शुक्रवार, 6 अगस्त 2021

प्रभु कृपा

 समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्‌ ॥9-29॥


भावार्थ : मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है, परंतु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट (जैसे सूक्ष्म रूप से सब जगह व्यापक हुआ भी अग्नि साधनों द्वारा प्रकट करने से ही प्रत्यक्ष होता है, वैसे ही सब जगह स्थित हुआ भी परमेश्वर भक्ति से भजने वाले के ही अंतःकरण में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होता है) हूँ॥9-29॥

ऐसा नहीं है कुछ, जैसा लोग कहते हैं अक्सर कि फलां व्यक्ति पर परमात्मा की बड़ी कृपा है। परमात्मा की कृपा किसी पर भी कम—ज्यादा नहीं है। भूलकर इस शब्द का उपयोग दोबारा मत करना। एक आदमी कहता है कि प्रभु की कृपा है। उसका मतलब कहीं ऐसा तो नहीं है कि कभी उसकी अकृपा भी होती है? या एक आदमी कहता है कि मुझ पर अभी प्रभु की कोई कृपा नहीं है। तो उसका अर्थ हुआ कि उसकी अकृपा होगी!

नहीं, उसकी अकृपा होती ही नहीं। इसलिए उसकी कृपा का कोई सवाल नहीं है। वह सम— भाव से सबके भीतर मौजूद है। यह कहना भी भाषा की कठिनाई है, इसलिए; अन्यथा सब में वही है, या सब वही है। जरा भी, रत्तीभर फर्क नहीं है। कृष्ण में या अर्जुन में, मुझ में या आप में, आप में या आपके पड़ोसी में, आप में या वृक्ष में, आप में या पत्थर में, जरा भी फर्क नहीं है।

लेकिन फर्क तो दिखाई पड़ता है! कोई बुद्ध है। कैसे हम मान लें कि बुद्ध में वह ज्यादा प्रकट नहीं हुआ है! कैसे हम मान लें कि बुद्ध में वह ज्यादा नहीं है, और हम में, हम में भी उतना ही है, कठिनाई है। साफ दिखाई पड़ता है। गणित कहेगा, नाप—जोख हो सकती है कि बुद्ध में वह ज्यादा है, कृष्ण में वह ज्यादा है। इसीलिए तो हम कहते हैं, कृष्ण अवतार हैं, बुद्ध अवतार हैं, महावीर तीर्थंकर हैं, जीसस भगवान के पुत्र हैं, मोहम्मद पैगंबर हैं, आदमियों से अलग करते हैं उन्हें। उनमें वह ज्यादा दिखाई पड़ता है।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, मैं सम— भाव से व्यापक हूं। फिर भेद कहां पड़ता होगा? न मेरा कोई अप्रिय है और न मेरा कोई प्रिय।

प्रेम जब पूर्ण होता है, तो न कोई अप्रिय रह जाता, न कोई प्रिय। क्योंकि जब तक मैं कहता हूं कोई मुझे प्रिय है, तो उसका अर्थ है कि कोई मुझे अप्रिय है। और जब तक मैं कहता हूं कोई मुझे प्रिय है, उसका यह भी मतलब है कि जो मुझे प्रिय है, वह कल अप्रिय भी हो सकता है, क्योंकि आज जो अप्रिय है, वह कल प्रिय हो सकता है। जब प्रेम पूर्ण होता है, तो न कोई अप्रिय होता, न कोई प्रिय होता। और न आज प्रिय होता और न कल अप्रिय होता। ये सारे भेद गिर जाते हैं। परमात्मा पूर्ण प्रेम है, इसलिए कोई उसका प्रिय नहीं है और कोई अप्रिय नहीं है।

परंतु जो भक्त मेरे को प्रेम से भजते हैं, वे मेरे में और मैं उनमें प्रकट हूं।

यह फर्क है, यहीं भेद है। यहीं बुद्ध कहीं भिन्न, महावीर कुछ और, और हम कुछ और मालूम पड़ते हैं।

जो भक्त मुझे प्रेम से भजते हैं, मैं उनमें प्रकट हो जाता हूं; जो मुझे नहीं भजते हैं, उनमें मैं अप्रकट बना रहता हूं।

व्यापकता में भेद नहीं है, लेकिन प्रकट होने में भेद है।

एक बीज है। बीज को माली ने बो दिया, अंकुरित हो गया। एक बीज हम अपनी तिजोड़ी में रखे हुए हैं। दोनों बीजों में जीवन समान रूप से व्यापक है! और दोनों बीजों में संभावना पूरी है। लेकिन एक बीज बो दिया गया और एक तिजोड़ी में बंद है। जो बो दिया गया, वह अंकुरित हो जाएगा। जो अंकुरित हो जाएगा, उसमें फूल लग जाएंगे। कल हम अपने तिजोड़ी के बीज को निकालें, और उस वृक्ष के पास जाकर कहें कि तुम दोनों समान हो, हमारा तिजोड़ी का बीज मानने को राजी नहीं होगा।

