मंगलवार, 3 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 10 भाग 2

 रूपांतरण का आधार—निष्‍कंप चित्‍त और जागरूकता


बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोह क्षमा सत्यं दम: शम:।

सुखं——दुखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।। 4।।

अहिंसा समता तुष्टिस्तयो दानं यशोउयश।

भवन्ति भावा भूतानां मल एव पृथग्विधा।। 5।।

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।

मद्रभावा मानसा जाता येषां लोक इमा: प्रजा:।। 6।।


और हे अर्जुन निश्चय करने की शक्ति एवं तत्वज्ञान और अमूढूता क्षमा सत्य तथा इंद्रियों का वश में करना और मन का निग्रह तथा सुख—दुख, उत्पत्ति और प्रलय एवं भय और अभय भी तथा अहिंसा समता संतोष तप दान कीर्ति और अपकीर्ति ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मेरे से ही होते हैं।

और हे अर्जुन सात महर्षिजन और चार उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायंभुव आदि चौदह मनु ये मेरे में भाव वाले सब के सब मेरे संकल्प से उत्पन्‍न हुए हैं कि जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है।


जैसे आकाश ने सबको घेरा हुआ है, जैसे जीवन की ऊर्जा सभी में परिव्याप्त है, वैसे ही कण—कण, चाहे पदार्थ का हो, चाहे चेतना का, परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। कृष्ण इस सूत्र में अर्जुन से कह रहे हैं कि मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। पहले इस मौलिक धारणा को समझ लें, फिर हम सूत्र को समझें।

जैसा हम देखते हैं, तो सभी चीजें अलग—अलग मालूम पड़ती हैं। कोई एक ऐसा तत्व दिखाई नहीं पड़ता, जो सभी को जोड़ता हो। जब हम देखते हैं, तो माला के गुरिए ही दिखाई पड़ते हैं। वह माला के भीतर जो पिरोया हुआ सूत का धागा है, जो उन सबकी एकता है, वह हमारी आंखों से ओझल रह जाता है। जब भी हम देखते हैं, तो हमें खंड दिखाई पड़ते हैं, लेकिन अखंड का कोई अनुभव नहीं होता। यह अखंड का जब तक अनुभव न हो, तब तक परमात्मा की कोई प्रतीति भी नहीं है। इसीलिए हम कहते हैं कि परमात्मा को मानते हैं, मंदिर में श्रद्धा के फूल भी चढ़ाते हैं, मस्जिद में उसका स्मरण भी करते हैं, गिरजाघर में उसकी स्तुति भी गाते हैं। लेकिन फिर भी वह परमात्मा, जिसके चरणों में हम सिर झुकाते हैं, हमारे हृदय के भीतर प्रवेश नहीं कर पाता है।

आश्चर्य की बात कि हम जिस अखंड की खोज में मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे में जाते हैं, हमारा मंदिर, हमारा मस्जिद, हमारा गुरुद्वारा भी हमें खंड—खंड करने में सहयोगी होते हैं। हम मंदिर और मस्जिद के बीच भी एक को नहीं देख पाते हैं। हिंदू और मुसलमान और ईसाई के पूजागृहों में भी हमें फासले की दीवालें और शत्रुता की आड़े दिखाई पड़ती हैं। मंदिर भी अलग—अलग हैं, तो यह पूरा जीवन तो कैसे एक होगा?

मंदिर अलग नहीं हैं, लेकिन हमारे देखने का ढंग केवल खंड को ही देख पाता है, अखंड को नहीं देख पाता है। तो हम जहां भी अपनी दृष्टि ले जाते हैं, वहां ही हमें टुकड़े दिखाई पड़ते हैं। वह समग्र, जो सभी को घेरे हुए है, हमें दिखाई नहीं पड़ता है।

अर्जुन की भी तकलीफ वही है। उसे भी अखंड का कोई अनुभव नहीं हो रहा है। उसे दिखाई पड़ता है, मैं हूं। उसे दिखाई पड़ता है, मेरे मित्र हैं, प्रियजन हैं, शत्रु हैं। उसे दिखाई पड़ता है कि सुख क्या है, उसे दिखाई पड़ता है कि दुख क्या है। उसे दिखाई पड़ता है कि पाप क्या है, पुण्य क्या है। उसे सब दिखाई पड़ता है, सिर्फ एक, जो सभी के भीतर छिपा हुआ है, वह भर दिखाई नहीं पड़ता है। और इसलिए कृष्ण और अर्जुन के बीच जो चर्चा है, वह दो दृष्टियों के बीच है।

अर्जुन खंडित दृष्टि का प्रतीक है और कृष्ण अखंडित दृष्टि के। कृष्‍ण समग्र की, दि होल, वह जो पूरा है, उसकी बात कर रहे हैं और अर्जुन टुकड़ों की बात कर रहा है। शायद इसीलिए दोनों के बीच बात तो हो रही है, लेकिन कोई हल नहीं हो पा रहा है। उन दोनों का जीवन को देखने का ढंग ही भिन्न है।

इस सूत्र में कृष्ण अर्जुन को एक—एक बात गिना रहे हैं कि मैं कहां—कहां हूं। इतना ही कहना काफी होता कि मैं सब जगह हूं। इतना ही कहना काफी होता कि सभी कुछ मैं ही हूं। लेकिन यह बात अर्जुन को स्पष्ट न हो पाएगी। अर्जुन को खंड—खंड में ही गिनाना पड़ेगा कि कहां—कहां मैं हूं। शायद उसे खंड—खंड में यह एक की झलक मिल जाए, तो खंड खो जाएं और अखंड की प्रतीति हो सके। इसलिए कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, निश्चय करने की शक्ति एवं तत्वज्ञान और अमूढ़ता।

ये तीन शब्द बहुत कीमती हैं। निश्चय करने की शक्ति!

जैसा हमारे पास मन है, अगर हम ठीक से समझें, तो हम कह सकते हैं, मन है अनिश्चय करने की शक्ति। मन का सारा काम ही भीतर यह है कि वह हमें निश्चित न होने दे। मन जो भी करता है, अनिश्चय में ही करता है। कोई भी कदम उठाता है, तो भी पूरा मन कभी कोई कदम नहीं उठाता। एक हिस्सा मन का विरोध करता ही रहता है।

अगर आप किसी को प्रेम करते हैं, तो भी मन पूरा प्रेम नहीं करता; मन का एक हिस्सा, जिसे आप प्रेम करते हैं, उसी के प्रति घृणा से भी भरा रहता है। और इसीलिए किसी भी दिन प्रेम घृणा बन सकता है। मन में घृणा तो मौजूद ही है। जिसे आप प्रेम करते हैं, किसी भी क्षण उसी के प्रति क्रोध से भर सकते हैं। एक क्षण में प्रेम की शीतलता क्रोध की अग्नि बन सकती है, क्योंकि मन तो क्रोध से भरा ही है।

