शनिवार, 7 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 10 भाग 13

 मैं शाश्‍वत समय हूं


अक्षराणामकारोउस्थि द्वन्द्व: सामासिकस्य च।

अहमेवाक्षय: कालो धाताहं विश्वतोमुख:।। 33।।

मृत्यु: सर्वहरश्चाहमुद्रभवश्च भविष्यताम्।

कीर्ति: श्रीर्वाक्य नारीणा क्यृतिर्मेधा धृति: क्षमा।। 34।।

बृहत्साम तथा सामा गायत्री छन्दसामहम्।

मासानां मार्गशीर्षोउहमृतूनां कुसुमाकर:।। 35।।


तथा मैं अक्षरों में अकार और समासों में द्वंद्व नामक समास हूं, तथा अक्षय काल और विराट स्वरूप सबका धारण— पोषण करने वाला भी मैं ही हूं।

और हे अर्जुन मैं सबका नाश करने वाला गुण और आगे होने वालों की उत्पत्ति का कारण हूं, तथा स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूं।

तथा मैं गायन करने योग्य श्रुतियों में बृहत्साम और छंदों में गायत्री छंद तथा महीनों में मार्गशीर्ष महीना और ऋतुओं में वसंत ऋतु मैं हूं।



मैं अक्षरों में अकार और समासों में द्वंद्व नामक समास हूं तथा अक्षय काल और विराट स्वरूप सब का धारण—पोषण करने वाला भी मैं ही हूं। हे अर्जुन, मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और आगे होने वालों की उत्पत्ति का कारण हूं।

कुछ नये प्रतीक, कुछ नई दिशाओं से, वही अर्जुन को फिर—फिर कहने की कोशिश कृष्ण ने की है। सत्य तो एक है, समझाया बहुत प्रकार से जा सकता है। और जो समझ सकते हैं, वे बिना प्रकार के भी समझ  सकते हैं। और जो नहीं समझ पाते, अनंत—अनंत प्रकारों से भी समझाने से कुछ हल नहीं होता है। फिर भी कृष्‍ण जैसे व्यक्ति सतत चेष्टा करते हैं—एक द्वार से न दिखाई पड़े, दूसरे द्वार से; दूसरे द्वार से न दिखाई पड़े, तीसरे द्वार से। कृष्‍ण जैसे व्यक्तियों का श्रम अथक है, और धैर्य अनंत है।

इस सूत्र में कृष्‍ण कहते हैं, मैं अक्षय काल

अस्तित्व में सभी कुछ क्षणिक है और सभी कुछ क्षीण हो जाता है। सभी कुछ परिवर्तित होता है। कुछ भी शाश्वत नहीं मालूम होता, सिवाय परिवर्तन के। सब कुछ परिवर्तित होता है, सिवाय परिवर्तन के। सब कुछ बदल जाता है, एक बदलाहट ही स्थिर बात है। जो भी है, वह दूसरे क्षण भी वही नहीं रह जाता है। इसे थोड़ा हम समझ लें, तो काल की अक्षरता और उसका अक्षय स्वरूप हमारे खयाल में आ जाए।

जो भी है, दूसरे क्षण वही नहीं रह जाता है।

वही सूरज रोज नहीं निकल सकता है। सूरज रूपांतरित हो रहा है प्रतिपल। सूरज जलती हुई आग है। और जैसे लपटें प्रतिपल बदल रही हैं, जैसे दीये की लौ प्रतिपल बदल रही है, ऐसा ही सूरज भी प्रतिपल बदल रहा है।

सांझ आप एक दीया जलाते हैं, सुबह सोचते हैं, उसी दीये को बुझा रहे हैं; तो आप गलती में हैं। सांझ जो दीया जलाया था, वह तो न मालूम कितनी बार बुझ चुका। लौ प्रतिपल खो रही है आकाश में, नई लौ उसकी जगह स्थापित होती चली जा रही है। लेकिन यह इतनी तीव्रता से हो रहा है, यह लौ का प्रवाह इतना त्वरित है कि दो लौ के बीच में आप खाली जगह नहीं देख पाते। इसलिए सोचते हैं, एक ही लौ रातभर जलती रही; सुबह हम उसी दीये को बुझा रहे हैं।

अगर उसी दीये को सुबह बुझा रहे हैं, तो रातभर जो तेल जला, वह कहां गया? रातभर तेल जलता रहा और दीये की लौ बदलती रही। सुबह आप दूसरी ही लौ बुझा रहे हैं। वही लौ नहीं, जो आपने सांझ जलाई थी। निश्चित ही, उसी श्रृंखला की लौ है, उसी लौ की संतान है, लेकिन वही लौ नहीं है।

सूरज भी ऐसा ही बदल रहा है। छोटा—सा दीया बदल रहा है इतनी तेजी से। उतना बड़ा सूरज और भी बड़ी तेजी से बदल रहा है। सुबह रोज वही सूरज नहीं उगता। और आप सोचते हों, सुबह रोज वही पृथ्वी दिखाई पड़ती है, तो भी गलती में हैं। और आप सोचते हों कि रोज उन्हीं वृक्षों के पास से आप गुजरते हैं, तो भी आप भूल में हैं। सब बदल रहा है। बदलाहट इतनी तीव्र है कि आपको दिखाई नहीं पड़ती।

सब कुछ इतनी ही तेजी से चल रहा है। आप जिस जमीन पर बैठे हैं, वह भी तेजी से, जमीन का एक—एक टुकड़ा भाग रहा है। आपके मकान की दीवाल की ईंट का एक—एक अणु तीव्रता से गतिमान है। कोई भी चीज ठहरी हुई नहीं है। सब चीजें चल रही हैं। तेजी इतनी ज्यादा है कि आपको दिखाई नहीं पड़ती।

और अगर यही सब बदल रहा होता, तब भी ठीक था। सुबह सूरज तो दूसरा होता ही है, जमीन दूसरी होती है, वृक्ष दूसरे होते हैं, आकाश दूसरा होता है, आप भी दूसरे होते हैं। रात जो सोया था, वही आदमी सुबह नहीं जगत।। आपकी जीवन धारा भी बह रही है। प्रतिपल बह रही है। आपमें भी सब बदल जाता है।

आप कभी खयाल किए हैं कि अगर मां के पेट में जो आपकी तस्वीर थी, पहले दिन मां के पेट में जो अणु निर्मित हुआ था, जो कि आप आज हो गए हैं, अगर वह आपके सामने रख दिया जाए, तो आप इन आंखों से उसे देख भी न सकेंगे। बड़ी खुर्दबीन की जरूरत पड़ेगी। और फिर भी कोई उपाय नहीं है कि आप पहचान लें कि कभी मैं यह रहा होऊंगा। लेकिन कभी आप वही थे।

और फिर एक दिन आप जल जाएंगे और राख का एक ढेर रह जाएगा। अगर आज वह ढेर आपके सामने रख दिया जाए, तो भी आप मानने को राजी न होंगे कि यही मैं हो जाऊंगा। आपको भरोसा न होगा कि यह और मैं! लेकिन वही आप हो जाएंगे। और हो जाएंगे जब मैं कह रहा हूं, तो आप ऐसा मत सोचना कि यह कल होने वाली बात है, वही आप हो रहे हैं।

हमारी भाषा हमें बहुत—सी भूलों में ले जाती है, क्योंकि भाषा एक तरह का फिक्सेशन का खयाल देती है कि चीजें ठहरी हुई हैं। हम कहते हैं, वृक्ष है। कहना चाहिए, वृक्ष हो रहा है। हम कहते हैं, नदी है। कहना चाहिए, नदी हो रही है। हम कहते हैं, बच्चा है। कहना चाहिए, बच्चा हो रहा है। हम कहते हैं, मृत्यु आएगी। कहना चाहिए, मृत्यु आ रही है।

सब कुछ हो रहा है। प्रत्येक वस्तु एक घटना है, वस्तु नहीं। कोई वस्तु वस्तु नहीं है, घटना है। घटना का अर्थ है, प्रक्रिया है। इस जगत में प्रक्रियाएं हैं, वस्तुएं नहीं। घटनाएं हैं, वस्तुएं नहीं। सब कुछ हो रहा है। प्रवाह है। इस प्रवाह के बीच में अगर कोई एक चीज अक्षय है, तो वह समय है, काल है।

यह बहुत मजे की बात है। अगर इस परिवर्तन के बीच में कोई चीज थिर है, तो वह परिवर्तन है। यह उलटा मालूम पड़ेगा। लेकिन जीवन के गहरे सत्य सभी पैराडाक्सिकल हैं, उलटे होते हैं। ऐसा हम कहें तो समझ में आ जाएगा, इस जगत में अगर कोई चीज नहीं मरती है, तो वह मृत्यु है। बाकी सब चीजें मरती हैं। और इस जगत में एक ही चीज अक्षय है, जो क्षीण नहीं होती, वह समय है। सब बदलता रहता है।

