शुक्रवार, 28 जुलाई 2023

श्रीकृष्ण

 एक समय की बात है, द्वारका मे रहते समय अतुल तेजस्वी श्रीकृष्ण को पिण्डारक तीर्थ में समुद्र यात्रा का अवसर प्राप्त हुआ । राजा उग्रसेन तथा वसुदेव- इन दोनों को नगर का अध्यक्ष बनाकर द्वारका पुरी में ही छोड़ दिया गया। शेष सब लोग यात्रा के लिये निकले ।                                                        बलरामजी अपने परिवार के साथ अलग थे, सम्पूर्ण जगत् के स्वामी बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्ण का दल अलग था तथा अमित तेजस्वी कुमारों की मण्डलियाँ भी अलग-अलग थीं।  वस्त्राभूषणों से अलंकृत तथा रूप सौन्दर्य से सम्पन्न यादव वंशी कुमारों के साथ हजारों गणिकाएँ भी यात्रा के लिये निकलीं ।   सुदृढ़ पराक्रमी यादववीरों ने दैत्यों के निवास स्थान समुद्र को जीतकर वहाँ द्वारकापुरी में हजारों वेश्याओं को बसा दिया था ।

विविध वेश धारण करने वाली वे युवतियाँ महामनस्वी यादवकुमारों के लिये सामान्य क्रीड़ा नारियाँ थीं। वे अपने गुणों द्वारा सभी कुमारों की इच्छा के अनुसार उनके उपभोग में आने वाली थीं। राजकुमारों की उपभोग्या होने के कारण वे राजन्या कहलाती थीं। प्रभो ! बुद्धिमान् श्रीकृष्ण ने भीमवंशी यादवों के लिये ऐसी व्यवस्था कर दी थी, जिससे यादवों में स्त्री के कारण परस्पर वैर न हो ।                                                                           प्रतापी यदुश्रेष्ठ बलरामजी सदा अपने अनुकूल रहने वाली एकमात्र रेवती देवी के साथ चकवा चकवी के समान परस्पर अनुराग पूर्वक रमण करते थे । वे कादम्बरी की मधु  का पान करके मस्त रहते थे । वनमाला से विभूषित हुए बलराम वहाँ रेवती के साथ समुद्रजल में क्रीडा करने लगे ।

 सबके प्रिय कमलनयन गोविन्द सर्वरूप से अर्थात् जितनी स्त्रियाँ थीं, उतने ही रूप धारण करके जल में अपनी सोलह हजार स्त्रियों को रमाते थे । उस रात में नारायण स्वरूप श्रीकृष्ण की वे सारी रानियाँ यही मानती थीं कि मैं ही इन्हें अधिक प्रिय हूँ; अतः केशव मेरे ही साथ जल में विहार कर रहे हैं ।

सभी के अङ्गों पर रति के चिह्न थे। सभी रति  सुख का अनुभव कर के तृप्त हो गयी थीं; अतः वे सब-की-सब गोविन्द के प्रति  सम्मान का भाव धारण करती थीं ।

 श्रीकृष्ण की वे सभी सुन्दर रानियाँ अपने स्नेही परिजनों के समीप प्रसन्नतापूर्वक अपने भाग्य की सराहना करती हुई कहती थीं कि मैं ही अपने प्राणनाथ को अधिक प्रिय हूँ। मैं ही उन्हें अधिक प्यारी हूँ । वे कमलनयनी सुन्दरियाँ दर्पण में अपने कुचों पर श्रीकृष्ण के नख क्षत और अधरों पर दन्त क्षत चिह्न देख देख कर हर्ष में भर जाती थीं । श्रीकृष्ण की वे सुन्दर पत्नियाँ उनके नाम ले लेकर गीत गातीं और अपने नेत्रपुटों से उनके मुखारविन्द का रस पान करती थीं ।

