रविवार, 25 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 1

 अनन्य निष्ठा 



श्रीभगवानुवाच

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युग्जन्मदाश्रयः।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।। 1।।


श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे पार्थ, तू मेरे में अनन्य प्रेम से आसक्त हुए मन वाला और अनन्य भाव से मेरे परायण योग में लगा हुआ मुझको संपूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त सबका आत्मरूप जिस प्रकार संशयरहित जानेगा, उसको सुन।


धर्म मौलिक रूप से जीवन के प्रति एक प्रेमपूर्ण निष्ठा का नाम है

जीवन के प्रति दो दृष्टियां हो सकती हैं। एक--नकार की, इनकार की, अस्वीकार की। दूसरी--स्वीकार की, निष्ठा की, प्रीति की। जितना अहंकार होगा भीतर, उतना जीवन के प्रति अस्वीकार और विरोध होता है। जितनी विनम्रता होगी, उतना स्वीकार। जैसा है जीवन, उसके प्रति एक भरोसा और ट्रस्ट। और जीवन जहां ले जाए, उसका हाथ पकड़कर जाने की संशयहीन अवस्था होती है।

कृष्ण इस सूत्र में अर्जुन से कह रहे हैं कि जो अनन्य भाव से मेरे प्रति प्रेम और श्रद्धा से भरा है!


अनन्य भाव को ठीक से समझ लेना जरूरी है।

प्रेम दो तरह के हो सकते हैं। एक प्रेम वैसा, जिसमें अन्य का भाव मौजूद रहता है, दूसरा दूसरा ही रहता है, और हम प्रेम करते हैं। पिता बेटे को प्रेम करता है, वह अनन्य नहीं होता। बेटा बेटा ही होता है, पिता पिता ही होता है। प्रेम में ऐसा नहीं होता कि पिता बेटा हो जाए, बेटा पिता हो जाए। भेद कायम रहता है। अलगाव मौजूद रहता है। दोनों के बीच दीवाल बनी ही रहती है। कितनी ही पारदर्शी हो, कितनी ही ट्रांसपैरेंट हो, पर दीवाल बनी ही रहती है। पति पत्नी को प्रेम करता है, या मित्र मित्र को प्रेम करता है, तो भी अन्य भाव मौजूद रहता है। दि अदर, वह जो दूसरा है, कितना ही अपना मालूम पड़े, फिर भी दूसरा ही होता है। कितने ही निकट हो, फिर भी एक नहीं हो जाता।

कृष्ण कहते हैं, अनन्य भाव से जो मुझे प्रेम करता! जो इस भांति प्रेम करता है कि एक ही बचे, दो न रह जाएं।

प्रार्थना और प्रेम का यही फर्क है। जहां दो कायम रहते हैं, वहां प्रेम; और जहां दो विलीन हो जाते हैं, वहां प्रार्थना।

यह प्रार्थना का सूत्र है। अनन्य भाव की दशा केवल परमात्मा के प्रति हो सकती है, किसी व्यक्ति के प्रति नहीं हो सकती है। किसी व्यक्ति के प्रति इसलिए नहीं हो सकती कि जब भी दूसरा व्यक्ति होता है, तब उसकी सीमाएं हैं। और जब हम भी उसके पास व्यक्ति की भांति जाते हैं, तो अपनी सीमाओं को साथ लेकर जाते हैं। दोनों की सीमाएं ही दीवाल बन जाती हैं, और दोनों की सीमाएं ही दोनों को दूर करती हैं।

मनुष्य के प्रेम में हम कितने ही निकट आ जाएं, निकट आकर भी दूरी कायम रहती है। बल्कि सच तो यह है, जितने निकट आते हैं, उतनी ही दूरी का एहसास गहन, स्पष्ट होता है। प्रेमी जितने निकट आते हैं, उतना ही प्रतीत होता है कि दोनों के बीच एक बड़ा फासला है, जो पार नहीं किया जा सकता; अनब्रिजेबल; कुछ है, जिस पर कोई सेतु नहीं बन सकता।

वही तो प्रेम की पीड़ा है और कष्ट है। प्रेमी दूर हो, तो इतनी पीड़ा नहीं मालूम पड़ती, क्योंकि लगता है, पास आ सकते हैं। लेकिन जब प्रेमी बिलकुल ही पास आ जाए, और पास आने का उपाय न रह जाए, तब पीड़ा सघन हो जाती है। क्योंकि अब पास आने का कोई उपाय भी न रहा। जितने पास आ सकते थे, उतने पास आ गए। लेकिन फिर भी दूरी कायम है। वह दूरी सिर्फ प्रार्थना में ही टूटती है। और वह दूरी उसके साथ ही टूट सकती है, जिसकी कोई सीमा न हो। जिसकी भी सीमा है, उसके साथ वह दूरी नहीं टूट सकती है।

