इन्द्रियों की तुष्टि करने के लिए उसके विषयों से संबंधित इच्छित पदार्थों की आपूर्ति करते हुए इन्द्रियों को शांत करने का प्रयास ठीक वैसा ही है जैसे जलती आग में घी की आहुति डालकर उसे बुझाने का प्रयास करना। इससे अग्नि कुछ क्षण के लिए कम हो जाती है किन्तु फिर एकदम और अधिक भीषणता से भड़कती है। इन इच्छाओं की तुलना शरीर के खाज रोग से की जा सकती है। खाज कष्टदायक होती है और खुजलाहट करने की प्रबल इच्छा उत्पन्न करती है। खुजलाहट समस्या का समाधान नहीं है, कुछ क्षण इससे राहत मिलती है और फिर यह खुजलाहट अधिक वेग से बढ़ती है। यदि कोई इस खाज को कुछ समय तक सहन कर लेता है तब इसका दंश दुर्बल होकर धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। यह खाज से राहत पाने का रहस्य है। यही तर्क कामनाओं पर भी लागू होता है। मन और इन्द्रियाँ सुख के लिए असंख्य कामनाएँ उत्पन्न करती हैं लेकिन जब तक हम इनकी पूर्ति के प्रयत्न में लगे रहते हैं तब ये सब सुख मृग-तृष्णा की भांति भ्रम के समान होते हैं। किन्तु जब हम भगवान का अलौकिक सुख प्राप्त करने के लिए इन सब कामनाओं का त्याग कर देते हैं तब हमारा मन और इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं।
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