 उनके मन और नेत्र श्रीकृष्ण में ही लगे रहते थे। नारायण की वे कमनीय पत्नियां अत्यन्त मनोहारिणी और एक निश्चय पर अटल रहने वाली थीं। नारायण देव उनके सारे मनोरथ पूर्ण करके उन्हें तृप्त रखते थे; अतः वे सब नारियां एक को ही अपना हृदय और दृष्टि अर्पित करके भी आपस में कभी ईर्ष्या नहीं करती थीं ।

 वे सारी  की सारी मनोहर दृष्टि वाली अथवा मनोहर दिखायी देने वाली सुन्दरियाँ केशव की वल्लभा होने का अथवा केशव को प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त करने का सौभाग्य वहन करती हुई अपने सिर को बड़े गर्व से ऊँचा किये रहती थीं ।

अपने मन को वश में रखने वाले भगवान् श्रीकृष्ण समुद्र के निर्मल जल में पूर्वोक्त विश्वरूप विधि से उन सब के साथ क्रीड़ा करते थे ।

भगवान् वासुदेव के शासन से उस समय महासागर समस्त सुगन्धों से युक्त, स्वच्छ, लवण रहित और शुद्ध स्वादिष्ट जल धारण करता था। समुद्र का वह जल कहीं टखने तो कहीं घुटनों तक, कहीं जाँघों तक था तो कहीं स्तनो तक था । उन नारियोंको इतना ही जल अभीष्ट था ।

श्रीकृष्ण की रानियां सब ओर से उन पर जल उलीचने लगी। जैसे नदियों की अनेक धाराएं समुद्र को सींचती है।भगवान् गोविन्द भी उन पर जल छिड़कने लगे, मानो मेघ खिली हुई लताओं पर जल बरसा रहा हो ।

 कितनी ही मृगनयनी नारियाँ श्री हरि के कण्ठ में अपनी बाँहें डालकर कहने लगीं - ' प्रिय ! मुझे हृदय से लगा लो, अपनी भुजाओं में कस लो; अन्यथा मैं जल में गिरी जाती हूँ'।

 कितनी ही सर्वाङ्गसुन्दरी स्त्रियाँ क्रौञ्च, मोर तथा नागों के आकार में बनी हुई काठ की नौकाओं द्वारा जल पर तैरने लगीं। दूसरी स्त्रियाँ मगर, मत्स्य तथा अन्यान्य विविध प्राणियों की आकृति धारण करने वाली नौकाओं द्वारा तैरने लगीं। कितनी ही रानियाँ समुद्र के रमणीय जल में श्रीकृष्ण को हर्ष प्रदान करती हुई घड़ों के समान अपने स्तनकुम्भों द्वारा तैर रही थीं ।

 अमरशिरोमणि श्रीकृष्ण उस जल में आनन्दपूर्वक महारानी रुक्मिणी के साथ रमण करते थे। वे जिस जिस कार्य या उपाय से आनन्द मानते, उनकी वे सुन्दरी स्त्रियाँ प्रशंसापूर्वक वही  वही कार्य या उपाय करती थीं। महीन वस्त्रों से ढकी हुई दूसरी सुन्दरियां एवं कमलनयनी स्त्रियाँ भाँति-भाँति की लीलाएँ करती हुई जल में भगवान् श्रीकृष्ण के साथ क्रीड़ा करती थीं ।

जिस जिस रानी के मन में जो जो भाव था, सब के भावों को जानने और मन को वश में रखने वाले श्रीकृष्ण उसी उसी भाव से उस स्त्री के अन्तर में प्रवेश करके उसे अपने वश में कर लेते थे।

इन्द्रियों के प्रेरक और सब के स्वामी होकर भी सनातन भगवान् हृषीकेश देश काल के अनुसार अपनी प्रेयसी पत्नियों के वश में हो गये थे । 