सिर्फ परमात्मा की तरफ ऐसा प्रेम हो सकता है जो अनन्य हो जाए, जिसमें दूसरा मौजूद न रहे, जिसमें दूसरा मिट ही जाए। बड़े मजे की बात है लेकिन यह, क्योंकि जब दूसरा मिटता है, तो मैं भी मिट जाता हूं। मैं भी तभी तक हो सकता हूं, जब तक दूसरा है। जब तक तू है, तभी तक मैं भी हो सकता हूं। मैं और तू एक ही चीज के दो पहलू हैं। एक को फेंक देंगे, दूसरा भी खो जाएगा। ऐसा नहीं हो सकता कि मैं एक को बचा लूं और दूसरे को छोड़ दूं।

इसलिए वेदांत बहुत अदभुत शब्द का उपयोग करता है, वह शब्द है, अद्वैत। वेदांत कहता है कि उस परम स्थिति में ऐसा नहीं कहते हम कि एक बचेगा; हम इतना ही कहते हैं कि दो न बचेंगे। वेदांत ऐसा भी कह सकता था कि उस परम स्थिति में एक ही बचेगा, लेकिन एक तो बच नहीं सकता बिना दूसरे के बचे। दूसरा रहेगा, तो ही एक हो सकता है। इसलिए वेदांत बड़े उलटे ढंग से इस बात को कहता है। वह कहता है, दो न बचेंगे, अद्वैत होगा। यह नहीं कहते कि एक बचेगा; इतना ही कहते हैं कि दो न बचेंगे।

अनेक लोग सोचते हैं कि जब दो न बचेंगे, तो एक बच जाएगा। वहां भूल होती है। उस भूल को मैं आपको साफ करना चाहता हूं।

अगर दो न बचेंगे और एक ही बच जाएगा, तो फिर वेदांत को यही कहना था कि एक बचेगा। अद्वैत की बात करनी व्यर्थ थी। कहनी थी एकत्व की बात, एक बचेगा। इसमें भी कृष्ण यह कहते हैं कि दूसरा नहीं बचेगा, दि अदर विल नाट बी, अनन्य।

लेकिन अगर आप सोचते हों कि दूसरा न बचेगा, तो मैं बच जाऊंगा, तो आप गलत सोचते हैं। दो बचें, तो ही आप बच सकते हैं। अगर दूसरा न बचा, तो आप भी खो जाएंगे। आपको बचने की भी कोई जगह न बचेगी।

अनन्य प्रेम का अर्थ है, प्रेम ही बचेगा। न तो प्रेमी बचेगा, और न प्रेयसी बचेगी। न तो प्रेमी बचेगा, न प्रेमपात्र बचेगा; प्रेम ही बच जाएगा। सिर्फ प्रेम ही रह जाएगा। दोनों के बीच में जो है, वही बचेगा, और दोनों खो जाएंगे।

ऐसे अनन्य भाव को जो उपलब्ध हो, उस व्यक्ति को ही कृष्ण कहते हैं, वही योगी है, वही भक्त है। उसे हम जो भी नाम देना चाहें। लेकिन जहां दोनों मिट जाएं, जहां एक भी न बचे।

डर लगता है कि अगर दोनों मिट जाएंगे, तो फिर तो कुछ भी न बचेगा। और मजे की बात यह है कि जब दोनों मिटते हैं, तभी उसका पता चलता है, जो सब कुछ है। और जब तक दोनों रहते हैं, तब तक हमें कुछ भी पता नहीं चलता उसका, जो है। तब तक केवल दो बर्तनों के टकराने की आवाज सुनाई पड़ती है। इसलिए सभी हमारे प्रेम कलह बन जाते हैं। ऐसा प्रेम हमारे जीवन में खोजना कठिन है, जो कलह और कांफ्लिक्ट न बन जाए। कलह बन ही जाएगी।

दो व्यक्ति प्रेम में पड़े कि जानना चाहिए कि वे कलह की तैयारी में पड़ रहे हैं। शीघ्र ही कलह प्रतीक्षा करेगी। बस, दो बर्तन आवाज करेंगे, संघर्ष करेंगे, टकराएंगे। क्योंकि जहां भी मैं मौजूद हूं और दूसरा मौजूद है, वहां डामिनेशन की कोशिश जारी रहेगी, वहां मालकियत की कोशिश जारी रहेगी। अगर एक कमरे में हम दो आदमियों को बंद कर दें, तो वे न भी बोलें, चुप भी बैठें, आंख भी बंद रखें, तो भी उनकी दोनों की कोशिश एक-दूसरे के मालिक बनने की शुरू हो जाएगी। जहां दूसरा मौजूद हुआ कि मालकियत शुरू हो गई, हिंसा शुरू हो गई। दूसरे के ऊपर हावी होने की कोशिश शुरू हो गई।

