सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 11


 दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। 14।।


यह अलौकिक अर्थात अति अदभुत त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, परंतु जो पुरुष मेरे को ही निरंतर भजते हैं, वे इस माया का उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात संसार से तर जाते हैं।


दुस्तर है, कठिन है, आर्डुअस है, अलौकिक है, बड़ी शक्ति है प्रकृति की, क्योंकि है तो परमात्मा की ही शक्ति। कठिन है, क्योंकि हम उसी शक्ति से निर्मित हैं, हमारा सब कुछ। सिर्फ हमारे भीतर जो परमात्मा है, उसे छोड़कर।

हमारा शरीर, हमारा मन, हमारी बुद्धि, हमारा सब कुछ प्रकृति से ही निर्मित है। जब हम मिट्टी से लड़ते हैं, तो हम मिट्टी को ही लड़ा रहे हैं। हम प्रकृति से ही प्रकृति को लड़ा रहे हैं। तो हम न जीत पाएंगे। बहुत दुस्तर हो जाएगी बात।

कृष्ण कहते हैं, विचित्र है, अदभुत है, अलौकिक है, असाधारण है यह शक्ति! क्योंकि शक्ति तो आखिर परमात्मा की ही है। माना कि कितनी ही छोटी लहरें हों, फिर भी हैं तो सागर की। यह सोचकर कि लहरें हैं, उनसे जूझ मत जाना। हमें डुबाने को तो वे लहरें भी काफी हैं। क्योंकि हम तो लहरों में भी और छोटी लहर हैं। कठिन है, अगर आदमी अपने बलबूते लड़े। कठिन है, अगर अपने पर ही भरोसा रखकर लड़े। अगर सोचता हो कि मैं ही पार कर लूंगा, तो कठिन है।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, कठिन नहीं भी है, संभव भी है, अगर कोई मेरा सहारा ले ले। अगर कोई दिन-रात मुझे ही भजे, अगर कोई दिन-रात मुझको ही समर्पित रहे, अगर कोई मेरे ही हाथ में सारी बात छोड़ दे और कहे कि ठीक, अब तुम्हीं नाव को खेओ। अब मैं छोड़ता हूं; अब तुम मुझे ले चलो, जहां ले चलना हो। अगर कोई मुझ पर भरोसा कर सके, ट्रस्ट कर सके, तो बड़ी सरल है।

विराट शक्ति के साथ भरोसा हो, तो लड़ाई बहुत आसान है। खुद आदमी लड़ने की कोशिश करे, तो लड़ाई बहुत कठिन है; जीतना करीब-करीब असंभव है; हारना ही सुनिश्चित है। विराट के साथ हार असंभव है; विराट के साथ जीत सुनिश्चित है।

लेकिन विराट के हाथों में अपने को छोड़ने के लिए कृष्ण कहते हैं, दिन-रात मुझे ही भजे। क्या मतलब होगा दिन-रात भजने का? क्या कोई आदमी कृष्ण-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण कहता रहे? कई लोग कह रहे हैं। कुछ दिखाई नहीं पड़ता कि कुछ हुआ हो।

नहीं; भजना इतनी साधारण बात नहीं है। इसका यह मतलब भी नहीं है कि कोई कृष्ण-कृष्ण न कहे। भजना बहुत भाव की दशा है। भजने का अर्थ है, एक अंतःस्मरण। जहां भी, जो भी दिखाई पड़ जाए, उसमें कृष्ण का ही स्मरण। फूल दिखे, तो पहले फूल का खयाल न आए, पहले खयाल कृष्ण का आए। फिर कृष्ण फूल में खिल जाए; फिर फूल कृष्णरूप हो जाए। भोजन को बैठें, तो पहले खयाल भोजन का न आए, कृष्ण का आए। पेट में भूख लगे, तो पहले खयाल यह न आए कि मुझे भूख लगी है; पहले खयाल आ जाए, कृष्ण को भूख लगी है। ऐसा रोएं-रोएं में, उठते-बैठते, चलते-सोते; सांझ जब रात बिस्तर पर गिरने लगें, तो ऐसा खयाल न आए कि मैं सोने जा रहा हूं; ऐसा खयाल आए कि मेरे भीतर वह जो कृष्ण है, अब विश्राम को जाता है।

