गुरुवार, 27 जुलाई 2023

अपनी रईसी खाक में मिल गई

 

शेखचिल्ली जवान हो गया। स्कूल की पढ़ाई पूरी हो गई। गाँव में स्कूल की पढ़ाई के बाद उसके सामने समस्या थी कि करे भी तो क्या करे! स्कूल के आगे की पढ़ाई के लिए गाँव में कोई इन्तजाम नहीं था। शेखचिल्ली के मन में बचपन से ही काम के प्रति विशेष आग्रह था। वह प्रायः कहा करता था कि भगवान ने हमें दो हाथ दिये हैं तो काम करने के लिए। काम चाहे जैसा भी हो, करना चाहिए। शेखचिल्ली की यह बात गाँव भर में मशहूर हो गई। शेख बदरुद्दीन अपने बेटे शेख के लिए कोई काम सोच नहीं पाए और निठल्ला बैठना शेखचिल्ली को पसन्द नहीं था। इसलिए वह दिन-भर मटरगश्ती करता और जो भी उसे कोई काम कर देने को कहता, वह कर देता। उसके मन में किसी के प्रति कोई भेदभाव तो था नहीं। बस, काम करने का जज्बा था। हाथ का उपयोग करने की चाहत थी ।

लोग उससे काम कराते और उसके मुँह पर उसकी खूब तारीफ करते कि उसके जैसा काम करनेवाला व्यक्ति उस गाँव में कोई दूसरा नहीं है... वही है, जो उस काम को कर पाया। अपनी तारीफ सुनना भला किसे अच्छा नहीं लगता! शेखचिल्ली को भी अपनी तारीफ बहुत अच्छी लगती थी। जब भी कोई उसकी तारीफ करता तो वह फूलकर कुप्पा हो जाता।

एक दिन शेखचिल्ली गाँव के एक आदमी की लकड़ियों का गट्ठर तैयार करने में इतना मशगूल हो गया कि उसे समय का खयाल ही नहीं रहा। उसे पता ही नहीं चला कि कब दिन ढला और रात हो गई। उसने दिन-भर लकड़ियों का गट्ठर तैयार कर उस आदमी की बैलगाड़ी पर उन गट्ठरों को करीने से लादकर बाँध दिया ताकि वह आदमी ये लकड़ियाँ शहर ले जाकर बेच सके। अपना काम पूरा करने के बाद उसे खयाल आया कि रात हो आई है। घर में मम्मी पापा उसके लिए परेशान हो रहे होंगे। वह तेज कदमों से चलता हुआ अपने घर आ गया। दरवाजे के कुएँ पर अपने हाथ-पाँव धोकर उसने बाहर से ही आवाज लगाई-“अम्मी! कहाँ हो? मुझे जोरों की भूख लगी है। कुछ दो खाने को!"

दिन-भर उसका इन्तजार करते-करते थक चुकी रसीदा बेगम ने जब मियाँ शेखचिल्ली की आवाज सुनी तो बुदबुदाने लगीं- "आ! आज तुझे खाना खिलाती हूँ। दिन-भर आवारागर्दी करता फिरेगा और घर आते ही इसको भूख लगेगी। पता नहीं कहाँ मारा-मारा फिरता है! पाँच फीट का मुस्टंडा जवान हो गया पर जीने का शऊर नहीं आया। यह भी खयाल नहीं रहता कि शाम तक घर वापस लौट आए...आ, आज बताती हूँ तुझे!"

रसीदा बेगम का गुस्सा उबाल खा रहा था और मियाँ शेखचिल्ली लाड़ में इतराते हुए बोल रहा था-"अरे, अम्मीजान, खाना निकाल दो, बड़ी भूख लगी है।'

ऐसा बोलते हुए शेखचिल्ली ने जैसे ही घर में प्रवेश किया कि रसीदा बेगम दहाड़ उठी-"घर में घुसते ही खाना चाहिए। बता, कहाँ रहा दिन-भर? रात गए घर लौटा है... यह कोई तरीका है घर आने का? जैसे घर न हुआ सराय हो गया! जब मर्जी निकल जाओ और जब मर्जी आ जाओ! बता, कहाँ था दिन-भर?"