और पूरे मन से न हम प्रेम करते हैं, और न पूरे मन से हम शांत होते हैं, और न पूरे मन से हम सच्चे होते हैं। पूरा मन जैसी कोई चीज ही नहीं होती। यह समझने में थोड़ी कठिनाई पड़ेगी।

जहां पूरा हो जाता है मन, वहां मन समाप्त हो जाता है। जब तक अधूरा होता है, तभी तक मन होता है। इसे हम ऐसा समझें कि अधूरा होना, मन का स्वभाव है। अपने ही भीतर बंटा होना, मन का स्वभाव है। अपने ही भीतर लड़ते रहना, मन का स्वभाव है। द्वंद्व, कलह, खंडित होना, मन की नियति और प्रकृति है।

आपने जीवन में बहुत बार निर्णय लिए होंगे, रोज लेने पड़ते हैं, लेकिन मन से कभी कोई निर्णय पूरा नहीं लिया जाता। पूरा मन कभी तैयार होता ही नहीं। और जब कोई व्यक्ति पूरा तैयार होता है, तो मन शून्य हो जाता है; मन तत्‍क्षण विदा हो जाता है। अधूरे आदमी के पास मन होता है, पूरे आदमी के पास मन नहीं होता। बुद्ध, या राम, या कृष्‍ण जैसे व्यक्तियों के पास मन नहीं होता। और जहां मन नहीं होता, वहीं आत्मा के दर्शन, वहीं परमात्मा की झलक मिलनी शुरू होती है। 




साधारण—सी बात में भी मन झिझकता है! बाएं रास्ते से जाऊं या दाएं से, तो भी मन सोचता है। तो भी आधा मन कहता है बाएं से, आधा मन कहता है दाएं से। मन का ज्‍यादा हिस्सा जहां कहता है, वहां हम चले जाते हैं। साठ प्रतिशत मन जो कहता है, वही हम हो जाते हैं। चालीस प्रतिशत जो मन कहता है, उसे हम नहीं करते। बहुमत मन का जो कहता है, हम उसके पीछे चले जाते हैं। लेकिन जो अभी बहुमत है, वह कल सुबह तक बहुमत रहेगा, यह पक्का नहीं है। 

तो कृष्ण पहला सूत्र का हिस्सा कहते हैं, निश्चय करने की शक्ति मैं हूं।

तो जिस दिन भी अर्जुन, तू पूर्ण निश्चय कर पाएगा, उस दिन तू मुझे समझ लेगा कि मैं कौन हूं मैं किसकी बात कर रहा हूं। लेकिन जब तक तू उस पूरे निश्चय को नहीं कर पाएगा, तब तक मुझे नहीं समझ पाएगा।

पूर्ण निश्चय हमने कभी भी नहीं किया है। छोटे—मोटे निश्चय भी हमने पूर्ण नहीं किए हैं। अगर आप पांच मिनट के लिए भी तय करें कि मैं आंख को नहीं झपकूंगा, तो भी आपको परमात्मा की झलक मिल जाए। लेकिन पांच मिनट में आंख पच्चीस बार शाक जाएगी। ' अगर आप तय करें कि मैं पांच मिनट बिना हिले खड़ा रहूंगा, तो भी परमात्मा की झलक मिल जाए। लेकिन पांच मिनट में पच्चीस बार आप हिल जाएंगे। जिस मन से आप तय कर रहे हैं, उस मन का स्वभाव कंपन है। तो पूर्ण निश्चय तभी होता है, जब कोई व्यक्ति मन के पार उठ पाए।

समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं मन के पार उठने के उपाय हैं। मन का अर्थ है, विचलित चेतना। और ध्यान का अर्थ है, अविचलित चेतना। ध्यान का अर्थ है, मन की मृत्यु।

 ध्यान का अर्थ है, जहां मन न रह जाए, जहां मन न बचे, जहां कोई विकल्प न हो, जहां कोई द्वंद्व न हो।

अगर एक क्षण को भी मैं इस आंतरिक समता को पा जाऊं, जहां मन में कोई द्वंद्व न हो, जहां कोई विपरीत भाव न हो, जहां कोई कलह न हो, कोई कांफ्लिक्ट न हो—एक क्षण को भी अगर यह समरसता भीतर आ जाए, तो मैं निश्चय को उपलब्ध हुआ।

उसी क्षण मुझे परमात्मा उपलब्ध हो जाए; उसी क्षण उसकी मुझे झलक मिल जाए; धागे की झलक मिल जाए, मनकों के भीतर जो छिपा है।

निश्चय का अर्थ है, ऐसी अवस्था, जहां मन का कोई कंपन न हो।

तो कृष्‍ण कहते हैं, निश्चय में मैं हूं तत्वज्ञान में मैं हूं।

तत्वज्ञान का अर्थ फिलॉसफी नहीं होता। तत्वज्ञान का अर्थ विचारशास्त्र, दर्शनशास्त्र नहीं होता। बड़ी भूल हुई है। पश्चिम में एक चिंतना की धारा विकसित हुई है, जिसे फिलासफी कहते हैं। उस अर्थ में भारत में फिलासफी जैसी कोई भी चीज कभी विकसित नहीं हुई। भारत में जो विकसित हुआ, वह तत्वज्ञान है।

 फिलॉसफी का अर्थ होता है, चिंतन, मनन, विचार। तत्वज्ञान का अर्थ होता है, दर्शन, साक्षात्कार, अनुभूति। एक अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में सोचता रहे, तो वह फिलासफी है, और अंधे आदमी की आंख खुल जाए और वह प्रकाश को देख ले, तो वह तत्वज्ञान है।

तत्वज्ञान का अर्थ है, अनुभूति। फिलॉसफी का अर्थ है, मानसिक। तत्वज्ञान का अर्थ है, वास्तविक। फिलॉसफी का अर्थ है, सोचा हुआ। तत्वज्ञान का अर्थ है, जाना हुआ। सोचना तो बहुत आसान है, जानना बहुत कठिन है। क्योंकि सोचने के लिए बदलने की कोई भी जरूरत नहीं, जानने के लिए तो स्वयं को बदलना अनिवार्य है।

तो भारत का जोर तत्वज्ञान पर है, चिंतना पर नहीं, विचारणा पर नहीं। कोई कितना ही सोचे, सोचकर कहीं कोई पहुंचता नहीं। कोई कितना ही सोचे, हाथ में विचार की राख के सिवाय कुछ भी लगता नहीं। कोई कितना ही सोचे, खाली शब्द का संग्रह बढ़ जाता है। लेकिन प्रतीति, प्रत्यभिज्ञा नहीं होती, उसकी पहचान नहीं होती। उसे तो जानना पड़े आमने—सामने। उससे तो पहचान करनी पड़े, मुलाकात करनी पड़े। सोचने से नहीं होगा।