अनन्य भाव का अर्थ है, जहां कोई मालकियत का सवाल नहीं है; जहां कोई ऊपर नहीं, कोई नीचे नहीं; जहां दूसरा ही नहीं। अगर दूसरा मौजूद है, तो वह हमारा ही तथाकथित प्रेम है, उसे चाहे हम भक्ति कहें। लेकिन अगर दूसरा मालूम पड़ता है कि दूसरा है, तो वह भक्ति नहीं है, हमारे सांसारिक प्रेम का ही थोड़ा-सा सब्लिमेटेड, थोड़ा-सा शुद्ध हुआ रूप है। और उस शुद्ध हुए रूप में सारी बीमारियां शुद्ध होकर मौजूद रहेंगी। और बीमारियां जब शुद्ध हो जाती हैं, तो और भी खतरनाक हो जाती हैं। जब बीमारी पूरी शुद्ध होती है, तो उसका डोज होमियोपैथिक हो जाता है, बहुत सूक्ष्म हो जाता है, बहुत प्राणों तक छेदता है।


अनन्य भाव का अर्थ है, न भक्त बचे, न भगवान बचे, भक्ति ही बच जाए। न प्रेमी बचे, न प्रेमपात्र बचे, प्रेम ही बच जाए।

और जिस दिन ऐसी घटना घटती है--और घटती है, और किसी के भी जीवन में कभी भी घट सकती है, सिर्फ अपने को मिटाने की तैयारी चाहिए--तो जिस दिन ऐसी घटना घटती है, उस दिन फिर ऐसा नहीं होता कि यह रहा भगवान। उस दिन फिर ऐसा होता है कि ऐसी कोई जगह नहीं, जहां भगवान नहीं। फिर ऐसा कोई चेहरा नहीं, जो भगवान का चेहरा नहीं। फिर ऐसा कोई पत्थर नहीं, जो उसकी प्रतिमा नहीं। और ऐसा कोई फूल नहीं, जो उसका नैवेद्य नहीं। फिर सभी कुछ उसका है। फिर उसके अलावा कोई और नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, अनन्य भाव से जो मुझे प्रेम करे।

और जब भी कृष्ण इस पूरी चर्चा में प्रयोग करेंगे मुझे, तब आप थोड़ा ठीक से समझ लेना। क्योंकि कृष्ण जब भी कहते हैं मुझे, तो कृष्ण के पास  अहंकार जैसी कोई चीज बची नहीं है। इसलिए कृष्ण का मैं अहंकार का सूचक नहीं है। कृष्ण के भीतर मैं को रिफर करने वाली वैसी कोई चीज नहीं बची है, जैसी हमारे भीतर है।

जब हम कहते हैं मैं, तो हमारी एक सीमा है मैं की। और जब कृष्ण कहते हैं मैं, तो मैं असीम है। फिर यह जो विराट आकाश है, यह भी उस मैं में समाया हुआ है। और ये जो फूल खिलते हैं वृक्षों के, ये भी उसी मैं में खिलते हैं। और ये जो पक्षी उड़ते हैं आकाश में, ये भी उसी मैं में उड़ते हैं। यह मैं विराट है। यह मैं किसी व्यक्ति का मैं नहीं है। यह मैं कृष्ण का मैं नहीं है। कृष्ण का प्रयोग किया जा रहा है, केवल एक वीहिकल, एक साधन की भांति। और जब भी कृष्ण बोलते हैं, तो परमात्मा बोलता है।

इसलिए बहुत बार भूल हो जाती है। कृष्ण की गीता पढ़ते वक्त बहुत लोगों को ऐसी कठिनाई होती है कि कृष्ण भी कैसे अहंकारी आदमी रहे होंगे! अर्जुन से कहते हैं, जो मुझे अनन्य भाव से प्रेम करेगा। मुझे! अर्जुन से कहते हैं, जो सब छोड़कर मेरी शरण में आ जाएगा। मेरी शरण में! कहते हैं अर्जुन से, मुझ वासुदेव को जो सब भांति समर्पित है। मुझ वासुदेव को!

जो भी पढ़ते हैं, दो तरह की भूलें होती हैं। अगर वे कृष्ण के प्रति रागयुक्त हैं, तो वे समझते हैं कि कृष्ण, वासुदेव नाम के जो व्यक्ति हैं, उनके प्रति समर्पण करना है। यह भी भूल है, राग की भूल है। जो कृष्ण के प्रति रागयुक्त नहीं हैं, उन्हें लगता है, कृष्ण भी कैसे अहंकारी हैं; कहते हैं, मेरी शरण में आ जाओ! पर दोनों की भूल एक ही है। दोनों मान लेते हैं कि कृष्ण का मैं अहंकार का सूचक और प्रतीक है।

