत कठिन नहीं है। बड़ी छोटी परीक्षाएं हैं, उससे पता चल जाता है। आदमी उपवास कर रहा है; कि एक टांग पर खड़ा है; कि कांटे बिछाए है; कि शरीर को सता रहा है, धूप में खड़ा है; कि पानी में गला रहा है शरीर को। तपस्वी दिखाई पड़ जाता है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, मैं तपस्वी नहीं हूं; तपस्वियों में तेज!

यह तेज क्या है? आमतौर से हम सबने अपनी-अपनी घरेलू व्याख्याएं कर रखी हैं। तेज से हम क्या मतलब समझते हैं? हम समझते हैं कि चेहरे पर कुछ रौनक दिखाई पड़े, तो तेज हो गया। कि स्वास्थ्य दिखाई पड़े, तो तेज हो गया। कि आदमी शक्तिशाली दिखाई पड़े, तो तेज हो गया।

जो आपको दिखाई पड़े, वह तो तेज होगा ही नहीं। क्योंकि कृष्ण बात कर रहे हैं अदृश्य की। तपस्वियों में तेज! इसकी खोज की विधि है।

अगर किसी तपस्वी में तेज देखना हो, तो तपस्वी पर ध्यान करना पड़ता है। महावीर बैठे हैं आपके सामने, आप भी उनके सामने बैठ गए हैं और महावीर को देखें। कि बुद्ध बैठे हैं। देखें, और देखते चले जाएं अपलक। एक ऐसी घड़ी आएगी कि महावीर खो जाएंगे, सिर्फ तेज-पुंज रह जाएगा। तभी आप समझना। अन्यथा नहीं। महावीर बचेंगे ही नहीं। कोई रूपरेखा न बचेगी। कोई शरीर, देह न दिखाई पड़ेगी। आदमी खो जाएगा बिलकुल, सिर्फ तेज-पुंज रह जाएगा, सिर्फ आभा।

और ऐसी आभा, जिसमें स्रोत नहीं होता। दीए में आभा होती है, तो दीए में स्रोत होता है। उसके चारों तरफ आभा होती है, एक सेंटर होता है। तेज अगर महावीर में दिखाई पड़ेगा, तो उसमें कोई न दीया होगा, न तेल होगा, न बाती होगी, न कोई स्रोत होगा। सिर्फ केंद्ररहित परिधि होगी।

इसलिए हम महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट और नानक और कबीर के आस-पास सिर के वह जो गोल घेरा बनाते हैं, वह कोई कैमरे की पकड़ में आने वाली चीज नहीं है।

और बड़े मजे की बात है। हम जो भी करते हैं, वह गलत ही करते हैं। असल में हम इतने गलत हैं कि हमसे ठीक कुछ हो नहीं सकता। अगर वह गोल घेरा बनाना हो, तो कृपा करके भीतर महावीर को खड़ा मत करो, सिर्फ गोल घेरा रहने दो। क्योंकि दोनों घटनाएं एक साथ कभी नहीं घटीं। जिनको महावीर दिखाई पड़े, उनको वह आभा नहीं दिखाई पड़ी। और जिनको आभा दिखाई पड़ी, उनको महावीर दिखाई नहीं पड़े। ये दोनों एक साथ नहीं घटतीं। यह असंभव है। ये कभी घटती ही नहीं। क्योंकि वह आभा दिखाई ही तब पड़ती है, जब आकार खो जाता है।

तो तपस्वियों में मैं तेज!

तपश्चर्या नहीं उन्होंने कहा। महात्माओं के साथ बड़ी ज्यादती कर दी। कहना चाहिए था, तपस्वियों में तपश्चर्या। लेकिन कहा, तपस्वियों में तेज। कितनी ही तपश्चर्या करो, अगर वह अनुभव की स्थिति नहीं आती, जहां कि मैं बिलकुल खो जाता है और सिर्फ प्रकाश का पुंज रह जाता है। आपसे मैंने कहा, आप देखो महावीर को, यह तो आपकी बात है। आप तो कभी देखोगे, बहुत मेहनत करोगे, तब दिखाई पड़ेगा।

लेकिन जहां तक महावीर का संबंध है, जिस दिन से ज्ञान हुआ, कोई चालीस साल की उम्र में, उसके बाद वे चालीस साल और जिंदा थे। फिर चालीस साल वे जो जिंदा थे, उसमें वे शरीर नहीं थे। उसमें वे सिर्फ एक प्रकाशपुंज थे, जो चल रहा था, डोल रहा था; आ रहा था, जा रहा था; बोल रहा था, सो रहा था; उठ रहा था, बैठ रहा था। लेकिन उसमें फिर कोई शरीर नहीं था।