लेकिन ध्यान रहे, बदलने की प्रक्रिया समय में घटती है। समय न हो, तो बदलाहट नहीं हो सकती। आप अपने घर से यहां तक आए, आने में घंटाभर लगा। अगर समय न हो, तो आप यहां नहीं पहुंच सकते। एक घंटा चाहिए, तब आप यहां पहुंच सकते हैं। समझ लें कि समय समाप्त हो गया, तो फिर आप यहां से हिल भी न सकेंगे। क्योंकि हिलने में भी समय लगेगा। फिर आप श्वास भी न ले सकेंगे, क्‍योंकि श्वास लेने में भी समय की जरूरत।

इस जगत में जो कुछ हो रहा है, उस सबके लिए समय अनिवार्य है। सब चीजें समय के भीतर हो रही हैं। सभी के होने में समय छिपा हुआ है। अस्तित्व समय के साथ एक है। सब चीजें बदल रही हैं, बदलाहट समय के भीतर हो रही है। समय भर नहीं बदलता, क्योंकि समय किसके भीतर बदलेगा! समय को बदलने के लिए फिर एक और समय चाहिए।

गणितज्ञ उस पर विचार करते हैं, तो वे कहते हैं, टाइम ए को अगर बदलना हो, तो फिर टाइम बी चाहिए। अगर टाइम बी को बदलना हो, तो फिर टाइम सी चाहिए। समय एक को बदलना हो, तो समय दो चाहिए। समय दो को बदलना हो, तो समय तीन चाहिए। यह तो फिजूल की बात हो जाएगी। और समय को हम अंत तक खींचते चले जाएं, तो भी एक समय हमें मानना पड़ेगा, जो नहीं बदलता है। जैसे, इसे हम और तरह से समझें, तो आसान हो जाए।

आप बैठे हे जमीन पर। आपके बैठने के लिए जगह चाहिए। बिना जगह के आप नहीं बैठ सकते। आपके होने के लिए आकाश चाहिए, जगह चाहिए, स्थान, स्पेस चाहिए। तब एक सवाल उठता है, जो दर्शनशास्त्री पूछते रहे हैं कि आकाश को होने के लिए भी तो फिर कोई और स्थान चाहिए पड़ेगा। आकाश को होने के लिए कोई महाआकाश चाहिए। लेकिन फिर यह इनफिनिट रिग्रेस होगी, इसका कोई अंत न होगा। फिर उस महाआकाश के लिए कोई और महाआकाश चाहिए।

इसलिए  कहते हैं कि आकाश सब चीजों के लिए चाहिए, सिर्फ आकाश को छोड्कर। आकाश के लिए कोई स्थान की जरूरत नहीं। आकाश स्वयं स्थान है। सब चीजों के लिए आकाश जरूरी है। आकाश के लिए कुछ और जरूरी नहीं है।

ठीक वैसे ही, सब परिवर्तन के लिए समय जरूरी है, सिर्फ समय के परिवर्तन के लिए समय जरूरी नहीं है। कहना चाहिए कि जैसे स्थान आकाश है, ऐसे ही परिवर्तन समय है। और समय के लिए कोई और चीज की आवश्यकता नहीं है।

वैज्ञानिक, विशेषकर अल्वर्ट आइंस्टीन, समय और आकाश दोनों को जोड़कर एक नई धारणा निर्मित किए हैं, जो आधुनिक फिजिक्स की धारणा है। आइंस्टीन ने एक नया प्रस्ताव रखा। वह प्रस्ताव भारत के लिए बहुत पुराना है। और वह प्रस्ताव पश्चिम में बहुत कीमती सिद्ध हुआ। आधुनिक विज्ञान उसी प्रस्ताव के आस— पास निर्मित हुआ है। वह प्रस्ताव यह है कि समय और आकाश भी दो नहीं हैं, एक ही चीज हैं। तो आइंस्टीन ने कहा कि समय भी आकाश का एक आयाम है।

यह थोड़ी कठिन गणित की धारणा है।

आकाश के तीन आयाम आइंस्टीन ने कहे हैं। तीन आयाम। कोई भी चीज हो, तो लंबाई होगी, चौड़ाई होगी, गहराई होगी। किसी भी चीज के होने के लिए ये तीन आयाम जरूरी हैं, लंबाई, चौड़ाई, गहराई। ये थ्री डायमेंशन आकाश के हैं। आइंस्टीन ने कहा कि चौथा आयाम, चौथा डायमेंशन समय है। किसी भी चीज के होने के लिए एक चौथी दिशा भी है, परिवर्तन। लंबाई चाहिए, चौड़ाई चाहिए, गहराई चाहिए और अगर वह चीज है, तो एक परिवर्तन की प्रक्रिया चाहिए। वह चौथा आयाम है टाइम।

तो आइंस्टीन ने कहा, टाइम इज दि फोर्थ डायमेंशन आफ स्पेस, वह आकाश का ही चौथा आयाम है। और तब उसने एक ही शब्द निर्मित किया स्पेसियोटाइम। एक ही अस्तित्व है, समय और आकाश का, क्योंकि किसी भी चीज के होने के लिए परिवर्तन जरूरी है। अस्तित्व मात्र परिवर्तन का प्रवाह है।

कृष्ण कहते हैं, मैं अक्षय काल हूं। मैं वह समय हूं जो कभी चुकता नहीं।

सब चीजें चुक जाती हैं, समय भर नहीं चुकता। सूरज चुक जाते हैं, बुझ जाते हैं। पृथ्वियां चुक जाती हैं, बुढ़ी हो जाती हैं, मर जाती हैं। बड़े—बड़े तारे होते हैं, बिखर जाते हैं। अगर हम इस विराट अस्तित्व में खोजने चलें, तो सभी चीजें बनती हैं, बिखरती हैं। सिर्फ एक समय बनने में भी मौजूद रहता है, बिखरने में भी मौजूद रहता है। जन्म में भी मौजूद रहता है, मृत्यु में भी मौजूद रहता है। सिर्फ एक समय अक्षय रूप से मौजूद रहता है। उसकी मौजूदगी सदा है। इसलिए महावीर ने तो आत्मा का नाम ही समय रख दिया। महावीर ने तो आत्मा का नाम ही समय रख दिया। महावीर ने कहा, आत्मा यानी समय, अस्तित्व यानी समय।



कृष्ण कहते हैं, मैं अक्षय काल हूं।

हम सब समय से अपने को भिन्न समझते हैं। हम सब समय से अपने को अलग समझते हैं। हम सब ऐसा समझते हैं कि समय कोई चीज है, जिसमें से हम गुजर रहे हैं। या समय कोई चीज है, जो हमारे पास से गुजर रहा है। हमारी जो धारणा है वह यही है।

एक आदमी बैठकर कहता है कि समय पास कर रहा हूं समय काट रहा हूं। उसे पता नहीं कि वह समय को नहीं काट रहा है, अपने को काट रहा है। समय को आप कैसे काटिएगा! कोई छुरी—तलवार नहीं जो समय को काट सके। समय आपको काट सकता है, आप समय को नहीं काट सकते। लेकिन लोग कहते हैं! बैठकर ताश खेल रहे हैं। वे कहते हैं, समय काट रहे हैं! उनको पता नहीं कि ताश खेलकर समय उनको काट रहा है।

आप समय को छू भी नहीं सकते, काटना तो बहुत दूर है। समय का आपको कोई अनुभव भी नहीं होता, काटना तो बहुत दूर है। आप सिर्फ अपने को काट सकते हैं। समय तो अक्षय है, कटेगा भी नहीं। आपके काटे नहीं कटेगा। अब तक किसी के काटे नहीं कटा है। और सब काटने वाले विलीन हो जाते हैं। सब काटने वाले आते हैं और खो जाते हैं। और समय शाश्वत अपनी जगह बना रहता है।

समय की यह शाश्वतता, यह इटरनिटी, कृष्ण कहते हैं, मैं ही हूं। इस जगत में अगर किसी चीज को अक्षय का प्रतीक मानें हम, तो वह समय है। बाकी सब चीजें क्षय हो जाती हैं। समय में जितनी चीजें हैं, वे सभी क्षय हो जाती हैं, सिर्फ समय को छोड्कर। समय पर मृत्यु का कोई प्रभाव नहीं है।

इसलिए हमने, विशेषकर भारत ने, समय को और मृत्यु को भी एक मान लिया है। इसलिए मृत्यु को भी हम काल कहते हैं और समय को भी काल कहते हैं।

सिर्फ समय की कोई मृत्यु नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर समय मृत्यु से अलग होता, तो समय की भी मृत्यु घटित होती। समय मृत्यु के साथ एक है। इसलिए मृत्यु की तो क्या मृत्यु होगी! मृत्यु तो कैसे मरेगी? इसलिए हमने मृत्यु को भी काल का नाम दिया।