मम्मी का रौद्र रूप देखकर शेखचिल्ली सहम सा गया। उसके लिए मम्मी का यह रूप नया और चौका देनेवाला था। उसके अब्बू से उसे डॉट सुनने को मिली थी...लप्पड़-थप्पड़ भी खा चुका था मगर मम्मी ने कभी उसे डाँटा नहीं था।

"क्या हुआ अम्मी? ऐसे नाराज क्यों हो रही हो?" बहुत सहमे हुए अन्दाज में शेखचिल्ली ने रसीदा बेगम से पूछा ।

और कोई अवसर होता तो रसीदा बेगम अपने लाइले के इस मासूम सवाल पर फिदा हो जातीं और उसे अपने गले से लगा लेतीं मगर आज तो उन्होंने ठान रखा था कि शेखू को तबीयत भर डाटेगी और उसे दुनियादारी समझने के लिए प्रेरित करेंगी। ऐसे तो मटरगश्ती करते-करते शेख किसी काम का नहीं रह जाएगा। ऐसा सोचकर उन्होंने पूछा- “पहले बता, कहाँ रहा इतनी देर तक? सुबह ही निकल गया था, जैसे किसी जरूरी काम से जा रहा हो।"

"हाँ, अम्मी, जरूरी काम था। महमूद मियाँ ने अपना एक पेड़ कटवाया था और उसकी लकड़ियाँ चीरी थीं। कल सुबह वे बैलगाड़ी से उन लकड़ियों को लेकर शहर जाएँगे ताकि उन्हें बेच सकें। उन्होंने मुझसे कहा था कि 'बेटा, लकड़ियों की लदाई में मेरी मदद कर देना...' जब उन्होंने मुझसे मदद के लिए कहा तो मुझे आपकी कही बात याद आ गई कि 'बेटा, यदि तु किसी की मदद करेगा तो भगवान तेरी मदद करेगा।' इसलिए आज सुबह ही मैं महमूद मियाँ के घर चला गया और दिन-भर उनकी लकड़ियों का गट्ठर बनाया और शाम को उन लकड़ियों को उनकी बैलगाड़ी पर लादना शुरू किया। जैसे ही काम खत्म हुआ, मैं भागता हुआ घर आया कि अम्मी अब्बू मेरे लिए परेशान हो रहे होंगे। मुझे जोरों की भूख भी लगी है...न!"

रसीदा बेगम अपने बेटे की बात सुनकर फिर से क्रोध के उबाल में आ गईं और शेखचिल्ली पर बरस पड़ीं-"अरे, तू दिन-भर  महमूद का बेगार करता रहा और उसने तुझे खाना तक नहीं खिलाया?"

"अम्मी! उसने मुझे खाने के लिए कहा था मगर मुझे तुम्हारी सीख याद आ गई कि 'बेटा, भूखा रहना पड़े तो रह लो मगर कभी किसी गैर का दिया कबूल न करो।' मैंने सोचा कि आखिर ये महमूद मियाँ मेरे अपने तो हैं नहीं, तो वह गैर ही हुए न! इसलिए उनके बहुत कहने पर भी मैंने कुछ खाया नहीं !"