कोई आदमी प्रेम के संबंध में बहुत सोचे, तो भी प्रेम का उसे पता नहीं चलता, जब तक वह प्रेम में डूब ही न जाए। प्रेम में डूबना बिलकुल दूसरी बात है। और ऐसा भी हो सकता है कि जो प्रेम में डूब जाए, वह प्रेम के संबंध में कुछ भी न सोचा हो। और यह भी हो सकता है, और अक्सर होता है, कि जिन्होंने प्रेम के संबंध में बहुत सोचा है, वे प्रेम करने में असमर्थ ही हो जाएं। सोचने से ही उनको परितृप्ति मिल जाए, या सोचने को ही वे परिपूरक  समझ लें।

बहुत—से लोग ईश्वर के संबंध में सोचते रहते हैं। उस सोचने को ही वे समझते हैं कि अनुभव हो रहा है! सोचना अनुभव नहीं है। सोचना सहयोगी हो सकता है, सोचना उपयोगी हो सकता है, लेकिन सोचना अनुभव नहीं है। और सोच—सोचकर कोई कहीं भी नहीं पहुंचता है, कभी नहीं पहुंचा है। जानना पड़े। तो तत्वज्ञान से अर्थ है, जानना।

कृष्‍ण कहते हैं, जानना मैं हूं। विचारणा नहीं, थिंकिंग नहीं, नोइंग। विचार का अर्थ है कि जिसका मुझे पता नहीं है, उसके संबंध में, जो मुझे पता है, उसके आधार पर कुछ धारणा बनानी है। जिसका मुझे पता नहीं है, उस संबंध में, जिन चीजों का मुझे पता है, उनके आधार पर कोई धारणा निर्मित करनी है, बौद्धिक कोई खयाल निर्मित करना है। कोई इमेज, कोई प्रतिमा निर्मित करनी है। लेकिन विचारों की। और विचार क्या हैं? शब्दों के संग्रह हैं। शब्दों से— न तो शब्द की आग से कोई जल सकता है, और न शब्द के फूल से कोई सुगंध मिलती है। शब्द के परमात्मा से भी कोई अनुभव नहीं मिलता।

शब्द परमात्मा परमात्मा नहीं है। तो कोई कितना ही शब्द को रटता रहे और परमात्मा— परमात्मा दोहराता रहे, शब्द को ही दोहराता रहे, तो कहीं पहुंचेगा नहीं। यह भी हो सकता है कि दोहराते—दोहराते इस भ्रम में पड़ जाए कि मैं जानता हूं। बहुत लोग पड जाते हैं। पंडित की यही भूल है।

और इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि पंडित अज्ञानियों से भी ज्यादा भटक जाते हैं। पंडित की यही भूल है। शब्द का धनी होता है। शास्त्र का ज्ञाता होता है। सिद्धांत उसे स्मरण होते हैं। उसके पास धनी स्मृति होती है। उसी स्मृति को दोहराते—दोहराते वह इस भ्रांति में पड़ जाता है कि जो मैं दूसरों को कहता हूं वह मैं भी जानता हूं। अपने ही शब्द सुनते—सुनते आत्म—सम्मोहित हो जाता है। अपने ही शब्दों को दोहराते—दोहराते एक गहरी तंद्रा में खो जाता है और लगता है कि मैं जानता हूं।

जानना बड़ी दूसरी बात है। जानने का संबंध बुद्धि से कम, जानने का संबंध पूरे अस्तित्व से है। जानने का संबंध सोचने से कम, मौन हो जाने से ज्यादा है। जानने का संबंध शब्द से कम, निःशब्द, शून्य, शांत से ज्यादा है।

जब कोई शांत हो जाता है शब्दों से, तो दर्पण बन जाता है। और उस दर्पण में जो झलक मिलती है, वह जानना है। और जब कोई शब्दों के धुएं से भरा रहता है, तो कोई झलक नहीं मिलती। कोई झलक नहीं मिलती।

पंडित अपने ही शब्दों में भटकता है, अपने ही शब्दों में उलझता रहता है, अपने ही शब्दों को हल करता रहता है। अपने ही सवाल, अपने ही जवाब देता रहता है। दर्शनशास्त्र—फिलॉसफी के अर्थों में— अपना ही सवाल है, अपना ही जवाब है।

तत्वज्ञान सवाल अपना है, जवाब उसका है। सवाल पूछकर साधक चुप हो जाता है, शून्य हो जाता है। जैसे झील शांत हो जाए और सारी लहरें बंद हो जाएं और आकाश का चांद झील में झलकने लगे। और झील में लहरें हों, तो भी आकाश का चांद तो झलकता है, लेकिन लहरें उसे हजार खंडों में तोड़ देती हैं।

देखें, पूर्णिमा के दिन कभी झील पर जाकर देखें। चांद तो एक है ऊपर, लेकिन झील में हजार टुकड़ों में बिखरा होता है। हजार खंडों में बंटा हुआ झील की लहरों पर बहता होता है। चांद नहीं टूट गया है, लेकिन झील का दर्पण टूटा हुआ है, इसलिए हजार चांद दिखाई पड़ते हैं। झील शांत हो जाए, ऐसी शांत कि दर्पण बन जाए, तो चांद जो ऊपर है, वही एक चांद नीचे दिखाई पड़ने लगता है। फिर झील जब बिलकुल शांत होती है, तो पता ही नहीं चलता कि झील है भी। सिर्फ दर्पण ही रह जाता है।

ठीक ऐसे ही मन पर जब विचार होते हैं, तो तरंगें होती हैं। उन्हीं तरंगों से जो व्यक्ति सोच—सोचकर तय करता है कि चांद कैसा है, उसका चांद खंडों में बंटा हुआ होगा।

कृष्ण कहते हैं, तत्वज्ञान मैं हूं।

जब कोई पूर्ण शांत हो जाता है, तब उसे तत्व का पता चलता है। वह जो है,  उसका पता चलता है। जो है, उसका नाम तत्व है। उसका कोई और नाम नहीं है। जो भी है, शांत हो गए व्यक्ति के भीतर झलकता है। और तब जो अनुभूति होती है, जो ज्ञान होता है, वह मैं हूं। और उस क्षण में अखंड का अनुभव होता है। जब तक मन है खंडित, तब तक हम जो भी जानेंगे, वह खंडित होगा। जब मन होगा अखंडित, तब जो हम जानेंगे, वह अखंड होगा।

तीसरा शब्द कृष्ण ने कहा है, अछूता मैं हूं असम्मोह

यह शब्द साधकों के लिए बहुत उपयोगी है। मूढ़ता का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति, जो जागा हुआ मालूम पड़ता है, लेकिन जागा हुआ नहीं है। सोया—सोया व्यक्ति, जैसे नींद में चल रहा हो।

कभी रास्ते के किनारे खड़े हो जाएं, और रास्ते से गुजरते हुए लोगों को देखें। गौर से देखें, आंख गड़ाकर देखें कि लोग कैसे चल रहे हैं! तो थोड़ी ही देर में आपको लगेगा कि लोग सोए—सोए चल रहे हैं। कोई आदमी चलते—चलते बात करता जा रहा है। कोई उसके साथ नहीं है, अकेला है। अपने हाथ से इशारा कर रहा है। उसके ओंठ चल रहे हैं। वह किसी से बात कर रहा है। उसके चेहरे के भाव बदल रहे हैं।