 हमने समय को भी काल कहा, हमने मृत्यु को भी काल कहा। इनके पीछे कारण हैं। मृत्यु भी एक शाश्वतता है। और अगर हम गौर से देखें, तो मृत्यु सिर्फ एक शब्द है। समय के द्वारा हम काट दिए जाते हैं। जब हम पूरे काट दिए जाते हैं, तो उस घटना को हम मृत्यु कहते हैं। और तो मृत्यु कुछ भी नहीं है। मृत्यु और कुछ भी नहीं है।

जैसे नदी की धार बहती हो और जमीन कट जाती है, और धीरे— धीरे जमीन बह जाती  है। ऐसा ही हमारा अस्तित्व समय की धार में कटता जाता है, कटता  जाता है। एक दिन हम पाते हैं कि हम बह गए, कण—कण होकर बह गए। जिस दिन हम पूरे बह जाते हैं, उन दिन हम कहते हैं, मृत्यु हो गई। लेकिन समय हमें प्रतिपल बहाए ले जा रहा है। हम प्रतिपल बह रहे हैं।

हम रुक भी नहीं सकते। रुकने का कोई उपाय नहीं है। यह होने का ढंग है, यह नियति है। इसमें रुकने का कोई उपाय नहीं है। बहना ही होगा। जो इस बहने से लड़ने लगेगा, वह और जल्दी टूट जाएगा। जो इस बहने को रोकने की कोशिश करेगा, वह और भी जल्दी नष्ट हो जाएगा। उसकी कोशिश ऐसी ही होगी, जैसे कोई नदी की तीव्र धार के विपरीत बहने की कोशिश करता हो। वह और जल्दी थक जाएगा और धार उसे जल्दी बहा ले जाएगी।

समय के साथ एकता साध लेनी, परमात्मा के साथ एकता साध लेनी है। लेकिन समय के साथ एकता साधने का अर्थ है, परिवर्तन को स्वीकार करने की क्षमता। जो भी हो जाए, उससे राजी हो जाने का गुण। जो भी घटित हो, उसके साथ पूरा आत्मैक्य। कहीं कोई विरोध न हो, समय जो भी ले आए, उसके साथ पूरा तालमेल। बीमारी आ जाए, तो बीमारी। बुढ़ापा आ जाए, तो बुढ़ापा। मृत्यु आने लगे, तो मृत्यु। कहीं कोई विरोध नहीं। भीतर कहीं कोई विरोध नहीं। जो भी हो, उसके साथ पूरा आत्मैक्य। तो आप समय को जान पाएंगे कि समय क्या है।

लेकिन हम सब लड़ रहे हैं। हम सब समय से हटने की कोशिश कर रहे हैं। हट नहीं सकते, वह आकांक्षा संभव नहीं होगी, लेकिन हमारी चेष्टा वही है।

हम सारे लोग ही लेकिन वैसे हैं। अगर हम जीवन की धार को देखें, तो हम सब उलटे तैरने की कोशिश करते हैं। उलटे तैरने में एक मजा जरूर है, उसी कारण हम तैरते हैं। उलटे तैरने में अहंकार निर्मित होता है। अगर मैं दो हाथ उलटे मार लेता हूं तो लगता है, मैं कुछ हूं। धार के विपरीत, प्रवाह के विपरीत, मैं कुछ हूं। और अगर प्रवाह में बहता हूं तो फिर मैं कुछ भी नहीं हूं!

अगर कोई आदमी उलटी धार में तैरकर गंगोत्री पहुंच जाए, तो सारे दुनिया के अखबार उसकी फोटो छापेंगे। और कोई आदमी गंगोत्री से बहकर सागर में पहुंच जाए, कोई अखबार छापने वाला नहीं मिलेगा। उलटा अगर हम दो हाथ जीत पाते हैं, तो विजय मालूम पड़ती है।

लेकिन ध्यान रहे, समय की धार में कोई भी उलटा नहीं तैर सकता। नदी की धार में दो हाथ कोई मार भी ले। समय की धार में उलटा नहीं तैर सकता। क्योंकि समय पीछे बचता ही नहीं कि आप उसमें तैर सकें। नदी तो पीछे भी होती है। समय तो विलीन हो जाता है। एक ही क्षण आपको मिलता है, पिछला क्षण तो विलीन हो जाता है। अतीत तो बचता नहीं कि आप पीछे जा सकें। सिर्फ भविष्य ही बचता है। आगे ही जा सकते हैं, पीछे जाने का कोई उपाय नहीं।

लेकिन मन पीछे जाने की कोशिश करता रहता है। उस विपरीत दौड़ में अहंकार निर्मित जरूर होता है, लेकिन हम समय के साथ एक होने का जो गहन अनुभव है, उससे वंचित हो जाते हैं।

धार के साथ बह जाएं, कोई बाधा न डालें। नदी की धार के साथ एक हो जाएं। और जीवन जो भी ले आए, उसे परम आनंद से स्वीकार कर लें। उसमें रंचमात्र भी नकार न हो। उसमें रंचमात्र भी अस्वीकार न हो। उसमें शिकायत न हो। ऐसे ही आदमी का नाम धार्मिक आदमी है, जिसके मन में जीवन के प्रति शिकायत नहीं है। मंदिर जाने वाला आदमी धार्मिक नहीं है। क्योंकि हो सकता है, मंदिर वह सिर्फ शिकायत के लिए जा रहे हों। अधिक लोग तो मंदिर शिकायत के लिए जाते हैं। अधिक लोगों की प्रार्थनाएं यह बताती हैं कि भगवान, तुझसे ज्यादा तो हम समझते हैं! तू जो कर रहा है, वह गलत है। हम जो चाहते हैं, वह कर! हमारी प्रार्थनाएं, हमारे मंदिर, हमारी पूजाएं, हमारी मस्जिदें, हमारी शिकायतों के घर हैं।

लेकिन जो आदमी शिकायत लेकर मंदिर गया है, वह मंदिर जा ही नहीं सकता। मंदिर में प्रवेश का तो एक ही मार्ग है कि कोई शिकायत न हो। जीवन ने जो दिया है, जीवन ने जो किया है, जीवन जैसा है, उसमें परम हर्ष हो, उसके स्वीकार में परम उत्सव हो, तब आप बहेंगे। और आपके और समय के बीच जो दुविधा मालूम पड़ती है, वह विलीन हो जाएगी। आप समय के साथ एक हो जाएंगे। इस समय के साथ जो एक होने की घटना है, उस घटना में ही आपको काल के अक्षय स्वरूप का बोध होगा। यह इटरनल टाइम क्या है!

अभी आप जिस समय को जानते हैं, वह घड़ी का समय है, उसका अक्षय काल से कोई संबंध नहीं है। घड़ी का समय, आपका निर्मित समय है। घड़ी का समय, आपका बनाया हुआ समय है। वह समय नहीं है। हमने दिन को चौबीस घंटों में बांट लिया है। हमने घंटे को साठ मिनटों में बांट लिया है। हमने मिनट को साठ सेकेंडों में बांट लिया है। यह हमारी व्यवस्था है। इससे मूल समय का कोई संबंध नहीं है। इससे हम कामचलाऊ समय को निर्मित कर लिए हैं। इसी को अगर आप समय समझते हैं, तो आप भूल में हैं, आप गलती में हैं।

समय तो उसी दिन आपको पता चलेगा, जिस दिन आप सम्पूर्ण स्वीकार को, टोटल एक्सेप्टेंस को उपलब्ध हो जाएंगे। उस दिन, यह कृष्‍ण जो काल का अक्षय स्वरूप कह रहे हैं, यह आपके अनुभव में आएगा। कभी चौबीस घंटे ही ऐसा करें कि बहकर देखें, तैरें मत। धार्मिक आदमी तैरता नहीं है, अधार्मिक आदमी तैरता है। धार्मिक आदमी बहता है। बहता है, कहना भी शायद ठीक नहीं। क्योंकि बहता है, इसमें भी ऐसा लगता है कि कुछ करता है। नहीं, धार्मिक आदमी धार के साथ एक हो जाता है। धार जहां ले जाती है, वहीं चला जाता है।

काल की यह अक्षयता अनुभव में आए, तो परमात्मा का गहनतम रूप स्मरण में आना शुरू होता है।

हे अर्जुन, मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और आगे होने वालों की उत्पत्ति का कारण भी हूं। मृत्यु भी मैं हूं जन्म भी मैं हूं।

इसे थोड़ा हम समझें।

मजे की बात है कि हम कभी खयाल में नहीं लाते, जन्म आपका होता है, कभी आपने सोचा? जन्म एक घटना है, जिसके संबंध में आप कुछ भी नहीं कर सकते। करेंगे भी कैसे, क्योंकि जन्म के बाद ही आप हो सकते हैं। जन्म के पहले कोई आपसे पूछता भी नहीं कि आप जन्म लेना चाहते हैं! जन्म के पहले आपका कोई भी चुनाव नहीं हो सकता। होगा भी कैसे? जब जन्म ही नहीं हुआ, तो आपका चुनाव क्या है? जन्म आपको मिलता है। इट इज ए गिफ्ट, वह एक दान है, एक भेंट है। अस्तित्व आपको जन्म देता है। जन्म आपके हाथ की बात नहीं है। जन्म के संबंध में आप कुछ भी नहीं कर सकते। आपके निर्णय की कोई संगति ही नहीं है। आप जब भी हैं, जन्म के बाद हैं। जन्म के पहले आप नहीं हैं। निश्चित ही, जन्म आपका नहीं हो सकता।

