रविवार, 25 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 2


 ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।। 2।।


मैं तेरे लिए इस रहस्यसहित तत्वज्ञान को संपूर्णता से कहूंगा कि जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रहता है।



बहुत कुछ है, जो जान लिया जाए, तब भी सब कुछ जानने को शेष रह जाता है। बहुत कुछ है, जो पूरा का पूरा जान लिया जाए, तो भी जो जानने जैसी चीज है, वह शेष ही रह जाती है।


तो कृष्ण कहते हैं, अब मैं वह रहस्य तुझसे कहूंगा अर्जुन, और पूरा ही बता दूंगा तुझे--तीन-चार बातें कहते हैं--अब मैं वह रहस्य तुझसे कहूंगा अर्जुन।

रहस्य, । कह सकते थे कि वह सत्य मैं तुझसे कहूंगा। लेकिन कहते हैं, वह रहस्य मैं तुझसे कहूंगा। क्योंकि उस रहस्य को कहने के लिए सत्य शब्द भी छोटा है। और उसे सत्य नहीं कहा जानकर। क्योंकि उसे कितना ही जान लो, तब भी कभी दावा नहीं कर सकते कि जान लिया है। इसलिए कहा, रहस्य।

रहस्य का मतलब यह है, जानो, तो खुद मिटते हो। और जानो, तो और मिटते हो। और जानो, तो और। और एक दिन आता है कि जानना तो पूरा हो जाता है, लेकिन खुद बिलकुल नहीं रह जाते। दावेदार खतम हो जाता है। वह जो क्लेम कर सकता था कि मैंने जान लिया, सत्य मेरी मुट्ठी में है, वह बचता नहीं। न मुट्ठी बांधने वाला बचता है, न मुट्ठी बचती है। फिर जो बच रहता है, वह एक  वह एक रहस्य है।

इसलिए भी रहस्य कहा कि पूरी तरह जानकर भी, पूरी तरह परिचित होकर भी, वह ज्ञान तर्कबद्ध नहीं होता है। वह लाजिकल नहीं है। वह एक रहस्य की भांति है; धुंधला है। जैसे सुबह, जब सूरज नहीं निकला है, चारों तरफ कुहरा छाया हुआ है। चीजें रहस्यपूर्ण लगती हैं। या रात पूर्णिमा की चांदनी में, जब कि कहीं वृक्षों के नीचे अंधेरा है, और कहीं धीमी चांदनी है, और सब रहस्यपूर्ण हो जाता है। एक धुंध घेरे रहती है।

उस रहस्य में जब कोई पहुंचता है, तो एक गहन चांदनी रात में, जहां सब चीजें रहस्यपूर्ण मालूम पड़ती हैं; कोई चीज अपने में पूरी नहीं मालूम पड़ती; प्रत्येक चीज किसी और चीज की तरफ इशारा करती है। गद्य की भांति नहीं है वह, पद्य की भांति है; काव्य की भांति है; जिसका ओर-छोर नहीं मिलता। जिसे एक तरफ से शुरू करें, तो दूसरा अंत नहीं आता। और जिसमें जितने भीतर प्रवेश करें, उतनी ही पहेली बड़ी होती चली जाती है।

इसलिए नहीं कहा कि तुझे सत्य कहूंगा। कहा कि तुझे कहूंगा वह रहस्य।

और ध्यान रहे, संतों ने कभी भी सत्य का दावा नहीं किया, रहस्य की घोषणा की है। दार्शनिकों ने सत्य का दावा किया और रहस्य की हत्या की है। और इसलिए दर्शन, फिलासफी और धर्म में एक बुनियादी फर्क है।

धर्म रहस्य की खोज है और दर्शनशास्त्र सत्य की। इसलिए दार्शनिक गणित बिठाने में लगा रहता है, और धार्मिक गणित उखाड़ने में लगा रहता है। दर्शनशास्त्री तर्क, कनक्लूजन, निष्पत्तियां निकालता रहता है। और संत,  सब निष्पत्तियां तोड़कर, वह जो अनंत अज्ञात है, उसमें कूद जाता है।

इसलिए कृष्ण ने कहा, रहस्य।

कृष्ण कोई फिलासफर नहीं हैं, कोई दार्शनिक नहीं हैं। कृष्ण उस अर्थ में रहस्यवादी हैं।