जिसने भी कृष्ण के मैं को ठीक से न समझा, वह पूरी गीता को ही समझने में असफल हो जाएगा। इस एक छोटे-से शब्द पर गीता का पूरा सार, पूरी कुंजी निर्भर करती है। अगर आप कृष्ण के मैं को न समझ पाए, तो पूरी गीता को ही आप न समझ पाएंगे। क्योंकि गीता कृष्ण के द्वारा कही गई है, कृष्ण से नहीं कही गई है। गीता कृष्ण से प्रकट हुई है, कृष्ण गीता के रचयिता नहीं हैं। गीता कृष्ण से बही है, लेकिन कृष्ण गीता के स्रोत नहीं हैं; स्रोत तो परम ऊर्जा है, परम शक्ति है। स्रोत तो भगवान है।

इसलिए कृष्ण को अगर गीताकार बार-बार कहता है, भगवानुवाच, भगवान ने ऐसा कहा, तो थोड़ा सोचकर, समझकर कहा है। यह भगवान कहना कृष्ण को, सिर्फ इसी अर्थ में है कि कृष्ण ने नहीं कहा, भगवान ने कहा; कृष्ण से कहा है, कृष्ण के द्वारा कहा है

भगवान को भी चलना हो, तो हमारे पैरों के अतिरिक्त उसके पास अपने कोई पैर नहीं। और भगवान को भी बोलना हो, तो हमारी वाणी के अतिरिक्त उसके पास अपनी कोई वाणी नहीं। और भगवान को भी देखना हो, तो हमारी आंखों के अतिरिक्त उसके पास देखने की कोई आंख नहीं।

लेकिन जब किसी आंख से भगवान देखता है, तो वह आंख आदमी की नहीं रह जाती। हां, जो नहीं जानते, उनके लिए तो फिर भी वह आंख वही रहेगी, जो आदमी की थी। कृष्ण को जो आंख मिली है, वह तो मां-बाप से मिली है। लेकिन आंख के पीछे से जो देख रहा है, वह परमात्मा है। अगर आप आंख पर रुक गए, तो समझेंगे कि मां-बाप से मिली हुई आंख है। कृष्ण को जो गला मिला है, वह तो मां-बाप से मिला है। लेकिन जो वाणी है, वह परमात्मा की है। अगर आप गले पर रुक गए, तो वाणी को न पहचान पाएंगे।

इसलिए कृष्ण जिस सहज मन से कहते हैं कि मेरी शरण आ; ध्यान रखें, कोई अहंकारी इतने सहज भाव से नहीं कह सकता कि मेरी शरण आ।

अगर अहंकारी को आपको अपनी शरण बुलाना है, तो बड़ी तरकीबों से बुलाएगा। अहंकार कभी भी इतना सीधा-साफ नहीं होता। अहंकार बहुत चालाक है। अहंकारी कभी न कहेगा कि मेरी शरण आ, क्योंकि अहंकारी भलीभांति जानता है कि अगर किसी से यह कहा कि मेरी शरण आ, तो उस आदमी के अहंकार को चोट लगेगी और वह शरण न आ सकेगा। बल्कि वह आदमी आपको अपनी शरण में लाने की कोशिश करेगा।

इसलिए अहंकारी आदमी दूसरे के अहंकार को जरा भी चोट नहीं पहुंचाता; परसुएड करता है, फुसलाता है, राजी करता है, खुशामद करता है। उसके अहंकार को इस तरह राजी करता है कि वह शरण में भी आ जाए और अहंकार को चोट भी न लगे।

लेकिन कृष्ण जितनी सरलता से और सहजता से कहते हैं, अगर ऐसा कहें तो पैराडाक्सिकल मालूम पड़ेगा, उलटबांसी मालूम पड़ेगी कि कृष्ण जितनी विनम्रता से घोषणा करते हैं कि मेरी शरण आ, वह खबर दे रही है कि पीछे कोई अहंकार नहीं है।

अहंकार कभी भी इतना सरल नहीं होता। अहंकार हमेशा दांव-पेंच करता है, जटिल होता है। तिरछे रास्तों से यात्रा करता है; सीधा रास्ता अहंकार नहीं लेता। क्योंकि अहंकार को अनुभव है कि सीधे रास्ते से दूसरे के अहंकार को कभी भी झुकाया नहीं जा सकता।

लेकिन कृष्ण बड़ी सरलता से कहते हैं कि मुझे जो अनन्य भाव से समर्पित है अर्जुन, वही योग को उपलब्ध होता है। जिसकी निष्ठा मुझमें पूरी है, असंशय, वह असंदिग्ध ज्ञान को उपलब्ध होता है।

