मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 13

 

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।। 17।।


उनमें भी नित्य मेरे में एकीभाव से स्थिति हुआ अनन्य प्रेम भक्ति वाला ज्ञानी अति उत्तम है, क्योंकि मेरे को तत्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूं और वह ज्ञानी मेरे को अत्यंत प्रिय है।



एकी रूप से, अनन्य भाव से, तत्व को समझकर, मुझे जो प्रेम करता है, वह ज्ञानी उत्तम है।

दो बातें। एकीभाव से; जरा भी फासला नहीं रखता जो मेरे और अपने बीच; किंचित मात्र भेद नहीं मानता जो अपने और मेरे बीच। यह बड़ी कठिन बात है। इसे थोड़ा समझना होगा।

क्या कभी आपने खयाल किया कि प्रेम जिससे भी हमारा होता है, हम उससे कुछ भी नहीं छिपाते! अगर कुछ भी छिपाते हैं, तो वह मतलब यही हुआ कि प्रेम नहीं है; पूरा नहीं है। और पूरा ही प्रेम होता है; अधूरा तो कोई प्रेम होता नहीं।

प्रेम का अर्थ है, जिस व्यक्ति से मेरा प्रेम है, उसके साथ मैं ऐसे ही रहूंगा, जैसे मैं अपने ही साथ हूं। उससे मैं कुछ भी छिपाऊंगा नहीं। न मेरा कोई पाप, न मेरा कोई झूठ, न मेरी कोई वृत्ति। उससे मैं कुछ भी न छिपाऊंगा। उसके सामने मैं उघड़कर बिलकुल नग्न हो जाऊंगा, मैं जैसा हूं।

क्या परमात्मा के सामने कभी आप उघड़कर पूरे नग्न हुए हैं?

तब तक प्रार्थना पूरी नहीं हो सकती, जब तक कि किसी ने अपने पापों को स्वीकार न कर लिया हो, अन्यथा पाप का छिपाना ही फासला रहेगा, डिस्टेंस रहेगा।

एक आदमी खड़ा है भगवान के मंदिर में जाकर और वह जान रहा है कि मैंने चोरी की है। पुलिस से तो छिपा रहा है; घर के लोगों से छिपा रहा है; गांव के लोगों से भी छिपा रहा है; भगवान से भी छिपा रहा है! खड़ा है चंदन-तिलक वगैरह लगाकर। और उस चंदन-तिलक के पीछे चोर खड़ा है। और भगवान की प्रार्थना कर रहा है बड़े जोर-शोर से! तो फासला भारी है।

इसलिए ईसाइयत ने सच में कीमती तत्व विश्व के धर्म में जोड़ा, और वह तत्व था, कन्फेशन, स्वीकारोक्ति। पहले अपने पाप का स्वीकार, फिर पीछे प्रार्थना। ताकि कोई फासला न रह जाए। तुम नग्न और उघड़कर एक हो जाओ। कम से कम परमात्मा से तो पूरी बात कह दो। कम से कम उसके सामने तो वही हो जाओ, जो तुम हो!

सारी दुनिया में तो धोखा हम चलाते हैं। जो हम नहीं होते, वैसा दिखाते हैं। कमजोर आदमी सड़क पर अकड़कर चलता है। हालांकि सब अकड़ कमजोर आदमी की गवाही देती है। ताकतवर आदमी क्यों अकड़कर चलेगा? किससे अकड़कर चलेगा?

कमजोर आदमी अकड़कर चलता है। निर्बल आदमी साहस की बातें करता है। कुरूप आदमी सौंदर्य के प्रसाधनों का उपयोग करता है। इसलिए दुनिया जितनी कुरूप होती जाती है, उतने सौंदर्य के साधन की ज्यादा जरूरत पड़ती है। क्योंकि वह कुरूपता को छिपाना है सब तरफ से।

स्त्रियों को कुरूपता का बोध ज्यादा भारी है। क्योंकि शरीर का बोध थोड़ा पुरुष से ज्यादा है; बाडी कांशसनेस थोड़ी ज्यादा है। तो वे अपने बैग में ही सब सामान लिए हुए हैं। वहीं उनका सारा सौंदर्य उस बैग में बंद है। जरा मौका मिला कि उनको फिर अपने को तैयार कर लेना है! अपने पर जरा भरोसा नहीं है। वह जो बैग में थोड़ा-सा सामान पड़ा है, उस पर सारा भरोसा है। एक पतली पर्त है सौंदर्य की, जिसके पीछे कुरूपता अपने को ओट में लेती है।