रहस्यवादी का कहना यह है कि तुम्हारे ज्ञान की घोषणा सिर्फ तुम्हारे अज्ञान का सबूत है। काश, तुम सच में ही जान लो, तो तुम जानने का दावा छोड़ दो। काश, तुम्हें पता चल जाए, तो जो सत्य है, वह इतना बड़ा है कि तुम उसमें कहीं पाओगे भी न कि तुम कहां खड़े हो। तुम उसमें डूब तो सकते हो, लेकिन उसको मुट्ठी में नहीं ले सकते हो।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, रहस्य

रहस्य वह है, जिसमें हम तो डूब सकते हैं, लेकिन जिसे हम अपनी मुट्ठी में बांधकर घर में लाकर तिजोड़ी में बंद नहीं कर सकते। और हम कितना ही उसे जान लें, और कितना ही उसे पहचान लें, और कितना ही उसके साथ एक हो जाएं, फिर भी हमारे मन में अज्ञात का भाव बना ही रहेगा, दि अननोन मौजूद ही रहेगा। जानें कितना ही, पहचानें कितना ही, मिलन हो जाए कितना ही, फिर भी कुछ अज्ञात, कुछ अननोन शेष रहेगा।

वह अज्ञात जो शेष रह जाता है, सदा शेष रह जाता है, वही कृष्ण को रहस्य कहने के लिए प्रेरित करता है।

दूसरी बात वे कहते हैं, सभी तुझसे कह दूंगा।

इस पर भी विचार कर लेने जैसा है।


कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि सभी कुछ कह दूंगा तुझे--सभी। जो कहा जा सकता है, वह भी कह दूंगा; जो नहीं कहा जा सकता है, वह भी कह दूंगा। सभी में दोनों आ जाते हैं। जो कहा जा सकता है, वह भी कह दूंगा; जो नहीं कहा जा सकता है, वह भी कह दूंगा।

आप पूछेंगे, जो नहीं कहा जा सकता है, उसको कैसे कहिएगा?

शायद जो नहीं कहा जा सकता, उसको कहने की बहुत तरह की कोशिशें दुनिया में की गई हैं अलग-अलग ढंग से। लेकिन कृष्ण ने जैसी कोशिश की है, वैसी बहुत मुश्किल से शायद ही कभी की गई है। इसलिए कृष्ण जब कह-कहकर थक गए, तो फिर उन्होंने दिखाया। वह कहा, जो नहीं कहा जा सकता है। फिर अर्जुन को कहा कि अब तेरी समझ में नहीं आता शब्दों से, तो अब तू देख ले। अब मैं तुझे दिव्य-दृष्टि दे देता हूं और तू देख ले मेरे पूरे विराट को। वह जो नहीं कहा जा सकता है, वह दिखाया।


लेकिन कितना अभागा है हमारा मन! कि कृष्ण जब शब्द का उपयोग करते हैं, तब अर्जुन समझ नहीं पाता। और जब स्थिति का उपयोग करते हैं, सिचुएशन का, प्रकट कर देते हैं पूरा का पूरा, तब वह कहता है, बंद करो! बंद करो! रोको यह रूप। मन बहुत घबड़ाता है। मेरे प्राण बहुत कंपते हैं। इस विराट को वापस ले लो। यह अपनी आंख वापस लो! न सुनकर हम समझ पाते हैं, न देखकर हम समझ पाते हैं।

इसलिए कृष्ण जैसे व्यक्ति की करुणा अपरिसीम है। यह जानते हुए कि हम सुनकर भी नहीं समझ पाएंगे, हम देखकर भी नहीं समझ पाएंगे, फिर भी एक असंभव प्रयास कृष्ण जैसे लोग करते हैं। उनकी वजह से जिंदगी में थोड़ा नमक है, उनकी वजह से जिंदगी में थोड़ी रौनक है, जिन्होंने असंभव प्रयास किया।

कहते हैं, सब कह दूंगा अर्जुन तुझे, सब! पूरा का पूरा कह दूंगा। बस, तू सुनने को राजी हो। और वह बात बताना चाहता हूं, जिसे जान लेने से सब जान लिया जाता है।

इसको भी थोड़ा-सा खयाल में ले लें। क्योंकि इस भारत में हमने सर्वाधिक जिसकी खोज की है, वह इसी एक छोटी-सी बात की, जिसको जान लेने से सब जान लिया जाता है--मास्टर-की।