वह कहेगा कैसे समान? कहां यह वृक्ष, जिस पर हजारों पक्षी गीत गा रहे हैं। कहां यह वृक्ष, जिसके फूलों की सुगंध दूर—दूर तक फैल गई है। कहां यह वृक्ष, जिससे सूरज की किरणें रास रचाती हैं। कहां यह वृक्ष और कहां मैं, बंद पत्थर की तरह! कुछ भी तो मेरे पास नहीं है। मैं दीन—दरिद्र, मेरे पास कोई आत्मा नहीं है, कोई फूल, कोई सुवास नहीं है। मुझे इस वृक्ष के साथ एक कहकर क्यों मजाक उड़ाते हो? क्यों व्यंग करते हो?

लेकिन हम जानते हैं, उन दोनों में वृक्ष सम— भाव से व्यापक है। पर एक में प्रकट हुआ, क्योंकि खाद मिली, जमीन में पड़ा, पानी पड़ा, सूरज के लिए मुक्त हुआ, उठा, हिम्मत की, साहस जुटाया, संकल्प बनाया, आकाश की तरफ फैला, अज्ञात में गया, अनजान की यात्रा पर निकला, तो वृक्ष हो गया है।

कृष्ण कहते हैं, जो मुझे प्रेम से भजते हैं!

यह प्रेम से भजना ही बीज को जमीन में डालना है। प्रेम से भजने का अर्थ है कि जो आदमी दिन—रात प्रभु को सब तरफ स्मरण करता है, उसके चारों तरफ प्रभु की भूमि निर्मित हो जाती है—चारों तरफ। उठता है तो, बैठता है तो, खाता है तो, प्रभु को स्मरण करता रहता है। चारों तरफ धीरे—धीरे, उसकी चेतना के बीज के चारों तरफ प्रभु की भूमि इकट्ठी हो जाती है। उसी भूमि में बीज अंकुरित होता है। निश्चित ही, जमीन में बीज को गाड़ना पड़ता है। तो प्रकट बीज है, प्रकट जमीन है। यह जो चेतना का बीज है, अप्रकट है, अप्रकट ही इसकी जमीन होगी। उस जमीन को पैदा करना पड़ता है। चारों तरफ मिट्टी इकट्ठी करनी पड़ती है उस जमीन की। वही प्रभु की भक्ति है।

और तब वे मेरे में और मैं उनमें प्रकट होता हूं।

यह प्रकट होना भी दोहरा है। जब एक वृक्ष आकाश में खुलता है, तो दोहरी घटना घटती है। यह वृक्ष तो आकाश में प्रकट होता ही है, आकाश भी इस वृक्ष में प्रकट होता है। यह वृक्ष तो सूरज के समक्ष प्रकट होता ही है, सूरज भी इस वृक्ष के भीतर से पुन: प्रकट होता है। यह वृक्ष तो हवाओं में प्रकट होता ही है, हवाएं इस वृक्ष के भीतर श्वास लेती हैं और प्रकट होती हैं। यह वृक्ष तो प्रकट होता ही है, इस वृक्ष के साथ जमीन भी प्रकट होती है, इस वृक्ष के साथ जमीन की सुगंध भी प्रकट होती है। यह वृक्ष ही प्रकट नहीं होता, वृक्ष के साथ सारा जगत भी इसके भीतर से प्रकट होता है।

तो जब कोई एक भक्त बीज बन जाता है और अपने चारों तरफ परमात्मा के स्मरण की भूमि को निर्मित कर लेता है, तो दोहरी घटना घटती है। भक्‍त परमात्मा भक्त में प्रकट होता है। वे दोनों प्रकट हो जाते हैं। वे आमने—सामने हो जाते हैं। एनकाउंटर।

हम सब ने सदा भगवान से साक्षात्कार का मतलब ऐसा ही सोचा है कि आमने —सामने खड़े हो जाएंगे। वे मोर—मुकुट बांधे हुए  खड़े होंगे, हम हाथ जोड़े, उनके घुटनों में पैर टेके खड़े होंगे!