यह आदमी होश में है या नींद में है? यह कोई सपना देख रहा है। यह इस सड़क पर बिलकुल नहीं है। यह किसी और सड़क पर होगा, यह किसी और के साथ होगा। यह किससे बातें कर रहा है? यह किसकी तरफ हाथ के इशारे कर रहा है? यह किसी के साथ है, सपने में।

हम सब सपने में चल रहे हैं। हम सबके भीतर सपने चल रहे हैं। हम कुछ भी कर रहे हों, हमारे भीतर एक सपनों का जाल चल रहा है। और ध्यान रहे, सपना तभी चल सकता है, जब भीतर निद्रा हो। बिना नींद के सपना नहीं चल सकता। और सपने हम सबके भीतर चौबीस घंटे चलते हैं। जरा आंख बंद करो, सपना दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा। आंख जब आप बंद नहीं करते, तब आप यह मत सोचना कि भीतर सपना नहीं चलता है। भीतर तो सपना चलता है, लेकिन बाहर की जरूरत के कारण आपको उस सपने का पता नहीं चलता। आंख बंद करो, सपने का पता चलना शुरू हो जाएगा।

हमारे भीतर रात सपने चलते हैं, ऐसा मत सोचना, दिनभर सपने चलते हैं, चौबीस घंटे सपने चलते हैं। दिन की जरूरत में, दिन की रोशनी में, उलझन में, दूसरे काम में, बाहर उलझे होने की वजह से भीतर के सपने दिखाई नहीं पड़ते। इसलिए आरामकुर्सी पर जरा लेट जाएं, बाहर की दुनिया से आंख बंद कर लें, और दिवास्वप्न, डे—ड्रीमिंग शुरू हो जाती है। वह चल ही रही थी, आपने आंख बंद की, तो दिखाई पड़ने लगती है। आप आंख खोलकर बाहर लग जाते हैं, तो भूल जाते हैं। लेकिन भीतर चौबीस घंटे, भीतर के छबिगृह में सपने चल रहे हैं। वे सपने इस बात की खबर हैं कि हम सोए हुए हैं।

मूढ़ता का अर्थ है, एक तरह की निद्रा। मूढ़ता का अर्थ मूर्खता नहीं है।  तथाकथित ज्ञानी भी मूढ़ हो सकता है। अज्ञानी भी मूढ़ हो सकता है। मूढ़ होना अलग ही बात है।

मूढ़ का अर्थ है, निद्रित चलना, सोए—सोए जीना। भीतर सपने चलते रहते हैं और हम बाहर चलते रहते हैं। हम जागे हुए नहीं हैं। हम ठीक से जागे हुए नहीं हैं। इसकी आप कोशिश करें, तो आपको पता चलेगा कि कितनी गहरी नींद है। अपनी हाथ की घड़ी पर आंख गड़ाकर बैठ जाएं और तय कर लें कि पूरा एक मिनट, जो सेकेंड का कांटा है, उसको आप देखते रहेंगे स्मृतिपूर्वक, और बीच में कोई दूसरा विचार और सपना नहीं आने देंगे—एक मिनट सिर्फ।

आप पाएंगे कि दस दफा बीच में सपने आ गए, दस दफे झोंक आ गई, दस दफे निद्रा लग गई, दस दफे आप चूक गए। कांटे को भूल गए; मन कहीं और चला गया। कोई और खयाल बीच में आ गया और आपको ले गया। एक मिनट में दस बार आपके मन में सपना आपको झकझोर डालेगा। तब आपको पता चलेगा कि मैं कैसा सोया हुआ आदमी हूं!

रास्तों पर कोई रात तीन बजे और चार बजे के बीच अधिक एक्सिडेंट होते हैं। तो ड्राइवर्स के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक वक्त रात के तीन और चार के बीच में है। मनोवैज्ञानिक बहुत दिन से इस खोज में थे कि बात क्या होगी? यह तीन और चार के बीच में जो इतनी दुर्घटनाएं होती हैं, अधिकतम दुर्घटनाएं, इसका कारण क्या होगा?

अब वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि तीन और चार के बीच में सपने इतने प्रगाढ़ हो जाते हैं। सोया आदमी हो, तब तो पता नहीं चलता। जागा हुआ आदमी हो, तो आंख खुली भी रहे, तो भी ड्राइवर सपनों में खो जाता है। सपने में कुछ भी हो सकता है फिर। और इसलिए बहुत—से ड्राइवर कहते हैं कि मैं बिलकुल जागा हुआ था। आंख मेरी खुली थी। और मेरी समझ के बाहर है कि यह दुर्घटना कैसे हो गई! एक क्षण को भी अगर सपने ने खींच लिया हो, तो दुर्घटना होने में देर नहीं लगती। और आंख खुली हो, तो भ्रम पैदा हो सकता है कि आंख खुली थी, इसलिए मैं जागा हुआ था।

इस भूल में कोई भी न रहे। आंख का खुला होना और जागे होने का कोई भी संबंध नहीं है। बुद्ध की आंख भी बंद हो, कृष्ण की आंख भी बंद हो, तो भी वे जागे हुए होते हैं। हमारी आंख भी खुली हो, तो हम सोए हुए होते हैं। सोना और जागना आंतरिक घटनाएं हैं, आंख से इसका कोई संबंध नहीं है।। तो सोने का अर्थ हुआ कि हमारे भीतर विचारों की, सपनों की, चित्रों की एक भीड़ है, वह चल रही है। उस भीड़ के कारण हमें कुछ भी दिखाई नहीं पडता, कुछ भी सूझता नहीं। हम अंधे की तरह जी रहे हैं; टटोल—टटोल कर जी रहे हैं। किसी तरह रास्ते से गुजर जाते हैं, घर आ जाते हैं, काम कर लेते हैं, तो सोचते हैं कि हम जागे हुए हैं। लेकिन आध्यात्मिक अर्थों में यह जागरण नहीं है, इसे मूढ़ता..।

कृष्ण कहते हैं, अमूढ़ता मैं हूं।

अमूढ़ता का अर्थ है, जागरण, बुद्धत्व।


और जब कोई व्यक्ति नींद में भी जाग जाए, तो योग को उपलब्ध हुआ। कृष्ण ने कहा है कि जो नींद में भी जागा हुआ है, वही योगी है। इससे उलटा सूत्र भी हम बना सकते हैं कि जो जागकर भी सोया हुआ है, वही भोगी है।

इस जागरण का क्या अर्थ हुआ? कभी आपने जागरण का कोई क्षण अनुभव किया है?

