गुरुवार, 27 जुलाई 2023

अपना नाम शेखचिल्ली है जनाब!

 शेख बदरुद्दीन के घर बेटा हुआ तो पूरे गाँव में उन्होंने मिठाइयाँ बँटवाईं।  वे बहुत धनी तो नहीं थे लेकिन पैसों की कमी भी नहीं थी गाँव में इज्जत थी। गाँव के लोग इज्जत से उनका नाम लेते थे। लोग शेख साहब कहकर पुकारते थे। शेख साहब एक साधारण किसान थे। गाँव में दस-बारह बीघा जमीन थी। उसी की फसल पर उनका परिवार निर्भर था।

शेख बदरुद्दीन की पत्नी पूरे गाँव में रसीदा बेगम के नाम से मशहूर थीं। घर में सभ्यता और इज्जत का वातावरण था।गांव में सब उसको इज्जत की नजर से देखते थे।

 उनके घर कोई गरीब इनसान भी आ जाता तो उसे एक गिलास पानी और दो-चार बताशे पहले दिए जाते और बाद में आने का कारण पूछा जाता। रसीदा बेगम से विवाह के बाद शेख बदरुद्दीन की जीवन-शैली में भी परिवर्तन आया। सोने, जगने, खेत जाने, यार  दोस्तों से मिलने-मिलाने तक में एक सलीका आ गया। गाँव में उनकी कद्र बढ़ गई। विवाह के चार साल बाद शेख बदरुद्दीन की पत्नी की गोद भरी और शेख की किलकारियों से उनका सूना आँगन गूंजने लगा। शेख बदरुद्दीन बहुत खुश थे कि भगवान ने उनका नाम रौशन करने के लिए उनके घर का चिराग भेज दिया है।

गाँव के लोग भी शेख साहब के बेटे की खुशियां मनाते और कहते कि देखना, एक दिन यह लड़का अपना और अपने खानदान का नाम रौशन करेगा।... देखो, अभी से इसकी पेशानी कितनी चौड़ी है। इसके हाथ कितने लम्बे हैं... यह सब इसके खुशहाल होने का संकेत है... बड़ा होकर यह लड़का गमों से कोसों दूर रहेगा और खुशियां इसके कदम चूमेगी।.. सदियों तक इसकी पहचान बनी रहेगी।... गाँव के लोगों की भविष्यवाणियाँ सुन- सुनकर बेगम रसीदा फूली न समातीं। शेख बदरुद्दीन भी खुश होते।


इसी तरह समय गुजरता रहा। एक दिन शेख बदरुद्दीन के घर के दरवाजे पर गन्ने की पेराई चल रही थी। गन्ने के रस से गुड़ बनाने के लिए अलाव जल रहा था जिस पर बड़े कड़ाहे में गन्ने का रस उबाला जा रहा था। शेख बदरुद्दीन अपने बेटे को गोद में लेकर बैठे थे। उनका सारा ध्यान काम में लगे मजदूरों पर था। उनकी गोद में बैठा नन्हा शेख कुछ देर तक चुपचाप अपने पिता जी की गोद में बैठा रहा मगर जब पिताजी की तरफ से उसके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तब अपने पिता का ध्यान अपनी और आकर्षित करने के लिए पूछा-"पापा ये लोग क्या कल लयें ऐं (पापा ये लोग क्या कर रहे हैं?) ?" बेटे की तोतली आवाज सुनने के बाद शेख बदरुद्दीन ने उसका सिर सहलाते हुए कहा- "बेटे! ये लोग गुड़ बना रहे हैं!"

"गुल (गुड़) क्या होता एं!” शेखू ने पूछा।

“तुम गुड़ नहीं जानते?" आश्चर्य से शेख बदरुद्दीन ने पूछा ।

"नई!" शेख ने कहा

शेख बदरुद्दीन ने एक मजदूर को आवाज लगाई - "रहमू काका! जरा गुड़ की एक छोटी भेली तो लेके आना ! मेरा शेखू 'गुड़' नहीं जानता है...उसे बताऊँ कि गुड़ क्या होता है। " रहमू गुड़ की भेली लेकर आ गया। शेख बदरुद्दीन ने शेखू के हाथ में गुड़ की भेली थमा दी

और कहा - " देख बेटा, यह है गुड़ ! चख के देख, तुम्हें पसन्द आएगा । "

शेखू ने गुड़ के उस टुकड़े को देखा फिर मुँह में डालकर उसका छोटा-सा टुकड़ा अपने नए- नुकीले दाँतों से काट लिया। गुड़ का स्वाद उसे अच्छा लगा... आह ! कितना मीठा है गुड़ ! नन्हे शेखू के लिए यह स्वाद अद्भुत था। जल्दी ही वह अपने हाथ का गुड़ खत्म कर चुका था... इच्छा हो रही थी कि और गुड़ खाए। अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए वह अपने अब्बू की गोद से उतर गया और रहमू काका के पास चला गया। गुड़ उसकी लार से सनकर उस समय उसके मुँह और ठुड्डी पर लगा हुआ था। हथेली भी गुड़ सनी लार से तर-बतर थी। इसी हाल में ढाई-तीन साल का शेखू रहमू काका से कह रहा था - "लहमू काका.... औल गुल खाएँगे...गुल दो!”