मृत्यु भी आपकी नहीं है। जैसे जन्म आपके हाथ से घटित नहीं होता, वैसे ही मृत्यु भी आपके हाथ से घटित नहीं होती। मृत्यु भी विराट का ही हाथ है, और जन्म भी विराट का ही हाथ है। जो आपको जन्म देता है, वही आपको मृत्यु में खींच लेता है।

इसलिए अगर समस्त जगत के धर्मों ने आत्महत्या का विरोध किया है, तो उसका कारण है। आत्महत्या को अगर बड़े से बड़ा पाप कहा है, तो उसका कारण है। जन्म तो आप नहीं ले सकते, लेकिन आत्महत्या कर सकते हैं। और जो काम परमात्मा को ही करना चाहिए, जब आप करते हैं, तब महापाप घटित होता है। जन्म तो आप नहीं ले सकते, उसका कोई उपाय नहीं है, लेकिन मृत्यु आप चुन सकते हैं। लेकिन जब आप जन्म नहीं चुन सकते, तो आपको मृत्यु चुनने का कोई हक नहीं रह जाता।

कृष्ण कहते हैं, मृत्यु भी मैं हूं जन्म भी मैं हूं। जन्म का कारण भी मैं, मृत्यु का कारण भी मैं।

थोड़ी कठिनाई होगी यह जानकर कि अर्जुन पूछ सकता है कृष्ण से, तो फिर मैं इन लोगों को कैसे मारूं? इनकी हत्या मैं क्यों करूं? यह तत्‍क्षण खयाल में उठेगा। अर्जुन के मन में भी यह सवाल तो उठ ही सकता है कि जिनको मैं जिला नहीं सकता, जन्म नहीं दे सकता, उनको मैं मारूं कैसे? यही अर्जुन कह ही रहा है, यही उसकी समस्या है।

कृष्‍ण इस समस्या को जिस पर्सपेक्टिव, कृष्‍ण जिस परिप्रेक्ष्य से इस सारी स्थिति को देखते हैं, वे अर्जुन से यह कह रहे हैं कि तेरा यह मानना कि तू इन्हें मार रहा है, वह भी भ्रांति है, क्योंकि मारने वाला मैं हूं। वह भ्रांति भी तू मत पाल। वह सिर्फ तेरी भ्रांति है। तू मार भी नहीं सकता।

इसका मतलब यह हुआ कि जो आदमी आत्महत्या कर रहा है, वह भी सिर्फ भ्रांति में है कि मैं अपने को मार रहा हूं। वस्तुत: कोई अपने को मार नहीं सकता, जब तक कि मौत हो मारने को न आ गई हो, जब कि परमात्मा का ही हाथ न आ गया हो। जब आपको मरने का खयाल आता है, वह खयाल भी आपका नहीं होता। वह भी उसी स्रोत से आता है, जिस स्रोत से जन्म आता है। सिर्फ आपको भ्रांति हो सकती है। और वह भ्रांति आपको लंबे चक्कर में डाल सकती है।

इस जगत में भ्रांतियों के अतिरिक्त हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। सत्य हमारे हाथ में नहीं है, हम सत्य के हाथ में हैं। हमारे हाथ में सिर्फ भ्रांतियां हो सकती हैं। सत्य हमारे हाथ में नहीं है, हम सत्य के हाथ में हैं। हमारे हाथ में सिर्फ भ्रांतियां हो सकती हैं, झूठ हो सकते हैं। एक आदमी सोचता है, मैंने अपने को मार लिया या मार रहा हूं। उसका सोचना भ्रांत है। लेकिन भ्रांतियां बढ़ सकती हैं, और आदमी समझ सकता है कि उसने यह कर लिया। हम जिंदगी भर इसी तरह की भ्रांतियां रखते हैं।

नहीं, आप सांस भी नहीं ले रहे हैं, जी भी आप नहीं रहे हैं। अगर आप ही सांस लेते होते, तो मौत तो कभी आ ही नहीं सकती। मौत दरवाजे पर आ जाती, आप कहते, अभी मैं सांस लेना बंद नहीं करता, मैं लेता ही रहूंगा। लेकिन सांस बाहर जाएगी, नहीं लौटेगी, आप भीतर नहीं ले सकेंगे। जीवन आपसे नहीं चल रहा है, आपकी बहुत गहराई से चल रहा है। जहां से जीवन चल रहा है, वही परमात्मा है; जहां से मौत आती है, वही परमात्मा है। आप सिर्फ बीच की एक लहर हैं।

तो कृष्‍ण अर्जुन से यह कह रहे हैं कि न तू जन्म दे सकता है, न तू मृत्यु दे सकता है। अगर तू इस सत्य को समझ ले, तो फिर तू निमित्त मात्र है। मौत भी हो तेरे द्वारा, तो वह मेरे से ही होगी। और जन्म भी हो तेरे द्वारा, तो भी मेरे से ही होगा। अंततः मैं हूं। तू बीच में एक निमित्त मात्र है।

इसलिए बहुत हैरानी की बात है कि गीता ऐसे तो दिखाई पड़ती है कि हिंसा में ले जाती है, लेकिन गीता से परम अहिंसक दृष्टि खोजनी बहुत मुश्किल है। क्योंकि वह मौलिक हिंसा का जो आधार है अहंकार, उसी को तोड़ डालती है। जब एक आदमी यह सोचता है कि मैं अहिंसा कर रहा हूं तब भी हिंसा होती है; क्योंकि मैं अहिंसा कर रहा हूं तो भी अहंकार मजबूत होता है। मैं मार रहा हूं तो भी, मैं बचा रहा हूं तो भी। अगर मुझे यह खयाल हो जाए कि मैंने बचाया, तो भी अहंकार वही है। भाषा वही है। कभी—कभी भाषा एक—सी हो, तो भी हमें खयाल नहीं आता। कभी—कभी भाषा अलग हो, तो भी दोनों के भीतर एक ही तत्व हो सकता है।

शब्द एक से हों, इससे भ्रांति में पड़ने की जरूरत नहीं है। एक से शब्दों के भीतर भी बड़े विभिन्न सत्य हो सकते हैं। और कई बार विभिन्न शब्दों के भीतर भी एक ही सत्य होता है; उससे भी भ्रांति में पड़ने की जरूरत नहीं है। शब्दों की खोल को हटाकर सदा सत्य को खोजना जरूरी है।

महावीर और बुद्ध जिस अहिंसा की बात कहते हैं, वह इतने पर रुक जाती है कि दूसरे को मत मारो। अच्छी है बात। गहरी है बात। धार्मिक है। साधक के लिए बड़ी उपयोगी है। लेकिन कृष्‍ण एक कदम और आगे जाते हैं। वे कहते हैं, यह मान्यता ही कि तुम मार सकते हो, यह भी हिंसा है। यह मान्यता ही कि तुम मार सकते हो या बचा सकते हो, यह भी हिंसा है। परम अहिंसा तो तब है, जब तुम जानते हो कि मारे तो, बचाए तो, परमात्मा है; मैं बीच में निमित्त से ज्यादा नहीं हूं। तब परम अहिंसा है।

हे अर्जुन, मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और आगे होने वालों की उत्पत्ति का कारण हूं। तथा स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूं।

पहली दफा, इन प्रतीकों में कृष्‍ण ने स्त्रियों का प्रतीक भी पहली दफा उल्लिखित किया है। स्त्रियों में भी अगर परमात्मा खोजना हो, तो कहां खोजा जा सकेगा? अगर स्त्रियों में भी परमात्मा की झलक पानी हो, तो वह कहां पाई जा सकेगी? कीर्ति में! और कीर्ति का स्त्री से क्या संबंध है? और कीर्ति क्या है?