थोड़ा मुश्किल है। कभी—कभी अचानक भी हो जाता है। अगर अचानक दो आदमी एकांत रास्ते पर आपको पकड़ लें और एक आदमी छुरा आपकी छाती पर रख दे, तो उस क्षण में आपके भीतर कोई विचार होंगे? अचानक! उस क्षण आपके भीतर कोई विचार नहीं होंगे। उस क्षण आपके भीतर सब सपने छूट जाएंगे। उस क्षण एक क्षण को आप पूरे जागे होंगे। लेकिन यह बाहर की परिस्थिति पर होगा। छुरा हट जाए, या चेहरा पहचान में आ जाए कि मित्र ही है, मजाक कर रहा है, सपने वापस दौड़ पड़ेंगे। या छुरा न भी हटे, तो एक क्षण को आकस्मिक था, इसलिए आपके भीतर की बंधी हुई धारा को तोड्ने में सफल हुआ। अगर न हटे, तो आप तत्काल सोचने में लग जाएंगे कि अब मैं क्या करूं, कैसे बचूं कैसे भागू क्या जवाब दूं!

खतरे के क्षण में हमें कभी—कभी नैसर्गिक रूप से जागरूकता उपलब्ध होती है, खतरे के क्षण में। और हमने अब जिंदगी ऐसी बना ली है कि उसमें खतरे का कोई ज्यादा क्षण नहीं है। सब तरफ से हमने व्यवस्था कर ली है कि कोई खतरा न हो। इसलिए जागरण का क्षण और भी कम होता जाता है।

अमूढ़ता मैं हूं कृष्‍ण कहते हैं। उसका अर्थ है, जागरूकता मैं हूं। जब भी कोई जागता है भीतर, तभी मैं उपलब्ध हो जाता हूं। जब भी कोई जागता है भीतर, तब वह जागा हुआ व्यक्ति मेरा ही भाग हो जाता है।

ये तीन शब्द खयाल में ले लें, निश्चय करने की शक्ति, तत्वज्ञान, अमूढ़ता मैं हूं।

क्षमा, सत्य, इंद्रियों को वश में करना—दम, और मन का निग्रह— शम, तथा सुख—दुख, उत्पत्ति—प्रलय एवं भय और अभय भी मैं हूं।

इन सूत्रों को भी थोड़ा—सा समझ लें।

क्षमा। थोड़ा कठिन है। कठिन इसलिए कि हम क्षमा से जो अर्थ लेते हैं, वह कृष्ण का अर्थ नहीं है। हो भी नहीं सकता। असल में हमारी और कृष्ण की भाषा एक नहीं हो सकती। और जब भी हम कृष्ण को अपनी भाषा में अनुवादित करते हैं—संस्कृत से हिंदी में नहीं— कृष्ण की भाषा को अपनी भाषा में जब हम अनुवादित करते हैं, तब बुनियादी भूलें हो जाती हैं। जैसे क्षमा, अगर हम पूछें अपने से कि क्षमा का क्या अर्थ है? तो साफ है अर्थ कि अगर किसी पर क्रोध आ जाए तो उसे क्षमा कर देना।

लेकिन कृष्‍ण की भाषा में क्षमा का यह अर्थ नहीं होता। कृष्ण की भाषा में क्षमा का अर्थ होता है, क्रोध का न आना। हमारी भाषा में अर्थ होता है, क्रोध का आना और क्षमा करना। कृष्ण की भाषा में अर्थ होता है, क्रोध का न आना, क्रोध का अभाव। हमारा अर्थ है, क्रोध को लीपना—पोतना।

मुझे आप पर क्रोध आ गया। पीछे पछतावा आता है, फिर मैं क्षमा मांग लेता हूं। तो क्रोध से जो भूल हुई थी, उसे मैं पोंछ देता हूं। एक लकीर गलत पड़ गई थी, उसे काट देता हूं। लेकिन क्रोध हो गया। और यह जो क्षमा है, यह केवल क्रोध को पोंछने का उपाय करती है, नकारात्मक है, निगेटिव है। इस क्षमा का बहुत उपयोग नहीं है। यह तो हम करते रहते हैं। चलता रहता है। अगर इसी क्षमा में अनुभव होता हो परमात्मा का, तो हम सबको हो गया होता। कृष्‍ण का क्षमा से अर्थ है, जहां क्रोध पैदा नहीं होता। जहां क्रोध जन्मता नहीं, जहां क्रोध की घड़ी मौजूद होती है और भीतर क्रोध का कोई रिएक्शन, कोई प्रतिक्रिया पैदा नहीं होती, कोई प्रतिकर्म पैदा नहीं होता।

क्षमा का अर्थ है, वैसी चित्त की दशा, जहां क्रोध व्यर्थ हो जाता है। क्षमा का अर्थ है, चित्त की वैसी भाव—दशा, जहां क्रोध जन्मता ही नहीं।

यह बहुत मजे की बात है कि क्रोध हमें इसलिए जन्मता है— इसलिए नहीं कि लोग क्रोध जन्मा देते हैं— क्रोध हमें इसलिए जन्मता है कि क्रोध हमारे भीतर सदा है। जब कोई आपको गाली देता है, तो आप इस भ्रान्ति में मत पड़ना कि उसने आपमें क्रोध पैदा करवा दिया। क्रोध तो आपके भीतर मौजूद था। उसकी गाली तो केवल उसे बाहर लाने का काम करती है।

जैसे कोई एक बाल्टी को रस्सी में बांधकर कुएं में डाल दे और खींचे और पानी भरकर बाहर आ जाए, तो क्या आप यह कहेंगे कि इस आदमी ने कुएं में पानी भर दिया? यह सिर्फ बाल्टी डालता है, कुएं में जो पानी भरा ही था, वह बाहर निकल आता है। अगर यह आदमी खाली कुएं में, सूखे कुएं में बाल्टी डाले, तो बाल्टी भड़भड़ाएगी, परेशान होगी; खाली वापस लौट आएगी।

आप सबको पता होगा, अगर दो—चार—आठ दिन क्रोध करने का कोई मौका न दे, तो जैसी बेचैनी होती है, वैसी बेचैनी क्रोध करने से भी नहीं होती। मनस्विद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि आदमी को क्रोध करने का मौका न मिले, तो वह मौका खोज लेता है। वह ऐसी बात में से मौका निकाल लेता है, जहां कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि यहां क्रोध की कोई जरूरत है। वह चारों तरफ तलाश में रहता है। वह चारों तरफ अपने आस—पास अज्ञात फीलर्स छोड़ देता है; खोजते रहते हैं कि कहीं जरा मौका मिल जाए और वह क्रोध से भर जाए।

अगर इस आदमी को बंद कर दें तीन महीने एकांत में, तो यह दीवालों से लड़ेगा। यह दीवालों से सिर फोड़ेगा। यह खाली आकाश में गालियां देगा। यह अपने को भी चोट पहुंचा सकता है, अपने को भी मार सकता है। क्रोध अपने पर भी प्रकट कर सकता है।

क्रोध आपकी एक अवस्था है। ध्यान रखें, अगर क्रोध सिर्फ एक प्रतिक्रिया है किसी के द्वारा पैदा की गई, तब तो क्षमा असंभव है। क्रोध आपकी एक अवस्था है, और अगर आप अपने को बदल लें, तो क्षमा भी आपकी अवस्था हो सकती है। और तब कोई आपके भीतर बाल्टी डाले, तो क्षमा भरकर बाहर निकले।

 हम प्रशंसकों को पास रखना पसंद करते हैं। क्योंकि जो हमारे भीतर नहीं है, वह वे बताते रहते हैं। जो हमारे भीतर नहीं है वह! और जो हमारे भीतर है, उसे छिपाते रहते हैं। हम मित्र उनको कहते हैं—नासमझी हमारी हद्द की है—हम मित्र उनको कहते हैं, जो हमारे भीतर नहीं है, उसका हमें दर्शन कराते रहते हैं। और हम शत्रु उनको कहते हैं—नासमझी हमारी हद्द की है— कि जो हमारे भीतर है, उसका दर्शन कराएं, तो हम उन्हें शत्रु मान लेते हैं!