उसकी तोतली आवाज सुनकर रहमू काका हँस दिए और गुड़ का एक छोटा-सा टुकड़ा उसे थमा दिया। ठीक इसी समय रसीदा बेगम अपने दरवाजे पर किसी काम से आईं और उनकी नजर शेखू पर पड़ी जिसके मुँह और हथेली पर गुड़ चिपक रहा था... वे उसे देखते ही उसके पास आ गईं और शेखू के हाथ से गुड़ का टुकड़ा छीनते हुए बोलीं- “छीः, पूरा मुँह गन्दा कर लिया... किसने दे दिया तुम्हें इस तरह गुड़ खाने के लिए... तबीयत खराब हो जाएगी, चल! तेरा मुँह साफ करू उफ तूने अपने हाथो का क्या हाल बना रखा है! चल... धोऊँ!”

अम्मी की झिड़की और अम्मी द्वारा गुड़ छीन लिये जाने पर शेख जोर-जोर से रोने लगा।

उसके रोने की आवाज सुनकर शेख बदरुद्दीन ने उसे आवाज दी- “शेखू... चुप हो जा... क्यों चिल्ला रहा है?"

शेखू ने सुबकते हुए कहा- "मैं... कऔं चिल्ला रआ ऊँ.. अम्मी चिल्ली रई ऐ !” तोतली आवाज में शेख के इस उत्तर से वहाँ काम कर रहे मजदूर हँस पड़े। रसीदा बेगम और साहब भी हंसे बिना नहीं रहे और इसके बाद शेखू की भोली तुतली आवाज सुनने के लिए एक मजदूर ने शेखू का दामन थामकर पूछा- “कौन चिल्ली रई ऐ बेटा?"

शेखू ने भोलेपन से उत्तर दिया- “अम्मी!"

इसके बाद यह सिलसिला सा चल पड़ा 'कौन चिल्ली रई ऐ !' सवाल गाँव के छोटे-बड़े बच्चे और बड़े-बूढ़ों की जबान पर आ जाता, जैसे ही वे भोले-भाले शेखू को देखते।

देखते-देखते शेखू का नाम 'शेखचिल्ली' हो गया। फिर किसी ने शेखू को सिखाया- “कोई तुम्हारा नाम पूछेगा तो बताना-अपना नाम तो शेखचिल्ली है जनाब!"

“क्या बताओगे...?"

“शेखचिल्ली !”

"नहीं, ऐसे नहीं! बोलो अपना नाम तो शेखचिल्ली है जनाब!"

“ अपना नाम तो शेखचिल्ली है जनाब!" शेखू ने तोतली आवाज में यह वाक्य दुहराया।

लोग उससे उसका नाम पूछते और शेख के जवाब से हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते। शेखू लोगों को हँसता देखता तो खुद भी हँसने लगता। इस तरह शेखू के दिमाग में बैठ गया कि उसका नाम शेखचिल्ली है।

जब शेखू चार साल का हुआ तो शेख बदरुद्दीन उसे लेकर स्कूल में गए। रास्ते भर वे शेखू को समझाते रहे- “शेख बेटे ! अब तुम बड़े हो गए हो। अब पढ़ने के लिए तुम्हें रोज स्कूल जाना  पड़ेगा। आज तुम्हारा नाम स्कूल में लिखवा दूंगा। फिर तुम्हारे लिए स्लेट और पेंसिल खरीद दूंगा जिसे लेकर तुम रोज स्कूल जाया करोगे....और वहाँ पढ़ोगे वर्णमाला .,..।

" पढ़ने से क्या होगा अब्बू ?" शेखू ने मासूम सा सवाल पूछा। “पढ़ने से तू बड़ा आदमी बन जाएगा शेखू!” शेख बदरुद्दीन ने शेखू का उत्साह बढ़ाते हुए कहा।

शेखू कोई और सवाल करता मगर तब तक स्कूल आ गया। जब स्कूल में मौलाना ने शेख बदरुद्दीन से पूछा- “बच्चे का नाम क्या है?"

शेख बदरुद्दीन ने कुछ विचारते हुए कहा- "ऐसे तो हम लोग इसे शेखू बुलाते हैं मगर स्कूल में इसका नाम शेख कमरुद्दीन दर्ज करें...शेख कमरुद्दीन सुपुत्र शेख बदरुद्दीन! यही बढिया नाम होगा। "

मौलाना और अब्बू के बीच हो रही बातचीत को शेखू सुन रहा था। उसने जब अपना नाम कमरुद्दीन सुना तो तुरन्त बोला- "नहीं अब्बू, मेरा नाम कमरुद्दीन नहीं लिखाना... अपना नाम है शेखचिल्ली जनाब!” उसने मौलाना की तरफ मुँह करते हुए कहा ।

शेख बदरुद्दीन ने बहुत चाहा कि शेखू अपना नाम कमरुद्दीन लिखवाए मगर शेखू बार-बार यही दुहराता रहा- अपना नाम शेखचिल्ली है जनाब!' अन्ततः स्कूल में शेखू का नाम दर्ज हो गया 'शेखचिल्ली !

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