असंशय निष्ठा को भी थोड़ा-सा खयाल में ले लेना चाहिए।

निष्ठा भी दो तरह की हो सकती है। ससंशय निष्ठा होती है। जिसको विज्ञान में हाइपोथीसिस कहते हैं, वह ससंशय निष्ठा है। एक वैज्ञानिक प्रयोग करता है एक हाइपोथेटिकल भरोसे, एक विश्वास के साथ। जब प्रयोग करता है, तो एक विश्वास को लेकर प्रयोग करता है, लेकिन पूरे संशय के साथ। संशय रखता है कायम अपने भीतर, ताकि जांच कर सके कि बात सही निकली या नहीं निकली। अपने को खो नहीं देता; अपने को कायम रखता है। संशय को भी कायम रखता है। डाउट को मौजूद रखता है। और फिर भी प्रयोग करता है। प्रयोग करेगा, तो निष्ठा जरूरी है। प्रयोग तो बिना निष्ठा के न हो सकेगा। एक कदम भी बिना निष्ठा के नहीं उठाया जा सकता।

अगर आप यहां से घर वापस लौटेंगे, तो आप इस निष्ठा से ही लौट रहे हैं कि घर उसी जगह होगा, जहां आप छोड़ आए थे। पता आपको हो या न हो, लेकिन यह निष्ठा अंदर खड़ी है कि घर वहीं मिलेगा, जहां छोड़ आए थे। यह निष्ठा पीछे काम कर रही है। कल सुबह जब आप उठेंगे, तो इसी निष्ठा से कि सूरज निकल आया होगा, जैसा कि कल निकला था।

जरूरी नहीं है। किसी दिन तो ऐसा होगा कि सूरज नहीं निकलेगा। एक दिन तो ऐसा जरूर होगा कि सूरज नहीं निकलेगा। वैज्ञानिक कहते हैं, कोई चार हजार साल में ठंडा हो जाएगा। चार हजार साल बाद किसी शरीर में आप जरूर होंगे कहीं, और किसी दिन सुबह उठेंगे और सूरज नहीं निकलेगा।

वैज्ञानिक निष्ठा तो रखता है कि सूरज निकलेगा, लेकिन ससंशय। संशय कायम रखता है कि हो सकता है कि वह दिन आज ही हो, कि न निकले। वह दिन कभी भी हो सकता है। प्रयोगशाला में प्रवेश करता है, तो निष्ठा तो रखता है कि प्रकृति अपने पुराने नियम से ही चलती होगी। कल भी आग ने जलाया था, आज भी जलाएगी। लेकिन जरूरी नहीं है। क्योंकि कोई पक्का कैसे हो सकता है कि कल आग ने जलाया था, तो आज भी जलाएगी! तो वैज्ञानिक एक हाइपोथेटिकल बिलीफ, एक ससंशय निष्ठा के साथ प्रयोगशाला में प्रवेश करता है।

विज्ञान में प्रवेश करना हो, तो ससंशय निष्ठा ही मार्ग है। लेकिन धर्म में अगर प्रवेश करना हो, तो निःसंशय निष्ठा मार्ग है। निःसंशय निष्ठा बड़ी और बात है। उसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है।

निःसंशय निष्ठा का अर्थ यह है कि अगर विपरीत भी हो, अगर आज सूरज न भी निकले, तो भी जो निष्ठावान, जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं, वैसा निष्ठावान व्यक्ति समझेगा कि मेरी आंख में कोई खराबी है; सूरज तो निकला ही होगा। आप फर्क समझ लेना। अगर कल सुबह ऐसा हो कि सूरज न निकले, तो निष्ठावान व्यक्ति कहेगा, मेरी आंख में कोई खराबी है, सूरज तो निकला ही होगा। अगर निष्ठावान व्यक्ति घर वापस पहुंचे और पाए कि उसका घर वहां से हट गया है, तो निष्ठावान व्यक्ति कहेगा, घर तो वहीं होगा, मैं ही भटक गया हूं।

फर्क यह है, संशय वाला व्यक्ति हमेशा संशय बाहर आरोपित करेगा और निःसंशय व्यक्ति संशय को सदा अपने पर आरोपित करेगा। संशयवान व्यक्ति सदा भूल कहीं और खोजेगा; निःसंशय व्यक्ति सदा भूल अपने में खोजेगा।


निष्ठावान, संशयहीन निष्ठावान व्यक्ति अपने अतिरिक्त जगत में कहीं भूल नहीं देखेगा। अगर भूल होगी कहीं, तो मुझमें होगी; और कहीं नहीं। जीवन में जो भी घटेगा, चाहे सुख, चाहे दुख, उससे उसकी निष्ठा में कोई डांवाडोल स्थिति, कोई कंपन पैदा नहीं होगा। अगर जीवन पूरा दुख भी बन जाए, तो भी वैसा व्यक्ति जानेगा कि कहीं उसकी ही भूल है; परमात्मा की कृपा में कोई अंतर नहीं है। कहीं मैं ही चूक रहा हूं; उसका प्रसाद तो बरस रहा है। कहीं मेरा ही बर्तन उलटा रखा होगा; उसकी वर्षा तो जारी है।