अगर कोई गाली दे और भीतर क्रोध आए, तो उसे धन्यवाद देना कि उसने एक अवसर दिया, एक मौका जुटाया, एक परिस्थिति बनाई, जिसमें आपका क्रोध आपको दिखाई पड़ा। और अगर कोई व्यक्ति गाली देने वाले को भी धन्यवाद दे पाए, तो एक दिन उसके भीतर क्षमा की शक्ति पैदा होगी। वह क्षमा पाजिटिव है। वह क्षमा किसी किए गए क्रोध का पछतावा नहीं है, किसी क्रोध के लिए मांगी गई माफी नहीं है।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप क्रोध करना, तो माफी मत मांगना। यह मैं नहीं कह रहा हूं। लेकिन उस माफी को कृष्‍ण की क्षमा मत समझना। वह हमारे बाजार की क्षमा है। हमारी दुनिया की क्षमा है। वह कारगर है, लुब्रिकेटिंग है, उसका बड़ा उपयोग है।

लेकिन कृष्‍ण की क्षमा कोई और बात है। इस क्षमा में उस अखंड का दर्शन नहीं होगा। अगर क्षमा आपका स्वभाव बन जाए, क्रोध संभव ही न हो, अक्रोध सहज हो जाए। कोई नींद में भी आपको डाल दे आपके भीतर कुछ, तो क्षमा ही बाहर आए। आपके रोएं— रोएं से आशीष ही बहने लगें, आपका कण कण शुभकामना और मंगल से भर जाए, तो क्षमा है।

कृष्ण कहते हैं, क्षमा मैं हूं सत्य मैं हूं इंद्रियों का वश में करना मैं हूं मन का निग्रह मैं हूं।

मन का निग्रह, इंद्रियों को वश में करना— इस संबंध में थोड़ी— सी बात खयाल में ले लें।

एक, व्यापक रूप से गलत धारणा हमारे भीतर है। जब भी हम सोचते हैं, इंद्रियों को वश में करना, तो कोई संघर्ष, कोई युद्ध, कोई लड़ाई, कोई भीतरी कलह का खयाल आता है। जब भी हम सोचते हैं, मन का निग्रह करना, तो कोई जबरदस्ती, कोई दमन, कोई रिप्रेशन करने का खयाल मन में आता है।

वे बड़े गलत खयाल हैं। और जो व्यक्ति भी अपनी इंद्रियों को दुश्मन की तरह वश में करने जाएगा, वह मुसीबत में पड़ेगा। वह मालिक तो कभी न हो पाएगा, विक्षिप्त हो सकता है। और जो व्यक्ति जबरदस्ती अपने मन को ठोक पीट कर वश में करने की चेष्टा में लगेगा, उसका मन विद्रोही हो जाएगा, मन बगावती हो जाएगा; और मन उसे ऐसी जगह ले जाने लगेगा, जहां—जहां वह चाहता है कि मन न जाए। जहां—जहां चाहेगा कि न जाए मन, वहां— वहां जाने लगेगा। जहां—जहां रोकेगा मन, मन वहां—वहां और भी बहने लगेगा। इंद्रियों पर जितनी जबरदस्ती करेगा, उतना ही पाएगा कि ऐंद्रिक और सेंसुअल होता चला जा रहा है।

इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर कोई जबरदस्ती ब्रह्मचर्य को थोपने बैठ जाए, तो उसके चित्त में कामवासना जितनी भयंकर हो जाती है, तूफान ले लेती है, उतना किसी गहरे से गहरे कामी के मन में भी नहीं होती।

आपको पता होगा, अगर किसी दिन उपवास करें, तब आपको पता चलेगा कि भोजन की याद उपवास के दिन ही आती है। ऐसे भोजन की कोई याद आती है! आदमी भोजन कर लेता है और भूल जाता है। आप सड़क पर निकलते हैं, आपको कभी खयाल आया कि आप कपड़े पहने हुए हैं! एक दिन नग्न निकलकर सड़क पर देखें, तब आपको कपड़े ही कपड़े याद आएंगे।

जबरदस्ती किसी चीज को रोका जाए, तो वह स्मृति में गहन हो जाती है। जोर से आती है, प्रगाढ़ हो जाती है। उसका बल, उसकी ताकत बढ़ जाती है।

इंद्रिय—निग्रह या मन—निग्रह जबरदस्तिया नहीं हैं, वैज्ञानिक विधियां हैं। इसे खयाल में ले लें। वैज्ञानिक विधियां हैं। लड़ाई का सवाल नहीं है, समझ का सवाल है। और जो व्यक्ति मन से लड़ेगा, वह कभी मन का मालिक न होगा। जो व्यक्ति मन को समझेगा, वह मन का मालिक तत्काल हो जाएगा। समझ सूत्र है, दमन नहीं।

लेकिन हम लड़ते रहते हैं। एक आदमी को क्रोध आता है, तो वह क्रोध को दबाता है कि क्रोध करना अच्छा नहीं है। शास्त्र में पढ़ा है, गुरुओं से सुना है, क्रोध करना बुरा है। क्रोध आता है; अब वह क्या करे? उसे दबा लेता है। दबाया हुआ और भीतर पहुंच जाता है। दबाया हुआ और रग—रग, रोएं—रोएं में फैल जाता है। दबाया हुआ नये रास्तों से निकलना शुरू हो जाता है। दबाया हुआ धीरे— धीरे स्वभाव में जहर की तरह फैल जाता है।

इसलिए देखें आप, जो आदमी को यह वहम हो कि मैंने क्रोध पर काबू पा लिया है, उसके आप रोएं—रोएं में क्रोध को झलकता हुआ देखेंगे। जिस आदमी को खयाल हो कि मेरा अहंकार बिलकुल समाप्त हो गया है, मैं तो बिलकुल विनम्र हो गया हूं उसकी आंख की झलक में, उसके चेहरे के भाव में, जगह—जगह आप अहंकार की छाप पाएंगे।

जिस आदमी को खयाल हो कि मैंने संसार को लात मार दी है, संसार को छोड़ दिया है, त्याग कर दिया है, उसको अगर आप थोड़ा भी गौर से देखेंगे, तो उसे संसार में इस बुरी तरह फंसा हुआ पाएंगे, जिसका हिसाब नहीं। संसार नहीं होगा उसके चारों तरफ, तो भी फंसा हुआ पाएंगे। क्योंकि एक छोटी—सी लंगोटी भी पूरा साम्राज्य बन सकती है।