स्त्री को जब भी हम देखते हैं, खासकर आज के युग में जब भी स्त्री को हम देखते हैं, तो स्त्री दिखाई नहीं पड़ती, सिर्फ वासना दिखाई पड़ती है। स्त्री को हम देखते ही हैं एक वासना के विषय की तरह, एक आब्जेक्ट की तरह। स्त्री को हम देखते ही ऐसे हैं, जैसे बस भोग्य है, उसका कोई अपना अर्थ, अपना कोई अस्तित्व नहीं है।

और स्त्री को भी निरंतर एक ही खयाल बना रहता है, वह भोग्य होने का। उसका चलना, उसका उठना, उसका बैठना, उसके वस्त्र, सब जैसे पुरुष की वासना को उद्दीपित करने के लिए चुने जाते हैं। चाहे स्त्री को इस बात की सचेतनता भी न हो, इसकी कांशसनेस भी न हो कि वह जिन कपड़ों को पहनकर रास्ते पर निकली है, वे भी हो, शायद वह चीख—पुकार भी मचाए, शायद रोष भी जाहिर करे, लेकिन उसे खयाल न आए कि उस धक्के में उसका भी उतना ही हाथ है, जितना मारने वाले का है। उसके वस्त्र, उसका ढंग, उसके शरीर को सजाने और श्रृंगार की व्यवस्था अपने लिए नहीं मालूम पड़ती, किसी और के लिए मालूम पड़ती है।

इसलिए उसी स्त्री को घर में देखें, उसके पति के सामने, तब उसे देखकर विराग पैदा हो। उसी स्त्री को बीच पर देखें, भीड़ में, तब उसे देखकर राग पैदा हो। पति इसीलिए तो विरक्त हो जाते हैं। स्त्रियां जिस रूप में उनको दिखाई पड़ती हैं, कम से कम उनकी स्त्रियां, पड़ोसियों की स्त्रियों में आकर्षण बना रहता है। लेकिन उनकी स्त्रियां जिस रूप में दिखाई पड़ती हैं..। क्योंकि स्त्री भी धीरे— धीरे, टेकन फार ग्रांटेड दोनों हो जाते हैं कि ठीक है। लेकिन जब स्त्री भीड़ में निकलती है, तब उसकी सारी की सारी दृष्टि अपने को एक कामवासना का विषय मानकर चलती है। और दूसरे पुरुष भी उसको यही मानकर चलते हैं।

कीर्ति का अर्थ है, जिस स्त्री में ऐसी दृष्टि न हो। ऑनर जिसको अंग्रेजी में कहते हैं, इज्जत जिसे उर्दू में कहते हैं। कीर्ति का अर्थ है, ऐसी स्त्री, जो अपने को वासना का विषय मानकर नहीं जीती; जिसके व्यक्तित्व से वासना की झंकार नहीं निकलती। तब स्त्री को एक अनूठा सौंदर्य उपलब्ध होता है। और वह सौंदर्य उसकी कीर्ति है, उसका यश है। आज वैसी स्त्री को खोजना बहुत मुश्किल पड़ेगा। बहुत मुश्किल पड़ेगा।

कीर्ति एक आंतरिक गुण है, एक भीतरी सौंदर्य है। उस सौंदर्य का नाम कीर्ति है, जिसे देखकर वासना शांत हो, उभरे नहीं।

यह थोड़ा कठिन मामला है। यह थोड़ा कठिन मामला है। लेकिन एक बात हम समझ सकते हैं कि अगर स्त्री वासना को उभाड़ सकती है, तो शांत क्यों नहीं कर सकती? जो भी उभाड़ बन सकता है, वह शांत करने वाला शामक भी बन सकता है। अगर स्त्री अपने ढंगों से वासना को उत्तेजित करती है, प्रज्वलित करती है, तो अपने ढंगों से उसे शांत भी कर दे सकती है।

वह जो शांत करने वाला सौंदर्य है, कि दूसरा व्यक्ति वासनातुर होकर भी आ रहा हो, विक्षिप्त होकर भी आ रहा हो, तो स्त्री की आंखों से, उस सौंदर्य का जो दर्शन है, उसके व्यक्तित्व से, उसकी जो छाया और झलक है, जो उसकी वासना पर पानी डाल दे और आग बुझ जाए। उसका नाम कीर्ति है।

लेकिन हम जो कीर्ति से मतलब लेते हैं, कहते हैं कि फलां स्त्री की इज्जत चली गई, उसमें सब लोग यही सोचते हैं कि इज्जत लेने वाला ही जिम्मेवार होगा। पचास परसेंट तो होगा ही। लेकिन सिर्फ पचास परसेंट ही होगा। उसमें इज्जत खोने की तैयारी भी है। और सच तो यह है कि जिस स्त्री की इज्जत को खोने के लिए कोई उत्सुक नहीं है, वह बड़ी बेचैन हो जाती है। वह परेशान हो जाती है। उसको लगेगा कि वह है ही नहीं, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है।

यह बड़े मजे की बात है। आदमी का माइंड इस तरह डबल बाइंड है, दोहरा बंधा हुआ है। हम खींचते भी हैं, और हटाते भी हैं। हम पुकारते भी हैं, और दुत्कारते भी हैं। एक तरफ हम चाहते हैं, लोग आकर्षित भी हों। और दूसरी तरफ हम चाहते हैं कि लोग हमें वासना का बिंदु भी न मानें!

कीर्ति स्त्री के भीतर उस गुणवत्ता का नाम है, जहां वासना पर पानी गिर जाता है। कीर्ति का अर्थ हुआ कि जिस स्त्री के पास बैठकर आपकी वासना तिरोहित हो जाए। इसलिए हमने मां को इतना मूल्य दिया। कीर्ति के कारण मां को हमने इतना मूल्य दिया, मातृत्व को इतना मूल्य दिया।

कृष्‍ण कहते हैं, स्त्रियों में मैं कीर्ति।

निश्चित ही, बहुत दुर्लभ गुण है, खोजना बहुत मुश्किल है।

अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के जगत में कीर्ति को खोजना बिलकुल मुश्किल है। और मंच पर जो अभिनय कर रहे हैं, वे तो कम अभिनेता हैं; उनकी नकल करने वाला जो बड़ा समाज है इमीटेशन का, वे सड़क पर, चौराहों पर भी अभिनय कर रहे हैं। इस सदी में अगर सर्वाधिक किसी के गुणों को चोट पहुंची हो, तो वह स्त्री है। क्योंकि उसके किन गुणों का मूल्य है, उनकी धारणा ही खो गई है। उन गुणों की धारणा ही खो गई है। कीर्ति का हम कभी सोचते भी नहीं होंगे। आप बाप होंगे, आपके घर में लड़की होगी। आपने कभी सोचा भी नहीं होगा कि इस लड़की के जीवन में कभी कीर्ति का जन्म हो। आपने लड़की को जन्म दे दिया और आप अगर उसमें कीर्ति का जन्म नहीं दे पाए, तो आप बाप नहीं हैं, सिर्फ एक मशीन हैं उत्पादन की।

लेकिन कीर्ति बड़ी कठिन बात है। और गहरी साधना से ही उपलब्ध हो सकती है। जब किसी पुरुष में वासना तिरोहित होती है, तो ब्रह्मचर्य फलित होता है। और जब किसी स्त्री में वासना तिरोहित होती है, तो कीर्ति फलित होती है। कीर्ति काउंटर पार्ट है। स्त्री में कीर्ति का फल लगता है, फूल लगता है, जैसे पुरुष में ब्रह्मचर्य का फूल लगता है।

स्त्री में ठीक पुरुष जैसा ब्रह्मचर्य फलित नहीं हो सकता। कारण हैं उसके। अगर पुरुष ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो, तो उसकी सारी वीर्य—ऊर्जा आत्मसात होने लगती है। लेकिन स्त्री की जो काम— ऊर्जा है, वह अनिवार्य रूप से उसके मासिक धर्म में स्खलित होती रहेगी। वह यंत्रवत है। इसलिए स्त्री की काम—ऊर्जा उस तरह से अंतस में तिरोहित नहीं हो सकती, जैसे पुरुष की काम—ऊर्जा तिरोहित हो सकती है।

पुरुष की काम—ऊर्जा जब अंतस में तिरोहित हो जाती है, तो तेज पैदा होता है। वही तेज ब्रह्मचर्य है। स्त्री की व्यवस्था अन्यथा है शरीर की। बायोलाजिकली उसकी शरीर की व्यवस्था अलग है। मासिक धर्म उसकी स्वेच्छा का हिस्सा नहीं है।

इसे थोड़ा समझ लें।

पुरुष की वीर्यशक्ति उसकी स्वेच्छा पर निर्भर है। स्त्री की कामशक्ति उसकी स्वेच्छा पर निर्भर नहीं है। वह स्वेच्छा से उसमें कुछ भी नहीं कर सकती। वह उसके शरीर का हिस्सा है। इसलिए स्त्री को जब ब्रह्मचर्य में उतरना हो, तो उसकी ब्रह्मचर्य की साधना पुरुष की ब्रह्मचर्य की साधना से भिन्न होगी। पुरुष के ब्रह्मचर्य की पाजिटिव है, एग्रेसिव है, आक्रामक है, लेकिन स्वेच्छा पर निर्भर है। उसका ऊर्ध्वीकरण हो सकता है। लेकिन स्त्री की काम—ऊर्जा का ऊर्ध्वीकरण नहीं होता, क्योंकि उसकी स्वेच्छा पर निर्भर नहीं है।