हम दुनिया को तो धोखा दे रहे हैं। पर यह धोखा क्या परमात्मा के पास भी ले जाइएगा? क्या वहां भी इसी धोखे की शक्ल को, इसी मास्क, इसी मुखौटे को लेकर खड़े होंगे? क्या वहां भी परमात्मा को दिखलाने की कोशिश करेंगे वह, जो कि आप नहीं हैं? तो फिर एकीभाव न रहा। फिर प्रेम नहीं है, प्रार्थना नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, एकीभाव को उपलब्ध हुआ, जो छिपाता ही नहीं कुछ।

जैसे छोटा बच्चा बगल के मकान से फल चुराकर खा आया है और दौड़ता चला आ रहा है अपनी मां को कहने, कि देखा, आज पड़ोसी के घर में घुस गया और फल खाकर चला आ रहा हूं! ऐसा सरल, इतना इनोसेंट, जो परमात्मा के सामने अपने को बिलकुल प्रकट कर देता है, तो एकीभाव निर्मित होता है; नहीं तो एकीभाव निर्मित नहीं होता।

बाप बेटे के सामने नहीं खुलता। पत्नी पति के सामने नहीं खुलती। मित्र मित्र के सामने नहीं खुलता। सारी पृथ्वी एक बड़ा डिसेप्शन, एक बड़ा जाल है। और इसीलिए हम इतने परेशान, इतने चिंतित और बोझिल हैं, क्योंकि सारी दुनिया हमारे खिलाफ है और हम अकेले लड़ रहे हैं। एक-एक आदमी इतनी बड़ी दुनिया के खिलाफ लड़ रहा है। इतनी बड़ी दुनिया को धोखा देने में लगा हुआ है, तो लड़ाई भारी है।

परमात्मा के पास तो वही पहुंच सकेगा, जो अपने सब धोखे, अपने मुखौटे, अपनी शक्लें मंदिर के बाहर छोड़ जाए, भीतर जाकर नग्न खड़ा हो जाए और कह दे कि मैं ऐसा हूं।

एकीभाव बहुत वैज्ञानिक बात है। जब किसी से मैं कुछ भी नहीं छिपाता, तो एकीभाव उत्पन्न होता है। जब तक छिपाता हूं, तब तक दूजापन, दुई, द्वैत, दूसरापन मौजूद रहता है। एक।

दूसरा, कृष्ण कहते हैं कि ऐसा एकीभाव, अनन्य भाव और तत्व को समझकर, जो ज्ञानी मेरे पास आता है, मुझे प्रेम करता है, उसे मैं भी प्रेम करता हूं। तत्व को समझकर! क्योंकि बहुत बार ऐसा हो जाता है कि कुछ लोग बिना तत्व को समझे...।

बिना तत्व को समझे! तत्व का अर्थ है, बिना जीवन के रहस्य को समझे, बिना किसी गहरी अंडरस्टैंडिंग, बिना किसी समझ के, धर्म की यात्रा पर निकल जाते हैं, तब बड़ी कठिनाई होती है। ऐसे अप्रौढ़ चित्त, बचकाने चित्त, जिनमें अभी कोई प्रौढ़ता न थी और जो धर्म की यात्रा पर निकल जाते हैं, वे धर्म को तो उपलब्ध होते नहीं, सिर्फ धर्म को ही अप्रौढ़ बनाने में सफल हो पाते हैं।

ऐसा हुआ है चारों तरफ। सारी दुनिया में ऐसा हुआ है। कई बार तो आप जीवन के सत्य को समझकर धर्म की तरफ नहीं जाते; बल्कि धार्मिक बातें आपको प्रलोभनपूर्ण लगती हैं, इसलिए चले जाते हैं। इसका फर्क आप समझ लें। तत्व को समझकर जाने वाले और प्रलोभन से जाने वाले का क्या फर्क है?

मैंने आपसे बात कही कि परमात्मा को पाना परम आनंद है। आपके मन में ग्रीड पकड़ी, लोभ पकड़ा। आपको लगा कि अरे, परमात्मा को पाना परम आनंद है, तो हम भी पा लें! आपने सोचा कि ठीक है। बुद्ध भी कहते हैं, महावीर भी कहते हैं, कृष्ण भी कहते हैं, क्राइस्ट भी, मोहम्मद भी, सब कहते हैं कि उसे पा लेना परम आनंद है। आपके मन में लोभ जगा।