बेटे का उत्तर सुनकर रसीदा बेगम अवाक् रह गईं। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उन्होंने कहा- "तुमसे तो कुछ कहना ही बेकार है! किसी भी बात के कहे जाने का कारण तो तू बिलकुल नहीं समझता...शब्दों में ही तेरा दिमाग अटक जाता है। चल, बैठ! खाना लगा देती हूँ। खा ले !" एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह शेखचिल्ली चोके में पीठे पर बैठ गया और रसीदा बेगम ने उसके सामने थाल सजा दी। शेखचिल्ली खाना खाने लगा। रसीदा बेगम उसे खाता हुआ देखती रहीं और सोचती रही- कितना मासूम है मेरा शेखू! दुनिया की मतलबपरस्ती को भी नहीं समझता है। आखिर यह कब समझदार बनेगा? इतना बड़ा हो गया। कुछ दिनों में इसकी शादी होगी। बाल-बच्चे होंगे। तब भी क्या यह ऐसा ही रहेगा?" वह शेखचिल्ली का मुँह देखे जा रही थीं और शेखचिल्ली सिर झुकाए खाना खाता रहा।

खाना खत्म करके वह उठा और हाथ-मुँह धोकर सोने चला गया। थका होने की वजह से उसे तुरन्त नींद आ गई।

लेकिन रसीदा बेगम की आँखों में नींद नहीं थी। शेख बदरुद्दीन ने बिस्तर पर जब बेगम की बेचैनी का कारण पूछा तो रसीदा बेगम ने शेखचिल्ली की सारी दिनचर्या बताते हुए कहा- "यह लड़का कब काबिल इनसान बनेगा, यही सोच-सोचकर मेरा जी हलकान हो रहा है।"

शेख बदरुद्दीन कुछ देर तक रसीदा बेगम की बात सुनते रहे और फिर उन्हें तसल्ली देते हुए बोले- "बेगम ! मन छोटा करने की जरूरत नहीं। शेखू अभी दुनियादारी से परिचित नहीं हुआ है। जब जिम्मेदारियाँ आएँगी तो वह भी दुनियादार हो जाएगा। तुम उसे कल कहना - 'जाओ और कुछ कमा कर लौटो!' देखना, तुम्हारी बात का उस पर जादुई असर होगा। वह तुम्हारी बात मानता है और तुम्हारा कहा नहीं टालता है।"

दूसरे दिन सुबह होते ही रसीदा बेगम ने शेखचिल्ली को जगाया और कहा- "बेटे! आज तुम जल्दी नहा-धोकर निकलो और कहीं भी जाकर कोई भी काम करके कुछ कमा कर लौटो। शाम को घर आओ तो तुम मुझे यह कहने लायक रहो कि 'अम्मी, यह लो, मेरे दिन- भर की कमाई है।

शेखचिल्ली तुरन्त बिस्तर से उठा। नहा-धोकर तैयार हुआ और काम की खोज में निकल पड़ा। आज उसके भीतर एक नया जोश भरा हुआ था। उसे लग रहा था कि वह हर तरह के काम कर सकता है। गाँव की सड़क से वह बाजार जाने की राह पर चल पड़ा। रास्ते में उसने एक आदमी को अंडों से भरे झावे के साथ बैठे देखा। उसे समझते देर नहीं लगी कि इस आदमी को मदद की जरूरत है। खुदाई खिदमतगार की तरह शेखचिल्ली उस आदमी के पास पहुँच गया और पूछा- "क्यों भाई ! कोई मदद चाहिए?"

वह आदमी शेखचिल्ली को देखकर वैसे ही खुश हुआ, जैसे कोई बिल्ली चूहे को देखकर होती है! उसने तुरन्त कहा- "हाँ, भाई! यह झावा सिर पर लादकर मैं पार वाले गाँव से आ रहा हूँ। थक गया हूँ। यदि तुम मेरा यह झाबा उठाकर बाजार तक ले चलो तो मैं तुम्हारा शुक्रगुजार होऊंगा!

और दिन होता तो शेखचिल्ली बिना किसी हील हुज्जत के वह झाबा उठाकर बाजार तक पहुँचा आता मगर आज तो अम्मी का आदेश मिला है कि कुछ कमा कर लौटना! अम्मी का आदेश याद आते ही शेखचिल्ली ने कहा- "ठीक है भाई! पहुँचा दूंगा...मगर सिर्फ शुक्रगुजार होने से काम नहीं चलेगा। बताओ, मुझे इस काम के बदले में तुम क्या दोगे?"