एक तो ऐसी कुंजी होती है कि एक ताले में लगती है। दूसरे ताले के लिए दूसरी कुंजी की जरूरत होती है। तीसरे ताले के लिए तीसरी कुंजी की जरूरत होती है। लेकिन एक मास्टर-की है, जो सब तालों में लगती है। एक कुंजी मिल गई, तो फिर किसी कुंजी की कोई जरूरत नहीं रहती। सब ताले खुल जाते हैं।

इस मुल्क ने मास्टर-की खोजने की कोशिश की है। पश्चिम भी कुंजियां खोजता है, लेकिन कुंजियां। हमने कुंजी खोजने की कोशिश की है। पश्चिम भी खोजता है। वह कहता है, यह ताला कैसे खुलेगा! तो फिजिक्स का ताला किसी और कुंजी से खुलता है। केमिस्ट्री का किसी और कुंजी से खुलता है। साइकोलाजी का किसी और कुंजी से खुलता है। गणित का किसी और से। हजार कुंजियां खोज लीं उन्होंने।

अब तो हालत यह हो गई है कि कौन-सी कुंजी कौन-सी है, इसका हिसाब रखना मुश्किल हुआ जा रहा है। फिर एक-एक कुंजी को खोजने के बाद और हजार ताले मिल जाते हैं, तो फिर उसमें और सब-ब्रांचेज कुंजी की खोजनी पड़ती हैं। तो केमिस्ट्री कभी केमिस्ट्री थी, अब केमिस्ट्री में बायो-केमिस्ट्री भी है, आर्गेनिक केमिस्ट्री भी है। अब अलग कुंजियां हैं। और कितनी देर तक आर्गेनिक केमिस्ट्री आर्गेनिक रहेगी; उसमें और कुंजियां निकली आती हैं!


आज जमीन पर जितना ज्ञान है, पृथ्वी पर कभी नहीं था। और अगर इसी मात्रा में ज्ञान बढ़ता है, तो जो लोग हिसाब-किताब लगाते हैं, वे कहते हैं, कुछ ही दिन में पृथ्वी के वजन से ज्यादा पुस्तकें हमारे पास हो जाएंगी। पृथ्वी क्या करेगी उस वक्त, यह अपने को अभी पता नहीं है। ऐसा होने देगी, यह भी पक्का पता नहीं है। लेकिन इसी रफ्तार से बढ़ता है। क्योंकि प्रति सप्ताह  हजारो नए ग्रंथ प्रकाशित हो जाते हैं। यह बोझ बढ़ता चला जाता है।

इसलिए अब सारी दुनिया में जहां बड़ी लाइब्रेरीज हैं, वे लोग चिंतित हैं कि इतनी बड़ी लाइब्रेरीज को अब बचाया नहीं जा सकता। इनको कैसे बचाएंगे? लोगों के लिए रहने की जगह नहीं है; किताबों के लिए कैसे जगह होगी? तो किताबों को माइक्रो बुक्स, छोटी किताबें करो। तो जितनी एक किताब की जगह में कम से कम एक लाख किताबें बन सकें, इतनी छोटी करो। फिर पर्दे पर उसको बड़ा करके पढ़ लो। छोटी-छोटी करो। क्योंकि इतनी किताबें अब नहीं रखी जा सकतीं।


इतना ज्ञान, और आदमी के अज्ञान का कोई हिसाब नहीं है! आदमी निपट अज्ञानी है। मास्टर-की की तलाश नहीं हुई है।

कृष्ण कहते हैं, मैं तुझे मास्टर-की दूंगा। मैं तुझे वह कुंजी दूंगा, जिसे पा लेने के बाद किसी कुंजी की कोई जरूरत नहीं। मैं तुझे वह कुंजी दूंगा कि ताले खोलने नहीं पड़ते, कुंजी को देखते हैं कि खुल जाते हैं। मैं तुझे वह बता दूंगा, जिसे जान लेने से सब जान लिया जाता है। वह एक तत्व मैं तुझे कह दूंगा। वह अनिर्वचनीय, वह एक परम, अल्टिमेट, वह आखिरी सत्य, वह बुनियाद का सत्य, वह अनादि, अनंत मैं तुझे कह दूंगा। उसे जान लेने पर फिर कुछ और जानने को शेष नहीं रह जाता।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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