लेकिन आपको पता नहीं कि वे सब कहते हैं कि लोभ जिसके मन में है, वह उसे न पा सकेगा। अब बड़ी कठिनाई हो गई। और आप चले मंदिर की तरफ, मस्जिद की तरफ। आपने सोचा कि चलो आनंद मिलता है, तो हम इसको भी पा लें।


हम में से अधिक लोग धर्म की तरफ लोभ के कारण उत्सुक होते हैं। एक। सुनते हैं खबर समाधि की, कि खिलते हैं फूल परम; सुनते हैं खबर ध्यान की, कि भीतर हो जाता है मौन आत्यंतिक; सुनते हैं, कि मृत्यु भी थक जाती है उसके सामने, जो स्वयं को जान लेता है, हार जाती है। मन में लोभ पकड़ता है, हम भी क्यों न पा लें?


पर ध्यान रखना, लोभी नहीं पा सकेगा। इसलिए कृष्ण कहते हैं, तत्व को समझकर।

परमात्मा में आनंद मिलता है, ऐसा जानकर जो चलेगा, वह लोभ से जा रहा है। संसार में दुख है, ऐसा समझकर जो जा रहा है, वह तत्व को जानकर जा रहा है। इस फर्क को आप समझ लेना।

संसार व्यर्थ है, ऐसा जानकर जो जा रहा है, वह तत्व को जानकर जा रहा है। और जो मान रहा है कि संसार तो बिलकुल ठीक है, परमात्मा को और जोड़ लें इसी में थोड़ा-सा; उसका सुख भी ले लें। यह तो मिल ही रहा है, उसे भी ले लें। वह आदमी सिर्फ प्रलोभन से जा रहा है; तत्व को जानकर नहीं जा रहा है।

दुनिया में अधिक लोग प्रभु के मंदिर की तरफ प्रलोभन से जाते हैं या भय के कारण जाते हैं, जो कि प्रलोभन के सिक्के का दूसरा पहलू है। भय के कारण, या लोभ के कारण।

 जब आदमी मर जाता है, तो राम-राम कहकर उसको मरघट तक ले जाते हैं! बेचारा खुद नहीं कह पाया; हम कह रहे हैं! उनको तो मौका नहीं मिला। अब हम तो कम से कम इतना तो उनको साथ दें, कि उनको मरघट तक पहुंचा आएं राम-राम कहकर। जिंदगी उनकी चूक गई; उन्होंने कभी राम-राम न कहा। अब मर गए हैं, तो अब हम उनको राम-राम कहने जा रहे हैं!

मगर एक लिहाज से अच्छा है, क्योंकि आप भी जब मरेंगे, तो दूसरे आपको भी...! एक म्युचुअल कांसपिरेसी चल रही है, पारस्परिक षडयंत्र, कि हम तुम्हें भेज आएंगे, तुम हमें भेज आना। राम-राम कह देना आखिरी वक्त। अगर कहीं कोई परमात्मा होगा, तो सुन लेगा कि बड़ा भक्त मर गया। देखो, राम-राम की आवाज आ रही है! जिंदगीभर जिनके हृदय से राम नहीं निकला, मरी-मराई लाश के चारों तरफ राम-राम कर रहे हैं!

मरते दम तक धर्म का खयाल आना शुरू होता है--भय के कारण, तत्व की समझ से नहीं। क्योंकि तत्व की समझ का फिर जवानी, बुढ़ापे और बचपन से कोई संबंध नहीं है। तत्व की समझ बड़ी और बात है, उसका उम्र से कोई लेना-देना नहीं है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, वे हैं मेरे प्यारे, जो तत्व को समझकर मेरी ओर आते हैं। उन्हें मैं ज्ञानी कहता हूं। भय से, लोभ इत्यादि से जो आ जाते हैं, उनका कुछ मतलब नहीं है। और वे मुझे प्रेम करते हैं, मैं भी उन्हें बहुत प्रेम करता हूं।

इसका क्या मतलब होगा? क्या कृष्ण का प्रेम भी सशर्त है,  कि जब आप उनको प्रेम करेंगे, तभी वे आपको प्रेम करेंगे? क्या परमात्मा भी कोई शर्तबंदी करता है कि तुम मेरा नाम भजोगे, तो मैं तुम्हें प्रेम करूंगा? तुम तत्व को समझकर आओगे, तो मैं तुम्हें प्रेम करूंगा? क्या परमात्मा भी इस तरह की शर्त रखता है? तब तो प्रेम बड़ा छोटा हो जाएगा।