वे समस्त वनिताएँ अपने कुल के अनुरूप बर्ताव करने वाले जनार्दन को ऐसा समझती थीं कि ये कुल और शील में समान होने के कारण हमारे ही योग्य हैं । मुस्करा कर बात करने वाले तथा औदार्य  गुण से सम्पन्न उन प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण को उस समय उनकी वे पत्नियाँ हृदय से चाहने लगीं तथा भक्ति एवं अनुराग के कारण उनका बहुत सम्मान करने लगीं।

यादवकुमारों की गोष्ठियाँ अलग थीं। वे वीर यादवकुमार उत्तम गुणों की खान थे और प्रकाश रूप से स्त्री समुदायों के साथ समुद्र के जल की शोभा बढ़ा रहे थे । वे स्त्रियाँ गीत और नृत्य की क्रिया को जानने वाली थीं तथा उन कुमारों के तेज से स्वयं ही उनकी ओर आकृष्ट हुई थीं तो भी वे कुमार उदारता के कारण उनके वश में स्थित थे ।

 उन उत्तम नारियों के मनोहर गीत और वाद्य सुनते तथा उनके सुन्दर अभिनय देखते हुए वे यादव वीर उन पर लट्टू हो रहे थे ।तदनन्तर श्रीकृष्ण ने विश्वरूप होने के कारण स्वयं ही प्रेरणा देकर पञ्च चूड़ा नाम वाली अप्सरा को तथा कुबेर भवन और इन्द्र भवन की भी सुन्दर अप्सराओं को वहाँ बुला लिया ।

 अप्रमेय स्वरूप जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने हाथ जोड़कर चरणों में पड़ी हुई उन अप्सराओं को उठाया और सान्त्वना देकर कहा । सुन्दरियो ! तुम निःशङ्क होकर भीमवंशी यादवकुमारों की क्रीडा युवतियों में प्रविष्ट हो जाओ और मेरा प्रिय करने के लिये इन यादवों को सुख पहुँचाओ ।

नाच, गान, एकान्त परिचर्या, अभिनय योग तथा नाना प्रकार के बाजे बजाने की कला में तुम लोगों के पास जितने गुण हों, उन सब को दिखाओ । ऐसा करने पर मैं तुम्हें मनोवाञ्छित कल्याण प्रदान करूँगा; क्योंकि ये सब के सब यादव मेरे शरीर के ही समान हैं ' ।

उस समय श्रीहरि की उस आज्ञा को शिरोधार्य कर के वे सब श्रेष्ठ अप्सराएँ यादवकुमारों की क्रीडा  युवतियों में सम्मिलित हो गयीं । उनके प्रवेश करते ही वह महासागर दिव्य प्रभा से उद्दीप्त हो उठा। ठीक उसी तरह, जैसे आकाश में मेघों का समुदाय बिजलियों के चमकने से प्रकाशित हो उठता है ।

 वे सुन्दर युवतियां जल में भी स्थल की ही भाँति खड़ी हो स्वर्गलोक की ही भाँति गीत गाने, बाजे बजाने तथा सुन्दर अभिनय करने लगीं । वे विशाल नेत्रों वाली सुन्दरियाँ दिव्य गन्ध, माल्य तथा वस्त्रों से सुशोभित हो अपनी विविध लीलाओं तथा हास्ययुक्त हाव-भावों से यादवकुमारों के चित्त चुराने लगीं ।

कटाक्षों, संकेतों, क्रीडाजनित रोषों तथा प्रसन्नतासूचक मनो अनुकूल भावों के द्वारा वे भीमवंशियों के मन मोहने लगीं ।वे अप्सराएँ उन यादवकुमारों को ऊपर-ऊपर आकाश में प्रवह आदि वायु के मार्गों में ले जाकर उनके साथ विहार करती थीं, अतः वे मदमत्त हुए भीमवंशी कुमार उन सुन्दरी अप्सराओं का बड़ा सम्मान करते थे।