संशयवान व्यक्ति का बर्तन भी उलटा रखा हो, वर्षा भी हो रही हो, तो भी वह यही कहेगा कि मुझमें पानी नहीं भर रहा है, इससे साफ जाहिर है कि वर्षा नहीं हो रही।

इस भेद को ठीक से समझ लेना, क्योंकि यह भेद धर्म में प्रवेश में अंतर लाएगा। क्योंकि धर्म का मौलिक आधार व्यक्ति का रूपांतरण है। विज्ञान का मौलिक आधार वस्तु का रूपांतरण है। विज्ञान की खोज वस्तु की खोज है, धर्म की खोज व्यक्ति की खोज है। इसलिए उचित है कि विज्ञान वस्तु के भीतर भूल-चूक देखे और उचित है कि धर्म व्यक्ति के भीतर भूल-चूक देखे।

अगर आपका डाउट अदर ओरिएंटेड है, दूसरे पर ठहरा हुआ है, तो आपका चित्त वस्तु के संबंध में बहुत-सी बातें खोज लेगा, लेकिन स्वयं के संबंध में कुछ भी न खोज पाएगा। इसलिए धर्म और विज्ञान के आयाम, डायमेंशन अलग हैं।

कृष्ण कहते हैं, जो निःसंशय होकर मुझमें निष्ठा रखता है!

बड़ी कठिन है यह बात। निःसंशय होकर निष्ठा कैसे रखी जा सकती है! अगर निःसंशय होकर हम निष्ठा रखेंगे--यह संभव ही कहां मालूम पड़ता है! आज किसी भी व्यक्ति से कृष्ण यह कहेंगे, तो वह कहेंगे कि आप असंभव की आकांक्षा करते हैं। यह नहीं हो सकेगा। मैं कैसे सब छोड़ दूं?

लेकिन जब कृष्ण ने अर्जुन से यह कहा था, तो अर्जुन ने ऐसा सवाल नहीं उठाया। यह थोड़ा विचारणीय है। अर्जुन उस जमाने के सुशिक्षिततम लोगों में से एक था। सभ्यतम, कुलीनतम, उस समाज में जो श्रेष्ठतम जन थे, उन श्रेष्ठियों में, उन आर्यों में एक था। कृष्ण ने बहुत बार यह कहा है कि तू सब शंकाएं छोड़कर मुझ पर निष्ठा कर ले। अर्जुन जरूर यह कहता है कि मन बड़ा चंचल है, मन ठहरता नहीं। लेकिन कहीं भी अर्जुन यह नहीं कहता--यह बड़ी आश्चर्य की बात है--कि मैं कैसे आप पर निष्ठा कर लूं? निष्ठा कैसे संभव है?

अर्जुन यह जरूर कहता है कि मेरी कमजोरियां हैं। आप जो कहते हैं, ठीक कहते हैं; ठीक ही कहते होंगे। मेरी कमजोरियां हैं। मैं न कर पाऊं। शायद न कर पाऊं। लेकिन अर्जुन एक भी बार यह सवाल नहीं उठाता, जो कि बहुत जरूरी है। हमारे मन में उठेगा। और अर्जुन तो उस समय का श्रेष्ठतम व्यक्ति था। आज अगर हम छोटे बच्चे से भी पूछेंगे, तो उसके मन में भी उठेगा कि भरोसा! यह तो ब्लाइंड फेथ हो जाएगा, यह तो अंधा विश्वास हो जाएगा! यह तो कृष्ण अंधेपन की शिक्षा दे रहे हैं। हमारे मन में यह उठता है। अर्जुन के मन में नहीं उठता। कुछ कारण होंगे। कुछ कारण हैं।

सबसे बड़ा कारण यह नहीं है कि आदमी बदल गया। सबसे बड़ा कारण यह है कि आदमी की कंडीशनिंग, संस्कार बदल गए। आदमी तो वही है। जब आपके मन में यह सवाल उठता है कि यह तो अंधेपन की शिक्षा है। हम भरोसा कर लें आंख बंद करके! शंका भी न करें, संदेह भी न करें! तब तो हम मिटे।

असल में आपको मिटाने के लिए ही सारा आयोजन है। अगर धर्म के जगत में प्रवेश करना है, तो स्वयं को मिटने की, मिटाने की सामर्थ्य चाहिए पड़ेगी। अगर आप अपने को बचाते हैं, तो फिर भीतर प्रवेश न हो सकेगा।