नहीं, कृष्ण का यह मतलब नहीं है कि जो मुझे प्रेम करते हैं, मैं उन्हें प्रेम करता हूं। मतलब यह है कि परमात्मा का प्रेम तो सबके ऊपर बरसता है। लेकिन जो परमात्मा को प्रेम नहीं करते, उन्हें उस प्रेम से कभी संबंध नहीं हो पाता, मिलन नहीं हो पाता।

जैसे एक उलटा घड़ा रखा है और बरस रही है वर्षा आकाश से। बादल घनघोर बरस रहे हैं, उलटा घड़ा रखा है। रखा रहे। कोई ऐसा नहीं है कि उलटे घड़े पर बादल नहीं बरस रहे हैं। उस पर भी बरस रहे हैं; लेकिन वह भरेगा नहीं। सीधे घड़े रखे होंगे, वे भर जाएंगे। फिर मेघ कह सकते हैं कि जो सीधे घड़े हैं, उन्हें मैं भर देता हूं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उलटे घड़ों पर बरसता नहीं पानी। लेकिन उलटे घड़े खुद ही उलटे बैठे हैं; उसमें कोई क्या कर सकता है! और पक्की जिद्द करके बैठे हैं कि हम तो उलटे ही बैठे रहेंगे; हम कभी सीधे न होंगे!

प्रभु को जो प्रेम करता है, उसे प्रेम मिलता है, उसका कुल मतलब इतना ही है कि उसे ही पता चलता है कि मिल रहा है। जो प्रेम ही नहीं करता, उसे कभी पता नहीं चलता कि मिल रहा है।

इसलिए जब हम कहते हैं, प्रभु की कृपा, तो ऐसा मत सोचना कि किसी पर होती है और किसी पर नहीं होती है। प्रभु की कृपा तो ऐसे ही बरस रही है, जैसे सूरज निकला हो, और सभी घरों पर किरणें बरस रही हैं। लेकिन कुछ लोग अपने दरवाजे बंद किए बैठे हैं। किन्हीं के दरवाजे भी खुले हैं, तो वे इतने होशियार हैं कि आंख बंद किए बैठे हैं! क्या करिएगा? सूरज क्या करे? इनकी आंखों की पलकें खोले? खोले, तो ये नाराज होंगे। पुलिस में रिपोर्ट लिखवाएंगे कि हम सो रहे थे, नाहक सूरज ने हमारी आंखें खोल दीं। क्या करे सूरज, इनके दरवाजे तोड़े? पुलिस में रिपोर्ट लिखवा देंगे कि सूरज चोर हो गया; हमारे दरवाजे खोलकर भीतर घुसने लगा। सूरज बाहर खड़ा रहेगा; जब आप दरवाजा खोलेंगे, आ जाएगा। जब आप आंख खोलेंगे, तो किरण भीतर पहुंच जाएगी।

परमात्मा का प्रेम तो सब पर बरस रहा है समान। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आपको समान मिलता है। समान आपको मिलता नहीं, क्योंकि आप लेते ही नहीं। बरसता समान है, मिलता अलग-अलग है। मिलता अपनी-अपनी पात्रता से है। मिलता अपनी-अपनी उन्मुखता से है।

अब जो आदमी लोभ के कारण परमात्मा की तरफ गया, उसका घड़ा उलटा रहेगा। वह कितनी ही प्रार्थना करे, कितनी ही प्रार्थना करे, उसे प्रेम परमात्मा का मिलेगा नहीं। जो भय के कारण परमात्मा की तरफ गया, उसका घड़ा उलटा रहेगा। वह कितना ही चीखे-चिल्लाए, उसकी चीख-चिल्लाहट परमात्मा के लिए नहीं है, भय की वजह से है।

लेकिन जो जीवन के तत्व को समझकर गया कि ठीक है। यह जीवन, यह सारा खेल, यह सारा नाटक दो कौड़ी का है, इसका कोई मूल्य नहीं है। अब मैं उसकी तलाश में चलूं, जो इस जीवन के पार है। इस जीवन के किसी प्रलोभन की वजह से नहीं; यह जीवन, टोटल, पूरा का पूरा बेकार हुआ, इसलिए; नाटक हुआ, व्यर्थ हुआ, इसलिए; यह सारा अनुभव सारहीन हुआ, इसलिए अब मैं हटूं और उस तरफ खोजूं। क्या है वहां? कौन है वहां? कौन-सी संपदा है वहां? खोजूं!

इस जिज्ञासा से जो गया ज्ञानी, तत्व को जानकर, एकीभाव को उपलब्ध हुआ, अनन्य होकर मुझे प्रेम करता है, मैं भी उसे प्रेम करता हूं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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