बुधवार, 26 जुलाई 2023

महत्त्वाकांक्षी युवा तपस्वी

 


विजयनगर में प्रत्येक वर्ष कोई-न-कोई उत्सव समारोह आदि हुआ करता था। महाराज कृष्णदेव राय उत्सव- प्रेमी ही नहीं, अध्यात्म प्रेमी भी थे। उनका मानना था कि आध्यात्मिक होने का अर्थ यह नहीं है कि आप धार्मिक कर्मकांडों में उलझ जाएँ। ये कर्मकांड तो मनुष्य को विचारों की संकीर्णता की ओर ले जाते हैं। यह करो, ऐसे करो बतानेवाले कर्मकांड निषेध और वर्जनाओं पर आधारित हैं क्योंकि ये यह भी बताते हैं कि वह न करो, वैसा न करो। प्रायः महाराज अपने चिन्तन की चर्चा तेनाली राम से करते रहते थे। एक उत्सव के अवसर पर महाराज ने प्रसन्न होकर एक तपस्वी को विजयनगर में कुटिया बनाने के लिए भूमि एवं अन्य सुविधाएँ दे दीं। तेनाली राम ने महाराज के इस व्यवहार पर अपनी शंका जताई, “महाराज! मुझे तो यह युवा तपस्वी कहीं से भी पहुंचा हुआ प्राणी नहीं लगा और न ही इसमें पांडित्य की वैसी प्रखरता है जिससे यह दूसरों का मार्गदर्शन कर सके। फिर आपने यह उदारता क्यों दिखाई?"


"देखो तेनाली राम ! मैं विजयनगर का राजा हूं ।और इससे इतर भी मेरा एक निजत्व है। मैं स्वयं आध्यात्मिक चिन्तक हैं। विजयनगर मंठे हर वर्ष आयोजित होनेवाले समारोहों का उद्देश्य ही है लोगों को जोड़ना। इन समारोहों के समय ऐसे अनेक कार्यक्रम होते हैं जिनमें भाग लेकर या देख-सुनकर लोगों की दमित इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है। इसलिए विजयनगर के निवासियों में तुम्हें सन्तोष और उल्लास की कमी नहीं दिखेगी। यही है मेरे शासन की सफलता का पहला सोपान ।...मेरे पास जब यह युवक पहुंचा तब मुझे यह विश्वास हो गया कि यह युवक महत्त्वाकांक्षी है, अन्यथा सामान्य साधु-सन्तों की तरह यह किसी के द्वार पर भी जा सकता था। जब इसने मुझसे वियजनगर में कुटिया बनाने की सुविधा माँगी, तो मेरे सामने यह बात साफ हो गई कि यह युवक किसी दूसरे राज्य से आया है। इस प्रकार एक राजा के समक्ष वह एक शरणागत की तरह था, तो उसे कुटिया बनाने की सुविधा देकर मैंने राजधर्मानुकूल कार्य किया है। रही उसके सिद्ध नहीं होने की बात तो मुझे विश्वास है कि वह सिद्धि तो प्राप्त कर ही लेगा, क्योंकि महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति वांछित को प्राप्त करके ही दम लेता है।” महाराज ने कहा ।


महाराज की तर्कसंगत बातें सुनकर तेनाली राम मौन हो गया।


धीरे-धीरे समय बीतता रहा। महाराज उस युवक को भूल गए। दो राज्य महोत्सव बीत गए। उस युवक ने महाराज के दर्शन नहीं किए।


तीसरे राज्य महोत्सव के प्रारम्भ मं ही वह युवक महाराज के पास पहँ ुचा। उसके मुख


से विद्वत्ता का तेज प्रकट हो रहा था। वह दूर से ही तेजस्वी प्रतीत हो रहा था। युवक ने महाराज के समीप आकर कहा, “महाराज! मैंने सभी धर्मग्रन्थों का अध्ययन कर लिया है। मैं सभी शास्त्रों का ज्ञाता हो गया हैं। आप मुझे अपना गुरु बना लें!"


महाराज ने युवक की ओर मुस्कुराते हुए देखा और बोले, "युवक यह ठीक है कि तुमने सभी शास्त्र पढ़ लिये हैं मगर मेरा गुरु बनने के लिए इतना ही काफी नहीं है। अब तो तुम्हें अपने अध्ययन पर चिन्तन करना चाहिए। ...मुझे ऐसा आभास हो रहा है कि तुममें अभी भी कोई कमी है जिसके कारण मैं अभी तुम्हें अपना गुरु नहीं बना सकता।"


महाराज की बातें सुनकर वह युवक वापस लौट गया।


तेनाली राम उस समय वहीं था। उसने महाराज और युवक की बातें सुनी थीं। उसने कहा, "महाराज! आपने ठीक ही कहा था कि युवक बहुत महत्त्वाकांक्षी है। सोद्देश्य साधना कर रहा है, यह भी उसके महत्त्वाकांक्षी होने का संकेत है... और देखिए उसकी महत्त्वाकांक्षा की पराकाष्ठा वह आपका गुरु बनना चाहता है। इसका अर्थ तो यही है कि वह विजयनगर का राजगुरु बनने की अभीप्सा से यहाँ आया है।"


"तुम ठीक समझे तेनाली राम !” महाराज ने उत्तर दिया।


और बात वहीं समाप्त हो गई।


महाराज अपनी सामान्य दिनचर्या में लग गए। वही रोज दरबार का काम-काज देखना और कभी-कभी प्रजा का दुख-सुख जानने के लिए विजयनगर के भ्रमण पर निकल जाना- यही थी उनकी सामान्य दिनचर्या ।