लेकिन कीर्ति की साधना अलग है, वह ठीक ब्रह्मचर्य के जैसी है। अगर कोई स्त्री कीर्ति को उपलब्ध हो जाए, तो पुरुष के शरीर की कोई भी जरूरत नहीं है। स्त्री के शरीर से ही मोक्ष उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन कीर्ति की प्रक्रिया बिलकुल और होगी।

कीर्ति की प्रक्रिया का अर्थ है कि स्त्री के मन में जितनी तीव्रता से मातृत्व का भाव गहन हो जाए। उसकी साधना मां की साधना होगी। वह पूरे जगत की मां हो जाए। उसके मन में एक ही भाव तरंगित होता रहे, मां होने का। स्त्री होने का भाव छूट जाए, पत्नी होने का भाव छूट जाए, सिर्फ मां होने का भाव गहन होता चला जाए। जिस दिन स्त्री के भीतर मां होने की धारणा इतनी गहन हो जाए कि अगर कोई कामातुर पुरुष भी उसके पास आकर उसके हृदय से लग जाए, तो भी उसे अपने बेटे का ही स्मरण हो। उसके भीतर न कोई भय पैदा हो, न कोई चिंता पैदा हो, न कोई घबड़ाहट पैदा हो, वह उसको बेटे की तरह छाती से लगा ले।

और यह अदभुत बात है कि अगर कोई भी स्त्री किसी पुरुष को बेटे की तरह छाती से लगा ले, पुरुष की वासना तत्‍क्षण वहीं क्षीण हो जाएगी। वहीं, उसी वक्त क्षीण हो जाएगी। क्योंकि स्त्री का जो आमंत्रक रूप है, वह अगर खो जाए, तो पुरुष तत्काल पाएगा कि वह शांत हो गया है।

इस गुण का नाम कीर्ति है। और जब यह गुण विकसित होता है, तो स्त्री पर भी एक तेज आता है। उस पर भी एक अनूठा सौंदर्य आता है। उस सौंदर्य का कोई संबंध शरीर के सौंदर्य से नहीं है। कुरूप से कुरूप स्त्री में भी अगर कीर्ति फलित हो जाए, तो उसकी सारी शारीरिक कुरूपता के भीतर से सौंदर्य की आभा फूटने लगती है। उसकी कुरूपता को लोग देख ही न पाएंगे, उसके भीतर का सौंदर्य इतना हावी हो जाएगा। और सुंदरतम स्त्री को भी, अगर कीर्ति न हो, तो उसकी सुंदरता ऊपर चमड़ी पर होती है। और थोड़ी ही देर में भीतर की कुरूपता दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है।

इसलिए आज अगर पश्चिम में स्त्री—पुरुष के बीच के सारे संबंध टूट गए हैं, दिन दो दिन से ज्यादा नहीं टिक सकते। महीने दो महीने टिक जाएं, तो काफी लंबे हैं। साल दो साल टिक जाएं, तो मानना चाहिए कि महान घटना है। उसका कारण सिर्फ इतना ही है कि सौंदर्य एकदम छिछला है।

और पश्चिम में आज सुंदरतम स्त्रियां हैं, संभवत: पृथ्वी पर सर्वाधिक सुंदर स्त्रियां हैं। लेकिन सौंदर्य छिछला है। स्किनडीप! जितनी चमड़ी की गहराई है, उतनी ही सौंदर्य की गहराई है। और जैसे ही कोई व्यक्ति करीब आता है, थोडे दिन में ही चमड़ी के सौंदर्य के पार जो विराट कुरूपता छिपी है, वह दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। वही सारे संबंधों को क्षीण कर जाती है और तोड़ जाती है।

कृष्ण कहते हैं, स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति..।

श्री भी स्त्रैण गुण है, जैसे कीर्ति। कीर्ति एक साधना है। और जब कीर्ति फलित होती है, और जब कीर्ति में फूल लगते हैं, और जब कीर्ति घनी होती है, और जब कीर्ति केवल मातृत्व नहीं रह जाती, बल्कि जब स्त्री को यह बोध भी मिट जाता है कि मैं स्त्री हूं. क्योंकि मां का बोध भी स्त्री का ही बोध है। और कितना ही ऊंचा हो, मां होकर भी स्त्री स्त्री तो बनी ही रहती है। लेकिन जब कभी ऐसी घटना घटती है, कीर्ति के आगे के कदम पर जब कि स्त्री को यह बोध भी नहीं रह जाता कि वह स्त्री है, तब उसमें श्री का फूल खिलता है। तब उसमें एक सौंदर्य आता है। उस सौंदर्य को हम अपार्थिव कह सकते हैं। वह कभी किसी मीरा में दिखाई पड़ता है। कभी किसी मरियम में वह दिखाई पड़ता है। बहुत मुश्किल से!

श्री, कृष्ण कहते हैं, स्त्रियों में श्री मैं हूं।

लेकिन जब कभी वह फूल खिलता है—मुश्किल से खिलता है—लेकिन जब कभी वह फूल खिलता है, तो स्त्री स्त्री नहीं होती। पुरुष के प्रति पुरुष होने का जो खयाल है, वह भी खो जाता है। और जिन मुल्कों ने इस श्री को उपलब्ध करने की क्षमता पा ली थी, उन मुल्कों ने अपने ईश्वर की धारणा स्त्री के रूप में की, मां के रूप में की। जिन मुल्कों में स्त्रियों की साधना इस जगह तक पहुंची कि इस आंतरिक, आत्मिक श्री को उपलब्ध हो गई, उन मुल्कों ने अपने परमात्मा की जो धारणा है, वह पुरुष के रूप में नहीं की है।

इसे हम समझें थोड़ा। जर्मनी अपने मुल्क को फादरलैंड कहता है, पितृभूमि! हम अपने मुल्क को मातृभुमि कहते हैं, मदरलैंड कहते हैं। जर्मनी ने कभी भी श्री जैसी घटना नहीं देखी। उसने पुरुषों का बड़ा विकास देखा है। पुरुष के जो गुण हैं, जर्मनी में अपने चरम शिखर को पहुंचे हैं।

इसलिए जर्मनी का अपने मुल्क को फादरलैंड कहना ठीक है। पितृभूमि! स्त्री गौण है, उसने कभी वैसी चरम स्थिति नहीं पाई। पश्चिम में पुरुष के गुणों ने बड़ी गहनता से विकास किया। लेकिन पूरब ने स्त्री के गुणों को बड़ी गहनता से विकसित किया। और मजे की बात यह है कि पुरुष के गुण विकसित हो जाएं, तो अंतिम परिणाम युद्ध होगा, क्योंकि पुरुष के सारे गुण योद्धा के गुण हैं। और पुरुष का जो परम ऐश्वर्य है, वह उसके योद्धा होने में प्रकट होता है।

पूरब ने स्त्री के गुणों को बड़ी गहराई से परखा और विकसित किया। और मैं मानता हूं कि अगर दोनों में चुनाव करना हो, तो स्त्री के गुण ही विकसित करने चाहिए, क्योंकि सब पुरुषों को स्त्री से ही पैदा होना पड़ता है। और अगर स्त्री अविकसित हो, तो पुरुष कभी विकसित नहीं हो पाते। और सब पुरुषों को स्त्री के पास ही बड़ा होना पड़ता है। पुरुष की जिंदगी स्त्री के आस—पास ही व्यतीत होती है—चाहे वह मां हो, चाहे वह पत्नी हो, चाहे वह बहन हो, चाहे बेटी हो—स्त्री के इर्द—गिर्द घूमती है। स्त्री केंद्र है, पुरुष परिधि है; वह आस—पास वर्तुलाकार घूमता है। अगर स्त्री के गुण विकसित न हों, तो समाज बहुत दीन हो जाता है।

श्री जो है, स्त्री का चरम उत्कर्ष है। वह उसकी आत्मा है। जब उसमें स्त्रैणता का भाव भी चला जाता है, तब वह दिव्य हो जाती है। कृष्ण कहते हैं, वह मैं हूं।

वाक्, वाणी! स्त्रियों को हम बहुत बातचीत करते देखते ही हैं। शायद बातचीत ही उनका धंधा है। लेकिन वाक् से इस बातचीत का मतलब नहीं है। यह विकृति है स्त्री के गुण की, जो दिखाई पड़ती है। स्त्रियां चुप बैठी दिखाई पड़े, यह मिरेकल है, चमत्कार है।

लेकिन वाक् बातचीत नहीं है। वाक् तो तब प्रकट होता है, जब स्त्री अपने अस्तित्व में परम मौन को उपलब्ध होती है। जब वह बिलकुल मौन हो जाती है, तब उसकी जो वाणी है, वह बहुमूल्य हो जाती है। तब उसकी वाणी ऋचाएं बन जाती हैं। लेकिन जो स्त्री मौन नहीं हो सकती, वह कभी वाक् को उपलब्ध नहीं होगी।