भगवान् श्रीकृष्ण भी उन यादवों की प्रसन्नता के लिये आकाश में स्थित हो अपनी सोलह हजार स्त्रियों के साथ प्रसन्नता पूर्वक विहार करते थे । वे वीर यादव अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण का प्रभाव जानते थे; अतः आकाश में क्रीडा करने के कारण उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वे उस दशा में भी अत्यन्त गम्भीर बने रहे ।

 कुछ यादव रैवतक पर्वत पर जाकर फिर लौट आते थे। दूसरे घरों में जाकर आ जाते तथा अन्य लोग अभिलषित वनों में घूम-फिर कर लौटते थे। उस समय अतुल तेजस्वी लोकनाथ भगवान् विष्णु अर्थात श्रीकृष्ण  की आज्ञा से अपेय समुद्र का जल भी पीने योग्य हो गया था ।

वे कमलनयनी नारियाँ जब इच्छा होती, तब जल में भी स्थल की भाँति दौड़ती थीं और जब चाहतीं परस्पर हाथ पकड़ कर एक साथ ही गोता लगा लेती थीं । यादवों के मन से चिन्तन करते ही उनके लिये नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य, पेय, चोष्य और लेह्य पदार्थ प्रस्तुत हो जाते थे। 

जो कभी कुम्हलाती नहीं थी, ऐसी माला धारण करने वाली वे दिव्य अप्सराएँ स्वर्ग में देवताओं के साथ की गयी रतिक्रीडा का अनुसरण करती हुई उन श्रेष्ठ यादवकुमारों को एकान्त में रमण का अवसर देती थीं। किसी से पराजित न होने वाले अन्धक और वृष्णिवंश के वीर सायंकाल में स्नान के पश्चात् अनुलेपन धारण करके आनन्दमग्न हो गृहाकार बनी हुई नौकाओं द्वारा क्रीडा करने लगे ।

 विश्वकर्मा ने नौकाओं में अनेक प्रकार के महल बनाये थे, जिनमें से कुछ लम्बे थे और कुछ चौकोर । कुछ गोलाकार थे और कुछ स्वस्तिकाकार । वे महल कैलास, मन्दराचल और मेरुपर्वत की भाँति इच्छानुसार रूप धारण कर लेते थे। कई नाना प्रकार के पक्षियों और पशुओं के समान रूप धारण करनेवाले थे ।

उनमें वैदूर्यमणि के तोरण लगे थे, जिनसे उन महलों की विचित्र शोभा होती थी। वे विचित्र मणिमय शय्याओं से सुसज्जित थे। मरकत, चन्द्रकान्त और सूर्यकान्त मणिमय विचित्र रागों से वे रञ्जित थे तथा नाना प्रकार के सैकड़ों आस्तरण अर्थात बिस्तर उनकी शोभा बढ़ाते थे ।

खेल के लिये बनाये गये गरुड़ के समान भी उन भवनों की आकृति थी । वे विचित्र भवन सुवर्ण की धाराओं से शोभा पाते थे। कोई क्रौञ्च के कोई तोते के तुल्य और कितने ही भवन हाथियों की सी आकृति धारण करते थे ।

सुवर्ण से प्रकाशित होने वाली वे नौकाएँ कर्णधारों के नियन्त्रण में रहकर उत्ताल तरंगों से युक्त सागर की जलराशि को सुशोभित कर रही थीं । सफेद जलपोतों, यात्रोपयोगी बड़ी-बड़ी नावों, वेगवती नौकाओं और महल आदि से युक्त विशाल जहाजों से उस वरुणालय अर्थात समुद्र  की बड़ी शोभा हो रही थी । यादवों के वे जलयान समुद्र के जल में सब ओर चक्कर लगा रहे थे । वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो गन्धर्वों के नगर आकाश में विचर रहे हों । 