इसलिए द्वार पर ही लिखा है कि जो निःसंशय श्रद्धा कर सके, वह भीतर आ जाए। जिसकी अभी शंका मौजूद हो, वह थोड़ा और घूमे; मंदिर के बाहर थोड़े और चक्कर लगाए। वह थोड़ा और दौड़े। वह और अपनी शंकाओं को थोड़ा थका ले। और जब शंका से कुछ न पाए...। और आदमी ने शंका से कुछ पाया नहीं। हां, वस्तुएं मिलेंगी। धन मिलेगा, पद मिलेगा। लेकिन पाने जैसा कुछ भी न मिलेगा। जिस दिन शंका थक जाए और ऐसा लगे कि शंका से कुछ मिला नहीं, उस दिन भीतर प्रवेश कर आना। उस दिन भीतर चले आना उस मंदिर के, जहां शंका को बाहर रख आना पड़ता है।

आदमी वही है, संस्कार बदले हैं। आज की पूरी शिक्षा विज्ञान की है, इसलिए सवाल उठता है। सवाल आप नहीं उठा रहे हैं; शिक्षा उठा रही है। क्योंकि सारी शिक्षा डाउट की है; सारी शिक्षा संदेह की है। छोटे-से बच्चे को हम संदेह करना सिखा रहे हैं। जरूरी है विज्ञान की शिक्षा के लिए, अन्यथा विज्ञान खड़ा नहीं होगा।

इसीलिए भारत में विज्ञान खड़ा नहीं हो सका। क्योंकि जिस देश ने गीता में भरोसा किया, वह देश विज्ञान पैदा नहीं कर पाएगा। लेकिन पश्चिम में धर्म डूब गया। क्योंकि जो चिंतना संदेह में भरोसा करेगी, वह धर्म से वंचित रह जाएगी।

और अगर लंबे हिसाब में तौला जाए, तो शायद हम नुकसान में नहीं हैं। और शायद इस सदी के पूरे होते-होते हमें पता चलेगा कि हम फायदे में हैं। कभी-कभी उलटा हो जाता है। अभी तो हमें लगता है कि हम बड़े नुकसान में पड़ गए हैं। न विज्ञान है, न टेक्नीक है हमारे पास। गरीबी ज्यादा है, मुसीबत ज्यादा है। लेकिन कोई नहीं कह सकता कि इस सदी के घूमते ही, इस सदी के जाते ही पश्चिम भारी मुसीबत में नहीं पड़ जाएगा। पड़ जाएगा, पड़ रहा है।

क्योंकि संदेह न करके हमने बाहर की बहुत-सी चीजें खोईं, लेकिन श्रद्धा रखकर हमने भीतर का एक द्वार खुला रखा। पश्चिम ने संदेह करके बाहर की बहुत चीजें पाईं, लेकिन भीतर जाने वाले द्वार पर जंग पड़ गई, और वह बिलकुल बंद हो गया। आज कितना ही ठोंको, पीटो, खटखटाओ, वह खुलता हुआ मालूम नहीं पड़ता। हालत ऐसी हो गई कि भीतर जाने वाला कोई द्वार भी है, ऐसा भी मालूम नहीं पड़ता। द्वार इतनी मजबूती से बंद है, इतने दिनों से बंद है कि करीब-करीब दीवाल हो गया है। कहीं कोई द्वार नहीं मालूम पड़ता।


यह पूरब ने भीतर का एक द्वार तो खुला रखा, बाहर का सब कुछ खो दिया। निश्चित ही, हम नासमझ सिद्ध हुए। हमारे पास कुछ है नहीं। 

भीतर का यह द्वार तो श्रद्धा से खुलता है। श्रद्धा का अर्थ है, असंशय निष्ठा। लेकिन शिक्षण पूरा विज्ञान का है, इसलिए हमारा मन संदेह के सवाल उठाता है। स्वाभाविक! उस जमाने में विज्ञान का कोई शिक्षण न था, शिक्षण धर्म का था, इसलिए अर्जुन ने कोई सवाल नहीं उठाया।


आज हम सारी दुनिया में विज्ञान का संस्कार दे रहे हैं बच्चों को। हम सबके मन में संदेह का संस्कार है। संशय हमारे द्वार पर खड़ा है। संशय के बिना हम एक कदम चलते नहीं। लेकिन कृष्ण ने जब यह शिक्षा दी, तब आदमी के द्वार पर संशय की जगह श्रद्धा थी। पूरा द्वार बदल गया, आदमी वही है।

इसलिए आप जब गीता को पढ़ते हैं, आपके काम नहीं पड़ेगी। क्योंकि आपके दरवाजे पर जो पहरेदार खड़ा है, वह बिलकुल बदल गया है। वह गीता को भीतर प्रवेश ही न करने देगा। आप रट भी लेंगे, कंठस्थ भी कर लेंगे, दोहराने भी लगेंगे, लेकिन हृदय के भीतर गीता का कोई प्रवेश न होगा। क्योंकि वह प्रवेश तभी हो सकता है, जब कृष्ण की शर्त पूरी हो। वे कहते हैं, असंशय! लेकिन असंशय कैसे आएगा? क्या मैं जबर्दस्ती कोशिश कर लूं कि संशय को छोड़ दूं?