और यह शब्द से नहीं, यह भाव से। मैं तो आपसे कहूंगा, तो शब्द से ही कहूंगा। लेकिन यह भाव से खयाल आए। घर में आपके एक बच्चा पैदा हो, तो ऐसा न लगे कि बच्चा पैदा हुआ है; ऐसा लगे कि कृष्ण आए, या परमात्मा आया। कोई भी नाम से कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि सभी नाम उसी के हैं। लेकिन भाव यह हो कि परमात्मा है। सभी स्थितियों में--सुख में, दुख में, विपदा में, संपदा में--सभी स्थितियों में उसका ही स्मरण बना रहे। सभी कुछ उसको ही समर्पित हो जाए।

ऐसा जो दिन-रात भजे कोई, तो विराट से सम्मिलन शुरू हो जाता है। क्योंकि हमारी चेतना उसी तरफ बहने लगती है, जिस तरफ हमारी स्मृति होती है। स्मृति चेतना के लिए चैनेलाइजेशन है।

जैसे हम नहर बनाते हैं नदी में। नहर नहीं बनाते, तो नदी बहती है, जहां उसे बहना होता है। नहर बना देते हैं, तो फिर नदी नहर से बहती है। और जहां हमें ले जाना होता है, नदी वहां पहुंच जाती है।

स्मरण या जिसे संतों ने स्मृति कहा है, सुरति कहा है,  सम्यक स्मृति; या और कोई सुमिरन या और भी नाम हैं हजार। भाव में प्रवेश कर जाए यह बात। सुबह जब नींद खुले, तो ऐसा न लगे कि मैं जग रहा हूं; ऐसा लगे कि मेरे भीतर परमात्मा जागा। और यह शब्द से नहीं; ऐसा आप सुबह उठकर कहें कि मेरे भीतर परमात्मा जागा, उससे बहुत अर्थ नहीं है। क्योंकि कहने का मतलब ही यह है कि आपको भाव पैदा नहीं हो रहा है। भाव पैदा हो, तो कहने की जरूरत नहीं है।

भाव और शब्द में फर्क है। शब्द धोखा देते हैं। एक आदमी बार-बार किसी से कहता है, मैं बहुत प्रेम करता हूं; मैं बहुत प्रेम करता हूं। तब वह धोखा देने की कोशिश कर रहा है। क्योंकि जब प्रेम होता है, तो प्रेम शब्द-शून्य होता है; कहने की भी जरूरत नहीं होती पूरे प्राणों से प्रकट होता है; रोएं-रोएं से प्रकट होता है।

मां बच्चे से कह भी नहीं सकती कि मैं तुझे प्रेम करती हूं। कैसे कहेगी! बच्चा भाषा भी नहीं जानता। फिर भी बच्चा पहचानता है। रोएं-रोएं से, मां के चारों तरफ, प्रेम बहने लगता है। कोई भाषा नहीं है।

और बड़े मजे की बात है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर बच्चे को मां के पास बड़ा न किया जाए, तो फिर वह जिंदगी में किसी को भी प्रेम न कर पाएगा--किसी को भी। और मजा यह है कि मां कभी बच्चे से कहती नहीं कि मैं तुझे प्रेम करती हूं, क्योंकि वह तो भाषा भी नहीं जानता; उससे कहने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन उसे छाती से लगा लेती है। भाव की कोई धारा दोनों की छातियों के बीच आदान-प्रदान हो जाती है। उसकी आंखों में झांकती है। भाव की कोई धारा एक-दूसरे की आंख से उतर जाती है। उसका हाथ हाथ में लेती है, और भाव की कोई धारा हाथ-हाथ के पार चली जाती है। शब्द नहीं।