इसलिए स्त्री का गुण उसका चुप होना, उसका मौन होना है।

उसका इतना मौन होना है कि पता चले कि जैसे उसके पास वाणी ही नहीं है। स्त्री में सब अच्छा लगता है, लेकिन उसकी बातचीत बिलकुल बकवास और उबाने वाली होती है। सुंदर से सुंदर स्त्री थोड़ी देर में बहुत घबड़ाने वाली हो जाती है, अगर वह बातचीत। करती चली जाए।

मौन की एक गरिमा है। असल में शब्द भी आक्रमण है। शब्द भी दूसरे पर हमला है। मौन अनाक्रमण है।

कृष्‍ण कहते हैं, मैं वाक् हूं स्मृति हूं मेधा हूं धृति हूं क्षमा हूं। स्मृति। पुरुष के पास एक तरह की स्मृति होती है, स्त्री के पास दूसरे तरह की। शायद मनोवैज्ञानिक राजी भी न हों। क्योंकि वे कहें, एक ही तरह की स्मृति होती है। नहीं होती है। स्त्री—पुरुष के पास एक तरह का कुछ भी नहीं होता। पुरुष की स्मृति बौद्धिक होती है, स्त्री की स्मृति अस्तित्वगत होती है, टोटल होती है।

अगर पुरुष किसी स्त्री को प्रेम करता है, तो उसके स्मरण में इतना ही रह जाता है कि मैंने प्रेम किया था। यह एक स्मृति होती है, मेंटल, मन में। लेकिन स्त्री ने अगर किसी को प्रेम किया है, तो उसके रोएं— रोएं और कण—कण में यह स्मृति समा जाती है। उसके पूरे व्यक्तित्व में रम जाती है, भर जाती है। और जब स्त्री याद करती है कि किसी ने मुझे प्रेम किया, किसी को उसने प्रेम किया, तो यह बौद्धिक बात नहीं होती, इसमें पूरा अस्तित्व समाहित होता है! वह पूरी की पूरी इसमें मौजूद होती है।

इसलिए पुरुष चाहें, तो बहुत स्त्रियों को भी प्रेम कर सकते हैं, स्त्रियों के लिए बहुत पुरुषों को प्रेम करना स्वभावत: कठिन और असंभव है।

पुरुष के लिए सभी घटनाएं बुद्धि में हैं। बुद्धि एक हिस्सा है। स्त्री के लिए सारी घटनाएं उसके पूरे व्यक्तित्व में हैं। उसका रोआं—रोआं इकट्ठा है।

मनस्विद इतना तो मानते हैं कि पुरुष की कामवासना उसके काम केंद्र में निहित होती है, लेकिन स्त्री की कामवासना उसके पूरे शरीर में फैली होती है। स्त्री का पूरा शरीर इरोटिक है, पूरा शरीर। और उसकी सारी स्मृति पूरी है। उसकी स्मृति में बौद्धिक स्मरण, ऐसा नहीं है।

और जो स्मृति पूरी हो इतनी, उसका गुण ही दूसरा हो जाता है। उसका आयाम, उसका अर्थ, अभिप्राय दूसरा हो जाता है।

कृष्ण कहते हैं, मैं स्त्रियों में स्मृति हूं। समग्रता की, इंटिग्रेटेड, पूरी, पूर्ण। स्त्री याद करती है, बुद्धि से नहीं, विचार से नहीं, अपने पूरे होने से, टोटल बीइंग।

इसलिए एक पिता है और एक मां है। पिता एक बिलकुल औपचारिक संस्था मालूम होती है। न भी हो, चल सकता है। पशुओं में नहीं भी होता है, तो भी चलता है। लेकिन मां एक औपचारिक संस्था नहीं है। मां और बेटे का संबंध एक स्मृति मात्र नहीं है बुद्धि की; एक सारे अस्तित्व का लेन देन है। मां के लिए उसका बेटा, उसका ही टुकड़ा है, उसका ही फैला हुआ हाथ है।

अगर एक बेटे की हत्या कर दी जाए और मां को पता भी न हो, तो भी मां के प्राण आंदोलित हो जाते हैं। अब तो इस पर बड़े वैज्ञानिक परीक्षण हुए हैं। एक सैनिक मरता है युद्ध में और उसकी मां बेचैन हो जाती है हजारों मील दूर। पिता पर कोई असर नहीं पड़ता। पिता का अस्तित्वगत संबंध नहीं है। मेरा बेटा है, यह एक बौद्धिक स्मृति है। और कल अगर एक चिट्ठी मिल जाए, जिससे पता चले कि नहीं, किसी और का बेटा है, तो पिता का सारा संबंध टूट जाएगा, विलीन हो जाएगा। वह संबंध गणित का है, हिसाब का है। बहुत गहरा और आंतरिक नहीं है।

इसलिए कोई पुरुष अगर पिता न भी बने, तो कोई भेद नहीं पड़ता। कोई भेद नहीं पड़ता; व्यक्तित्व में कोई कमी नहीं आती। इसलिए पुरुष की उत्सुकता पिता बनने की कम और पति बनने की ज्यादा होती है। स्त्री की उत्सुकता भी अगर पत्नी बनने की हो, तो उसे स्त्री होने का रहस्य पता नहीं है।

स्त्री की उत्सुकता मौलिक रूप से मां बनने की है। अगर वह पति को भी स्वीकार करती है, तो मां बनने के मार्ग पर। और अगर कोई पुरुष पिता बनना भी स्वीकार करता है, तो पति की मजबूरी में। कोई उत्सुकता पुरुष को पिता बनने की वैसी नहीं है। और अगर कभी रही भी है, तो उसके कारण अवांतर रहे हैं। जैसे धन है, संपत्ति है, जायदाद किसकी होगी! क्या नहीं होगा! बेटा चाहिए, तो यह सब सम्हालेगा। या क्रियाकांड और धर्म के कारण, कि अगर पिता मर जाएगा और बेटा नहीं होगा, तो अंतिम क्रिया कौन करेगा? और फिर पानी कौन चढ़ायेगा ? लेकिन ये सब गणित के संबंध हैं। इनस सबमें हिसाब है। ये परपजिव हैं।

मां का संबंध उसके बेटे से नान—परपजिव है, निष्प्रयोजन है। वह उसके ही अस्तित्व का फैलाव है। अगर बेटा मरता हो, तो मां का हृदय पीड़ित हो जाता है, दुखी हो जाता है, चिंतित हो जाता है। और मनुष्यों में ही नहीं, अभी पशुओं पर भी प्रयोग किए हैं रूस में उन्होंने। खरगोश को काटते हैं और उसकी मां मीलों दूर है और उसके हृदय में असर पड़ते हैं। उसकी हृदय—गति बढ़ जाती है। वह कंपने लगती है। उसकी आंख में आंसू आ जाते हैं। यंत्रों से अब तो इसकी परीक्षा हो चुकी है कि पशुओं की मां भी किसी अशांत मार्ग से प्रभावित होती है। कोई इतनी गहरी स्मृति है, जिसको हम बायोलाजिकल कहें, साइकोलाजिकल नहीं, जिसको हम मानसिक न कहें, बल्कि कहें कि जैविक, उसके रोएं—रोएं में भरी हुई है। कृष्ण कहते हैं, स्त्रियों में मैं स्मृति हूं।

कारण से कहते हैं। अगर कोई व्यक्ति ऐसी ही स्मृति से परमात्मा की तरफ भर जाए, तो ही उसे उपलब्ध होता है, ऐसी अस्तित्वगत स्मृति से। ऐसा खोपड़ी में राम—राम कहने से कुछ भी नहीं होता। जब रोआं—रोआं कहने लगे, धड़कन— धड़कन कहने लगे। कहना ही न पड़े और सबमें गूंजने लगे भीतर, कहने की जरूरत ही न रह जाए, होना ही उसका स्मरण बन जाए, तब, तब परमात्मा उपलब्ध होता है।

मेधा, धृति, क्षमा।

धृति का अर्थ है, धीरज, धैर्य, स्थिरता। पुरुष बहुत अधीर है। बहुत अधीर है। शायद बायोलाजिकल कारण भी है। शायद उसकी जो वीर्य—ऊर्जा है, वह भी अधीर है। इसलिए उसका पूरा व्यक्तित्व अधीर है। स्त्री शांत है, घिर है, धैर्य से भरी है।

अभी तक हम सोचते रहे थे ऐसा कि पुरुष शक्तिशाली है। एक हिसाब से है। मस्कुलर, पेशीगत उसकी सामर्थ्य ज्यादा है। अगर लड़ने जाए, तो स्त्री से ज्यादा शक्तिशाली है। लेकिन यह तो मापदंड की बात  हुई। किसी और हिसाब से स्त्री पुरुष से ज्यादा शक्तिशाली है।