नहीं; आज इसका कोई उपाय नहीं है कि हम कोशिश करके संशय को छोड़ दें। आज कोशिश करके संशय नहीं छोड़ा जा सकता। आज तो आप संशय पूरी तरह से कर लें, तो ही संशय छूट सकता है।

इतना पूरी तरह से संशय कर लें कि थक जाएं, एक्झास्टेड; ऊब जाएं, घबड़ा जाएं। और संशय इतना कर लें कि कहीं न पहुंचें सिवाय नर्क के, दुख ही दुख चारों तरफ खड़ा हो जाए। इतना संशय कर लें कि कांटे ही कांटे संशय के सब तरफ से छिद जाएं और भीतर जिंदगी में कोई सुख का फूल न खिले। संशय कर लें पूरा, टोटल। तो शायद; तो शायद संशय से ऊब जाएं और पार हो जाएं। तो शायद संशय किसी क्षण में गिर जाए और आप बाहर हो जाएं। और वह निःसंशय स्थिति बन जाए, जो कृष्ण कहते हैं, पहली शर्त है। और इतना निःसंशय हो जा अर्जुन, तू फिर इतना निःसंशय होकर मुझे सुन।

बड़ी मजे की बात है। सुनने के लिए इतनी शर्त! कहते हैं, इतना निःसंशय होकर, इतना अनन्य होकर फिर तू मुझे सुन। अगर सुनने के ऊपर इतनी शर्त है, तब तो हममें से कोई भी सुनने में समर्थ नहीं है।

हम सब सोचते हैं कि हम सब सुनने में समर्थ हैं, क्योंकि कान हमारे पास हैं। क्योंकि ध्वनि हमारे कान में पहुंच जाती है, तो हम समझते हैं, हम सुनने में समर्थ हैं। हम सब सुनने में समर्थ नहीं हैं। कान पर आवाज पड़ती है जरूर, ध्वनि पैदा होती है जरूर, लेकिन सुनना और आंतरिक घटना है।

कृष्ण कहते हैं, इतनी शर्त तू पूरी कर, अनन्य भाव से भर जा; असंशय निष्ठा हो तेरी मुझमें, तो तू मुझे सुन पाएगा। फिर सुन! क्योंकि फिर मैं तुझे राज खोल सकता हूं वे, जो बुद्धि के लिए नहीं खोले जा सकते। फिर मैं वे रहस्य खोल सकता हूं तेरे समक्ष, जो केवल हृदय के समक्ष खोले जाते हैं, तर्क के समक्ष नहीं खोले जाते। फिर मैं तुझसे कह सकूंगा वह आंतरिक बात, जो केवल प्रेम में ही कही जाती है, जो विवाद में नहीं कही जाती।

और जिंदगी में गहरे जो सत्य हैं, वे विवाद में नहीं कहे जाते। वे प्रेम में ही कहे जा सकते हैं। एक सिम्पैथेटिक एटीटयूड, एक सहानुभूति से भरे हुए हृदय से ही कहे जा सकते हैं। जीवन के जो भी गहन सत्य हैं, वे अनन्य भावदशा में ही कहे जा सकते हैं, क्योंकि तभी कम्युनिकेशन, तभी एक बात दूसरे तक पहुंचती है।


यह शर्त कीमती है। और यह शर्त इसलिए है कि कृष्ण कुछ ऐसी बात कहना चाहते हैं अर्जुन से, जो तर्क और संशय से भरे चित्त को नहीं कही जा सकती। सिर्फ उसे ही कही जा सकती है, जो बिलकुल खुलकर बैठा है, ओपन। जिसकी कोई क्लोजिंग नहीं है। जिसका कोई डिफेंस, जिसकी कोई सुरक्षा नहीं है। जो इतने भरोसे से भरा है कि अगर उसकी छाती में छुरा भी भोंक दो, तो वह उस छुरे को भी स्वीकार कर लेगा। अनन्य प्रेम, छाती में छुरा भी भोंक दो, तो स्वीकार कर लेगा। और सोचेगा कि मेरे हित में होगा, इसीलिए। जो अपनी छाती में छुरा लेने को तैयार है, उसी की छाती में सत्य भी प्रवेश करते हैं।


तो कृष्ण कहते हैं, यह पहली शर्त है।

पुराने समस्त गुरु शर्तें पहले लगा देते थे। कहते थे, पहले ये शर्तें पूरी कर दो, फिर हम तुमसे कहेंगे। क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि तुम बेकार हमारा समय जाया करो।


इसलिए कृष्ण कहते हैं, इतनी तैयारी हो अर्जुन, तो फिर सुन।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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