इसलिए मनोवैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति अपनी पत्नी से तृप्त नहीं हो पाएगा। उसका कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति उस प्रेम को खोज रहा है, जो उसने मां से पाया था। मनोवैज्ञानिक इसको ऐसा कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी पत्नी में अपनी मां को खोज रहा है, जो कि बहुत मुश्किल मामला है। मिल नहीं सकता! इसलिए कभी तृप्ति नहीं हो सकती।

वह जो अनूठा प्रेम था--शब्दहीन, निःशब्द, मौन; जाना था जिसे, किसी ने कहा नहीं था कभी; किसी ने दावा नहीं किया था; लेकिन फिर भी बहा था और पहचाना था--उसी प्रेम की तलाश चल रही है जिंदगीभर। वह प्रेम फिर दुबारा नहीं मिलेगा, इसलिए बेचैनी है, इसलिए कठिनाई है, इसलिए अड़चन है।

मां की खोज चल रही है। वह नहीं मिलती। वह नहीं पकड़ में आती फिर कभी। वह कहां मिलेगी? वह कैसे मिल सकती है? उसका उपाय भी न के बराबर है। फिलहाल तो नहीं है। पर उसने तो कभी कहा नहीं था। पत्र नहीं लिखे थे; कोई प्रेम-पत्र नहीं लिखे थे, बड़े दावे नहीं किए थे। लेकिन फिर दावे करने वाले लोग आते हैं। दावे बहुत होते हैं, और भीतर कुछ भी नहीं होता।



यह जो स्मरण है, यह जो प्रभु-परायण होने की बात है, यह जो कृष्ण कहते हैं, मुझे ही जो भजे चौबीस घंटे, इसका अर्थ? इसका अर्थ है, जो भाव से मुझमें जीए। उठे-बैठे कहीं भी, भाव से मुझमें रहे। चले-फिरे कहीं भी, भाव से मुझमें रहे। करे कुछ भी, भाव से मुझमें रहे। एक अंतर्धारा भाव की मेरी तरफ बहती रहे, बहती रहे, बहती रहे। धीरे-धीरे वह नहर खुद जाती है, जिससे व्यक्ति और परमात्मा के बीच सेतु बन जाता है।

और एक बार वह सेतु निर्मित हो जाए, फिर इस प्रकृति से ज्यादा निर्बल कोई चीज नहीं है। यह बहुत निर्बल है। बहुत दीन है प्रकृति। लेकिन जब तक वह सेतु न बने, महाशक्तिशाली है प्रकृति। क्योंकि ये सब तुलनात्मक वक्तव्य हैं। हमारी तुलना में प्रकृति बहुत शक्तिशाली है। परमात्मा की तुलना में कोई सवाल ही नहीं उठता। कोई प्रश्न ही नहीं है।

इसलिए आदमी अगर अपने पर भरोसा करे, तो उलझाएगा अपने को। और जब से आदमियत ने, पूरी आदमियत ने अपने पर भरोसा करना शुरू किया है, और जब से ऐसा लगा है कि ईश्वर को बीच में आने की कोई भी जरूरत नहीं है, हम काफी हैं; मैन इज़ इनफ, पर्याप्त है आदमी; तब से हमने आदमी की समस्याएं करोड़ गुना गहरी और गहन कर दी हैं। और सुलझाव कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। रोज उलझाव बढ़ता चला जाता है।

एक समस्या सुलझाते हैं, तो सुलझाने में पच्चीस नई समस्याएं खड़ी कर लेते हैं। उनको सुलझाने जाते हैं कि और हरेक समस्या से पच्चीस समस्याएं खड़ी होती हैं। सारा मनुष्य एक समस्या हो गया है; सिर्फ एक समस्या; जिसे कहीं से भी छुओ, और समस्या! जैसे सागर को कहीं से भी चखो, और नमकीन, नमक। ऐसे आदमी को कहीं से भी छुओ, और समस्याएं निकल आती हैं। कुछ भी करो, और समस्याएं। सब तरफ समस्याएं फैल गई हैं। क्या बात हो गई है?