वर्ष बीतते देर नहीं लगी। महाराज अपने अभ्यास के अनुरूप ही वार्षिक समारोह की तैयारियों की स्वयं समीक्षा करते। कौन-कौन से कार्यक्रम आयोजित होंगे, कहाँ रंगमंच बनेगा, पनसाला कहाँ लगेगी और भोजनालय कहाँ बनेगा; प्रजा को इस वर्ष के समारोह के समय राज्य की ओर से मिलनेवाले भोजन के लिए क्या-क्या पकेगा-यानी छोटी से छोटी बात के लिए भी महाराज स्वयं निर्देश दे रहे थे। तेनाली राम हमेशा की तरह उनके साथ था।


हर्षोल्लास के साथ विजयनगर का वार्षिकोत्सव आरम्भ हुआ। इस वार्षिकोत्सव के आरम्भ में वह युवा तपस्वी महाराज के पास आया लेकिन इस बार उसने महाराज से गुरु बनाने को नहीं कहा। महोत्सव के अवसर पर उसने महाराज को शुभकामनाएँ दीं तथा महाराज से कहा, “महोत्सव के समय रास-रंग- मनोरंजन के साथ ही उन्हें कोई धार्मिक अनुष्ठान कराना चाहिए।'


महाराज ने तेनाली राम की ओर देखा ।

तेनाली राम ने महाराज का भाव समझा और युवा तपस्वी से कहा, “प्रभु! सभी धर्म एक सी ही बात करते हैं। इसलिए संशय है कि कौन-सा धार्मिक अनुष्ठान किया जाए और जब तक संशय है तब तक कोई अनुष्ठान हो ही नहीं सकता क्योंकि संशययुक्त मन से धर्म की बातें सम्भव नहीं हैं। "


युवा तपस्वी ने कहा, “आप ठीक कह रहे हैं।"


तेनाली राम ने उस युवा तपस्वी से विनम्रता के साथ कहा, “प्रभु! ऐसा प्रतीत होता है कि आपने चिन्तन कार्य तो पूरी निष्ठा से किया है, अब आप निष्ठापूर्वक मनन कार्य में लगें तब ही आपकी साधना पूर्ण होगी।”


वह युवक वहाँ से चला गया। महाराज महोत्सव का आनन्द उठाने में लगे और तेनाली राम सखा भाव से उनके साथ रमा रहा।


इसके बाद कई वर्षों तक युवा तपस्वी महोत्सव के समय महाराज से मिलने नहीं आया।


एक बार विजयनगर में जब महाराज और तेनाली राम वार्षिक महोत्सव के लिए कार्यक्रम तय करने बैठे तो बात ही बात में उन्हें उस युवा तपस्वी का स्मरण हो आया। उन्होंने तेनाली राम से पूछा, “कई वर्ष व्यतीत हो गए, मेरा गुरु बनने की इच्छा से विजयनगर में कुटिया बनाकर तपश्चर्या में लगा वह युवक आया नहीं...कुछ अता-पता है उसका?"


तेनाली राम ने तत्परता से उत्तर दिया, “ शीघ्र ही सूचित करूँगा महाराज!”


इसके बाद तेनाली राम ने उस युवा तपस्वी के सन्दर्भ में सूचनाएँ एकत्रित करवाईं। सूचना थी कि वह युवा तपस्वी अब कुटिया से निकलता ही नहीं। कभी-कभी किसी-किसी को दिख जाता है। वह न तो पूजा अनुष्ठान करता दिखाई देता है और न किसी से कोई याचना करने जाता है। पिछले वर्ष जब अतिवृष्टि के कारण गाँव के गाँव पानी में डूब गए थे तब इस युवा तपस्वी ने पीडित लोगों को बचाने और उनके लिए सुविधाएँ जुटाने में अपना जी-जान लगा दिया था।


तेनाली राम ने महाराज को युवा तपस्वी के सन्दर्भ में मिली समस्त सूचनाएँ दीं और


कहा, “लगता है, महाराज! यह युवा तपस्वी सिद्ध हो चुका है। "


महाराज कुछ बोले नहीं। महोत्सव आरम्भ हुआ। राजा के साथ प्रजा के मेल से उन्मुक्ति और आनन्द का एक सुखद और आह्लादकारी वातावरण बना। विजयनगर की खुशहाली के इसी सूत्र को स्मरण रखने के लिए महाराज इस महोत्सव का आयोजन कराते थे। महोत्सव के समापन के बाद महाराज ने तेनाली राम से कहा, “तेनाली राम, चलो, जरा उस युवा तपस्वी से मिल आएँ।"


महाराज और तेनाली राम स्वयं चलकर युवा तपस्वी की कुटिया में गए। युवा तपस्वी ने उन्हें देखकर अपने हाथ जोड़ लिये और कहा, “धन्यभाग्य! हमारे गुरुजन पधारे!" महाराज विस्मित से रह गए युवक की बात सुनकर। उन्होंने कहा, “प्रभु, यह आप क्या कह रहे हैं? मैं तो यह समझता हैं कि अब आप सिद्ध हो चुके हैं इसलिए आपसे दीक्षा लेने


की इच्छा से आपके पास आया था।"


युवक ने गम्भीरता से कहा, "महाराज! आप मेरे आश्रयदाता हैं। पिता तुल्य और आदरणीय और तेनाली राम मेरे गुरु हैं उन्होंने मुझे मनन करने की सीख दी थी और मैं उनके निर्देश पर ही मन में डूब गया। तब मैंने जाना कि संसार में ऐसा कोई नहीं जिसमें ज्ञान का सागर न हो... चाहने पर कोई भी इस ज्ञान सागर में गोते लगा सकता है।" उस युवक ने तेनाली राम के चरण छुए और तेनाली राम ने उसे अपने गले से लगा लिया।

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