नन्दनवन की आकृति और समृद्धियों से युक्त यानपात्रों में विश्वकर्मा ने सब कुछ नन्दन जैसा ही बना दिया था । उद्यान, सभा, वृक्ष, झील और झरने  या फौवारे आदि शिल्प सर्वथा वैसे ही उनमें समाविष्ट किये गये थे । स्वर्ग-जैसे बने हुए दूसरे जलयानों में विश्वकर्मा ने भगवान् नारायण की आज्ञा से स्वर्ग की सी सारी वस्तुएँ संक्षेप से रच दी थीं ।

वहाँ के वनों में पक्षी हृदय को प्रिय लगने वाली मधुर बोली बोलते थे । उनकी वह बोली उन अत्यन्त तेजस्वी यादवों को बहुत ही मनोहर प्रतीत होती थी । देवलोक में उत्पन्न हुए सफेद कोकिल उस समय यादववीरों की इच्छा के अनुसार विचित्र एवं मधुर आलाप छेड़ रहे थे । चन्द्रमा की किरणों के समान रूपवाली श्वेत अट्टालिकाओं पर मीठी बोली बोलने वाले मोर दूसरे मोरों के साथ  नृत्य करते थे।

विशाल जलयानों पर लगी हुई सारी पताकाओं पर पक्षियों के समुदाय बैठे थे। उनमें जो पुष्पमालाओं की लड़ियाँ बँधी थीं, उन पर आसक्त होकर रहने वाले भ्रमर वहाँ गुञ्जारव फैला रहे थे।

नारायण अर्थात श्रीकृष्ण  की आज्ञा से वृक्ष तथा ऋतुएँ आकाश में स्थित हो मनोहर रूप वाले पुष्पों की अधिक वर्षा करने लगीं ।

 रतिजनित खेद अथवा श्रम को हर लेने वाली मनोहर एवं सुखदायिनी हवा चलने लगी, जो सब प्रकार के फूलों के पराग से संयुक्त तथा चन्दन की शीतलता को धारण करनेवाली थी ।

 क्रीड़ा में तत्पर होकर सर्दी गरमी की इच्छा रखने वाले यादवों को उस समय वहाँ भगवान् वासुदेव की कृपा से वह सब उनकी रुचि के अनुकूल प्राप्त होती थी ।

भगवान् चक्रपाणि के प्रभाव से उस समय उन भीम वंशियों के भीतर न तो भूख प्यास, न ग्लानि, न चिन्ता और न शोक का ही प्रवेश होता था ।

अत्यन्त तेजस्वी यादवों की समुद्र के जल में होने वाली वे क्रीड़ाएँ निरन्तर चल रही थीं। उनमें बड़े-बड़े वाद्यों की ध्वनि शान्त नहीं हो रही थी तथा गीत और नृत्य उनकी शोभा बढ़ा रहे थे।

श्रीकृष्ण द्वारा सुरक्षित वे इन्द्रतुल्य तेजस्वी यादव अनेक योजन विस्तृत समुद्र के जलाशय को रोक कर क्रीड़ा कर रहे थे ।

 विश्वकर्मा ने महात्मा भगवान् नारायणदेव के लिये उनके विशाल परिवार सोलह हजार रानियों के समुदाय के अनुरूप ही जहाज बना रखा था । तीनों लोकों में जो विशिष्ट रत्न थे, वे सभी अत्यन्त तेजस्वी श्रीकृष्ण के उस यानपात्र में लगे थे।

 श्रीकृष्ण की स्त्रियों के लिये उसमें पृथक् पृथक् निवासस्थान बने थे, जो मणि और वैदूर्य से जटित होने के कारण विचित्र शोभा से सम्पन्न तथा सुवर्ण से विभूषित थे । उन गृहों में सभी ऋतुओं में खिलने वाले फूल लगाये गये थे । वहाँ सभी तरह के उत्तम सुगन्ध फैल कर उन भवनों को सुवासित कर रहे थे । श्रेष्ठ यादव  वीर तथा स्वर्गवासी पक्षी उन निवासस्थानों का  सेवन करते थे ।

हरिवंश पुराण के अध्याय अठ्ठासी का अंश।

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