जो दबाया जाता है, वह विषाक्त कर देता है।

नहीं; कृष्ण का अर्थ दमन से नहीं है। इसलिए जो दमित करेगा अपने को, वह तो और भी परमात्मा की झलक से दूर हो जाएगा। कृष्‍ण का प्रयोजन है रूपांतरण से, ट्रांसफामेंशन से, एक क्रांति से, जो ज्ञान से संभव होती है।

जिस व्यक्ति को क्रोध के बाहर जाना हो, उसे क्रोध को समझना चाहिए, उसे क्रोध को पहचानना चाहिए। क्रोध ताकत है। जैसे आकाश में बिजली कौंधती है। एक दिन हम उससे डरते थे और घबड़ाते थे। आज वही बिजली प्रकाश देती है। एक दिन आकाश में कौंधती थी, तो हम घुटने टेककर जमीन पर, प्रार्थना करते थे, कि जरूर परमात्मा नाराज है, देवता रुष्ट हैं। आज उस बिजली को हमने बांध दिया। आज कोई आकाश में चमकती बिजली को देखकर घबड़ाता नहीं है, क्योंकि अब हम जानते हैं उस बिजली के विज्ञान को।

क्रोध भी आपके भीतर कौंधती हुई बिजली है। और मजा तो यह है कि आकाश की बिजली को बांधने में हम समर्थ हो गए, आदमी के भीतर की बिजलियां अभी भी गैर—सम्हली पड़ी हैं।

क्रोध शक्ति है। अगर एक बच्चा ऐसा पैदा हो, जिसमें क्रोध हो ही नहीं, तो वह बच्चा जिंदा नहीं रह सकेगा, मर जाएगा। नपुंसक होगा, उसमें बल ही नहीं होगा। क्रोध शक्ति है। लेकिन शक्ति का दुरुपयोग हो सकता है, सदुपयोग हो सकता है। जब कोई उस शक्ति का दुरुपयोग करता है, तो जीवन नर्क हो जाता है। क्रोधी का जीवन शक्ति का दुरुपयोग है। और जब कोई उसी शक्ति का सदुपयोग करता है, तो वही शक्ति क्षमा बन जाती है। और क्षमाशील का जीवन स्वर्ग हो जाता है।

कृष्ण जब कहते हैं, इंद्रियों के निग्रह में मैं हूं मनोनिग्रह में मैं हूं तो उनका अर्थ है कि जो व्यक्ति इंद्रियों को जानकर, इंद्रियों को समझकर, ज्ञान से उनके पार हो जाता है; जो व्यक्ति मन को पहचानकर, मन के प्रति जागरूक होकर, मन के ऊपर उठ जाता है, उसे मेरी झलक मिलनी शुरू।

दमन से नहीं, रूपांतरण से। लड़कर नहीं, जानकर।

यह सूत्र थोड़ा बारीक है। क्योंकि जानने का क्या अर्थ? कभी आपने सोचा है कि आपने क्रोध को जाना? आप कहेंगे, बहुत जाना। रोज जानते हैं! लेकिन फिर भी मैं आपसे कहूंगा, आपने कभी नहीं जाना। क्योंकि जब क्रोध होता है, तब आपका जानना बिलकुल ही नहीं होता है। आपका जानना खो गया होता है। तब आप बिलकुल पागल होते हैं।

क्रोध जो है, वह अस्थायी पागलपन है। उस वक्त होश वगैरह आपके भीतर बिलकुल नहीं होता। उस वक्त आप जो करते हैं, वह आप करते हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। आप से होता है, ऐसा ही कहना ठीक है। क्योंकि क्रोध के बाद आप ही पछताते हैं और कहते हैं कि मेरे बावजूद, इंस्पाइट ऑफ मी, मुझसे हो गया। यह मैं सोचता तो नहीं था कि इस बच्चे को उठाकर खिड़की के बाहर फेंक दूंगा और यह मर जाएगा। यह मैंने सोचा ही नहीं था, लेकिन यह हो गया। यह मैंने किया नहीं है, यह हो गया है। लेकिन फिर किसने किया? क्रोध इतना हावी हो गया था कि आपकी चेतना बिलकुल खो गई थी और आप बिलकुल मूढ़ हो गए थे, सो गए थे, बेहोश थे।

तो आपने क्रोध को कभी जाना नहीं। क्योंकि जब क्रोध होता है, तब आप नहीं होते। और जब आप लौटते हैं, तब तक क्रोध जा चुका होता है। आपकी मुलाकात नहीं हुई है क्रोध से अभी। क्रोध को जानने का, या और वासनाओं को जानने का एक ही उपाय है कि जब क्रोध मौजूद हो, तब आप आंख बंद करें और क्रोध पर। ध्यान करें कि यह क्या है? कैसे उठ रहा है? कहां से आया है? कहां जा रहा है? क्या प्रयोजन है? यह क्या है शक्ति? इसका क्या है रूप? यह क्या करना चाहता है?

लेकिन जब आप क्रोध में होते हैं, तो आपकी नजर दूसरे पर होती है, जिसने क्रोध करवाया। उसी में आप चूक जाते हैं। जब आप क्रोध में हों, तो नजर अपने पर रखें। दूसरे को भूल जाएं, जिसने गाली दी। उससे तो घडीभर बाद भी मुलाकात हो सकती है। लेकिन यह क्रोध जो आपके भीतर है, यह घडीभर बाद नहीं होगा, यह बह गया होगा। फिर इससे मुलाकात नहीं होगी। इस मौके को मत चूके।

मगर हम बड़े होशियार लोग हैं। अगर कोई भला काम करना हो, तो हम कहते हैं, जरा सोचेंगे। बुरा काम करना हो, तो हम बड़े तत्काल! फिर हम कभी नहीं कहते कि सोचेंगे। अगर कोई कहे कि एक दो पैसे दान कर दो, तो हम कहेंगे, सोचेंगे। और कोई एक गाली दे, तो हम कभी नहीं कहते कि जरा सोचेंगे। फिर सोचने का कोई सवाल नहीं है। फिर हम तत्काल! फिर हमसे ज्यादा त्वरा और तीव्रता में और जल्दी में कोई नहीं होता।

यह जल्दी क्या है, आपको पता नहीं। यह जल्दी केमिकल है, यह जल्दी रासायनिक है। वह जहर जो आपके खून में छूटा है, वह कहता है, जल्दी करो! क्योंकि अगर दो क्षण भी चूक गए, तो वह जहर तब तक खून में विलीन हो जाएगा। वह जहर जो आपकी नसों में फैलकर अकड़ गया है, वह कहता है, उठाओ घूंसा और मारो! क्योंकि अगर नहीं मारा, तो यह जहर तो बेकार चला जाएगा।

क्रोध जब हो, तब ध्यान का क्षण समझें। आंख बंद कर लें। बीच सड़क पर भी हों, तो वहीं आंख बंद कर, एक किनारे पर बैठकर ध्यान कर लें कि भीतर क्या हो रहा है! लोग शायद आपको पागल समझें, लेकिन आप पागल नहीं हैं। क्योंकि क्रोध को जो जान लेगा, वह सब पागलपन के ऊपर उठ जाता है। जब कामवासना आपको पकड़े, तब रुक जाएं। ध्यान करें उस पर। उस वासना को पहचानें भीतर से, क्या है? कौन—सी ऊर्जा भीतर उठकर इतना धक्का दे रही है कि आप पागल हुए जा रहे हैं?

