मंगलवार, 9 जुलाई 2024

 आध्यात्मिक मनोवृत्ति वाले जो भक्त पहले यज्ञ में अर्पित करने के पश्चात भोजन ग्रहण करते हैं, वे सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो अपनी इन्द्रिय तृप्ति के लिए भोजन बनाते हैं, वे वास्तव में पाप अर्जित करते हैं।

वैदिक परम्परा में भोजन इस भावना से बनाया जाता था कि भोजन भगवान के सुख के लिए है। फिर भोज्य पदार्थों के एक भाग को किसी पात्र में रखकर मौखिक रूप से या मन से भगवान से इसका भोग लगाने की प्रार्थना की जाती थी। भगवान का भोग लगाने के पश्चात पात्र में रखे भोजन को भगवान का प्रसाद या भगवान की कृपा समझा जाता है।  श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में यह व्याख्या की है कि सर्वप्रथम भगवान के भोग के लिए अर्पित किए गए भोजन को जब प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है तब वह मनुष्यों को पाप मुक्त करता है और जो भगवान को भोग लगाए बिना भोजन ग्रहण करते हैं, वे पाप अर्जित करते हैं।

यदि हम अपनी इंद्रियों की तृप्ति के लिए भोजन ग्रहण करते हैं तब भी हम जीवन के विनाशकारी कर्मफलों से बंधन में पड़ जाते हैं। इस श्लोक में प्रयुक्त शब्द आत्म-कारणात् का अर्थ 'अपना निजी सुख' है। किन्तु यदि हम भगवान को अर्पित करने के पश्चात यज्ञ के अवशेषों का प्रसाद के रूप में सेवन करते हैं तब हमारी भावना परिवर्तित हो जाती है और हम अपने शरीर को भगवान की धरोहर के रूप में देखते हैं जिसकी देखभाल भगवान की सेवा के लिए की जाती है। हमें भगवान की कृपा से प्राप्त अनुमत्य भोजन को इस भावना के साथ ग्रहण करना चाहिए कि यह हमारे शरीर को स्वस्थ बनाए रखेगा। 

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