ऐसा कहीं नहीं होने वाला है। यह तो कवि का काव्य है, और मधुर है, प्रीतिकर है, लेकिन काव्य है। वस्तुत: जो अभिव्यक्ति होगी प्रकट होने की, वह ऐसी नहीं होगी। वह तो ऐसी होगी कि जब हम अपने भीतर के बीज को तोड्ने में समर्थ हो जाएंगे, तो जो अभिव्यक्ति होगी, वह दो व्यक्ति आमने—सामने खड़े हैं ऐसी नहीं। बल्कि दो दर्पण आमने—सामने रखे हैं।

दो दर्पण अगर आमने—सामने रखे हैं, तो पता है क्या होगा? एक दर्पण दूसरे में दिखाई पड़ेगा, दूसरा दर्पण पहले में दिखाई पड़ेगा। और फिर अनंत दर्पण, एक के भीतर, एक के भीतर, एक के भीतर दिखाई पड़ते जाएंगे। वह जो इनफिनिटी, वह जो अनंत दर्पण दिखाई पड़ेंगे, और हर दर्पण फिर उसको दिखाएगा, और फिर वह दर्पण इसको दिखाएगा। और यह अनंत होगा।

दो दर्पण एक—दूसरे के सामने हों, तो जो होगा, वही जब हमारी चेतना परमात्मा की चेतना के सामने होती है, तो होता है। अंतहीन हो जाते हैं हम। और वह तो अंतहीन है ही। अनंत हो जाते हैं हम, वह तो अनंत है ही। अनादि हो जाते हैं हम, वह तो अनादि है ही। अमृत हो जाते हैं हम, वह तो अमृत है ही। और दोनों एक—दूसरे में झांकते हैं। और यह झांकना अनंत है। इस झांकने का फिर कोई अंत नहीं होता। यह फिर कभी समाप्त नहीं होता।

तो ध्यान रखें, परमात्मा से मिलन होता है, फिर बिछुड़न नहीं होती। फिर वह मिलन अनंत है। और फिर उस मिलन की रात का कोई अंत नहीं है। उस मिलन की रात का फिर कोई अंत नहीं है। वहा से फिर कोई वापस नहीं लौटता। वहा से पुनरागमन नहीं है।

पर इसका यह अर्थ नहीं है कि परमात्मा किसी को प्रेम करता है और उसे दर्शन दे देता है, और किसी को प्रेम नहीं करता और उसको चकमा देता रहता है कि दर्शन नहीं देंगे!

नहीं, इससे कोई संबंध नहीं है। परमात्मा के प्रेम का सवाल नहीं है, आपके श्रम का सवाल है। उसकी कृपा का सवाल नहीं है, आपके संकल्प का सवाल है।

उसकी कृपा प्रतिपल बरस रही है, लेकिन आप अपने मटके को उलटा रखकर बैठे हैं। आप चिल्ला रहे हैं कि कृपा नहीं है। पास का मटका भरा जा रहा है। वह मटका सीधा रखा है, आप अपने मटके को उलटा रखे बैठे हैं। और अगर कोई आकर कोशिश भी करे आपके मटके को सीधा रखने की, तो आप बहुत नाराज होते हैं। आप कहते हैं, यह हमारा ढंग है; यह हमारी मान्यता है; यह हमारा दृष्टिकोण है; यह हमारा धर्म है, यह हमारा मत है; यह हमारे शास्त्र में लिखा है!

आप हजार दलीलें देते हैं अपने मटके को उलटा रखे रहने के लिए। और जब भी कोई अगर जोर—जबर्दस्ती आपके मटके के साथ सीधा करने की करे, तो कष्ट होता है, पीड़ा होती है, झंझट होती है; सुखद नहीं मालूम पड़ता। मटका उलटा रखा है सदा से। हमें लगता है, यही इसके रखे होने का ढंग है। फिर पास का मटका भर जाता है, तो हम चिल्लाते हैं, परमात्मा किसी पर ज्यादा कृपालु मालूम हो रहा है और हम पर कृपालु नहीं है।

परमात्मा की वर्षा निरंतर हो रही है, जो भी अपने मटके को सीधा कर लेता है, वह भर जाता है। और कोई बाधा नहीं है। आपके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। आपके अतिरिक्त और कोई आपका शत्रु नहीं है। आपके अतिरिक्त और किसी ने कभी कोई विध्‍न नहीं डाला है।

अगर आप परमात्मा से नहीं मिल पा रहे हैं, तो इसमें आपका ही हाथ है। अगर आप मिल पाएंगे, तो यह आपकी ही आपके ऊपर कृपा है। परमात्मा की कृपा का इसमें कुछ लेना—देना नहीं है। उसका प्रेम सम है। उसका अस्तित्व हमारे भीतर समान है। उसकी क्षमता, उसकी बीज— क्षमता हमारे भीतर एक—सी है। लेकिन फिर भी हम स्वतंत्र हैं। और चाहें तो उस बीज को वृक्ष बना लें, और चाहें तो उस बीज को बंद रख लें।

हम सब तिजोडियों में बंद बीज हैं। और सब अपनी—अपनी तिजोडियो पर ताले डाले हुए हैं मजबूत कि कोई खोल न दे! कहीं बीज बाहर न निकल जाए! इसके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। 

ओशो रजनीश




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