तेज अमृतत्व है; शरीर मरणधर्मा है। तपस्वियों में तेज, उसका अर्थ है, तपस्वियों में वह, जो कभी नहीं मरता। लेकिन आपने अगर चेहरे पर रौनक देखी, वह तो मर जाएगी तपस्वी के साथ। अगर शरीर में थोड़ी लाली दिखाई पड़ी है, तो वह तो जरा इंजेक्शन लगाकर खून बाहर निकाल लो, तो निकल जाएगी। उससे तेज का कोई संबंध नहीं है।

तेज एक बहुत आकल्ट, एक गुप्त रहस्य है। और उसको देखने की विधियां हैं। और जब तक वह न दिखाई पड़े, तब तक कोई तपस्वी नहीं है। तप कितना ही करे कोई।

महावीर के पास भिक्षु आएंगे, साधक आएंगे; बुद्ध के पास आएंगे। बुद्ध उनको देखेंगे और कहेंगे कि तुम तपश्चर्या कर रहे हो, वह ठीक; लेकिन अभी तपस्वी नहीं हुए। क्या मापदंड है जानने का?

जानने का एक ही मापदंड है, बुद्ध जैसे आदमी, जैसे ही आंख किसी पर डालते हैं वे, तत्काल दिखाई पड़ता है कि तेज है या नहीं। वही तेज, जानने का माध्यम है। और कोई जानने का माध्यम नहीं है। और कोई मेजरमेंट का उपाय भी नहीं है कि किस आदमी को ज्ञान उपलब्ध हो गया।


उस तेज की बात है। कृष्ण कहते हैं, तपस्वियों में तेज।

एक-एक चीज में वे अदृश्य का इशारा करते हैं। कहते हैं, आकाश में शब्द।

आकाश दिखाई पड़ता है, आकाश में सब चीजें दिखाई पड़ती हैं, सिर्फ एक शब्द दिखाई नहीं पड़ता। खयाल किया आपने! आकाश दिखाई पड़ता है, विस्तार, एक्सपैंशन। और आकाश में सब चीजें दिखाई पड़ती हैं, शब्द दिखाई नहीं पड़ता। फिर भी आकाश शब्दों से भरा हुआ है; शब्द से भरा हुआ है। शब्द की तरंगों से भरा हुआ है।

अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि आज नहीं कल, कृष्ण ने जो गीता कही है, वह हम फिर पकड़ लेंगे यंत्रों के द्वारा। क्योंकि अगर वह कभी भी कही गई है, तो शब्द कभी मरता नहीं; वह मौजूद है। हम उसको पकड़ लेंगे। जरा वक्त लगेगा।


यह सारा अस्तित्व शब्दों की पर्तों से भरा हुआ है। अदृश्य पर्तें हैं। इस जगत में जो भी शब्द कभी बोला गया है, वह रिकार्डेड है। वह रिकार्ड के बाहर कभी नहीं जा सकता।

इसलिए धर्म कहता है, ऐसा कोई बुरा शब्द मत बोलना, जो तुम्हारा रिकार्ड बन जाए। क्योंकि वह अनंत यात्रा तक तुम्हारा रिकार्ड होगा। उससे बच नहीं सकते हो फिर। उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। वह आपकी कथा है। कोई खाता-बही लिए हुए नहीं बैठा है परमात्मा कि उसमें लिख रहा है कि फलां आदमी ने क्या बोला। यह अस्तित्व शब्द को विनाश नहीं करता। अस्तित्व शब्द को पी जाता है और समाहित कर लेता है।

कृष्ण कहते हैं, आकाश में मैं शब्द।

सर्वाधिक आकाश में व्याप्त जो वस्तु है, वह शब्द है और सबसे कम दिखाई पड़ती है। इसलिए गलत बोलने से तो बेहतर है, चुप रह जाना, न बोलना। तो न बोलना रिकार्ड में रहेगा कि यह आदमी मौन था। जरूरी नहीं है कि मौन में जो आदमी था, वह अच्छा ही आदमी रहा हो। लेकिन इतना तो कम से कम पक्का है कि सक्रिय रूप से बुरा नहीं था।

आप चुप हैं, इससे कुछ पक्का पता नहीं चलता कि आप अच्छे ही आदमी हैं। छः दिन पता नहीं क्या रहे हों! बुरे होने की वजह से ही चुप रहे हों। लेकिन एक बात तय है कि कम से कम निष्क्रिय हैं।

आकाश में मैं शब्द। सूक्ष्मतम जो आकाश में संगृहीत होता है रूप--अदृश्य, अरूप कहना चाहिए--वह है शब्द, वह मैं हूं।

वेदों में ओंकार

वेद में कितना क्या है! कहा जाए, करीब-करीब सब कुछ है। जो जगत में धर्म की दिशा में जो भी खोजा गया है, करीब-करीब सब है। लेकिन उस सबको छोड़कर कृष्ण कहते हैं, वेदों में ओंकार, सिर्फ ओम। बस, उतना हूं मैं। बाकी मैं नहीं हूं। बाकी तो सब जगत है। सिर्फ ओम!