जहां तक थिरता का सवाल है, जहां तक सहने का सवाल है, सहनशीलता का सवाल है, धैर्य का सवाल है...। आपको पता नहीं होगा, आपको खयाल नहीं होगा कि नौ महीने एक मां अपने बेटे को अपने पेट में ढोती है। एक पुरुष को नौ दिन भी ढोना पड़े, तो उसे पता चले! अगर पुरुष को गर्भ ढोना पड़े, तो गर्भपात नियम हो जाए। फिर बच्चे को मां बड़ा करती है। एक रात जरा छोटे बच्चे को अपने बिस्तर पर सुलाकर देखें, तब आपको पता चलेगा, कि वह  आपको पागल कर देगा।

स्त्री का धैर्य एक अर्थ में अनंत है। उसकी सहने की क्षमता भी बहुत है। आप जिस तकलीफ में टिक न सकेंगे, उसमें स्त्री टिकती है।

इसलिए आपको पता है कि स्त्रियों की उम्र पुरुषों से पांच साल ज्यादा है! औसत उम्र। स्त्रियां कम बीमार पड़ती हैं, पुरुषों की बजाय। और अगर बीमार भी पड़ती हैं, तो उसका कारण शारीरिक कम और मानसिक ज्यादा होता है। स्त्रियों की बीमारी को रेसिस्ट करने की क्षमता मेडिकली सिद्ध हो गई है कि बहुत ज्यादा है। स्त्रियां कई बीमारियों को बिना तकलीफ के पार हो जाती हैं, बीमारियां प्रवेश नहीं कर सकती हैं। पुरुष बहुत जल्दी से बीमार हो जाता है। उसकी मस्कुलर ताकत ज्यादा है।

लेकिन मस्कुलर ताकत का तो वक्त भी गया। इसलिए आने वाली दुनिया में स्त्री रोज ताकतवर होती जाएगी। सौ साल के भीतर...। क्योंकि मस्कुलर ताकत का वक्त गया। न तो अब शेर से लड़ने जाना पड़ता है, न लकड़ी काटने जाना पड़ता है। वह सब काम तो मशीन करने लगी। पुरुष के जितने काम थे, मशीन करने लगी। और स्त्री का कोई भी काम अभी तक मशीन करने में समर्थ नहीं है।

आने वाले सौ साल में स्त्री आपके ऊपर उठती जाएगी। उसकी ताकत बड़ी होती जाएगी। होती ही जाएगी। क्योंकि आपका काम तो, आप एक अर्थ में अब बेकार हैं। अगर आटोमेटिक पूरा जगत हो जाता है सौ वर्षों में, तो पुरुष बेकार है। उसके बिना काम चल सकेगा। स्त्री बेकार कभी नहीं हो सकती। उसके कुछ और ही गुण हैं, जो अनिवार्य हैं।

कृष्ण कहते हैं, धृति मैं हूं क्षमा मैं हूं।

स्त्री के व्यक्तित्व में जिस मात्रा में प्रेम है, उसी मात्रा में क्षमा है। जितना ज्यादा प्रेम होगा, उतनी क्षमा होगी। जितना ज्यादा धैर्य होगा, उतनी क्षमा होगी। और जितना ज्यादा मातृत्व होगा, उतनी क्षमा होनी ही चाहिए। पुरुष को क्षमा अभ्यास करनी पड़ती है। स्त्री की क्षमा सहज घटित होती है। वह उसका स्वभाव है।

लेकिन अब तक ऐसा हुआ कि मनुष्य—जाति ने पुरुषों को केंद्र मानकर काम चलाया। इसलिए हम कहते हैं मनुष्य—जाति, इसलिए हम कहते हैं मैनकाइंड, सब पुरुष के नाम हैं। सब पुरुष के नाम हैं! स्त्री को हम पुरुष में सम्मिलित कर लेते हैं।

लेकिन वह भूल हो गई। स्त्री का अपना व्यक्तित्व है, पुरुष से बिलकुल अलग। और जब तक इस पृथ्वी पर स्त्री के व्यक्तित्व के जिन गुणों की कृष्‍ण ने यहां बात की है, वे भी सारे विकसित नहीं हो जाते, तब तक दुनिया एक इम्बैलेंस, एक असंतुलन में रहेगी। पुरुष का पलड़ा बहुत भारी होकर नीचे बैठ गया है। और स्त्री के गुण विकसित नहीं हो पाए हैं।

और अब एक दुर्घटना घट रही है दुनिया में कि स्त्रियां इस लंबी परेशानी से पीड़ित होकर एक प्रतिक्रिया में उतर रही हैं और वे कोशिश कर रही हैं पुरुषों जैसा हो जाने की। वह बड़ी से बड़ी दुर्घटना है, जो मनुष्य—जाति के ऊपर घट सकती है। स्त्रियां कोशिश कर रही हैं पुरुष जैसा हो जाने की—कपड़े—लत्तों से, व्यक्तित्व से, ढंग से, बात से। जो—जो व्यवस्था पुरुष को है, वही—वही उनको भी होनी चाहिए।

भूल है उसमें, क्योंकि स्त्री का व्यक्तित्व बुनियादी रूप से अलग है। उसे भी हक होना चाहिए खुद के विकसित करने का, उतना ही जितना पुरुष को है। लेकिन पुरुष जैसा विकसित होने का हक बहुत महंगा सौदा है। और अगर स्त्रियां पुरुष जैसी होती हैं, तो हम इस दुनिया को बिलकुल बेरौनक कर देंगे। कुछ गुण एकदम खो जाएंगे, जो स्त्रियों के ही हो सकते थे।

आज पश्चिम में कीर्ति नहीं हो सकती स्त्रियों में। श्री नहीं हो सकती। क्षमा नहीं हो सकती। धृति नहीं हो सकती। जिस स्मृति की मैंने बात कही, वैसी समग्र स्मृति नहीं हो सकती। क्योंकि वह हर मामले में पुरुष के साथ, जैसा पुरुष है, वैसा करने की कोशिश में लगी है।

इसमें नुकसान पुरुष को होने वाला नहीं है। इसमें नुकसान स्त्री को ही हो जाएगा। क्योंकि वह नंबर दो की ही पुरुष हो सकती है। पुरुष तो हो नहीं सकती, सेकेंडरी, नंबर दो की पुरुष हो सकती है। और नंबर दो की पुरुष होकर वह एकदम कुरूप और विकृत हो जाएगी।

तो जो पुरुष के अत्याचार से भी नहीं मिटा था, वह उनकी नासमझी से बिलकुल मिट जाएगा। स्त्रियों के गुण अलग हैं।

इसलिए कृष्‍ण ने उचित ही किया कि स्त्रियों के गुण अलग से गिनाए और कहा कि अगर मुझे तुझे स्त्रियों में खोजना हो तो तू कीर्ति में, श्री में, वाक् में, स्मृति में, मेधा में, धृति में और क्षमा में मुझे देख लेना।

अर्जुन ने पूछा है कि किन भावों में मैं आपको देखूं? कहां आपको खोजूं? कहां आपके दर्शन होंगे? तो स्त्रियों में अगर देखना हो, तो इनमें खोज लेना।

तथा मैं गायन करने योग्य श्रुतियों में बृहत्साम, छंदों में गायत्री छंद तथा महीनों में मार्गशीर्ष का महीना, ऋतुओं में वसंत ऋतु हूं। अंतिम, वसंत ऋतु पर दो शब्द हम खयाल में ले लें।

ऋतुओं में खिला हुआ, फूलों से लदा हुआ, उत्सव का क्षण वसंत है। परमात्मा को रूखे—सूखे, मृत, मुर्दा घरों में मत खोजना। जहां जीवन उत्सव मनाता हो, जहां जीवन खिलता हो वसंत जैसा, जहां सब बीज अंकुरित होकर फूल बन जाते हों, उत्सव में, वसंत में मैं हूं।

ईश्वर सिर्फ उन्हीं को उपलब्ध होता है, जो जीवन के उत्सव में, जीवन के रस में, जीवन के छंद में, उसके संगीत में, उसे देखने की क्षमता जुटा पाते हैं। उदास, रोते हुए, भागे हुए लोग, मुर्दा हो गए लोग, उसे नहीं देख पाते। पतझड़ में उसे देखना बहुत मुश्किल है। मौजूद तो वह वहां भी है। लेकिन जो वसंत में भी उसे नहीं देख पाते, वे पतझड़ में उसे कैसे देख पाएंगे? वसंत में जो देख पाते हैं, वे तो उसे पतझड़ में भी देख लेंगे। फिर तो पतझड़ पतझड़ नहीं मालूम पड़ेगी, वसंत का ही विश्राम होगा। फिर तो पतझड़ वसंत के विपरीत भी नहीं मालूम पड़ेगी; वसंत का आगमन या वसंत का जाना होगा। लेकिन देखना हो पहले, तो वसंत में ही देखना उचित है।

शायद पृथ्वी पर हिंदुओं ने, अकेला ही एक ऐसा धर्म है, जिसने उत्सव में प्रभु को देखने की चेष्टा की है। एक उत्सवपूर्ण, एक, फेस्टिव, नाचता हुआ; छंद में, और गीत में, और संगीत में, और फूल में।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...