तो आप बहुत शीघ्र उस ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे, जिस जान में ये इंद्रिय—निग्रह, मनो—निग्रह सरलता से फलित हो जाते हैं। कृष्‍ण कहते हैं, वह भी मैं ही हूं।

वे कहते हैं, सुख और दुख, उत्पत्ति और प्रलय, भय और अभय भी मैं ही हूं।

इन तीन द्वंद्वों को एक साथ उपयोग करने का प्रयोजन है। हम सब सोचते हैं, हम सबने सोचा है बहुत बार कि परमात्मा आनंद है। लेकिन कभी सोचा है कि परमात्मा दुख भी है? यह सूत्र बहुत खतरनाक है।

कृष्‍ण कहते हैं, सुख भी मैं और दुख भी मैं।

हम सब सोचते हे कि परमात्मा सुख का धाम। परम सुख अगर चाहिए, तो परमात्मा की तरफ जाओ। लेकिन कृष्‍ण कह रहे हैं कि सुख भी मैं और दुख भी मैं! तो क्या वे वेदों की, उपनिषदों की जो परम उक्ति है, सच्चिदानंद की, उसके खिलाफ बोल रहे हैं?

नहीं, उसके खिलाफ नहीं बोल रहे हैं। लेकिन अगर उस तक जाना हो, तो इस सूत्र को मानकर चलने वाला ही उस तक पहुंचता है, जहां परमात्मा मात्र आनंद रह जाता है। इस सूत्र को मानने वाला— सुख और दुख, दोनों में जो परमात्मा को देखता है, वह एक दिन परम आनंद को उपलब्ध होता है।

हम सुख में तो परमात्मा को देख सकते हैं, लेकिन दुख में! दुख में नहीं देख सकते। और जो दुख में नहीं देख सकता, वह समता को उपलब्ध नहीं होगा, शांति को उपलब्ध नहीं होगा। लेकिन जो दुख में भी देख सकता है, वह समता को उपलब्ध हो जाएगा। अगर आपको दुख में भी परमात्मा दिखाई पड़े, तो आप दुख से भागना न चाहेंगे। परमात्मा से कोई भागना चाहता है? अगर दुख में परमात्मा दिखाई पड़े, तो आप प्रार्थना न करेंगे कि दुख से मुझे छुडाओ! क्योंकि परमात्मा से कोई छूटना चाहता है?

और जिसको दुख में भी परमात्मा दिखाई पड़ जाए, उसके लिए फिर कोई दुख जगत में नहीं रह जाएगा। क्योंकि दुख का मतलब ही तभी तक है, जब तक हम उससे बचना चाहते हैं, भागना चाहते हैं। जिस दिन कोई दुख को भी आलिंगन करके गले लगा ले; और जिस दिन दुख को भी कोई कहे कि प्रभु आए द्वार मेरे, स्वागत है; उस दिन फिर कोई दुख नहीं बचेगा। और जिसके जीवन में कोई दुख नहीं बचता, उसके जीवन में सभी कुछ सुख हो जाता है।

हमारे जीवन में दुख से बचने की और सुख को पकड़ने की आकांक्षा होती है। लेकिन परिणाम क्या है? परिणाम इतना है कि दुख ही दुख हो जाता है; सुख तो कहीं मिलता नहीं।

कृष्‍ण कहते हैं, सुख भी मैं, दुख भी मैं; उत्पत्ति भी मैं, प्रलय भी मैं; जन्म भी मैं, मृत्यु भी मैं। सारे द्वंद्व मैं हूं। भय भी मैं, अभय भी मैं। जहां—जहां द्वंद्व दिखाई पड़े, दोनों में मैं ही हूं। ऐसा जो मुझे देखेगा, वह आगे के सूत्रों को समझना और आसान हो जाएगा।

तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति, अपकीर्ति, ऐसे ये जो नाना प्रकार के भाव प्राणियों में होते हैं, वे मेरे से ही होते हैं। और हे अर्जुन, सात महर्षिजन, और चार उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायंभुव आदि चौदह मनु, ये मेरे भाव वाले सब के सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए, जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है।

इस सूत्र का अर्थ है कि जितने भी जानने वाले हुए है अब तक जिन्होंने भी जाना है इस सत्य को, इस जीवन को, वे भी मेरे ही संकल्प थे, मेरे ही भाव थे, वे भी मुझसे अलग नहीं हैं। जिन्होंने भी कभी उस परम अनुभव को पाया है, चाहे वे पहले हुए ऋषि—महर्षि हों, चाहे मनु आदि हों, वे सब भी मेरे ही भाव की अवस्थाएं हैं। कृष्‍ण यह कह रहे हैं कि इस जगत में जो भी श्रेष्ठतम फूल खिलते हैं अनुभव के, वे सब मेरी ही सुगंध से परिव्याप्त हैं। और जब भी कोई अपनी परम दशा में पहुंचता है, तो मुझको ही उपलब्ध हो जाता है।

लेकिन उस परम दशा में वे ही लोग पहुंच पाते हैं, जो द्वंद्व के बीच अपने को समता में ठहरा लेते हैं। जो दो के बीच चुनाव नहीं करते, जो यह नहीं कहते कि हमें सुख चाहिए, दुख नहीं चाहिए। जो कहते हैं, दुख में भी तू है, और सुख में भी तू है। जो यह नहीं कहते कि जन्म तो प्यारा है, जीवन तो प्यारा है, मृत्यु नहीं चाहिए, हमें तो अमर जीवन चाहिए। जो ऐसा नहीं कहते हैं। जो कहते हैं, मृत्यु भी तेरी, जन्म भी तेरा। दोनों हमें प्रीतिकर हैं, क्योंकि दोनों ही तेरे हैं।

इस जगत में जो चुनाव नहीं करते हैं, इस जगत में जो च्चाइसलेस, चुनावरहित जीने के उपक्रम में प्रवेश करते हैं, वे सभी, चाहे किसी काल में हुए हों, वे सभी महर्षिगण, मुझको ही, मेरे ही संकल्प को, मेरे ही भाव को उपलब्ध होते हैं। कहें कि वे मेरे ही भाव के अंश हैं, वे मेरी ही लहरें हैं। लेकिन वे ऐसी लहरें हैं, जो मेरे सागर होने को भी अनुभव कर लेती हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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