असल में प्रकृति से लड़कर हम जो कर रहे हैं, उससे यही होना निश्चित था। प्रकृति दुस्तर है, उससे लड़ा नहीं जा सकता। उससे लड़कर हम सिर्फ अपने ऊपर मुसीबत बुला सकते हैं। हां, थोड़ी देर हम अपने को भ्रम में रख सकते हैं कि हम लड़ रहे हैं, और जीत जाएंगे। हम थोड़ी देर आशाएं बांध सकते हैं। लेकिन सब आशाएं धूल-धूसरित हो जाती हैं; सब मिट्टी में मिल जाती हैं।

फिर भी आदमी अजीब है, अब तक उसे खयाल नहीं आया। और हम एक-दूसरे को हिम्मत बढ़ाए चले जाते हैं। बाप बेटे को कहता है, कोई फिक्र नहीं; मैं नहीं जीता, तू जीत जाएगा। जरा परिस्थितियां ठीक न थीं। शिक्षक विद्यार्थी को कहे जाता है, कोई फिक्र नहीं। हम नहीं जान पाए कि सत्य क्या है, लेकिन तुम जान लोगे, क्योंकि अब ज्ञान और काफी विकसित हो गया है।

यह जो हमारी, आदमी की आज की दशा है। और हम सब एक-दूसरे को कहे चले जाते हैं कि बढ़े जाओ, मंजिल बहुत पास है। बढ़े जाओ, मंजिल बहुत पास है। न हमें कोई मंजिल मिली है; न जिनसे हम कह रहे हैं, उन्हें कोई मिलेगी; लेकिन चलाए चले जाते हैं।

कृष्ण कह रहे हैं, मुझको परायण को उपलब्ध हो जा, मेरे प्रति समर्पित हो जा। इस दौड़ से बच। ये तीन प्रकृति के गुण और यह प्रकृति का पूरा का पूरा सम्मोहन का जाल, यह मेरी योगमाया है। यह मेरे हिप्नोसिस, यह मेरे सम्मोहन की शक्ति है। और इस सब में सारा जगत चल रहा है और दौड़ा चला जा रहा है।  और दौड़े चले जा रहे हैं। रुक। और तू मेरे स्मरण में लग। अगर तुझे सम्मोहन के बाहर आना है, तो परमात्मा के स्मरण में लग।

परमात्मा का सम्मोहन डी-हिप्नोटाइजिंग है; वह सम्मोहन को तोड़ता है, वह एंटीडोट है। 

एक आदमी ने आपको गाली दी है और आपके भीतर क्रोध का धुआं उठा। वह सम्मोहन है प्रकृति का। बटन दबा दी उसने आपकी। बस, अब आपका पंखा भीतर चलने लगा। उस वक्त जरा स्मरण करें, उस ओर भी कृष्ण हैं, इस ओर भी कृष्ण हैं। और तब आप अचानक पाएंगे कि भीतर क्रोध जो पंख फैलाता था उड़ने के लिए, उसने पंख सिकोड़ लिए।

डी-हिप्नोटाइजिंग है स्मरण। परमात्मा का स्मरण सम्मोहन- तोड़क है। और अगर परमात्मा को भूले और अपना ही स्मरण रखा कि मैं ही सब कुछ हूं, तो यह मैं जो है, यह बहुत मादक है। और यह सम्मोहन को गहन करता है, और मूर्च्छित करता है, बेहोश करता है। फिर हम दौड़े चले जाते हैं। यह तीन का खेल चलता रहता है चारों तरफ। यह प्रकृति की तीन की लीला चलती रहती है; ट्राएंगल; हम दौड़ते रहते हैं उसमें।

इससे कब ऊपर उठेंगे? इससे उठने का द्वार कहां है? इससे उठने का द्वार है, प्रभु-स्मरण। कहीं से भी स्मरण मिलता हो! कहीं से भी स्मरण मिलता हो!


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...