अगर कृष्ण से पूछा जाए, तो वे कहेंगे, सब शास्त्र नष्ट हो जाएं, अकेला ओम बच जाए, तो सब शास्त्र बच गए। और सब शास्त्र बच जाएं, अकेला ओम खो जाए, तो सब शास्त्र खो गए।

और बड़े मजे की बात है, यह ओम बिलकुल ही अर्थहीन शब्द है, मीनिंगलेस। इसमें कोई अर्थ नहीं है। इसमें कोई फिलासफी, कोई दर्शन नहीं है। यह शब्द एक अर्थ में बिलकुल एब्सर्ड है; इसमें कुछ अर्थ नहीं है। और कृष्ण इतना मोह दिखलाते हैं कि वेदों में ओंकार! बस, वेद में मैं ओम हूं! क्यों? बहुत पूरी प्रक्रिया है। थोड़ी-सी बात आपसे कह दूं।

इस एक छोटे-से शब्द में, ओम में, भारत ने समस्त मंत्र-योग की साधना को बीज की तरह बंद कर दिया। जैसे आइंस्टीन का रिलेटिविटी का फार्मूला है, छोटा-सा, दोत्तीन शब्द, दोत्तीन अक्षर--पूरा हो जाता है। ऐसे भारत ने जो भी अंतर-जीवन में अनुभव किया है, और जितनी विधियां मनुष्य ने विकसित की हैं सत्य की तरफ यात्रा करने की, वे सब की सब बीज-मंत्र की तरह ओम में रख दी हैं।

यह ओम अ, उ और म, इन तीन मूल ध्वनियों का जोड़ है। सारे शब्दों का विस्तार ओम का विस्तार है। सब वेदों में ओम। ओम होगा, तो सब वेद पुनः निर्मित हो सकते हैं। सीक्रेट-की आपके हाथ में है। ये तीन अ, उ और म, अगर ये तीन हों, तो जगत के सब शास्त्र निर्मित हो सकते हैं। लेकिन सब शास्त्र बच जाएं और कुंजी खो जाए, तो सब शास्त्र बेकार हो जाएंगे। ताले रह जाएंगे, चाबी खो गई।

विज्ञान भैरव में शिव ने पार्वती को कहा है कि तू ज्यादा न पूछ। ज्यादा में तुझे अड़चन होगी। थोड़े में तुझे कह दूं। अ उ म--यह जो ओम है, इसमें तू अ को भी भूल जा; इसमें तू म को भी भूल जा; वह जो बीच में बचता है, ओम के बीच में; अ भी छूट जाए, म भी छूट जाए, वह जो बीच में बचता है उ, उस उ में तू डूब जा। तो मैं तुझे उपलब्ध हो जाऊंगा।

यह तो टेक्नीक की बात है। अगर आप उ में डूब सकें...। आप कभी जोर से कहें उ, तो आपको पता चलेगा कि पूरी नाभि भीतर सिकुड़ गई। जितने जोर से उ कहेंगे, उतने ही जोर से नाभि पर जोर पड़ेगा। और नाभि जीवन का मूल ऊर्जा-स्रोत है। उसको ठीक टैप करना जिसको आ जाए...। ओम, उसको ही हैमर, उसको ही चोट पहुंचाने की तरकीब है। और उस पर जो विधिवत चोट पहुंचा दे, वह जीवन की ऊर्जा उठनी शुरू हो जाती है। कुंडलिनी जागने लगती है। ऊपर की यात्रा पर आदमी निकल जाता है।



ओम जो है, वह सीक्रेट है समस्त वेदों का। वह व्यक्ति के भीतर जो परमात्मा की ऊर्जा बीज में छिपी है, उसको टैप करने की तरकीब है; उसको चोट करने की तरकीब है।

तो कृष्ण कहते हैं, वेदों में ओंकार। ऐसा मैं अदृश्य हूं। ऐसे दृश्य में तू मुझ अदृश्य को खोज।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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