उस आदमी ने शेखचिल्ली से कहा- “भैया! मेरे पास पैसे नहीं है। तुम चाहो तो दो अंडे ले लेना!"

"सिर्फ दो अंडे?" शेखचिल्ली ने हैरत-भरे अन्दाज में पूछा।

"हाँ, दो अंडे !... दो अंडों को तुम कम मत समझो! दो अंडों से दो चूजे निकल सकते हैं। और बाद में यही चूजे मुर्गियों में तब्दील हो जाएँगे। मुर्गियाँ रोज अंडे देती हैं। इस तरह सोचो तो तुम्हारे पास एक मुर्गीखाना ही तैयार हो जाएगा और तुम मेरी तरह अंडों का कारोबार शुरू कर सकते हो।'

शेखचिल्ली को उसकी बात जँच गई और वह तुरन्त झाबा उठाकर बाजार की तरफ तेजी से चल पड़ा-एक नई उमंग के साथ उसके जेहन में सुनहरे ख्वाब तैरने लगे-दो अंडों से दो मुर्गियाँ, दो मुर्गियों से सैकड़ों अंडे, सैकड़ों अंडों से सैकड़ों मुर्गियां... सैकड़ों मुर्गियों से हजारों अंडे... फिर तो मैं अंडों का व्यापारी बन जाऊँगा... और गाँव के रईस वसीम खान की तरह अकड़कर चलूँगा-मूँछें ऐंठते हुए ! अगर किसी ने कभी मेरे साथ बदसलूकी की तो मैं भी उसे वसीम खान की तरह ही इस तरह लात जमा दूंगा ऐसा सोचते-सोचते शेखचिल्ली ने अपना एक पैर सामने की तरफ इस तरह उद्याला मानो वह किसी को लात मार रहा हो। सड़क पर उसके ठीक सामने एक बड़ा-सा पत्थर पड़ा हुआ था। अपने ही खयालों में डूबे रहने के कारण शेखचिल्ली उस पत्थर को देख नहीं पाया था। लात जमाने के अन्दाज जब उसने अपना पैर जोरदार ढंग से सामने की तरफ उछाला तो उसका पैर उस पत्थर से टकराया और वह मुँह के बल सड़क पर गिर पड़ा। उसके सिर से झावा दूर जा गिरा और उसमें रखे अंडे चकनाचूर हो गए।

अब तो अंडेवाले का गुस्सा सातवें आसमान पर था। उसने शेखचिल्ली का गिरेबाँ पकड़कर उठाया और उसे थप्पड़ मारते हुए कहा- "देख के नहीं चल सकता था? तूने तो मेरे सारे अंडे बरबाद कर दिए।" फिर उसने शेखचिल्ली पर लात- -घूंसे की वर्षा कर दी।

बेचारा शेखचिल्ली! बुक्का फाड़कर रोने लगा और अंडेवाले की दुहाई देता हुआ बोलने लगा-“क्यों मारते हो भाई? मुझे मारने से तेरे अंडे तो दुरुस्त नहीं हो जाएँगे...। तुम क्या जानो, मेरा कितना नुकसान हो गया...। कहाँ तो मैं गाँव का सबसे बड़ा रईस बनने जा रहा था और कहाँ अपनी रईसी खाक में मिल गई।" अंडेवाले ने शेखचिल्ली की बातें सुनकर उसे फिर एक चाँटा रसीद किया और कहा- "देखकर चला करो!" और अपनी राह चला गया।

अपना गाल सहलाता हुआ शेखचिल्ली अपने घर की तरफ चल पड़ा, अपने मन को तसल्ली देते हुए कि बेटे ! जान बची तो लाखों पाए!


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